वित्तमंत्री चिदंबरम शायद यह भूल गए कि आत्महत्या करने वाले और सबसे अधिक परेशान किसानों में पड़ी संख्या उन किसानों की है जिन्होंने सूदखोरों से असामान्य रूप से ऊंची दरों पर कर्ज ले रखा है. वित्तमंत्री मानें या न मानें लेकिन तथ्य यह है कि इन किसानों को बैंकों के बजाय सूदखोरों की शरण में इसलिए जाना पड़ा कि बैंकों से समय पर और बिना घूस दिए कर्ज लेना लगभग नामुमकिन है.
यह संस्थागत वित्तीय व्यवस्था की शर्मनाक विफलता है कि आजादी के 61 सालों बाद भी किसानों को उनका खून चूसनेवाले सूदखोरों से मुक्ति नहीं मिली है. चिदंबरम को इस विफलता की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए सूदखोरों के कर्जों से दबे किसानों को राहत देने के लिए भी रास्ता जरूर खोजना चाहिए.
ऐसा नहीं है कि इसका विकल्प नहीं है. कृषि मंत्री शरद पवार का यह कहना बिल्कुल जायज है कि किसानों को सूदखोंरो को पैसा लौटा देने से मना कर देना चाहिए. लेकिन क्या पवार को इसका नतीजा मालूम है? क्या वे और राज्य की पुलिस उन किसानों की मदद में आगे आएंगे जिन्हें सूदखोरों और उनके गुंडों का कोप झेलना पड़ेगा. रेहन में रखे कीमती समान गंवाने पड़ेंगे और भविष्य में आकस्मिक जरूरत पर पैसा नहीं मिल पाएगा?
दरअसल, सूदखोरों के कर्जों से राहत देने का एक रास्ता यह हो सकता है कि ऐसे सभी किसानों को बैंकों से मामूली लगभग 4 प्रतिशत की दर पर तत्काल कर्ज उपलब्ध कराया जाए जिससे वे सूदखोरों का पैसा वापस कर सकें. इसमें सरकार को 10 से 20 हजार करोड़ रुपया ब्याज सब्सिडी के रूप में देना होगा जो कि बहुत बड़ी रकम नहीं है.
चिदंमरम को यह फैसला करने में इसलिए भी हिचकिचाना नहीं चाहिए क्योंकि उन्होंने कर्ज माफी के लिए बजट से बाहर और अगले तीन वर्षों में बैंकों को पैसा लौटाने की बात कही है. 60 हजार करोड़ में 10 से 20 हजार करोड़ रुपया और जुड़ जाएगा तो कोई आसमान नहीं टूट पड़ेगा.
मुद्दा सिर्फ यह है कि सूदखोरों के कर्ज से दबे किसानों को भी राहत मिलनी चाहिए, उसका तरीका चाहे जो हो और पैसा चाहे जितना लगे. वित्तमंत्री इससे आंख नहीं चुरा सकते हैं. अगर वह सिद्धांततः इस तर्क से सहमत हैं कि इन किसानों को भी राहत मिलनी चाहिए तो व्यावहारिक और प्रक्रियागत कठिनाइयों को दूर करना मुश्किल नहीं है. सूदखोरों के आगे चिदंबरम की लाचारी चुभती है. क्या यह लाचारी इसलिए भी है कि सूदखोरों में कई कांग्रेसी नेताओं के भी नाम आए हैं?
लेकिन कर्ज माफी का यह फैसला कई और कारणों से भी आधा-अधूरा है. वित्तमंत्री ने किसानों की ऋणग्रस्तता पर गठित राधाकृष्णा समिति की दो महत्वपूर्ण सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया है. समिति की पहली सिफारिश यह थी कि सरकार को छोटे और गरीब किसानों के वित्तीय समावेशीकरण (फाइनांसियल इन्कलूजन) यानी उनकी बैंकों और दूसरी संस्थागत वित्तीय संस्थाओं तक पहुंच को सरल, सुगम और सुनिश्चित करना चाहिए.
लेकिन कृषि ऋण को दोगुना करने के दावों के बीच यह लक्ष्य अभी तक दिवास्वप्न बना हुआ है. वित्तीय उदारीकरण की हवा में मोटा मुनाफा कमा रहे बैंक ग्रामीण क्षेत्रों से दूर और गरीब किसानों और भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की पहुंच से बाहर होते जा रहे हैं. दूसरी ओर, छोटे और गरीब किसानों को वक्त पर कर्ज देने में कोताही और भ्रष्टाचार के कारण सूदखोंरो की चांदी है.
तथ्य यह है कि वित्तमंत्री का कृषि ऋण को दोगुना करने का दावा हकीकत से परे और वित्तीय ट्रिक का नमूना है. हाल ही में, शोधकर्ता आर रामकुमार ने "इकॉनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 29 दिसंबर, 2007" में और सामाजिक कार्यकर्ता सुनील ने "जनसत्ता" में यह खुलासा किया कि कृषि ऋण के दोगुना होने में सबसे बड़ी भूमिका कृषि को दिए जाने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष वित्तीय ऋणों की परिभाषा बदलने ने निभाई है. इससे वास्तव में छोटे, सीमांत और गरीब किसानों को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ है. उनकी कीमत पर इसका फायदा धनी किसान, एग्री बिजनेस कंपनियां, खाद्य प्रसंस्करण कंपनियां आदि उठा रही हैं.
तीसरी और आखिरी किस्त अगले दिन...
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