लेकिन इस छुपी हुई सब्सिडी पर कोई शोर नहीं मचाता है. इसे स्वाभाविक और अमीरों का जन्मसिद्ध अधिकार मान लिया गया है. लेकिन डेढ़ दशक में एक बार कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की 60 हजार करोड़ रुपए की कर्ज माफी पर आसमान सिर पर उठाने वाले इस तथ्य को छुपा जाते हैं कि हर साल कॉरपोरेट टैक्स, आयकर, आयात शुल्क और उत्पाद शुल्क करों में छूट और रियायतों के कारण केंद्रीय खजाने को वर्ष 2006-07 में 2,39,712 करोड़ रुपए और 2007-08 में 2,78,644 करोड़ रुपए का राजस्व गंवाना पड़ा है. ये आंकड़ें खुद वित्तमंत्री ने बजट पेश करते हुए 'परित्यक्त राजस्व का विवरण' शीर्षक वाली 37 पृष्ठों की रिपोर्ट में पेश किया है.
ये आंकड़ें चौंकाने वाले हैं. विभिन्न करों में छूटों और रियायतों के कारण वर्ष 2006-07 में गंवाया गया 2,39,712 करोड़ रुपए का राजस्व उस वर्ष सकल कर संग्रहण का लगभग 51 फीसदी था. इसका अर्थ यह हुआ कि केंद्र सरकार ने उस साल कुल जितना राजस्व इकट्ठा किया, उसके आधे से अधिक का राजस्व गंवा दिया. इसी तरह चालू वित्तीय वर्ष में भी लगभग 2,78,644 करोड़ रुपए का राजस्व कर छूटों और रियायतों में चले जाने का अनुमान है जो कुल कर संग्रह का लगभग 48 फीसदी बैठता है. ध्यान रहे कि राजस्व गंवाने का यह सिलसिला साल दर साल चला आ रहा है.
लेकिन अगर पिछले दो साल के गंवाए गए राजस्व को ही जोड़ दिया जाए तो यह रकम 5,18,356 करोड़ रुपए तक पहुंच जाती है. यह रकम किसानों की कर्ज माफी की रकम की नौ गुना, खाद्य सब्सिडी की 16 गुना, खाद सब्सिडी की 17 गुना और कुल सब्सिडियों की आठ गुना रकम है.
कर छूटों और रियायतों का हाल यह है कि कॉरपोरेट क्षेत्र पर नियमानुसार टैक्स, ,सरचार्ज और सेस को मिलाकर 33.3 फीसदी की दर से कॉरपोरेट टैक्स लगना चाहिए लेकिन छूटों और रियायतों के कारण प्रभावी दर मात्र 20.60 प्रतिशत बैठती है. इसके बावजूद हर बजट से पहले सीआईआई, फिक्की, एसोचैम जैसे कॉरपोरेट क्षेत्र के लॉबी संगठन कॉरपोरेट टैक्स में कटौती और छूट के लिए सरकार पर दबाव बनाने लगते हैं.
इतना ही नहीं, अगर सरकार कॉरपोरेट क्षेत्र, अमीर आयकरदाताओं, आयातकों, सेवा प्रदाताओं और कंपनियों से बकाया टैक्स वसूल ले तो कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण विकास के लिए दोगुने-तिगुने से अधिक बजट आवंटन बढ़ाया जा सकता है. उदाहरण के लिए 65,524 करोड़ रुपए के विभिन्न कर विवादों में फंसे हुए हैं जबकि 33,768 करोड़ रुपए के कर विवाद न होने के बावजूद सरकार वसूल नहीं पा रही है. इस तरह कुल 99,293 करोड़ रुपए का टैक्स फंसा हुआ है जो वसूल लिया जाए तो कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को कोई कमी नहीं रह जाएगी.
स्पष्ट है कि सरकार के पास संसाधनों की उतनी कमी नहीं है जितना की उसका रोना रोया जाता है. अबलत्ता, इच्छाशक्ति और प्राथमिकता का अभाव बजट में जरूर दिखाई पड़ता है. इसी का नतीजा है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, ग्रामीण विकास और ढांचागत क्षेत्र के विकास के लिए पैसे की कमी का रोना रोने वाली यूपीए सरकार के कार्यकाल में रक्षा बजट 2003-04 के 60,060 करोड़ रुपए से उछलता हुआ पांचवें बजट में 1,05,600 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. इस तरह पिछले चार वर्षों में रक्षा बजट में 45,548 करोड़ रुपए यानी कोई 76 फीसदी की रेकार्डतोड़ वृद्धि की गई है.
इससे यूपीए सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है. उदाहरण के लिए इस बजट में रक्षा के लिए आवंटित कुल 1,05,600 करोड़ रुपए में से लगभग 46 फीसदी रकम यानी 48 हजार करोड़ रुपए हथियारों और अन्य रक्षा साजो-सामान की खरीद के लिए रखे गए हैं. चालू वित्तीय वर्ष 2007-08 में इस मद में चिदंबरम ने 41,922 करोड़ रुपए आवंटित किए थे. हालांकि संशोधित बजट में यह घटकर 37,705 करोड़ रुपए हो गया.
गौरतलब है कि पिछले चार वर्षों में हर रक्षा बजट में हथियारों की खरीद के लिए भारी रकम आवंटित की गई है. वर्ष 2004-05 से 2008-09 के बीच रक्षा बजट में अकेले हथियारों आदि की खरीद के लिए कुल 1,88,027 करोड़ रुपए की भारी राशि खर्च की गई है. इसकी तुलना में इसी अवधि में कृषि पर कुल 34,851 करोड़ रुपए, स्वास्थ्य पर 56,813 करोड़ रुपए और शिक्षा पर 1,11,143 करोड़ रुपए का योजना व्यय किया गया है.
इस तरह यूपीए सरकार ने इन पांच बजटों में अकेले हथियारों पर कृषि के योजना बजट का छह गुना, स्वाश्थ्य का चार गुना और शिक्षा बजट का डेढ़ गुने से अधिक खर्ज किया है. इस अवधि में शिक्षा और स्वास्थ्य का कुल आयोजना बजट 1,67,956 करोड़ रुपए रहा जो कि हथियारों पर खर्च की गई राशि से भी 20,071 करोड़ रुपए कम है.
साफ है कि यूपीए सरकार के लिए कृषि, स्वास्थ्य और शिक्षा की तुलना में हथियारों की खरीद ज्यादा महत्वपूर्ण प्राथमिकता रही. क्या हथियारों के प्रति यह उत्साह रक्षा सौदों में मिलने वाली दलाली के कारण था या मनमोहन सिंह सरकार खुद को वाजपेयी सरकार की तुलना में ज्यादा देशभक्त साबित करना चाहती थी ? कारण चाहे जो भी हों लेकिन यूपीए सरकार की प्राथमिकताओं में हथियारों के प्रति अतिरिक्त अनुराग की कीमत कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य को चुकानी पड़ी है.
साफ है कि यूपीए सरकार ने 2004 में मिले जनादेश के मुताबिक अर्थनीति और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को बदलने का ऐतिहासिक मौका नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति पूर्ण समर्पण, कॉरपोरेट समूहों और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के प्रति अतिरिक्त प्रेम और हथियारों के प्रति अति उत्साह के कारण गंवा दिया.
जाहिर है कि इसकी भरपाई आखिरी समय में गरीब किसानों का 60 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ करके गंगा नहाने से नहीं हो पाएगी.
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