मंगलवार, सितंबर 28, 2010

किसका मीडिया, कैसा मीडिया

पार्ट:दो

कारपोरेटीकरण से एकाधिकार की ओर बढती मीडिया कम्पनियां

मीडिया समूहों/घरानों के कारपोरेटीकरण इस प्रक्रिया के कुछ खास पहलू हैं जिन्होंने मीडिया घरानों/ समूहों की संरचना और उसके प्रबंधकीय ढांचे को बहुत गहरे प्रभावित किया है। इसका सीधा असर उनके कंटेंट पर भी पड़ा है। इसलिए इस प्रक्रिया और मीडिया खासकर अखबार और टी.वी उद्योग में आये परिवर्तनों को समझना बहुत जरूरी है। मीडिया के कारपोरेटीकरण की इस प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पहलू उसके स्वामित्व के रूप में आया बदलाव है।

जहां 80 के दशक तक एच.टी, टी.ओ.आई और इक्का-दुक्का अन्य अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबार घराने या समूह छोटी या मझोली पूंजी के उपक्रम थे और उनका मालिकाना एक परिवार तक सीमित था, वहीँ 90 के दशक में इस उद्योग में बड़ी पूंजी पूंजी का प्रवेश शुरू हुआ। इसके साथ ही अखबार के प्रबंधन में प्रोफेशनल मैनेजरों का प्रवेश हुआ और मार्केटिंग की भूमिका बढ़ने लगी। असल में, टी.ओ.आई में यह प्रक्रिया 80 के दशक के आखिरी वर्षों में काफी हद तक पूरी हो चुकी थी।


टी.ओ.आई की व्यवसायिक सफलता ने सभी अखबार समूहों को चौंका दिया था। टी.ओ.आई ने समीर जैन के नेतृत्व में संपादकों की कीमत पर प्रोफेशनल मैनेजरों को महत्व देकर और आक्रामक मार्केटिंग के जरिये आर्थिक सफलता के नए मानदंड बनाने शुरू कर दिए थे। इसने अन्य अखबार घरानों/समूहों को भी इस रणनीति की नक़ल करने के लिए प्रोत्साहित किया।

जल्दी ही कई अखबार समूह/घराने छोटी-मंझोली पूंजी के कुटीर/छोटे उद्योग से बड़ी पूंजी के मैनेजरों और मार्केटिंग से चलनेवाले उद्योगों में बदलने लगे। कई अख़बार घराने/समूह पूंजी जुटाने के लिए शेयर बाज़ार में उतरने लगे। अखबार समूहों में शेयर बाज़ार में उतरने की प्रेरणा टी.वी कंपनियों के बाज़ार से जमकर पैसा जुटाने और उसे विस्तार में लगाने से आई।

आज अधिकांश बड़ी टी.वी कम्पनियां- टी.वी टुडे, टी.वी-18, एन.डी.टी.वी, जी टी.वी, यू.टी.वी, बैग फिल्म्स, सन टी.वी, आदि शेयर बाज़ार में लिस्टेड हैं। उनकी सफलता ने अखबार समूहों को भी शेयर बाज़ार में उतरने के लिए ललचाया। नतीजा 90 के दशक के आखिरी वर्षों में एच.टी, डेक्कन क्रॉनिकल, मिड डे, जागरण प्रकाशन आदि ने और अब 2009 में भास्कर समूह ने शेयर बाज़ार में उतरकर कारपोरेटीकरण की इस प्रक्रिया को उसके तार्किक नतीजे तक पहुंचा दिया है।

असल में, शेयर बाज़ार में उतरना और वहां से पैसा जुटाना कोई मामूली बात नहीं है। बाज़ार में लिस्टेड कंपनी होने के बाद उसपर बाज़ार के कई घोषित-अघोषित नियम लागू होने लगाते हैं। कंपनी के प्रबंधन में कई बदलाव होते हैं। कम्पनी को खुद को बाज़ार की जरूरतों के अनुसार ढालना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह कि लिस्टेड कंपनी पर हमेशा अपने निवेशकों को अधिक से अधिक मुनाफा देने का दबाव होता है।

