गुरुवार, दिसंबर 31, 2009
आप सभी को नए साल की बधाइयाँ और शुभकामनाएं देते हुए एक छोटी सी सूचना भी देनी थी..नए साल की कई योजनाओं में एक योजना यह भी है कि अब नियमित रूप से ब्लॉग पर भी लिखना है...हालाँकि साल की शुरुआत की प्रतिज्ञाओं का क्या होता है, वह मुझे अच्छी तरह से पता है। देखें इस बार क्या होता है? वैसे इरादा पक्का है।
जैसाकिआप जानते हैं अभी तक मेरे दो विद्यार्थी - रितेश और उनके बाद हिमांशु इस ब्लॉग को चला रहे थे..वे मेरे अख़बारों में छपे लेखों को ब्लॉग पर भी डाल दिया करते थे। मैं खासकर रितेश का बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने काफी दिलचस्पी लेकर यह ब्लॉग शुरू करवाया और नियमित रूप से मेरे लेखों को इस पर डालते रहे..उनके व्यस्त होने के बाद यह जिम्मेदारी हिमांशु उठा रहे थे।
लेकिन मैं खुद बहुत दिनों से सोच रहा था कि मुझे ब्लॉग पर कुछ नियमित और स्वतंत्र रूप से भी लिखना चाहिए..लेकिन कुछ आलस्य, कुछ झिझक, कुछ टाइपिंग न जानने और कुछ व्यस्तताएं- ब्लॉग पर अपना लिखना नहीं हो पाया..लेकिन अब कोशिश रहेगी कि ब्लॉग पर नियमित रूप से कुछ लिखा करूँ।
आप सभी की राय की प्रतीक्षा रहेगी और हाँ, शुभकामनाओं की भी...आखिर हम भी तो देखें कि ब्लॉगिंग का आनंद क्या है? और यह भी कि क्या यह कुछ गंभीर बहसों और चर्चाओं का मंच बन सकता है?
शनिवार, दिसंबर 26, 2009
- आनंद प्रधान
असल में, झारखंड के मतदाताओं के पास इसके अलावा कोई वास्तविक विकल्प नहीं था. उनके पास जो विकल्प उपलब्ध थे, उनमें से सभी को वे आजमा चुके हैं और उनकी असलियत से परिचित हैं. यह तो नतीजों से साफ है कि वे इनमें से किसी को झारखंड की सत्ता सौंपने के लिए तैयार नहीं थे. इसमें जनता का कोई दोष नहीं है. आखिर वह और क्या कर सकती थी? वह मौजूदा दलों और गठबन्धनों में किसे और किस आधार पर बहुमत देती? झारखंड में सार्वजनिक सम्पदा और धन की लूट की राजनीति में मुख्यधारा के किस दल और गठबंधन का दामन साफ है? सच तो यह है कि झारखंड के इस हम्माम में सभी नंगे हैं. इसलिए जब नंगों के बीच ही चुनाव का विकल्प हो तो आम मतदाताओं की कठिनाई को आसानी से समझा जा सकता है.
सच यह है कि मुख्यधारा की बड़ी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने झारखंड के मतदाताओं को नए नारों और वायदों से छलने की कोशिश की जिसे लोगों ने नकार दिया. आज जो त्रिशंकु विधानसभा बनी है, उसके लिए मतदाता नहीं बल्कि झारखंड के नेता और पार्टियां जिम्मेदार हैं. क्या यह सोचने की बात नहीं है कि झारखंड में सत्ता की दावेदारी कर रही दोनों प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों- कांग्रेस और बी.जे.पी को लोगों ने राज्य की आधी सीटों के लायक भी नहीं समझा है? दोनों ही पार्टियों को राज्य की कुल विधानसभा सीटों में से लगभग एक तिहाई सीटें ही मिल पाई हैं. साफ है कि झारखंड के मतदाताओं ने इन दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नकार दिया है. उन्हें शासन का जनादेश तो कतई नहीं मिला है. यह उनके लिए सबक है.
ऐसे ही क्षेत्रीय दलों जैसे शिबू सोरेन के नेतृत्ववाली झामुमो, बाबूलाल मरांडी की झाविमो, लालू प्रसाद की आर.जे.डी को भी मतदाताओं ने अपने विश्वास के लायक नहीं पाया. यही कारण है कि ये तीनो भी मिलकर एक तिहाई के आसपास ही सीटें जीत पाए हैं. यह क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी सबक है. यही नहीं, जहां तक संभव हो सका मतदाताओं ने अपने मौजूदा विधायकों को भी सबक सिखाने कि कोशिश की है. पिछली विधानसभा के 81 में से सिर्फ 20 "माननीय" विधायक ही दोबारा चुनाव जीत कर वापस लौट पाए हैं. साफ है कि मौजूदा स्थितियों में झारखंड के मतदाता जो कर सकते थे, उन्होंने वह किया है. उन्होंने सबको सबक सिखाने की कोशिश की है.
असल में, यह सबक से ज्यादा पूरे राजनीतिक वर्ग को एक गंभीर चेतावनी है. उन्हें इस जनादेश में छिपे उस अविश्वास को जरूर पढ़ना चाहिए जो झारखंड की जनता ने उनके प्रति व्यक्त किया है. यह जनादेश बताता है कि झारखंड में मुख्यधारा के राजनीतिक दल और नेता जनता की उम्मीदों की कसौटी पर विफल हो गए हैं. उनके कारण ही वह राज्य जो जनता के लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों के बाद बना, अब एक "विफल राज्य" बनता जा रहा है. विकास और गवर्नेंस के किसी भी सूचकांक पर देख लीजिये, अलग राज्य बनने के बाद झारखंड आगे बढ़ना तो दूर पीछे ही गया है. आज झारखंड को छोटे राज्यों के खिलाफ एक तर्क और उदाहरण की तरह पेश किया जा रहा है. अब तो लोगों की उम्मीदें भी टूटने लगी हैं. वे निराश हो रहे हैं. इन्हीं टूटती हुई उम्मीदों की किरचें आप इस जनादेश में देख सकते हैं.
लेकिन लगता नहीं है कि झारखंड के इस सबक और चेतावनी को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों ने गंभीरता से लिया है. वे अपने अन्दर झांकने और गंभीर आत्मालोचना के बजाय झारखंड की जनता को ही दोषी ठहराने पर तुल गई हैं. कहा जा रहा है कि झारखंड की जनता ने खुद त्रिशंकु विधानसभा बनाकर राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त की राजनीति को प्रोत्साहित किया है. यह कहने के पीछे एक छिपी हुई धमकी भी है कि अब जनता को ही इस त्रिशंकु विधानसभा के कारण पैदा होनेवाली राजनीतिक अस्थिरता और जोड़तोड़ - खरीदफरोख्त की राजनीति की कीमत चुकानी पड़ेगी. भाजपा के चतुर-सुजान और महापंडित तो अंगूर खट्टे होने के अंदाज़ में यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी ने बहुत कोशिश की लेकिन झारखंड की जनता ने भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई को मुद्दा नहीं माना, इसीलिए पार्टी को बहुमत नहीं दिया. गोया भाजपा ईमानदारी और सुशासन की प्रतीक हो और उसे सत्ता मिल जाने पर महंगाई तुरंत छू-मंतर हो जाती.
साफ है कि झारखंड के नतीजों से इन पार्टियों ने कोई सबक नहीं सीखा है. यही कारण है कि एक बार फिर से राज्य में सत्ता की बंदरबांट शुरू हो गई है. सत्ता की मलाई के लिए नीलामी लगनी शुरू हो गई है. मोलतोल हो रहा है. लेनदेन के आधार पर सौदे पटाए जा रहे हैं. इसमें कोई पीछे नहीं है. सब कह रहे हैं कि उनके सभी "विकल्प" खुले हैं. किसी में इतना नैतिक साहस नहीं है कि वह कहे कि उसे जनादेश नहीं है और वह विपक्ष में बैठने के लिए तैयार है. साफ है कि झारखंड में सत्ता पर दांव बहुत ऊंचे हैं. कोई भी सत्ता की उस मलाई को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है जिसकी "संभावनाएं" पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा और उनके साथियों के कार्यकाल में जगजाहिर हो चुकी हैं. सभी इन "संभावनाओं" का दोहन करने के लिए बेकरार हैं.
