मंगलवार, मई 17, 2011

कहां गईं बेटियां ?


उत्तर भूमंडलीकरण दौर में भी महिलाओं के खिलाफ सामाजिक-आर्थिक भेदभाव जारी है   



जनगणना २०११ के प्रारंभिक नतीजे उम्मीदों और आशंकाओं के मुताबिक ही हैं. जैसाकि ऐसी किसी भी बड़ी जनगणना के साथ होता है, इसमें भी कुछ अच्छी ख़बरें हैं, कुछ बहुत अच्छी ख़बरें नहीं हैं और कुछ बहुत निराश और चिंतिंत करनेवाली खबरें भी हैं. यह कुछ हद तक इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप जनगणना नतीजों को कहां खड़े होकर देख रहे हैं?

बड़ी आबादी को देश की सारी समस्याओं की जड़ माननेवाले सरकारी हलकों के लिए ताजा जनगणना के नतीजे अपनी नाकामियों का ठीकरा बढ़ती आबादी पर फोड़ने के एक और मौके की तरह आए हैं.  हमेशा की तरह बढ़ती आबादी को लेकर छाती पीटने का क्रम शुरू हो गया है और देश के भविष्य को लेकर एक से एक भयावह तस्वीर खींची जा रही है.


हालांकि तथ्य यह है कि देश में आबादी बढ़ने की रफ़्तार लगातार कम हो रही है. ताजा जनगणना से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है. इसके मुताबिक, जहां २००१ की पिछली जनगणना में १९९१-२००१ के बीच जनसंख्या की सालाना औसतन वृद्धि दर १.९५ प्रतिशत थी, वहीँ २००१ से २०११ के बीच जनसंख्या की औसतन सालाना वृद्धि दर गिरकर १.६२ प्रतिशत रह गई है.

सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि तमिलनाडु को छोड़कर देश के सभी राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर में कमी दर्ज की गई है. तमिलनाडु में बढ़ोत्तरी की वजह बाहर से आप्रवासन को माना जा रहा है. जनसंख्या की वृद्धि दर में इस गिरावट से साफ है कि आबादी में बढ़ोत्तरी की रफ़्तार कम हो रही है. इसके बावजूद जनसंख्या बम का हौवा खड़ा करनेवाले आबादी को कोसने में लगे हैं.
 

लेकिन दूसरी ओर वे न सिर्फ साक्षरता में वृद्धि के लिए अपनी पीठ ठोंकने में जुटे हुए हैं बल्कि आबादी में युवाओं की बढ़ती तादाद को लेकर जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) के दावे भी कर रहे हैं. यह और बात है कि इस जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठाने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने और युवाओं को बेहतर शिक्षा और मौके मुहैया कराने में उनकी ओर से अब तक कोई खास पहल या गंभीर कोशिश नहीं की गई है. उसके कारण जनसांख्यिकीय लाभांश की स्थिति एक बड़ी दुर्घटना में तब्दील होती दिख रही है.


जनगणना से जनसंख्या वृद्धि दर में कमी और साक्षरता में बढ़ोत्तरी के अलावा एक और कुछ राहत की खबर यह है कि देश की कुल आबादी में महिला-पुरुष यानी लिंग अनुपात में मामूली सुधार हुआ है. ताजा जनगणना के मुताबिक, देश की आबादी में प्रति हजार पुरुषों पर महिलाओं की आबादी २००१ के ९२६ से बढ़कर ९४० हो गई है. १९६१ में भी लिंग अनुपात यही था. हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि लिंग अनुपात में यह सुधार जनगणना में प्रक्रिया में सुधार खासकर महिलाओं की गणना पर अतिरिक्त जोर देने के कारण भी हो सकता है.

लेकिन इस मामूली सुधार के बावजूद तथ्य यह है कि भारत और चीन, दुनिया के दस सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देशों में हैं जहां लिंग अनुपात सबसे बदतर है. इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि लिंग अनुपात के मामले में पड़ोसी देशों नेपाल, बर्मा, बंगलादेश और श्रीलंका और यहां तक कि पाकिस्तान का रिकार्ड भारत से बेहतर है!

यही नहीं, लिंग अनुपात में मामूली सुधार की वजह यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में महिलाएं अपने वजूद को लेकर न सिर्फ अधिक सजग और मुखर हुई हैं बल्कि अपने संघर्षों के कारण प्रतिकूल सामंती और उपभोक्तावादी सामाजिक-आर्थिक ढांचे के भीतर भी अपने लिए स्थितियां कुछ बेहतर कर पाई हैं. उनकी औसत आयु, जीवन और शैक्षिक स्तर में मामूली सुधार हुआ है जिसकी वजह से लिंग अनुपात में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है.