जाहिर है कि अब अखबार या टी.वी कम्पनियां छोटी पूंजी नहीं बल्कि बड़ी पूंजी का खेल हो गई हैं। इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आज कई बड़ी मीडिया कम्पनियां हजारों करोड़ की कम्पनियां हैं जिसमें देशी और विदेशी निवेशकों का पैसा लगा हुआ है. उदाहरण के लिए 24 सितम्बर’10 को जब मुंबई शेयर बाज़ार का सूचकांक २०००० अंको से ऊपर बन हुआ, उस समय शेयरों की कीमत के आधार पर जागरण प्रकाशन 3779 करोड़ रुपये की कंपनी थी जबकि हिंदुस्तान टाइम्स समूह(एच.टी मीडिया) 3732 करोड़ रुपये की कंपनी थी जबकि हाल में ही हिंदी प्रकाशनों को अलग करके शुरू की गई कंपनी हिन्दुस्तम मीडिया करोड़ 1378 रूपये की कंपनी। इसी तरह, बाज़ार पूंजीकरण के हिसाब से सन टी.वी 20403 करोड़ रूपये, जी नेटवर्क 14476 करोड़ रुपये, डेक्कन क्रानिकल 3227 करोड़ रुपये, आई.बी.एन 18 ब्राडकास्ट 2942 करोड़ रुपये, जी न्यूज 410 करोड़ रुपये, टी.वी-18 1696 करोड़ रुपये, एन.डी.टी.वी 723 करोड़ रुपये और टी.वी टुडे 487 करोड़ रुपये की कंपनी हो गई हैं जिनमें देशी और विदेशी दोनों ही निवेशकों का पैसा लगा हुआ है।

इन निवेशकों की मांग अधिक से अधिक मुनाफे की होती है। अगर ये कम्पनियां अपेक्षित मुनाफा नहीं देंगी तो निवेशक शेयर बेचकर निकालने लगेंगे। इससे कंपनी के शेयरों के भाव गिर जायेंगे और उसका पूंजीकरण भी नीचे आ जायेगा। ऐसी स्थिति में इन कंपनियों के लिए बाज़ार से पैसा उठाने में दिक्कत आ सकती है। जाहिर है कि इस कारण सभी मीडिया कंपनियों पर अपना मुनाफा दोगुना-चौगुना करने का दबाव बना रहता है।

इसलिए अपने देशी-विदेशी निवेशकों के अधिक से अधिक मुनाफे की मांग को पूरा करने के लिए अखबार और टी.वी कंपनियों का प्रबंधन मार्केटिंग के सभी आक्रामक तौर तरीके और कथित "इनोवेटिव" (पेड कंटेंट, प्राइवेट ट्रीटी, मीडिया नेट आदि स्कीम ) रणनीति आजमा रहा है। इन स्कीमों के जरिये पत्रकारिता की सभी नैतिकताओं, मूल्यों और परम्पराओं की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। चुनावों में पार्टियों और उम्मीदवारों से पैसा लेकर "खबरें" छपी जा रही हैं। पाठकों के साथ विश्वासघात किया जा रहा है क्योंकि उन्हें पता नहीं है कि चुनाव कि जो रिपोर्ट वह पढ़ रहे हैं, वह वास्तव में किसी प्रत्याशी या पार्टी से पैसा लेकर लिखी गई है।