इसलिए आश्चर्य नहीं होगा, अगर झारखंड में " साफ सुथरी, ईमानदार और आम आदमी के हित में काम करनेवाली सरकार" के नारे के साथ एक निहायत ही अवसरवादी गठबंधन सरकार बना ले जिसमें एक बार फिर से वही पार्टियां और चेहरे हों जिनपर झारखण्ड की जनता के साथ दगा करने के आरोप हैं. एक बार फिर बाई डिफाल्ट वे सरकार में होंगें, जिन्हें झारखण्ड की जनता ने शासन चलाने लायक नहीं समझा. कहने की जरूरत नहीं है कि केवल सत्ता की गोंद से चिपका ऐसा कोई भी अवसरवादी गठबंधन और उसकी सरकार उन पिछली सरकारों से किसी भी तरह से अलग नहीं होगी जिनपर झारखंड को लूटने और कुशासन के गंभीर आरोप रहे हैं. वास्तव में, जोड़तोड़ और खरीदफरोख्त के आधार पर बननेवाली कोई भी सरकार जनता की नहीं बल्कि झारखण्ड की कीमती खनिज संसाधनों के दोहन में लगी देशी-विदेशी कंपनियों, पट्टेदारों, ठेकेदारों, माफियाओं और नेताओं-नौकरशाहों की सेवा ही करेगी.
यही सच है और यही झारखण्ड जैसे खनिज संसाधन संपन्न राज्यों की त्रासदी की सबसे बड़ी वजह भी है. झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता की जड़ें वास्तव में राज्य में सार्वजनिक धन और खनिज और प्राकृतिक सम्पदा की खुली लूट में धंसी हुई हैं और उसे वहीँ से खाद-पानी मिल रहा है. राजनीतिक प्रक्रिया को भ्रष्ट देशी-विदेशी कंपनियों, खदान मालिकों, ठेकेदारों, राजनेताओं, माफियाओं और नौकरशाहों के मजबूत गठजोड़ ने बंधक बना लिया है. इस हद तक कि सरकार चाहे जिस रंग और झंडे की हो, राज इसी गठजोड़ का चलता है. सच यह है कि राज्य की सभी पार्टियां, उनके नेता और तथाकथित निर्दलीय इस गठजोड़ के मोहरे भर हैं. मोहरे और चेहरे बदलने से राज नहीं बदलता. यही कारण है कि झारखंड में राजनीतिक प्रक्रिया बेमानी होकर रह गई है. इस बेमानी प्रक्रिया से किसी मानी जनादेश की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस गठजोड़ की ताकत राज्य के कीमती खनिज और प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक धन के लूट पर टिकी हुई है. इस लूट का कुछ अनुमान मधु कोड़ा और उनके साथियों के खिलाफ लगे आरोपों से लगाया जा सकता है. हालांकि झारखंड बनाने की लड़ाई के केंद्र में सबसे बड़ा मुद्दा इसी लूट को रोकना था लेकिन अफसोस की बात यह है कि राज्य बनने के बाद से यह लूट और तेज हुई है. इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2000 - 01 में राज्य से दोहन किये गए खनिजों का कुल मूल्य 459 करोड़ रूपये था जो सिर्फ छह वर्षों में 22 गुना उछलकर 10201 करोड़ हो गया. यह कानूनी खनन के आंकड़े हैं जबकि नेताओं-नौकरशाहों की शह पर फलफूल रहे गैरकानूनी खनन के बारे में ठीक-ठीक अनुमान लगाना थोडा मुश्किल है लेकिन मोटे अनुमानों के अनुसार राज्य में कुल कानूनी खनन का लगभग 25 से 30 प्रतिशत गैरकानूनी खनन हो रहा है. कुछ लोगों का तो मानना है कि गैरकानूनी खनन, कानूनी खनन के बराबर पहुंच चुका है.
आश्चर्य नहीं कि इस बीच राज्य के माननीय विधायकों की संपत्ति में भी इसी अनुपात में वृद्धि दर्ज की गई है. इलेक्शन वाच के मुताबिक झारखंड में दोबारा चुनाव लड़ रहे 37 विधायकों की संपत्ति में पिछले 5 साल में 3454 प्रतिशत की रिकार्ड बढ़ोत्तरी हुई है. पांच साल में कानूनी संपत्ति में साढ़े चौंतीस गुना की बढ़ोत्तरी कोई मामूली "उपलब्धि" नहीं है. इसने खनिज संसाधनों के दोहन में 22 गुना वृद्धि के रिकार्ड को भी पीछे छोड़ दिया है. लेकिन इसी बीच झारखंड के गांवों में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों की तादाद बढ़कर लगभग 52 तक पहुंच गई है. यही नहीं, मानवीय, सामाजिक और आर्थिक विकास के हर सूचकांक पर झारखंड के गरीब आदिवासी सबसे निचले पायदान पर पहुंच गए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि खनिज संसाधनों के दोहन और माननीय विधायकों की संपत्ति में रिकार्डतोड़ वृद्धि और राज्य में 50 फीसदी से अधिक गरीबों की तादाद के बीच सीधा सम्बन्ध है.
शायद यही कारण है कि झारखंड "धनी राज्य के गरीब निवासी" का एक त्रासद और दुखद उदाहरण बन गया है. जाहिर है कि राज्य को इस दुष्चक्र से निकालने की उम्मीद उस राजनीतिक वर्ग से नहीं की जा सकती है जिसके निहित स्वार्थ इस दुष्चक्र के साथ बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. क्या इसका अर्थ यह है कि झारखंड में इस दुष्चक्र से बाहर निकालने के सारे रास्ते बंद हो चुके हैं? ऐसा बिलकुल नहीं है लेकिन मुख्यधारा के मौजूदा राजनीतिक दलों से बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती है. झारखंड की मुक्ति राज्य के प्राकृतिक और खनिज संसाधनों और सार्वजनिक धन की लूट के खिलाफ और गरीबों और आदिवासियों को रोजगार, सम्मान और "जल, जंगल और जमीन" पर अधिकार देने के अजेंडे के साथ शुरू होनेवाले एक बड़े जनांदोलन के गर्भ से ही हो सकती है. पिछले दो चुनावों के नतीजों से यह साफ हो चुका है कि मौजूदा बाँझ चुनावी राजनीति से कुछ नहीं निकलनेवाला है. जनांदोलन की आग ही झारखंड की राजनीति के कूड़े-करकट को खत्म कर सकती है. सवाल है कि इस चुनौती को कौन स्वीकार करेगा?
(जनसत्ता, २६ दिसम्बर'०९ )
शुक्रवार, दिसंबर 25, 2009
- आनंद प्रधान
इन दिनों मुंबई शेयर बाज़ार में जो बूम सा दिख रहा है, उसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ।एफ.आई) की है. एफ.एफ.आई वे विदेशी निवेशक हैं, जो दुनिया भर के बाज़ारों में अधिक से अधिक मुनाफे की तलाश में चक्कर लगाते रहते हैं और जिन्हें उनके इसी चंचल स्वभाव के कारण आवारा पूंजी भी कहा जाता है. तात्पर्य यह कि इस वित्तीय पूंजी का कोई घर नहीं है और अपने निवेशकों को अधिक से अधिक मुनाफा दिलाने के लिए वह हमेशा आकर्षक ठिकानो की तलाश में रहती है. कहने कि जरूरत नहीं है कि अपने मकसद को हासिल करने के लिए उसे सट्टेबाजी और 'बाज़ारों में जोड़तोड़' (मैनिपुलेशन) से कोई परहेज नहीं है बल्कि यह उसकी चारित्रिक विशेषता है.
जाहिर है कि वफ़ादारी एफ.एफ.आई का स्वभाव नहीं है और न ही उन्हें किसी खास देश से कोई प्यार है. आज वे टूट कर भारत की ओर दौड़े चले आ रहे हैं लेकिन अगर कल उन्हें भारत की तुलना में रूस या ब्राज़ील या मलेशिया का बाज़ार ज्यादा मुनाफा देता हुआ दिखाई देने लगे तो उन्हें भारतीय बाज़ारों से अपना पैसा निकालकर निकलने में जरा भी देर नहीं लगेगी. वे जितनी तेजी से आते हैं, उससे भी अधिक तेजी से निकल जाते हैं. लेकिन अपने पीछे "कारवां गुजर गया,गुबार देखते रहे" के अंदाज में ध्वस्त शेयर बाज़ार और अर्थव्यवस्था छोड़ जाते हैं. उदाहरण के लिए, भारत में 2005 में 10.71 अरब डालर का एफ.एफ.आई निवेश आया लेकिन 2006 में यह गिरकर 8.10 अरब डालर रह गया. पर फिर 2007 में 17.65 अरब डालर पहुंच गया लेकिन अगले साल 11.97 अरब डालर की पूंजी निकाल गई. ऐसे एक नहीं बल्कि दर्जनों देशों खासकर विकासशील देशों के उदाहरण हैं जहां पिछले दो दशकों में एफ.एफ.आई के निकलते ही न सिर्फ उस देश का शेयर बाज़ार औंधे मुंह गिरा बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था ही संकट में फंस गई.