इसके बावजूद यह एक कड़वी सच्चाई है कि उत्तर भूमंडलीकरण और उदारीकरण के पिछले दो दशकों में कई मामलों में महिलाओं की स्थिति बदतर हुई है. उनके खिलाफ हिंसा और अपराध के मामले बढ़े हैं. खाप पंचायतों के बर्बर हमले बढ़े हैं और खाप मानसिकता के असर से शहर और आधुनिक मध्यवर्गीय परिवार भी अछूते नहीं बचे हैं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले एक दशक में देश में महिला-पुरुष अनुपात में मामूली सुधार के बावजूद हैरान करनेवाली खबर यह है कि देश में सुशासन के माडल माने जानेवाले राज्यों गुजरात और बिहार के अलावा सिर्फ जम्मू-कश्मीर में महिला-पुरुष अनुपात पहले की तुलना में और बिगड़ा है.

यही नहीं, गुजरात एकमात्र राज्य है जहां ९० और २१ वीं सदी के पहले दशक में लगातार महिला-पुरुष अनुपात में गिरावट दर्ज की गई है. २०११ में गुजरात में महिला-पुरुष अनुपात ९२० रह गया है और बाल लिंगानुपात के मामले में यह सिर्फ ८८६ है. क्या इसके लिए नरेंद्र मोदी की भगवा पुरुषत्वपूर्ण राजनीति जिम्मेदार है? कहना मुश्किल है लेकिन निश्चय ही, इसके लिए गुजरात की मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है.


लेकिन इस जनगणना से सबसे चौंकानेवाली खबर यह है कि छह वर्ष से कम के आयु वर्ग में लड़कों की तुलना में लड़कियों की जनसंख्या में गिरावट का क्रम जारी है. जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, ०-६ वर्ष के आयुवर्ग में प्रति एक हजार लड़कों पर लड़कियों की संख्या १९९१ के ९४५ से घटते हुए २००१ में ९२७ और अब २०११ में ९१४ रह गई है. उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में माना जाता है कि बाल लिंगानुपात का कम से कम ९५० होना चाहिए.

लेकिन भारत में बाल लिंगानुपात १९६१ के ९७६ के स्तर से लगातार नीचे जा रहा है. इसका अर्थ यह हुआ कि १९६१ से १९९१ के बीच तीस वर्षों में प्रति एक हजार बेटों पर ३१ बेटियों कम हो गईं. लेकिन चिंता की बात यह है कि आर्थिक उदारीकरण के पिछले बीस वर्षों में प्रति एक हजार बेटों पर और ३१ बेटियां गुम हो गईं. साफ़ है कि तेज आर्थिक वृद्धि दर के इस दौर में बेटियां और भी अवांछित होती जा रही हैं.

जारी... 

1 टिप्पणी:

सुनील अमर ने कहा…

आनंद जी, प्रसिद्द मेडिकल पत्रिका '' लांसेट'' का कहना है कि देश में प्रति वर्ष 50,000 कन्या-भ्रूण हत्याएं होती हैं.जिस जनगड़ना की आपने चर्चा की है, उसी से यह भी पता चलता है कि देश के जो राज्य सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लिंग अनुपात सबसे ज्यादा वहां ही ख़राब है. मसलन पंजाब के जो इलाके ज्यादा समृद्ध हैं वहां प्रति हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या मात्र 300 पाई गयी है ! यह हमारे सरकारी तंत्र की विफलता है कि आज पोर्टेबुल अल्ट्रासाउंड मशीनों को सायकिल पर रख कर गली-गली घूमकर महज़ 500 रूपये में लिंग परिक्षण किया जा रहा है ! सोचने वाली बात यह है कि निर्धनों में आज भी सबसे बढ़िया लिंग अनुपात है.ऐसे में यह कल्पना करना कि पढ़-लिख लेने से इस कुरीति के प्रति जागरूकता आ जाएगी, हास्यास्पद ही लगता है.हमारे कानून इस दिशा में बहुत ही लचर हैं और उनका क्रियान्वयन तो ख़ैर....! बालिकाओं को paryapt सरकारी संरक्षण मिले बगैर इस बीमारी का इलाज नही हो सकता.