कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने का सवाल उठाते ही वित्त मंत्रालय समेत आर्थिक सुधारों के तमम पक्षधर पैसे की कमी का रोना शुरू कर देते हैं. सिर्फ कृषि ही नहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में संरचनागत ढांचे के विकास का मुद्दा हो या सामाजिक सेवाओं जैसे बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, जलापूर्ति, सफाई उपलब्ध कराने का मुद्दा या फिर गरीबी उन्मूलन और रोजगार गारंटी जैसे कार्यक्रमों के लिए जरूरी धन के आवंटक का प्रश्न, वित्तमंत्री वित्तीय घाटे को काबू में रखने की कानूनी बाध्यता और पैसे का टोटा बताकर कन्नी काटने लगते हैं.
उल्टे चिदंबरम का यह दावा है कि उपलब्ध संसाधनों के बीच वे कृषि, ग्रामीण विकास, सामाजिक क्षेत्र और गरीबी उन्मूलन तथा रोजगार गारंटी जैसे कार्यक्रमों के लिए भारी रकम दे रहे हैं. यूपीए सरकार ने पिछले चार वर्षों में इन सभी के लिए बजट आवंटन में भारी वृद्धि की है.
वित्तमंत्री के दावे में कुछ हद तक सच्चाई है. लेकिन यूपीए सरकार इसी जनादेश और वायदे के साथ सत्ता में आई थी कि वह पिछले सवा दशक में कृषि, ग्रामीण विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी जैसे मुद्दों की जैसी उपेक्षा और अनदेखी हुई है, उसे वह न सिर्फ खत्म करेगी बल्कि इन सवालों को अर्थनीति और बजट के केंद्र में लाएगी.
यह सच है कि इन क्षेत्रों के लिए आवंटन बढ़ा है लेकिन खुद न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए वायदों और जीडीपी के अनुपात में देखा जाए तो स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं आया है. यूपीए सरकार से जैसी साहसिक और महत्वाकांक्षी पहल की उम्मीद थी, उस पर वह कतई खरा नहीं उतर सकी.
उदाहरण के लिए यूपीए के सबसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों में से एक ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को लीजिए. अगली एक अप्रैल से यह योजना देश के सभी जिलों में लागू होगी. लेकिन वित्तमंत्री ने इस योजना के लिए चालू वित्तीय वर्ष के 12 हजार रुपए की तुलना में वर्ष 2008-09 में 16 हजार करोड़ रुपए उपलब्ध कराए हैं. यह जीडीपी का महज 0.3 फीसदी है.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह योजना जैसे-जैसे लोकप्रिय हो रही है, रोजगार मांगने वालों की संख्या बढ़ रही है. उसे देखते हुए 16 हजार करोड़ रुपए की रकम न सिर्फ नाकाफी है बल्कि बताती है कि यूपीए सरकार इस योजना को लेकर कितना अगंभीर है.
यही नहीं, इस 16 हजार करोड़ रुपए के प्रावधान में एक ट्रिक है. चिदंबरम ने संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना को समाप्त कर ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में शामिल कर दिया है. इस तरह उसका चालू वित्तीय वर्ष का 3,420 करोड़ रुपए रोजगार गारंटी के 12 हजार करोड़ में जोड़ दिया गया है. साफ है कि ग्रामीण रोजगार गारंटी के लिए वास्तविक अर्थों में सिर्फ 600 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई है.
दरअसल, चिदंबरम और मनमोहन सिंह सरकार नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी और उसके वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर आने को तैयार नहीं है. उल्लेखनीय है कि चिदंबरम ने यूपीए सरकार के सत्ता में आते ही पहले बजट से ठीक तीन दिन पहले एनडीए सरकार द्वारा पारित राजकोषीय घाटा और बजट प्रबंधन कानून को लागू करने का फैसला किया था.
यह कानून विश्व बैंक- मुद्रा कोष की दबाव और प्रेरणा से बना था जिसका उद्देश्य वित्तीय और राजस्व घाटे को जीडीपी की एक निश्चित सीमा के भीतर रखना है. यह कानून सरकार का हाथ बांधने वाला है. वित्तमंत्री इस कानून की दुहाई देकर कृषि से लेकर सामाजिक क्षेत्रों के लिए पर्याप्त बजट आवंटन करने से इनकार करते रहे हैं. चिदंबरम से सभी पांच बजट भाषणों में हर बार इस कानून के अनुसार वित्तीय घाटे और राजस्व घाटे को पूर्व निर्धारित सीमा में रखने के लिए अपनी पीठ ठोंकी गई है.
लेकिन विश्व बैंक और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए वित्तमंत्री ने राजकोषीय घाटा और बजट प्रबंधन कानून के प्रति जितनी प्रतिबद्धता दिखाई, वैसी श्रद्धा और उत्साह न्यूनतम साझा कार्यक्रम में किए गए वायदों को पूरा करने में नहीं दिखाया है. इसता नतीजा सबके सामने है. कहने की जरूरत नहीं है कि अगर इस साल चुनाव न होते तो चिदंबरम ने जो थोड़ी दरियादिली दिखाई है, वह हरगिज नहीं दिखाते.
उस पर तुर्रा देखिए कि गुलाबी अखबारों और आर्थिक सुधारों के पैरोकारों सहित कॉरपोरेट जगत का एक बड़ा हिस्सा खुलकर किसानों की कर्ज माफी को लोकलुभावन बताकर उसकी आलोचना कर रहा है. उनका सुर कुछ ऐसा है जैसे 60 हजार करोड़ रुपए गटर में फेंक दिए गए हों. कहा जा रहा है कि इससे न सिर्फ सरकारी घाटे और बैंकों का हिसाब-किताब बिगड़ जाएगा बल्कि किसानों को कर्ज माफी की आदत लग जाएगी.
इसे कहते हैं, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे. जब बड़े कॉरपोरेट समूहों और औद्योगिक घरानों का बकाया कर्ज नॉन पफार्मिंग एसेट (एनपीए) बताकर माफ किया जाता है तो उसकी आलोचना में किसी की जुबान नहीं खुलती. याद रहे सरकारी बैंकों के कॉरपोरेट सेक्टर को दिए कोई 90 हजार करोड़ रुपए के कर्जे अब तक डूब चुके हैं.
इतना ही नहीं, अगर कॉरपोरेट क्षेत्र को करों में रियायतें और छूट दी जाए तो वह 'सही अर्थशास्त्र' है लेकिन रोजगार गारंटी जैसी कोई योजना, किसानों की कर्ज माफी और खाद्य सब्सिडी जैसे उपाय 'बुरे अर्थशास्त्र' में आते हैं. लेकिन क्या यह सच नहीं है कि कॉरपोरेट क्षेत्र, आयकरदाताओं, निर्यातकों, उपभोक्ताओं को दी जाने वाली कर रियायतें, छूटें और कटौतियां भी एक तरह की सब्सिडी ही है?
आगे दूसरी किस्त में....
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