यही कारण है कि दुनिया भर में एफ.एफ.आई के जरिये आनेवाली पूंजी को लेकर संबंधित देशों में एक आशंका और चिंता की भावना बनी रहती है. यही नहीं, मेक्सिको-चिली से लेकर दक्षिण एशियाई देशों के वित्तीय संकट में एफ.एफ.आई की सीधी भूमिका के बाद से इस विदेशी निवेश को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता है. इसीलिए उसे नियंत्रित करने की मांग अलग-अलग तबकों से आती रही है. अब पिछले साल के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से तो एफ.एफ.आई निवेश को नियंत्रित करने को लेकर बहस और तेज हो गई है. इस बीच कई मंचों पर एफ.एफ.आई को नियंत्रित करने को लेकर मांगें भी उठी हैं और प्रस्ताव भी आये हैं. यहां तक कि आमतौर पर एफ.एफ.आई के निर्बाध प्रवाह की मांग करनेवाले विकसित देशों और उनके मंचों जी-7 और जी-20 में भी छिटपुट ही सही यह मांग उठने लगी है. इस बहस के बीच ब्राज़ील ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए इस साल अगस्त में विदेशी पूंजी के प्रवाह यानि देश में आने-जाने पर दो प्रतिशत की दर से एक टैक्स लगा दिया है. इस फैसले के बाद दुनिया के कई और देशों में एफ.एफ.आई निवेश पर नियंत्रण और उसके बेहतर प्रबंधन के लिए ऐसे ही कड़े और साहसिक फैसले करने की मांग उठने लगी है.
जाहिर है कि भारत के लिए भी ये एक महत्वपूर्ण सवाल है. इसके कई कारण हैं. पहली बात यह है कि भारत भी पिछले कुछ वर्षों से एफ.एफ.आई निवेशकों के बड़े आकर्षण के केंद्र के रूप में उभरा है. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अकेले इस साल जनवरी से मध्य नवम्बर तक 15 अरब डालर (71900 करोड़ रूपये) से अधिक का एफ.एफ.आई निवेश देश में आ चुका है. माना जा रहा है कि अगले डेढ़ महीनो में यह बढ़कर 18 अरब डालर से अधिक पहुंच सकता है. यह एक नया रिकार्ड होगा. इससे पहले, 2007 में 17.65 अरब डालर का रिकार्ड एफ.एफ.आई निवेश आया था. कहने की जरूरत नहीं है कि एफ.एफ.आई निवेश की इस बाढ़ के कारण ही मुंबई शेयर बाज़ार रोज नई उड़ान भर रहा है.
लेकिन यह निवेश अपने साथ कई समस्याएं भी लेकर आ रहा है. रिजर्व बैंक के लिए चुनौती यह है कि वह इसका प्रबंधन कैसे करे? दरअसल, इस निवेश के साथ आनेवाला डालर रूपये को लगातार मजबूत कर रहा है यानि डालर के मुकाबले रूपये की कीमत बढ़ रही है. पिछले छह महीनो में रूपये की कीमत 5 प्रतिशत से अधिक बढ़ चुकी है जिसके कारण आयात सस्ता और निर्यात महंगा हो रहा है. यह उन निर्यातकों के लिए एक बुरी खबर है जो पहले ही पिछले तेरह महीनो से लगातार गिरते निर्यात के कारण परेशान हैं. लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती यह है कि डालर के अत्यधिक प्रवाह से बाज़ार में अधिक मुद्रा की आपूर्ति के कारण तरलता बहुत बढ़ गई है जिससे मुद्रास्फीति तेजी से बढ़ रही है. इसके कारण रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों में वृद्धि का भारी दबाव है.
असल में, भारतीय अर्थव्यवस्था में इतने अधिक डालर को समाहित करने की क्षमता नहीं है. पर इस सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इस अत्यधिक डालर प्रवाह के कारण शेयर बाज़ार से लेकर अन्य सभी परिसंपत्तियों की कीमतें असामान्य रूप से बहुत तेजी से और उनकी वास्तविक कीमत से काफी ज्यादा बढ़ रही हैं. इससे बाज़ार में एक बुलबुला बन रहा है जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है. तथ्य यह है कि कुछ सट्टेबाजों और मौजूदा स्थिति से खुश लोगों के अलावा बाज़ार से जुड़े अधिकांश लोगों का भी यह मानना है कि एक बुलबुला बन रह है. दोहराने कि जरूरत नहीं है कि यह विशुद्ध रूप से सट्टेबाजी के कारण हो रहा है जो एफ.एफ.आई यानि आवारा पूंजी की सबसे बड़ी चारित्रिक विशेषता है. लेकिन चिंता की बात यह है कि हर बुलबुले की तरह यह बुलबुला आज नहीं तो कल जरूर फूटेगा. बुलबुले के फूटने की कीमत पूरी अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है.
यह इसलिए और भी चिंता की बात है कि वैश्विक मंदी की मार से उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्था एक और झटके को शायद ही बर्दाश्त कर पाए. लेकिन वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी को इसमें चिंता की कोई बात नहीं दिखाई नहीं देती है. उनका दावा है कि सरकार के पास इस पर निगरानी की व्यवस्था मौजूद है और जब भी कोई गड़बड़ी दिखाई देगी, सरकार उससे निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है. सवाल है कि जब एफ.एफ.आई के जरिये इतनी अधिक और इतनी तेजी से आ रहे डालर को लेकर रिजर्व बैंक समेत अधिकांश विश्लेषक और एसोचैम जैसे औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठन चिंतित हैं और उसे नियंत्रित करने का आग्रह कर रहे हैं तो वित्त मंत्री इतने निश्चिंत क्यों हैं? ब्राज़ील की तरह इस तरह के वित्तीय पूंजी के प्रवाह पर 2 फीसदी टैक्स लगाने को लेकर प्रणव मुखर्जी उत्साहित क्यों नहीं हैं?
असल में, वित्त मंत्री की निश्चिंतता उनकी लाचारी और मज़बूरी का नतीजा है. यह भारतीय अर्थव्यवस्था में आवारा वित्तीय पूंजी की असीमित ताकत और लगातार बढ़ते प्रभाव का भी सबूत है. हालत यह हो गई है कि कोई भी सरकार और वित्त मंत्री इसे नाराज करने का जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं है. एक तरह से अर्थनीति उनकी बंधक बन चुकी है. सरकारों और उनके वित्त मंत्रियों को ऐसा लगता है कि अगर एफ.एफ.आई नाराज हुए तो अपनी पूंजी लेकर वापस चले जायेंगे जिसके कारण शेयर बाज़ार ध्वस्त हो जायेगा. अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी. दूसरी ओर, यह लोभ भी रहा है कि अगर एफ.एफ.आई खुश रहे तो ज्यादा से ज्यादा डालर लेकर आयेंगे जिससे बाज़ार समेत पूरी अर्थव्यवस्था में फील गुड का माहौल बना रहेगा. इसी भय और लोभ के कारण पिछले 16 वर्षों में हर वित्त मंत्री ने आवारा पूंजी को और अधिक खुश करने के लिए लगातार रियायतें दी हैं.
इसके कारण शेयर बाज़ार तो पूरी तरह से एफ.एफ.आई के कब्जे में चला गया है. वहां अब पत्ता भी उनकी मर्जी से ही हिलता है. स्थिति यह हो गई है कि पिछले साल वैश्विक वित्तीय संकट के बाद जब एफ.एफ.आई भारत से कोई 12 अरब डालर की पूंजी निकालकर ले गए तो शेयर बाज़ार धडाम से गिर गया था. अब फिर इसलिए चढ़ रहा है क्योंकि 15 डालर से ज्यादा की पूंजी आ चुकी है. ऐसे में, प्रणव मुखर्जी अर्थव्यवस्था को जोखिम में डालकर भी एफ.एफ.आई को नाराज करने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे लगता है कि सरकार के स्तर पर सोच यह है कि अभी कोई कदम उठाकर शेयर बाज़ार में जारी पार्टी को क्यों बिगाड़ा जाए? अभी तो चढ़ते शेयर बाज़ार के लिए वाहवाही लूटने का वक्त है, जब कोई संकट आएगा तो देख लिया जायेगा.
लेकिन बाज़ार जितना ही चढ़ता जायेगा, सरकार के लिए कोई कड़ा फैसला करना उतना ही मुश्किल होता जायेगा. उलटे सरकार एफ.एफ.आई के हाथों में बंधक बनती जाएगी और वे नियंत्रण के बजाय ज्यादा रियायतों की मांग करेंगे तो सरकार के सामने उसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा. अब तक यही होता रहा है. लेकिन यह बहुत उपयुक्त समय था जब सरकार एफ.एफ.आई को काबू में करने की गंभीर कोशिश करती. इस समय एफ.एफ.आई के पास भी बहुत विकल्प नहीं है और वैश्विक तौर पर भी उन्हें नियंत्रित करने के पक्ष में माहौल है. ब्राज़ील ने शुरुआत करके दिखा भी दिया है कि एफ.एफ.आई अजेय और काबू से बाहर नहीं हैं. लेकिन न जाने यू.पी.ए सरकार इससे क्यों हिचक रही है?
