शनिवार, मार्च 01, 2008

78 फीसदी लोगों के लिए क्या है बजट में ?

कर्ज माफी का फैसला चार साल पहले क्यों नहीं...

 

लोकलुभावन बजट से चुनाव जीता जा सकता है...!!!

 

जैसी कि उम्मीद थी वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अगले आम चुनावों को ध्यान में रखकर एक लोकलुभावन बजट पेश किया है. इस बजट को 'पोलिटिकली करेक्ट' बनाने की पूरी कोशिश की गई है. बजट का सीधा उद्देश्य यूपीए के राजनीतिक आधार को खुश करना है. इसमें किसानों से लेकर मध्यवर्ग तक और दलितों अल्पसंख्यक वर्गों को लुभाने का हरसंभव प्रयास किया गया है.

 

हालांकि लोकलुभावन बजट से चुनाव जीता जा सकता है, ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं है. लेकिन लगता है कि यूपीए के कर्ता-धर्ता इस खुशफहमी में हैं कि अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में तोहफे बांटकर वे सत्ता की वैतरणी पार कर सकेंगे.

 

सच यह है कि यूपीए का आम आदमी बहुत समझदार और चतुर प्राणी है. उसे अच्छी तरह पता है कि चुनावों को देखकर वित्तमंत्री की यह दयानतदारी बिखरी है. अन्यथा चार साल तक विश्व बैंक और मुद्राकोष के दबाव में डूबे किसानों का ख्याल कैसे आया ? यह सवाल उठना बहुत जायज है कि किसानों की कर्ज माफी का फैसला इतना देर से क्यों आया ?  यह मुद्दा पिछले कई वर्षों से पहले एनडीए और बाद में यूपीए सरकार के सामने मुंह बाए खड़ा था.

 

सच यह है कि यूपीए सरकार किसानों की हालत सुधारने के वायदे के साथ सत्ता में आई थी. उसमें खुद प्रधानमंत्री के शब्दों में 'कृषि क्षेत्र के लिए एक नई डील' का वायदा किया गया था. कहने की जरूरत नहीं है कि इस डील में किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा सबसे अहम था. लेकिन यूपीए को फैसला लेने में चार साल लग गए. इस बीच हजारों किसानों ने कर्ज के बोझ तले आत्महत्या कर ली. क्या यह फैसला पहले करके इन कीमती जानों को बचाया नहीं जा सकता था...?

 

यही नहीं, कर्ज माफी का यह फैसला आधा-अधूरा है. छोटे और सीमांत किसानों के बड़े हिस्से ने बैंकों के बजाय साहुकारों से कर्ज ले रखा है. इस कर्ज माफी से उन्हें कोई लाभ नहीं होने वाला है. इसके अलावा कर्ज माफी अपने आप में व्यापक कृषि संकट को दूर करने के लिए पर्याप्त नहीं है. दरअसल, किसानों का कर्ज में डूबना कृषि संकट का मर्ज नहीं बल्कि उसका लक्षण है.

 

कृषि संकट कहीं ज्यादा गहरा और व्यापक है. खुद सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक कृषि क्षेत्र अपनी गतिशीलता खो चुका है. इसका बुनियादी कारण भूमि सुधार की विफलता से लेकर कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में भारी गिरावट है. इतना ही नहीं, एक तो करैला, दूजे नीम चढ़ा की तर्ज पर कृषि क्षेत्र को डब्लयूटीओ के तहत अंतरराष्ट्रीय बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया है.

 

लेकिन कृषि की इन बुनियादी समस्याओं को हल करने के बजाय वित्तमंत्री ने किसानों की कर्ज माफी के जरिए एक तरह से फायर-फाइटिंग की कोशिश की है. अफसोस यह है कि इस बीच आग काफी फैल चुकी है. कर्ज माफी के छींटों से यह आग बुझने वाली नहीं है. कड़वी सच्चाई यह है कि यूपीए सरकार ने कृषि संकट को दूर करने के बेहतरीन मौके को गंवा दिया है. इन पांच सालों में बहुत कुछ हो सकता था लेकिन ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार ने यह मान लिया था कि संकट इतना गहरा है कि उसे हल करना उसके वश की बात नहीं है.

