शनिवार, सितंबर 25, 2010

किसका मीडिया, कैसा मीडिया?

पार्ट:एक


यह कंपनियों का, कंपनियों के लिए और कंपनियों द्वारा मीडिया है जिसे आम आदमी में नहीं, उपभोक्ताओं में दिलचस्पी है

ह वाकया मार्च 2007 का है। देश की राजधानी में शहीद भगत सिंह के शहादत दिवस 23 मार्च को सी.पी.आई (एम.एल) ने एक रैली का आयोजन किया था। इस रैली में देश के अलग-अलग इलाकों से एक लाख से अधिक लोग आये थे और पूरा रामलीला मैदान खचाखच भरा हुआ था। यह रैली यू.पी.ए सरकार की अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने घुटनाटेकू रवैये और नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ गरीब और मेहनतकश लोगों की आवाज़ बुलंद करने के लिए बुलाई गई थी। लेकिन उस शाम एकाध अपवादों को छोड़कर 24 घंटे के उन दर्ज़नों चैनलों में से किसी ने इस रैली को खबर लायक नहीं माना।

जिन चैनलों के लिए कमिश्नर के कुत्ते का गायब होना, राखी सावंत की सगाई या अमिताभ बच्चन को सर्दी-जुखाम होना ब्रेकिंग न्यूज लगता है, उनके लिए दिल्ली में लाखों गरीबों का आना और अपनी आवाज़ बुलंद करना कोई खबर नहीं थी। आप कह सकते हैं कि तमाम बेसिर-पैर की "खबरें" दिखाने वाले चैनलों से और क्या उम्मीद की जा सकती है?

लेकिन अगले दिन 'द हिन्दू' जैसे एकाध अपवादों को छोड़कर दिल्ली के तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों में भी इस रैली के बारे में एक लाइन की भी खबर नहीं थी। ऐसा लगा कि जैसे दिल्ली में कल रैली जैसी कोई चीज़ हुई ही न हो। क्या यह सिर्फ एक संयोग था? जी नहीं, यह कोई संयोग नहीं था। यह एक सुनियोजित ब्लैकआउट था। इस ब्लैक आउट में साफ तौर पर एक पैटर्न देखा जा सकता है। यह पहली घटना नहीं थी और न ही ऐसा सिर्फ सी.पी.आई एम.एल की रैली के साथ हुआ था। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं।

सबसे ताजा उदाहरण है 2009 के नवम्बर में दिल्ली में प्रदर्शन करने आये गन्ना किसानो की रैली के साथ राष्ट्रीय मीडिया खासकर अंग्रेजी अखबारों और चैनलों का व्यवहार। दिल्ली के सबसे बड़े अखबार होने का दावा करनेवाले दोनों अंग्रेजी अख़बारों ने अपने कवरेज में इस बात पर सबसे अधिक जोर दिया कि कैसे किसानो की इस भीड़ ने दिल्ली में जाम लगा दिया और इससे दिल्लीवालों को कितनी तकलीफ हुई? यह भी कि किसानो की यह भीड़ कितनी अनुशासनहीन थी और उसने किस तरह से शहरियों के साथ बदतमीजी की, शहर को गन्दा किया और तोड़फोड़ करके चले गए। गोया किसान न हों बल्कि तैमूरलंग की सेना ने दिल्ली पर आक्रमण कर दिया हो।

ये दोनों ही घटनाएँ अपवाद नहीं हैं। पिछले डेढ़-दो दशकों में ऐसी सैकड़ों घटनाएँ हुई हैं जिनमें कार्पोरेट मीडिया ने इसी तरह दिल्ली आनेवाले गरीबों, खेतिहर मजदूरों, भूमिहीनों, दलितों, आदिवासियों और विस्थापितों के प्रदर्शनों को नज़रंदाज किया है या फिर उन्हें दिल्ली की शांति और यातायात व्यवस्था के लिए समस्या के बतौर पेश किया है। इन रिपोर्टों को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे प्रदर्शन करना या धरना देना या फिर अपनी आवाज़ उठाना कोई गुनाह हो।

हालांकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अपनी बात कहने और धरना, प्रदर्शन और रैली का अधिकार नागरिकों का बुनियादी अधिकार है लेकिन ऐसा लगता है कि कार्पोरेट समाचार माध्यमों का लोकतंत्र में विश्वास नहीं है या कम से कम वे गरीबों को यह अधिकार देने के लिए तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि बिना किसी अपवाद के गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों के प्रदर्शनों को अनदेखा किया जाना जारी है।