जाहिर है कि एफ.एफ.आई के सामने इस घुटनाटेकू नीति के कारण ही अर्थनीति पर विदेशी वित्तीय पूंजी का दबाव बढ़ता ही जा रहा है और सरकार जाने-अनजाने एक बड़े संकट को आमंत्रित करती दिख रही है जिसकी कीमत अंततः देश के करोड़ों आम लोगों को चुकानी पड़ेगी.
(समकालीन जनमत, दिसंबर 2009 से साभार)
मंगलवार, दिसंबर 22, 2009
खबर क्यों नहीं है पत्रकारों की छंटनी ?
जानी-मानी टी.वी कम्पनी टी.वी- 18 ने अभी हाल में अपने बिजनेस समाचार चैनलों से एक झटके में 200 से ज्यादा मीडियाकर्मियों को निकाल दिया. इनमें काफी संख्या में पत्रकार भी हैं. लेकिन इस खबर को अधिकांश अखबारों और चैनलों ने खबर नहीं माना. इसलिए ये खबर कहीं नहीं छपी या चली, सिवाय कुछ ब्लॉगों के. इससे पहले भी पिछले एक साल में कई अखबारों और टी.वी समाचार चैनलों में मंदी के नाम पर या उसके बहाने सैकड़ों पत्रकारों की छंटनी हुई, बाकी के वेतन में कटौती हुई और नई भर्तियों पर रोक लगा दी गई लेकिन उसकी भी कोई खबर कहीं नहीं दिखाई दी. टिप्पणी या चर्चा तो दूर की बात है.
सवाल यह है कि पत्रकारों की छंटनी खबर क्यों नहीं बनती है? क्या यह खबर नहीं है? शायद आपको याद हो, पिछले साल जब जेट एयरवेज ने इसी तरह अपने कुछ सौ कर्मचारियों को निकला था, तब चैनलों ने उस खबर को खूब उछाला था. उस व्यापक कवरेज के कारण जो जनदबाव बना, उसकी वजह से जेट को अपना फैसला वापस लेना पड़ा था. फिर पत्रकारों और चैनलकर्मियों को निकले जाने की खबर को इस तरह ब्लैकआउट करने की वजह क्या है? यही नहीं, निकाले गए चैनलकर्मियों के हक़ में किसी पत्रकार संगठन या यूनियन या चैनलों के संपादकों की संस्था- ब्राडकास्ट एडिटर्स संगठन ने भी कुछ नहीं कहा. गोया कुछ हुआ ही नहीं हो. अलबत्ता उसी के आसपास चैनलों के संपादक और खुद सभी चैनल आई.बी.एन लोकमत पर शिव सैनिकों के हमले को लोकतंत्र पर हमला बताते हुए सर आसमान पर उठाये हुए थे.
इरादा इन दोनों घटनाओं की तुलना करने का नहीं है और न ही आई.बी.एन लोकमत पर हुए हमले को काम करके आंकने का है. लेकिन चैनलों के संपादकों से यह अपेक्षा तो थी कि वे एक झटके में दो सौ से ज्यादा चैनलकर्मियों को निकाले जाने का खुला विरोध नहीं तो कम से कम चैनलों के प्रबंधन से अपनी शिकायत जरुर दर्ज कराएंगे. अफसोस ऐसा कुछ नहीं हुआ. आखिर यह चुप्पी क्यों ? क्या कारण है कि चैनलों और मीडिया के अन्दर चल रही हलचलों या पत्रकारों की समस्याओं को खबर या चर्चा के लायक नहीं माना जाता ? असल में, आपस में गलाकाट होड़ के बावजूद इस मामले में चैनलों के बीच एक अघोषित सहमति है कि वे ऐसे मामलों में एक दूसरे के खिलाफ नहीं बोलेंगे, भले ही वह कितनी बड़ी खबर क्यों न हो.
चैनल चलानेवाली कम्पनियां कह सकती हैं कि इसमे नया क्या है? खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में कर्मचारियों को 'हायर और फायर' किया जाता रहता है. पिछले एक साल में आर्थिक मंदी के कारण लाखों लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है. ऐसे में, मीडियाकर्मी अपवाद कैसे हो सकते हैं? सच यह है कि चैनलों समेत पूरे कार्पोरेट मीडिया ने जेट जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर अन्य क्षेत्रों में मंदी के नाम पर लाखों कर्मचारियों की छंटनी की खबरों को कोई खास महत्व नहीं दिया. यही नहीं, उसने इन खबरों को अंडरप्ले किया और अब तो वह अर्थव्यवस्था के पुराने दिन लौटने के गीत गाने में जुटा है.
कहा जा सकता है कि ऐसे में पत्रकारों की छंटनी को इतना तूल देने का क्या मतलब है? निश्चय ही, पत्रकार कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं हैं. लेकिन चैनलों और मीडिया में चल रही इस छंटनी का सम्बन्ध केवल मीडिया कंपनियों और उनके कर्मचारियों यानि पत्रकारों तक सीमित नहीं है. यह इसलिए चिंता की बात है कि इसका सीधा सम्बन्ध चैनलों के कंटेंट से है. जिन भी चैनलों से पत्रकारों की छंटनी हुई है, वहां उनके न्यूज आपरेशन पर इसका असर पड़ना तय है. खबरों का दायरा कम होगा और इसके कारण खबरों के संग्रह से लेकर विभिन्न बीट्स की कवरेज पर नकारात्मक असर पड़ेगा. इसका मतलब यह होगा कि आनेवाले दिनों में चैनलों पर बेसिर-पैर का इंडिया टी.वी मार्का सस्ता कंटेंट और बढेगा. आखिर जब पत्रकार और खबरें नहीं होगीं तो चैनल क्या दिखायेंगे?
लेकिन इससे भी बड़ी बात यह है कि चैनलों से जिस तरह से पत्रकारों को निकला गया है, उसका सम्पादकीय स्वतंत्रता पर भी असर पड़े बिना नहीं रहेगा. आखिर यह छंटनी देखने के बाद कौन पत्रकार 'पेड कंटेंट' या खबरों में मिलावट या मीडिया कंपनी के ऐसे ही उलटे-सीधे निर्देशों को मानने से इनकार कर पाएगा. इससे चैनलों में काम कर रहे पत्रकारों और अन्य मीडिया कर्मियों पर काम का दबाव और तनाव और बढ़ जायेगा. चैनलों में पहले ही पत्रकारों को दस से बारह घंटे काम करना पड़ रहा है जिसके कारण अधिकांश टी.वी पत्रकार डायबिटीज से लेकर ब्लड प्रेशर और अन्य तरह की बिमारियों से ग्रस्त हैं. नए हालातों में उनकी स्थिति और बिगड़ेगी. इसका असर भी कंटेंट पर पड़ेगा. क्या अब भी बताने की जरूरत है कि एक दर्शक के रूप में इसकी कीमत आप-हम सभी को और अंततः पूरे लोकतंत्र को चुकानी पड़ेगी? आखिर हमारा जानने का अधिकार और एक पूरी तरह से सूचित दर्शक वर्ग- दोनों कहीं न कहीं सवाल इससे जुड़े हुए हैं.