इसी तरह, टाइम्स आफ इंडिया और दूसरे कई अखबारों और चैनलों ने कंपनियों से पैसा लेकर बिना अपने पाठकों/दर्शकों को बताये कंपनियों के अनुकूल रिपोर्टें छाप और दिखा रहे हैं। यह बीमारी यहां तक फ़ैल गई है कि कुछ अखबार और चैनल अन्य कंपनियों के कुछ प्रतिशत शेयर लेकर बदले में उन्हें "प्रोमोट" करने के वास्ते उनके विज्ञापन छापने से लेकर उनके पक्ष में सकारात्मक "खबरें" चाप और दिखा रहे हैं। इसे वे "प्राइवेट इक्विटी" स्कीम कहते हैं। आश्चर्य नहीं कि इस मंदी में भी अधिकांश मीडिया कंपनियों के मुनाफे में छलांग दिखाई पड़ रही है।

लेकिन बड़ी पूंजी और उसके साथ आयी आक्रामक मार्केटिंग के बढ़ते दबदबे के कारण जहां कुछ समाचारपत्र समूहों (जैसे टाइम्स समूह, एचटी, जागरण, भास्कर, डेक्कन क्रॉनिकल आदि) ने बाजार में अपनी स्थिति मजबूत की है, वहीं कई बड़े, मध्यम और छोटे समाचारपत्र समूहों (जैसे आज, नयी दुनिया, देशबंधु, प्रभात खबर, पॉयनियर, अमृत बाजार पत्रिका, एनआइपी, स्टेटसमैन आदि) के सामने अपना अस्तित्व बचाए रखने या होड़ में टिके रहने का संकट पैदा हो गया है। कुछ और बड़े और माध्यम आकार के अखबार समूहों (जैसे अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, नवभारत (म.प्र.), ट्रिब्यून, इंडियन एक्सप्रेस आदि) पर अपने मजबूत प्रतिद्वंद्वियों के बढ़ते दबाव का असर साफ देखा जा सकता है।

स्थिति यह हो गई है कि समाचारपत्र उद्योग में जारी तीखी प्रतियोगिता और बड़ी पूंजी के बढ़ते दबाव के कारण छोटे और मंझोले अखबारों के लिए इस होड़ में टिकाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। छोटे और मंझोले अखबार प्रतियोगिता से किस तरह बाहर हो रहे हैं, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश भर में सिर्फ 14 बड़े समाचारपत्र समूह कुल प्रसार यानि सर्कुलेशन का दो-तिहाई और कुल राजस्व का तीन-चौथाई हड़प जा रहे हैं जबकि बाकी सैकड़ों अखबारों और पत्रिकाओं को बचे हुए 25 प्रतिशत में काम चलाना पड़ रहा है। अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि उनका क्या होगा?

 संकेत साफ हैं। आनेवाले वर्षों में समाचारपत्र उद्योग में कई बड़े उलटफेर देखने को मिल सकते हैं। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि बड़ी पूंजी के दबाव में छोटे और मंझोले खिलाड़ी प्रतियोगिता से बाहर हो जाएंगे। कुछ बड़े अखबार या मीडिया समूहों का दबदबा और बढ़ेगा। समाचारपत्र उद्योग में अधिग्रहण और विलयन (खरीद-बिक्री और आपसी गठबंधन) की प्रक्रिया तेज होगी। इस तरह समाचारपत्र उद्योग में कंसोलिडेशन बढ़ेगा और एक शहर से प्रकाशित होनेवाले कई समाचारपत्रों वाली विविधता और बहुलता की स्थिति नहीं रह जाएगी।

जारी...

1 टिप्पणी:

pooja nagar ने कहा…

dhanywad sir, aapke is aricle ne meri media management ki samajh ko bhadaya aur financial complications ko bhi. kisi bhi sector mein monoply ka sabse jyada nuksan aam logo ko hota hai kyonki uske pas koi substitute ya option nahi rahata aur use jo available hai use hi sach aur sahi manana padta hai.media mein bhi aisa hi hai yadi monoply hogi to yeh tay karna muskil ho jayega ki kya sahi aur sach hai.
plz.mujhe "media net scheme" ke bare mein vistar se bataye.i havnt any idea regarding this.
pooja nagar
HJ-06-07