 

कहने की जरूरत नहीं है कि यूपीए को मौका गंवाने की कीमत चुकानी पड़ेगी. बल्कि सच यह है कि कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और यूपीए के अन्य घटक दलों की हार से यही संकेत मिल रहा है. इसके बावजूद वित्तमंत्री ने बजट में विभिन्न वर्गों को लुभाने के लिए यूपीए सरकार की कई योजनाओं को भारी-भरकम रकम आवंटित करने का दावा किया है.

 

लेकिन सच इसके उलट है. यूपीए की सबसे महत्वाकांक्षी योजना- ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना कानून के प्रति वित्तमंत्री की उपेक्षा इस बजट में भी साफ देखी जा सकती है. अगली 1 अप्रैल से यह योजना देश के सभी जिलों में लागू होनी है लेकिन इसके लिए वित्तमंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष के 12 हजार करोड़ रुपए की तुलना में इस बजट में 16 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया है.

 

साफ है कि योजना के प्रति चिदंबरम की कंजूसी इस बजट में भी बनी रही. इसी तरह सर्व शिक्षा अभियान के लिए बजट आवंटन में भी पिछले साल की तुलना में कोई खास फर्क नहीं है. खुद आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष में शिक्षा पर जीडीपी का सिर्फ 2.84 प्रतिशत खर्ज किया जा रहा है जबकि न्यूनतम साझा कार्यक्रम में वायदा किया गया था कि शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम छह प्रतिशत खर्च किया जाएगा.

 

स्वास्थ्य क्षेत्र को भी आवंटन में ऐसी ही कंजूसी दिखाई पड़ती है. हालांकि बजट भाषण में वित्तमंत्री ने ऐसा साबित करने की कोशिश की, गोया सरकार इन क्षेत्रों पर पूरी तरह से मेहरबान हो गई है.

 

कुछ इसी अंदाज में वित्तमंत्री ने आम आदमी के नाम पर आयकर देने वाले मध्यवर्ग को खुश करने के लिए कर योग्य आय की सीमा बढ़ाने का ऐलान किया है. इससे निश्चय ही मध्यवर्ग को थोड़ी राहत मिलेगी. लेकिन बढ़ती हुई महंगाई इस राहत को लीलती हुई दिख रही है.

 

मध्य वर्ग को करों में छूट देने के पीछे चिदंबरम का एक उद्देश्य यह भी है कि इससे होने बचत से बाजार में मांग बढ़ेगी जिसका लाभ उद्योगों को होगा. छठे वेतन आयोग को लागू करने के पीछे भी यही दोहरी मंशा काम कर रही है. इससे बाजार में मांग भी बढ़ेगी और दूसरे यूपीए वेतनभोगी सरकारी कर्मचारियों के वोटों की भी उम्मीद कर सकता है.

 

लेकिन आम आदमी के नाम पर मध्यवर्ग को खुश करते हुए चिदंबरम यह भूल गए कि असली आम आदमी कौन है ? खुद यूपीए सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह चौंकाने सच्चाई उजागर की थी कि इस देश के 78 प्रतिशत लोग प्रतिदिन 20 रुपए से भी कम आय में गुजर-बसर करते हैं. इस बजट में उन 78 फीसदी लोगों के लिए क्या है..? क्या चिदंबरम को याद दिलाने की जरूरत है कि सरकारें बनाने और बिगाड़ने का काम यही 78 फीसदी आम आदमी करते हैं.

 

यह बजट इस मायने में निराश करता है कि एक बार फिर दरिद्रनारायण की घोर उपेक्षा हुई है. देश की आबादी का यह 78 प्रतिशत आम आदमी रोटी, रोजगार और शिक्षा-स्वास्थ्य के लिए रोज जूझ रहा है.

 

महंगाई खासकर खाद्यान्नों की ऊंची कीमतों का इस वर्ग पर ऐसा असर पड़ा है कि जाने-माने अर्थशास्त्री मार्टिन रेवेलियन के मुताबिक गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले लोगों की तादाद 28 फीसदी से बढ़कर 31 फीसदी पहुंच गई है.

 

यानी 'समावेशी विकास' के मंत्र जाप के बावजूद तेज विकास दर का लाभ आम आदमी तक नहीं पहुंच रहा है. गरीबी कम होना दूर, उल्टे महंगाई के कारण गरीबों की तादाद बढ़ रही है.

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