'बीमार' अखबारों के लिए गांधीगिरी
कुछ अखबारों और टी वी समाचार चैनलों द्वारा पैसा लेकर खबरें छापने या दिखाने का मुद्दा गर्माता जा रहा है। पाठकों को ध्यान होगा कि बीते आम चुनावों और हालिया विधानसभा चुनावों के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ बड़े और जानेमाने अखबार समूहों ने राजनीतिक पार्टियों और उनके प्रत्याशियों से पैसा लेकर उनके पक्ष में खबरें छापी थीं। यह साफ तौर पर पत्रकारिता की नैतिकता,मूल्यों और आचार संहिता का उल्लंघन और पाठकों के साथ धोखा था। इसलिए कि अखबार या चैनलों में विज्ञापनों और समाचार के बीच एक स्पष्ट और पवित्र विभाजन रेखा है और दोनों की अपनी जगह तय है। पाठक या दर्शक अखबार-चैनल इस भरोसे के साथ पढ़ते-देखते हैं कि समाचार सम सामयिक घटनाओं, समस्याओं और मुद्दों की तथ्यपरक, वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और संतुलित रिपोर्ट है। लेकिन जब अखबार या चैनल संबंधित पक्षों से पैसा लेकर उनके पक्ष में छापते- दिखाते हैं तो वह ’खबर’ नहीं वास्तव में खबर के चोले में विज्ञापन होता है पर पाठक या दर्शक को यह पता नहीं होता है और वह उस ’खबर’ को तथ्यपरक और वस्तुनिष्ठ मानकर उसपर भरोसा करता है।
अखबारों-चैनलों और उनके पाठकों-दर्शकों के बीच का रिश्ता इसी भरोसे पर टिका होता है। लेकिन मुनाफे की बढ़ती हवस के कारण अखबार-चैनल इस भरोसे की हत्या करने पर तुले हुए हैं। इससे न सिर्फ इन समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता तार-तार हो रही है बल्कि भ्रष्ट राजनेताओं - अफसरों-माफियाओं- कारपोरेट्स के निरंतर मजबूत होते कालेधन के गठजोड़ में समाचार माध्यमों के भी शामिल हो जाने के कारण लोकतंत्र खोखला और संकट में घिरता दिख रहा है। जाहिर है कि यह एक गंभीर मुद्दा है और इसे किसी भी तरह से और अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। असल में, समाचार मीडिया में इस कैंसर के रोगाणु आज से नहीं बल्कि 90 के दशक में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के दौरान से ही पनपने शुरू हो गए थे। लेकिन पहले यह एकाध समाचार संस्थानों तक सीमित भटकाव मानकर अनदेखा किया गया। लेकिन आज यह कैंसर इस हद तक फैल चुका है कि कुछ गिने-चुने अपवाद ही इस बीमारी से बचे रह गए हैं।
जाहिर है कि पानी सिर के उपर से बहने लगा है। अच्छी बात यह है कि देर से ही प्रेस कांउसिल ने इसकी जांच के लिए एक दो सदस्यी समिति का गठन किया है और चुनाव आयोग ने भी इसका नोटिस लिया है। उससे भी अच्छी बात यह है कि खुद समाचार मीडिया के अंदर से ही कुछ अखबारों (जैसे ’द हिंदू’,’जनसत्ता’, ’इंडियन एक्सप्रेस’, ’प्रभात खबर’और ’आउटलुक’ आदि) और वरिष्ठ पत्रकारों ने ’पैसा लेकर खबर छापने-दिखाने’ की आत्मघाती प्रवृत्ति का विरोध शुरू कर दिया है। अब जरूरत इस विरोध को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाने की है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कोई पांच-छह वर्ष पहले भी जब अंग्रेजी के सबसे बड़े अखबार ने ’पैसा लेकर खबर छापने’ की मीडियानेट और प्राइवेट इक्विटी जैसी स्कीमें शुरू की थीं तो कई अखबारों ने उसका विरोध किया था लेकिन बाद में वे खुद भी वैसी ही स्कीमें चलाने लगे। ऐसा दोबारा न हो, इसके लिए जरूरी है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए न सिर्फ स्पष्ट दिशानिर्देश तैयार किए जाएं बल्कि समाचार माध्यमों की निगरानी के लिए प्रेस कांउसिल को और ताकवर और सक्रिय बनाया जाए। प्रेस कांउसिल को प्रभावी बनाने के लिए उसे दंडित करने का अधिकार देने का भी समय आ गया है। इसके साथ ही, व्यापक नागरिक समाज और जनसंगठनों को पाठकों-दर्शकों को जागरूक बनाने और ’बीमार’ अखबारों-चैनलों के जल्दी स्वस्थ होने की कामना के साथ गांधीगिरी के बतौर फूल देने का समय आ गया है।
सोमवार, दिसंबर 21, 2009
महा महंगाई और जमाखोर सरकार
महंगाई की सुरसा का बेकाबू बदन और मुंह फैलता ही जा रहा है. अब यह सिर्फ महंगाई नहीं रह गई है. इसे महा महंगाई कहना पड़ेगा. खुद सरकार आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं. नवम्बर के आखिरी सप्ताह में खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति यानि महंगाई दर उछलते हुए 19 प्रतिशत का नया रिकार्ड बना गई. इसके ठीक पहले सप्ताह में यह दर 17 प्रतिशत थी. यही नहीं, अब तक डेढ़-दो प्रतिशत के आसपास चल रही थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ने भी अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं. नवम्बर महीने में उसमे तीन गुने से अधिक की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है और वह 4.78 प्रतिशत पहुंच गई है. दालों के मामले में महंगाई की दर में 42 फीसदी, सब्जियों के मामले में 31 फीसदी और खाद्यान्नों में 13 फीसदी से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है.
जाहिर है कि महा महंगाई की मार से आम आदमी बिलबिला रहा है. उसकी दाल-रोटी संकट में है. लेकिन यू.पी.ए सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. पर अब लगता है कि विपक्ष की नींद खुल गई है. उसने महा महंगाई के मुद्दे पर सरकार को घेरने की कोशिश की है. हालांकि उसने काफी देर कर दी है क्योंकि संसद का सत्र अब ख़त्म होनेवाला है. लगता है कि जैसे कोरम पूरा किया जा रहा है. हैरानी की बात यह है कि इस सबके बावजूद वित्त मंत्री प्रणब मुख़र्जी कह रहे हैं कि बड़ी-बड़ी बातें करने या हंगामा करने से महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सकता है. लेकिन वह खुद और उनकी सरकार के अन्य मंत्री महा महंगाई पर काबू पाने के लिए लच्छेदार बातों और बहानों के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं.
हर बार की तरह इस बार भी संसद में बहस के दौरान वित्त मंत्री महा महंगाई का ठीकरा सूखे और बाढ़ के अलावा किसानो को बढा हुआ लाभकारी मूल्य देने पर फोड़ दिया. यह कोई नई बात नहीं है. यू.पी.ए सरकार पिछले छह महीने से यही राग आलाप रही है. अपने बचाव में वह कभी सूखे और बाढ़ को, कभी किसानो को उनकी फसलों की ऊँची कीमतें देने को, कभी जमाखोरी-मुनाफाखोरी रोकने में राज्य सरकारों की विफलता को और कभी वैश्विक बाज़ारों में अनाजों की कीमतों में बढ़ोत्तरी को जिम्मेदार ठहराती रही है. गोया इस महा महंगाई के लिए न तो वह जिम्मेदार है और न ही वह कुछ कर सकती है. आश्चर्य नहीं कि कृषि मंत्री शरद पवार ने साफ कह दिया कि रबी की अगली फसल से पहले महंगाई पर काबू पाना मुश्किल है.
लेकिन यू.पी.ए सरकार आधा सच बोल रही है. मौजूदा महा महंगाई के लिए केवल वही कारण जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्हें सरकार नान स्टाप दोहरा रही है. तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं. जैसे यह महंगाई सूखे या बाढ़ से बहुत पहले से ही आम आदमी का जीना मुहाल किये हुए है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर पिछले साल मार्च से लगातार 10 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है. इस सूचकांक के आधार पर महंगाई की यह ऊँची दर पिछले 20 महीनों से लगातार 10 प्रतिशत से ऊपर और अक्तूबर के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक 13.7 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. इसलिए साफ है कि केवल सूखे या बाढ़ के कारण महा महंगाई नहीं आई है.
इसी तरह, महंगाई का ठीकरा किसानो को लाभकारी मूल्य देने पर फोड़ना भी बेचारे किसानो के साथ ज्यादती है. अगर किसानो को लाभकारी मूल्य ही मिल रहा होता तो गन्ना किसान दिल्ली में धरना देने नहीं आ जाते. सच यह है कि महा महंगाई के कारण अधिकांश खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों और किसानो को मिलनेवाले कथित लाभकारी मूल्य के बीच जमीन-आसमान का अंतर है. यही कारण है कि किसान बेचैन हैं. अलबत्ता बड़े बिचौलियों और व्यापारियों के साथ-साथ अनाजों के कारोबार में लगी बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की तो जैसे चांदी हो गई है. लेकिन उन्हें यह मौका केंद्र और राज्य सरकारों ने दिया है.
सच यह है कि महा महंगाई की सुरसा को खुलकर खेलने का मौका केंद्र सरकार ने दिया है. असल में, सरकार ने लोगों को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया है. लेकिन खाद्य बाज़ार पूरी तरह से जमाखोरों, मुनाफाखोरों और सट्टेबाजों के कब्जे में है. केंद्र सरकार चाहती तो बाज़ार को नियंत्रित कर सकती थी. उसके पास इस खाद्य बाज़ार को काबू में करने हथियार भी है. वह हथियार है- उसके गोदामों में भरा लाखों टन अनाज जिसका इस्तेमाल करके वह कीमतों को काबू में कर सकती है. लेकिन इस हथियार का इस्तेमाल न करने के कारण सरकार खुद सबसे बड़ा जमाखोर बन गई है.