यह एक अघोषित सा नियम बन गया है। एक बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत इस तरह के विरोध प्रदर्शनों और रैलियों को अनदेखा किया जाता है। यही नहीं, आमतौर पर गरीबों और हाशिये पर पड़े लोगों की रैलियों, धरनों, आंदोलनों और प्रदर्शनों की कभी भी तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग नहीं होती है। कभी भी उनके मुद्दों और सवालों को सही परिप्रेक्ष्य और तथ्यों के साथ रिपोर्ट नहीं किया जाता है। मजदूर आंदोलनों को बिलकुल ब्लैक आउट किया जाता है।

अखबारों या चैनलों को पढ़कर या देखकर पता नहीं चल सकता है कि श्रमिकों की क्या स्थिति है? दिल्ली के ही अखबारों और चैनलों को ले लीजिये, जब तक हिंसा या कोई बहुत बड़ी घटना न हो जाए, श्रमिकों की समस्याओं और संघर्षों के बारे में एक पंक्ति की खबर नहीं होती है। जबकि दिल्ली के आसपास नोएडा, साहिबाबाद, गुडगाँव आदि में हजारों फैक्टरियां हैं और उनमें लाखों मजदूर काम करते हैं।

लेकिन किसी अख़बार या चैनल में श्रम बीट को कवर करने के लिए कोई रिपोर्टर नहीं है। कार्पोरेट मीडिया को यह विषय रिपोर्टिंग के लायक नहीं लगता है। इसमें एक साफ पूर्वाग्रह झलकता है। इस पूर्वाग्रह को श्रमिकों-प्रबंधन के विवादों में खुले तौर पर देखा जा सकता है जिसमे कार्पोरेट मीडिया ने खुलकर प्रबंधन का साथ दिया है। नोयडा में इतालियन कंपनी ग्रोज़ियानो के जी.एम की मौत का मामला हो या कोयम्बतूर में एच.आर मैनेजर की मौत या फिर गुड़गांव में होंडा की फैक्ट्री में हड़ताल - मीडिया ने वस्तुतः यूनियनों के खिलाफ एक मुहिम सी छेड़ दी है। अगर उनका वश चले तो वे यूनियनों को प्रतिबंधित करवा दें।

लेकिन मसला केवल दिल्ली के कार्पोरेट मीडिया तक ही सीमित नहीं है। अब मुख्यधारा के समाचार मीडिया में चाहे वह अखबार हों या समाचार चैनल- लगभग हर जगह श्रमिकों, गरीबों, कमजोरों, दलितों, आदिवासियों और विस्थापितों के संघर्षों और जनान्दोलनों से लेकर सामंती अत्याचारों, पुलिस जुल्म और मानवाधिकार हनन जैसे मुद्दों के लिए कोई जगह नहीं है या फिर बहुत कम जगह है। वह जगह भी अंदर के पृष्ठों पर और न्यूनतम महत्व के साथ मिल पाती है। 1977 में इमरजेंसी के बाद मिली नई आजादी के बीच 80 के दशक में मुख्यधारा के अखबारों और पत्रिकाओं ने ऐसे सवालों और मुद्दों को काफी जगह दी।

उस समय फील्ड रिपोर्टिंग खासकर गरीबों, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की समस्याओं और उनके सामंती-पुलिसिया उत्पीड़न की जमीनी रिपोर्टों को खासी जगह और महत्व दिया गया। हालांकि गरीबों के संघर्षों और जनांदोलनों को लेकर मुख्यधारा के समाचार मीडिया में प्रेम तब भी नहीं था बल्कि उलटे मीडिया के एक हिस्से में ऐसे संघर्षों को "नक्सली" बताकर उनके दमन को जायज ठहराने की कोशिश भी की जाती थी लेकिन इसके बावजूद लोकतान्त्रिक और कई बार गैर संसदीय संघर्षों और जनान्दोलनों को भी अनदेखा नहीं किया जाता था।

यहां तक कि ऐसे संघर्षों और जनान्दोलनों को कई अखबारों और पत्रिकाओं में कुछ सहानुभूतिपूर्ण कवरेज भी मिल जाती थी। मुख्यधारा के कई अखबार और पत्रिकाएं खुद को ऐसे संघर्षों से जोड़ने में भी रूचि लेते थे और इन आंदोलनों से जुड़े कार्यकर्ताओं की रिपोर्टें छापने से लेकर उन्हें अखबार में नौकरी देने में भी संकोच नहीं करते थे। अखबार की विचारधारा चाहे जो हो लेकिन गरीबों और उनके जनसंघर्षों के पुलिसिया उत्पीड़न और जुल्मों खासकर मुठभेड़ हत्याओं की रिपोर्टें जरूर छपती थीं।

