शुक्रवार, मार्च 21, 2008

चिदंबरम की खेतीबारीः आखिरी किस्त...

 
 
यही नहीं, चिदंबरम ने बजट में राधाकृष्णा समिति की एक और महत्वपूर्ण सिफारिश को अनदेखा कर दिया है. समिति ने किसानों को कर्ज जाल में फंसने से बचाने के लिए कृषि उत्पादों की कीमतों में असामयिक और भारी गिरावट से बचाव हेतु मूल्य स्थिरीकरण और जोखिम उपशमन विधि स्थापित करने की सिफारिश की थी.
 
इससे उन किसानों को, जिन्हें बाजार के उतार-चढ़ाव के कारण अक्सर नुकसान उठाना और ऋण जाल में फंसने के लिए मजबूर होना पड़ता है, काफी राहत मिल सकती थी. लेकिन वित्तमंत्री ने समिति के बजाय अपने अफसरों द्वारा तैयार आर्थिक समीक्षा की बात सुनी जिसने यह कहते हुए इस सिफारिश को खारिज कर दिया था कि निधि का अंतरराष्ट्रीय अनुभव सामान्यतः निराशाजनक रहा है.
 
यह तर्क हैरान करने वाला है. बिना आजमाए एक सिफारिश को इसलिए खारिज कर देना कि उसका अनुभव सामान्यतः निराशाजनक रहा है, मौके को चूक जाना है. इससे किसान बाजार की निर्मम शक्तियों की हाथ की कठपुतली बने रहेंगे. दरअसल, इस बजट की सबसे पड़ी कमी यही है. उसमें दूरदृष्टि नहीं है. वह कृषि संकट की जड़ पर प्रहार नहीं करता बल्कि तात्कालिक राहत देने की कोशिश करता है. वह कृषि संकट के गहरे मर्ज का इलाज करने के बजाय लक्षणों का इलाज करता दिखता है.
 
कृषि संकट के कारण किसान कर्ज में डूबा है, न कि किसान के कर्ज में डूबने के कारण कृषि संकट है. कर्ज माफ कर देने भर से कृषि क्षेत्र का वह व्यापक संकट दूर नहीं होगा जो आर्थिक समीक्षा के मुताबिक कृषि क्षेत्र की गतिशीलता खत्म होने के कारण पैदा हुई है.
 
यह गतिशीलता इसलिए खत्म हुई है क्योंकि कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश खासकर सार्वजनिक पूंजी निवेश उदारीकरण के पिछले 18 सालों में लगातार कम होता चला गया है. इस कारण सिंचाई सुविधाओं के अभाव से लेकर भूमि की बढ़ती अनुर्वरता, घटती उत्पादकता, नए बीजों-खाद-कीटनाशकों के अभाव जैसी स्थिति पैदा हो गई है. इसके साथ भूमि सुधार को कब का आधा-अधूरा छोड़ दिया गया.
 
हालांकि वित्तमंत्री ने बजट भाषण में दावा किया है कि यूपीए के कार्यकाल में कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश 2003-04 के सकल घरेलू उत्पाद के 10.2 प्रतिशत से बढ़कर 2006-07 में 12.5 प्रतिशत हो गया है लेकिन 11वीं पंचवर्षीय योजना में इसे बढ़ाकर 16 प्रतिशत करने की जरूरत है.
 
तथ्य यह है कि कृषि में पूंजी निवेश में जो मामूली वृद्धि दिखाई पड़ रही है, वह वास्तविकता कम और जीडीपी में धीमी वृद्धि का नतीजा ज्यादा है. यही नहीं, कड़वी सच्चाई यह है कि कुल पूंजी निवेश के अनुपात में कृषि क्षेत्र में पूंजी निवेश में एनडीए के शासनकाल के 8 फीसदी की औसत दर की तुलना में यूपीए के कार्यकाल में गिरकर यह 6 प्रतिशत रह गया है.
 
अफसोस की बात यह है कि पांचवें बजट में भी चिदंबरम ने कृषि क्षेत्र में योजना व्यय को बढ़ाने के मामले में कोई महत्वाकांक्षी पहल नहीं की है. कृषि मंत्रालय का योजना व्यय कुल केंद्रीय योजना व्यय का महज 3 फीसदी है. यह ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर भी नहीं है.
 
हैरत की बात यह है कि सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण का योजना व्यय चालू वित्तीय वर्ष के बजट अनुमान 507 करोड़ रुपए से घटाकर 411 करोड़ रुपया कर दिया गया है. असल में, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़ दशक से भी अधिक समय में कृषि क्षेत्र के साथ जिस तरह का उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया गया है, उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है.
 
आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने मान लिया था कि कृषि के बिना भी जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर हासिल की जा सकती है. इसलिए उन्होंने अर्थव्यवस्था की तेज दौड़ रही गाड़ी को गांवों-खेतों को उबड़-खाबड़ रास्तों से निकालने के बजाय कृषि क्षेत्र को बाइपास करके निकल जाने की रणनीति को आगे बढ़ाया.
 
दोहराने की जरूरत नहीं है कि कर्ज माफी के धूमधड़ाके के बावजूद यह बजट भी इस प्रवृत्ति का अपवाद नहीं है. दरअसल, लोकलुभावन राजनीति और अर्थनीति की यही सीमा होती है. वह मूल समस्या को कभी नहीं छूती है लेकिन जाहिर यह करती है जैसे उसने समस्या हल कर दी हो.
 
सच यह है कि कृषि संकट गहराता जा रहा है. ताजा आर्थिक समीक्षा के मुताबिक देश में खाद्यान्नों के उत्पादन की बढ़ोत्तरी दर 1990-2007 के बीच गिरकर 1.2 प्रतिशत रह गई है जो जनसंख्या की 1.9 प्रतिशत की वार्षिक बढ़ोत्तरी दर से कम है.
 
वह दिन दूर नहीं जब यह संकट देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती बन जाएगा. इसके संकेत खाद्यान्नों और अन्य कृषि जिंसों की तेजी से बढ़ती कीमत से मिलने लगे हैं. साफ है कि कृषि और किसानों की उपेक्षा का अर्थ रोटी पर संकट को दावत है.

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