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक एक अक्तूबर को सरकार के गोदामों में 4.38 करोड़ मीट्रिक टन अनाज भरा हुआ था जिसमें 2.84 करोड़ मीट्रिक टन गेहूं और 1.53 करोड़ मीट्रिक टन चावल था. जबकि खुद सरकार के बफर स्टाक के नियमों के अनुसार सरकार के भंडार में 1.62 करोड़ मीट्रिक टन अनाज (52 लाख मीट्रिक टन चावल और 1.10 करोड़ मीट्रिक टन गेहूं) होना चाहिए था. साफ है कि सरकार के गोदामों में नियमों से करीब 2.7 गुना ज्यादा अनाज है लेकिन उसने इसका इस्तेमाल कीमतों पर काबू पाने के लिए नहीं किया. अगर सरकार चाहती तो इस गेंहूँ और चावल का एक तिहाई भी पी.डी.एस के जरिये और खुले बाज़ार में उतार कर कीमतों को बांध सकती थी. लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और करोड़ों टन अनाज दबाकर बैठी हुई है. इससे बड़ी जमाखोरी और क्या होगी? इससे महंगाई नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा?
असल में, सरकार इस अनाज को बाज़ार में इसलिए नहीं ला रही है कि उसे लगता है कि इससे खाद्य सब्सिडी बढ़ जाएगी जिससे वित्तीय घाटा और बढ़ जायेगा. सरकार को आम आदमी से ज्यादा वित्तीय घाटे की चिंता इसलिए है कि वह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर आवारा वित्तीय पूंजी को खुश करना चाहती है. इस पूंजी की हमेशा से यह मांग रही है कि सरकार वित्तीय घाटे पर अंकुश लगाने को प्राथमिकता में रखे. लेकिन आम आदमी की सरकार के इस अर्थशास्त्र और राजनीति की कीमत आम आदमी को महा महंगाई में पिस कर चुकानी पड़ रही है.
शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009
आतंकवाद का ऑक्सीजन बनता मीडिया
जानेमाने पत्रकार वीर संघवी ने 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमलों के दौरान समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की भूमिका की आलोचना करते हुए "हिंदुस्तान टाइम्स" में लिखा है कि मीडिया ने अपनी गलतियों से सबक लिया है. उनका दावा है कि अगर भविष्य में ऐसा कोई आतंकवादी हमला फिर हुआ तो मीडिया इस बार वो गलतियां नहीं दोहराएगा. लेकिन क्या सचमुच टी.वी चैनलों ने 26/11 के कवरेज से कोई सबक लिया है और भविष्य में ऐसी गलती नहीं करेंगे?
२६/11 के बाद पिछले एक साल में और खासकर इस साल उसकी बरसी पर मीडिया और उसमें भी टी,वी चैनलों के कवरेज को देखकर ऐसी कोई उम्मीद नहीं बंधती है. इस कवरेज को देखकर नहीं लगता कि टी.वी चैनलों ने कोई सबक सीखा है. वीर संघवी से शर्त लगाने की इच्छा हो रही है कि अगर दुर्भाग्य से फिर कोई आतंकवादी हमला हुआ तो टी.वी चैनल वही गलतियां दोहराएंगे.
असल में, चैनलों ने 26/11 से सिर्फ एक सबक सीखा है. वह यह कि "अगर खून बहा है तो यही सुर्खी है" (इफ इट ब्लीड्स, इट लीड्स). यानि आतंक बिकता है. आतंक टी.आर.पी की गारंटी बन गया है. सच पूछिए तो चैनलों को खून का स्वाद लग गया है. आतंक उनके लिए यह एक लुभावना फार्मूला बन गया है. खासकर हिंदी समाचार चैनलों को लगता है कि दर्शकों को डराकर चैनल के साथ बांधे रखा जा सकता है. कहने की जरूरत नहीं है कि 26/11 की तकलीफदेह और सुन्न कर देनेवाली स्मृतियां लोगों को डराती,चौंकाती और परेशान करती हैं.
यही कारण है कि चैनल इस या उस बहाने 26/11 के जख्म को हमेशा हरा रखने की कोशिश करते हैं. पिछले एक साल में कभी 26/11 के आतंकवादियों और उनके पाकिस्तानी आकाओं के "एक्सक्लुसिव" टेप सुनाने, गिरफ्तार कसाब की कहानी बताने और लगभग दैनिक तौर पर कभी लश्कर और कभी अन्य आतंकवादी जमातों की अगले हमलों की तैय्यारियों की आधी सच्ची-आधी झूठी रिपोर्टों के बहाने आतंकवाद हिंदी चैनलों के प्राइम टाइम का एक स्थाई विषय बन चुका है. रही-सही कसर चैनलों में तथ्य को "गल्प" और गल्प को तथ्य की तरह पेश करनेवाले भाषा के जादूगर और फेफड़े के जोर से चिल्लाते एंकर पूरा कर देते हैं. चैनलों पर लगभग रोज उबकाई की हद तक पाकिस्तान की पिटाई-धुलाई के साथ अल कायदा, ओसामा और तालिबान का हौव्वा खड़ा किया जाता है.
ऐसे में, चैनल २६/11 की बरसी को भुनाने में कैसे पीछे रह सकते थे? हालांकि इस बरसी से पहले केंद्र सरकार ने सभी समाचार चैनलों को एक निर्देशनुमा सलाह भेजकर अपील की कि वे २६/11 की बरसी पर अपने कार्यक्रमों और रिपोर्टों में "संतुलन" और "जिम्मेदारी" का ध्यान रखें. सरकार ने साफ-साफ कहा कि "२६/11 के आतंकवादी हमले में मारे गए लोगों के शवों,घायलों के खून और चीत्कार, रिश्तेदारों के दर्द आदि के विजुअल्स को बार-बार दिखने से न सिर्फ उस त्रासद और दुखद घटना की यादें ताजा होंगी बल्कि इससे लोगों में डर और असुरक्षा का भाव पैदा करने का आतंकवादियों का बुनियादी मकसद भी पूरा होगा."
लेकिन किसी भी चैनल ने इस सलाह का ध्यान नहीं रखा और उन 60 घंटों को याद करने के बहाने वह सब फिर-फिर दिखाया जो नहीं दिखाने के लिए कहा गया था. इन कार्यक्रमों में तथ्य और तर्क कम और भावनाएं और अतिरेक ज्यादा था. संतुलन के बजाय "हाइपर टोन" हावी था. हमेशा की तरह इंडिया टी.वी सबसे आगे रहा जिसने उस आतंकवादी हमले को एक बार फिर फ़िल्मी अंदाज़ में "रीक्रियेट" किया. इस फिल्म में कुछ तथ्य-कुछ गल्प का ऐसा घालमेल था कि वह सी ग्रेड की मुम्बईया एक्शन फिल्म से ऊपर नहीं उठ पाया. लेकिन इंडिया टी.वी ही क्यों, बाकी हिंदी चैनल भी पीछे नहीं थे.
सबने यहां तक कि सोबर और संतुलित माने जानेवाले अंग्रेजी चैनलों ने भी पूरी नाटकीयता से उन 60 घंटों को पेश किया. शहीदों की याद में एक बार फिर पिछली बार की तरह मास हिस्टीरिया जैसा माहौल बनाने की कोशिश की गई. "टाइम्स नाउ" के अर्नब गोस्वामी तो ऐसा लगता है कि 26/11 से आगे बढे ही नहीं हैं. उनका वश चलता तो 26/11 के बाद भारत ने पाकिस्तान पर हमला बोल दिया होता. हालांकि ऐसा हुआ नहीं लेकिन अर्नब पर इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ा है और पाकिस्तान के खिलाफ अभियान जारी है.
लेकिन जाने-अनजाने ऐसा करके चैनल आतंकवादियों की ही मदद कर रहे हैं. याद रखिये आतंकवादियों का सबसे बड़ा उद्देश्य प्रचार पाना होता है. पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के शब्दों में कहें तो "आतंकवाद के लिए प्रचार ऑक्सीजन" की तरह है. इसीलिए आतंकवाद को "प्रोपेगंडा बाई डीड" माना जाता रहा है. मुंबई पर हमला करनेवाले आतंकवादियों का मकसद भी दो समुदायों और देशों के बीच नफ़रत पैदा करने से लेकर युद्ध भड़काने के अलावा प्रचार पाना भी था. मीडिया 26/11 को इस तरह और इस हद तक याद कर उन आतंकवादियों की ही तो मदद नहीं कर रहा है?