कुलमिलाकर, अखबारों और पत्रिकाओं में सीमित दायरे में ही सही लेकिन न्याय, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक बराबरी और गरीबों के हक़-हकूक के लिए खड़ा होने और जनान्दोलनों के प्रति सकारात्मक रूझान दिखता था। शायद यह एक महत्वपूर्ण कारण था कि उस दौर में नक्सली आन्दोलन से लेकर जयप्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन तक के दर्ज़नों युवा कार्यकर्ता अख़बारों और पत्रिकाओं में काम करने पहुंचे। उन्होंने अपनी रिपोर्टों से इन अखबारों और पत्रिकाओं को एक नई पहचान और धार दी।

हालांकि मुख्यधारा के अखबारों और पत्रिकाओं में इसके समानांतर एक प्रतिष्ठानी और सत्ता समर्थक पत्रकारिता तब भी ताकतवर और उसकी मुख्यधारा थी लेकिन उसमें भी हाशिये के लोगों की आवाज़ के लिए जगह थी। यह भी सच है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता के चरित्र में बदलाव की शुरुआत 80 के दशक के मध्य से ही हो गई थी। इसके लिए एक साथ कई कारक जिम्मेदार थे। एक, भारतीय राजनीति में राजीव गाँधी के उदय के साथ नई आर्थिक नीति के कंधे पर चढ़कर उपभोक्तावाद का प्रसार हुआ। इसमे टी.वी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी। दूसरे, ठीक इसी समय आर.एस.एस-बी.जे.पी के नेतृत्व में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के बहाने एक जहरीला सांप्रदायिक अभियान भी चला जिसमें हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओँ के कई अखबार भी शामिल हो गए।

इसके साथ ही अखबारों और पत्रिकाओं में साफ तौर पर एक दक्षिणपंथी रूझान दिखने लगा। इस रूझान को देश के सबसे बड़े मीडिया समूह टाइम्स आफ इंडिया ( बेनेट कोलमैन कंपनी) की कमान मालिकों की नई पीढ़ी के प्रतिनिधि समीर जैन के हाथों में पहुंचने से और मजबूती मिली। इसमें कोई दो राय नहीं है कि समीर जैन ने न सिर्फ टाइम्स आफ इंडिया को बदल दिया बल्कि पूरे समाचारपत्र उद्योग के चरित्र को बदल दिया।

असल में, आज अखबारों और चैनलों के चरित्र में जो बदलाव दिखाई पड़ रहा है, उसकी शुरुआत 80 के दशक के उत्तरार्द्ध में ही हो गई थी। इसे और तेज गति 1991 के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों से मिली. इन आर्थिक सुधारों के साथ भारतीय मीडिया के कारपोरेटीकरण की शुरुआत हुई।....
जारी...

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश द्वारा सम्पादित पुस्तक "उदारीकरण के दशक" में छपे मेरे आलेख का संक्षिप्त-सम्पादित हिस्सा...अभी तीन किस्तें और आनी हैं...इंतजार कीजिये और हाँ, आपकी टिप्पणियों का इंतजार रहेगा.)

5 टिप्‍पणियां:

aazadi ने कहा…

मीडिया के स्वरुप में लगातार हो रहे परिवर्तन पर काफी अच्छी समझ बनाने का मौका इस लेख से हासिल हो रहा है. आने वाली किस्तों का भी इंतजार है. आग्रह है की भारतीय जनसंचार संस्थान के नए छात्रों को इस सन्दर्भ में अच्छी तरह से अवगत कराया जायेगा. ताकि अगर वो इस समस्या के लिए कुछ कर भले ही न पायें, लेकिन अनजान तो नही रहें. शुक्रिया.

Rakesh Shekhawat ने कहा…

चोथे-स्तम्भ का यह हाल है तो औरो से क्या आश है? आपके विचारो से पूर्णतया सहमत।

Unknown ने कहा…

it was really wonderful when thousands of shikshamitras demonstrated the shaheed park in Lukhnow and beat the police force after their laathicharge on 14th Sep.

pooja nagar ने कहा…

article ke liye dhanyawad sir. agli kist ka besabri se intazaar hai.
sir aapki baat lakh taka sahi hai ki aaj media aam logo ke liye nahi balki customers ke liye hai aur mera to manana yeh ki wo apne customers se bhi daga kar raha hai unahe gumrah karke aur ghatna ka sirf ek hi paksh dekar jisase ki wo khud sahmat hai.
aur yahi karan hai ki ab media ne apna wo viswas kho diya hai jo ki kabhi hua karta tha.HINDU jaise akhbar se kuch ummide rahti hai aur to vikalp milna bhi muskil ho gaya hai.
pooja nagar
HJ.06-07

नई राह ने कहा…

bilkul shai kha aapne rajiv gandhi ke samy hi badlav ki lehar bazar ki or chal padi thi joki aaj ptrkarita kam sirf bazar ka madhyam jada lgta hai...