मंगलवार, दिसंबर 15, 2009
समाचारपत्र और विश्वसनीयता का संकट
‘समाचारपत्र के अंत’ की भविष्यवाणियों के बीच एक अच्छी खबर यह है कि दुनियाभर में पिछले साल मंदी के बावजूद समाचारपत्रों के प्रसार में लगभग 1.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। हालांकि ऊपरी तौर पर यह बढ़ोत्तरी बहुत मामूली दिखाई पड़ती है लेकिन अगर पिछले पांच वर्षों की बढ़ोत्तरी पर निगाह डालें तो समाचारपत्रों के सर्कुलेशन में 9 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। आज समाचारपत्र पूरी दुनिया की 34 फीसदी आबादी तक पहुंच रहे हैं। प्रतिदिन लगभग 1.9 अरब लोग अखबार पड़ रहे हैं। इससे भी अच्छी खबर यह है कि जहां अमेरिका और यूरोप में समाचारपत्रों के सर्कुलेशन में लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है वहीं आज भारत दुनिया का सबसे बड़ा समाचारपत्र बाज़ार बन गया है। भारत में अखबारों की प्रतिदिन लगभग 10.7 करोड़ प्रतियां बिक रही हैं और उसके कई गुना लोग अखबार पढ़ रहे हैं। शायद यही कारण है कि दिसंबर के पहले सप्ताह में वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूज़पेपर्स ने अपनी सालाना कॉन्फ्रेंस हैदराबाद में आयोजित की। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि चीन, दक्षिण अफ्रीका और लातिन अमेरिका में समाचारपत्रों का सर्कुलेशन लगातार बढ़ रहा है।
ज़ाहिर है कि भारत जैसे देशों में समाचारपत्रों को फिलहाल कोई खतरा नहीं है। आनेवाले दशकों में बढ़ती साक्षरता, क्रयशक्ति, जागरूकता और तकनीक के प्रसार के साथ समाचारपत्रों का सर्कुलेशन बढ़ता रहेगा। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय समाचारपत्रों के सामने कोई खतरा या चुनौती नहीं है। सच यह है कि समाचारपत्रों की आर्थिक सेहत को भले ही कोई खतरा नहीं हो, लेकिन हाल के वर्षों में ‘पैकेज पत्रकारिता’ के उद्भव के साथ उनकी विश्वसनीयता और साख ज़रूर सवालों के घेरे में आ गई है। समाचारपत्र उद्योग के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि मुनाफे की बढ़ती भूख के कारण विज्ञापन और समाचार के बीच की पवित्र दीवार जिस तरह से ढह रही है, उसके कारण समाचारपत्र अपना मूल चरित्र गंवाते जा रहे हैं।
असल में, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में समाचारपत्रों की भूमिका अपने पाठकों को देश- दुनिया, समाज और आसपास हो रहे बदलावों से वाकिफ़ कराने के अलावा लोगों के चौकीदार के रूप में सत्ता पर नज़र रखने की भी है। लेकिन पैकेज पत्रकारिता के उदय के साथ समाचारपत्रों ने न सिर्फ चौकीदार की भूमिका छोड़ दी है बल्कि वे चोर के साथ खड़े हो गए हैं। वे अपने उन पाठकों को धोखा दे रहे हैं, जो उनपर विश्वास करते हैं। पाठकों का विश्वास खोकर समाचारपत्र उद्योग बहुत दिनों तक ज़िंदा नहीं रह सकता है।
भारतीय समाचारपत्र उद्योग के उन सदस्यों को यह बात याद रखना चाहिए जो पैकेज पत्रकारिता को अपने व्यवसाय का आधार बना रहे हैं कि अमेरिका में समाचारपत्र उद्योग सिर्फ इंटरनेट के कारण ही नहीं बल्कि अपनी विश्वसनीयता खोने के कारण भी संकट में फंसा दिखाई पड़ रहा है। 80 के दशक तक हर दस अमेरिकी में 7 अपने समाचारपत्रों पर भरोसा करते थे लेकिन अब यह संख्या घटकर सिर्फ 3 रह गई है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि पाठकों का विश्वास खोकर समाचारपत्र उद्योग तरक्की नहीं कर सकता है। इस सच्चाई को भारतीय समाचारपत्र उद्योग के चमकते सितारे जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही उनके भविष्य के लिए अच्छा होगा।
बुधवार, दिसंबर 02, 2009
इस महंगाई के मायने
महंगाई बेकाबू होती जा रही है. खासकर आवश्यक खाद्य वस्तुओं की रिकार्डतोड़ महंगाई बिलकुल असहनीय हो गई है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर 15.58 प्रतिशत तक पहुंच गई है. यह पिछले 11 वर्षों का रिकार्ड है. हालांकि भारत जैसे विकासशील देशों के लिए महंगाई कोई नई परिघटना नहीं है लेकिन ऐसा शायद पहली बार हो रहा है कि उसपर काबू पाने के मामले में केंद्र सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं. अभी तक भले ही सरकारें महंगाई पर पूरी तरह से काबू करने में नाकाम रहती रही हों लेकिन वो दावा जरुर करती थीं कि महंगाई पर नियंत्रण करने की कोशिश की जा रही है. लेकिन इस बार न सिर्फ केंद्र सरकार ने महंगाई पर रोक लगाने के लिए कुछ खास नहीं किया है बल्कि कृषि और उपभोक्ता मामलों के मंत्री शरद पवार ने साफ शब्दों में कह दिया है कि अगले तीन-चार महीनों यानि रबी की फसल आने तक वे कुछ नहीं कर सकेंगे और लोगों को इस महंगाई के साथ ही जीना पड़ेगा.
कृषि मंत्री का यह भी कहना है कि इस मामले में अगर कोई राहत देने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है. यही नहीं, वित्त मंत्री ने भी महंगाई को रोकने के मामले में अपनी मजबूरी जाहिर कहते हुए कह दिया कि अभी उनकी चिंता के केंद्र में वृद्धि दर को तेज करना है. ऐसे में, लोगों को महंगाई के साथ सामंजस्य बैठाकर चलाना पड़ेगा. उनके बयान से साफ है कि महंगाई के आगे यू.पी.ए सरकार ने पूरी तरह से घुटने टेक दिए हैं. इससे यह भी पता चलता है कि इस महंगाई के सामने सरकार कितनी लाचार हो गई है. सरकार की लाचारी का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि प्रणव मुखर्जी ने अभी पिछले सप्ताह यह बयान दिया कि खाद्य वस्तुओं की महंगाई के लिए बिचौलिए जिम्मेदार हैं. लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि सरकार को बिचौलियों के खिलाफ कार्रवाई करने में क्या दिक्कत हो रही है? यू.पी.ए सरकार उनके आगे इतनी लाचार क्यों दिख रही है?
असल में, इन बयानों से न सिर्फ केंद्र सरकार की लाचारी झलकती है बल्कि उसकी बहानेबाजी और चालाकी का भी पता चलता है. कभी वह सूखे को कभी वैश्विक वित्तीय और आर्थिक संकट को और कभी बिचौलियों और राज्य सरकारों को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाडना चाहती है. अपनी सुविधा के अनुसार हर मंत्री और अफसर कारण खोज रहा है. यही नहीं, केंद्र इस महंगाई से निपटने का जिम्मा भी राज्य सरकारों के मत्थे मढ़ने पर तुला हुआ है. गोया इस महंगाई के लिए केवल राज्य सरकारें जिम्मेदार हो और उसका इससे कोई लेना-देना नहीं हो. यह ठीक है कि महंगाई से निपटने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की भी है. वे सारी जवाबदेही केंद्र सरकार पर डालकर नहीं बच सकती हैं. लेकिन इस मामले में केंद्र सरकार का रवैया इसलिए ज्यादा खलनेवाला है क्योंकि महंगाई केवल एक राज्य तक सीमित नहीं है और न ही उसकी कोई स्थानीय और तात्कालिक वजह है. जाहिर है कि इस कारण महंगाई से निपटने और आम आदमी को राहत पहुंचाने में राज्य सरकारों की भूमिका होते हुए भी उसकी सीमाएं हैं.
सच यह है कि यह महंगाई केंद्र सरकार की नीतियों का नतीजा है. इस महंगाई में साफ तौर पर कृषि की उपेक्षा, खाद्य प्रबंधन में ढिलाई, लापरवाही और भ्रष्टाचार, बिचौलियों-मुनाफाखोरों-जमाखोरों को बेलगाम छोड़ देने और कृषि वस्तुओं-खाद्यान्नों के वायदा कारोबार में सट्टेबाजों को खुली छूट देने जैसे नीतिगत कारणों से लेकर प्रशासनिक विफलताओं और मिलीभगत को साफ देखा जा सकता है. यही वजह है कि यह महंगाई केवल सूखे या खाद्य वस्तुओं और फल-सब्जियों की तात्कालिक आपूर्ति में कमी के कारण नहीं आई है बल्कि इसके कहीं गहरे नीतिगत और ढांचागत कारण हैं लेकिन यू.पी.ए सरकार उनपर पर्दा डालने के लिए कुछ तात्कालिक कारणों पर ही ज्यादा जोर दे रही है. यही नहीं, केंद्र सरकार के आर्थिक मैनेजर इस महंगाई को यह कहते हुए अपनी नीतियों की सफलता भी बता रहे हैं कि नरेगा और दूसरी योजनाओं के कारण गरीबों की आय बढ़ी है और वे अब खाद्यान्नों आदि का पूरा उपभोग कर रहे हैं जिससे इनकी मांग में बढ़ोत्तरी और कीमतों में इजाफा हो रहा है.
यह तर्क नया नहीं है. जरा अपनी स्मृति पर जोर डालिए तो याद आ जायेगा कि पिछले साल जब खाद्यान्नों की कीमतें तेजी से बढ़ रही थीं तो अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कहा था कि भारत और चीन जैसे विकासशील देशों में गरीबों की आय बढाने से खाद्यान्नों की मांग बढ़ी है जिसके कारण महंगाई बढ़ रही है. तब जार्ज बुश की बहुत आलोचना हुई थी लेकिन अब यही तर्क देश में अर्थव्यवस्था के नियंता दे रहे हैं. यह सचमुच कितना अमानवीय और बेहूदा तर्क है कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि गरीब भरपेट भोजन करने लगे हैं. सबसे पहली बात तो यह है कि यह सच नहीं है. विश्व खाद्य संगठन के मुताबिक देश में अब भी 22 करोड़ से ज्यादा लोग हैं जिन्हें दोनों जून रोटी नसीब नहीं है. वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 119 देशों में 94 वें स्थान पर है और कुल भूखे लोगों की तादाद के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. इसके अलावा जिन लोगों को भोजन मिल भी रहा है उसमें बहुसंख्यक भारतीयों को जरूरी पौष्टिक भोजन नहीं मिल रहा है जिसके कारण देश में 50 फीसदी से अधिक बच्चे और माताएं कुपोषण के शिकार हैं.
दूसरी बात यह है कि जिन गरीबों की आय बढ़ी भी थी, खाद्य वस्तुओं की इस तीव्र महंगाई के कारण वे एक बार फिर पुरानी स्थिति में पहुंच गए हैं. यही कारण है कि महंगाई को गरीबों के लिए टैक्स माना जाता है. लेकिन खाद्यान्नों की ऐसी महंगाई तो दोहरा टैक्स है. सरकार स्वीकार करे या नहीं लेकिन तथ्य यह है कि इस महंगाई के कारण करोड़ों लोग फिर से गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं. जमीनी रिपोर्टें भी इसकी पुष्टि कर रही हैं. इसलिए यह महंगाई आम महंगाई से इस मायने में अलग है कि इसकी वास्तविक कीमत गरीब और असली आम आदमी चुका रहा है. तीसरी बात यह है कि यह अपने आप में कितनी शर्मनाक और अमानवीय शर्त है कि महंगाई पर काबू पाने के लिए गरीबों की रोटी और उनके भरपेट भोजन के बुनियादी अधिकार को छीन लिया जाए. चौंकिए मत, बाज़ार यही तो कर रहा है, बढ़ती कीमतों के जरिये लाखों गरीब परिवार अपने आप भोजन के अधिकार से वंचित किये जा रहे हैं.
लेकिन यहां एक आम आदमी की सरकार है जो कह रही है कि वह महंगाई से निजात दिलाने के लिए कुछ नहीं कर सकती है. हालांकि यह सरकार इस वायदे के साथ सत्ता में आई थी कि वह गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को प्रति माह तीन रूपये किलो की दर से 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी देगी. लेकिन लगता है कि यू.पी.ए सरकार वह आधा-अधूरा वायदा भी भूल गई है. वैसे इस महंगाई ने इस वायदे की सीमाएं भी स्पष्ट कर दी हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि असल मुद्दा व्यापक भोजन का अधिकार है. यह तभी सुनिश्चित किया जा सकता है अगर सरकार बाजार के बजाय खुद यह जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो. इसके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानि पी.डी.एस को न सिर्फ मजबूत, पारदर्शी और सक्षम बनाया जाए बल्कि उसे सार्वभौम किया जाए. हालांकि पी.डी.एस को ध्वस्त करने के लिए जिम्मेदार नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के पैरोकार इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे लेकिन पिछले कुछ वर्षों के अनुभव से साफ है कि महंगाई से निपटने का सवाल असल में खाद्य सुरक्षा का सवाल है.
इस महंगाई ने देश में खाद्य सुरक्षा की पोल खोल दी है. दरअसल, खाद्य सुरक्षा का एक सिरा अगर गरीबों की रोटी से जुड़ता है तो दूसरा सिरा कृषि और किसानो से जुड़ा है. खाद्य सुरक्षा खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भरता के बगैर संभव नहीं है. लेकिन पिछले एक-डेढ़ दशक से यह लगातार साफ होता जा रहा है कि खाद्यान्नों के उत्पादन की वृद्धि दर जनसंख्या की वृद्धि दर से कम हो गई है. यही नहीं, यह तथ्य भी किसी से छुपा नहीं है कि लगातार सरकारी उपेक्षा और डब्लू. टी.ओ के अस्तित्व में आने के बाद से कृषि क्षेत्र गंभीर संकट का सामना कर रहा है. किसानो की आत्महत्याओं के जरिये यह संकट लगातार देश के सामने था लेकिन उसे जानबूझकर अनदेखा किया गया. यह मान लिया गया कि कृषि की धीमी विकास दर के बावजूद चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि सेवा और औद्योगिक क्षेत्र के बदौलत देश 8-9 प्रतिशत की जी.डी.पी वृद्धि दर आसानी से हासिल कर लेगा. यही नहीं, कुछ नव उदारवादी विश्लेषकों ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया कि कृषि की परवाह किये बगैर तीव्र जी.डी.पी वृद्धि दर हासिल करने पर जोर दिया जाना चाहिए क्योंकि उससे जो समृद्धि आएगी, उससे जरूरत के खाद्यान्न आयातित कर लिए जायेंगे.
इस सोच का नतीजा अब सबके सामने है. न माया मिली न राम. यहां तक कि अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि कृषि की उपेक्षा करके एक सीमा के बाद जी.डी.पी की वृद्धि दर को भी बढ़ाना भी मुश्किल है. यही नहीं, भारत जैसे देश के लिए खाद्यान्नों का आयात कोई विकल्प नहीं है. ताजा उदाहरण से यह बात एक बार फिर साबित हो गई है. खाद्यान्नों खासकर दालों, चीनी, चावल, खाद्य तेलों आदि की किल्लत से निपटने के लिए जब सरकार ने आयात करने की कोशिश की तो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इन जिंसों की कीमतों में और उछाल आ गया. लेकिन अफसोस की बात यह है कि सरकार की असली चिंता खाद्य सुरक्षा नहीं बल्कि खाद्य सब्सिडी को कम करना है. हालांकि खाद्य सब्सिडी को कम करने की जितनी ही कोशिश हुई है, वह उतनी ही तेजी से बढ़ती गई है. इसकी वजह यह है कि इसी सरकार ने नहीं बल्कि पिछली सभी सरकारों ने खाद्य सब्सिडी को कम करने के नाम पर जिस तरह से आगा-पीछा सोचे हुए तात्कालिक और तदर्थ फैसले किये हैं, उससे सब्सिडी तो कम नहीं ही हुई उलटे खाद्य सुरक्षा अलग खतरे में पड़ गई है.
इस लिहाज से इस महंगाई को एक बड़े खतरे की पूर्वसूचना की तरह देखा जाना चाहिए. इससे निपटने के लिए तात्कालिक के साथ-साथ कुछ बुनियादी और दूरगामी फैसले करने पड़ेंगे. इसकी शुरुआत भोजन के मौलिक अधिकार के कानून से हो सकती है. यू.पी.ए सरकार ने एक कानून बनाया भी है लेकिन वह इतना सीमित और आधा-अधूरा है कि अभी गरीबों को जो राशन मिल भी रहा है, वह भी छीन जायेगा. सरकार चुनावी वायदे के मुताबिक गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों को तीन रूपये किलो की दर से हर महीने 25 किलो अनाज देने का प्रस्ताव कर रही है जबकि उन्हें अभी दो रूपये किलो के भाव 35 किलो अनाज मिल रहा है. जाहिर है कि ईद आधे-अधूरे कानून से कुछ नहीं होगा, इसके बदले सरकार को पूर्ण खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाना चाहिए. साथ ही, पी.डी.एस को सार्वभौम और मजबूत करना बहुत जरूरी है. दूसरे, कृषि क्षेत्र की उपेक्षा त्यागकर किसानो को वास्तविक लाभकारी मूल्य देने की गारंटी करनी होगी. कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाना होगा. तीसरे, अनाजों के व्यापार में बड़ी कंपनियों को घुसने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए. साथ ही, खाद्यान्नों में वायदा कारोबार पर रोक लगाना ही होगा. चौथे, जब तक देश खाद्यान्नों के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भरता हासिल नहीं कर लेता और हर गरीब के लिए दोनों जून रोटी सुनिश्चित नहीं हो जाती, अनाजों का निर्यात नहीं होना चाहिए.