शनिवार, मार्च 01, 2008

आर्थिक सर्वेक्षण: आर्थिक सुधारों के भारी डोज की सिफारिश...

क्या यूपीए वामपंथी दलों से पीछा छुड़ाने की तैयारी कर रही है?

 

ऐसा लगता है कि यूपीए सरकार ने वामपंथी दलों से पीछा छुड़ाने का मन बना लिया है. पहले राष्ट्रपति के अभिभाषण में अमेरिका के साथ परमाणु करार समझौते की कामयाबी की उम्मीद जाहिर करके वामपंथी दलों को उकसाने का कोशिश की गई. और अब अपने पांचवें आर्थिक सर्वेक्षण में व्यापक आर्थिक सुधारों की वकालत के जरिए मनमोहन सिंह सरकार ने वामपंथी दलों को चिढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है.

 

आर्थिक सर्वेक्षण में सिफरिश की गई है कि फैक्ट्री कानून में संशोधन करके मौजूदा प्रति सप्ताह 48 घंटे काम को बढ़ाकर प्रति सप्ताह 60 घंटे कर दिया जाए. इसका अर्थ यह हुआ कि यूपीए सरकार मौजूदा प्रतिदिन आठ घंटे काम के समय को बढ़ाकर दस घंटे करना चाहती है. यही नहीं, इसके साथ ही वह यह भी चाहती है कि मौसमी मांग को पूरा करने के लिए इसे प्रतिदिन बढ़ाकर बारह घंटे करने की इजाजत भी दी जाए. इन अतिरिक्त दो घंटों के लिए ओवरटाईम दिया जा सकता है.

 

कहने की जरूरत नहीं है कि वामपंथी पार्टियां इसे कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती हैं. यह सीधे-सीधे वामपंथी दलों को चुनौती देने की तरह है. लेकिन आर्थिक सर्वेक्षण यहीं नहीं रुकता है. पिछले वर्षों से अलग इस साल वह आर्थिक सुधारों के पक्ष में न सिर्फ बहुत मुखर है बल्कि आक्रामक तरीके से उन्हें आगे बढ़ाने की सिफारिश करता है.

 

आर्थिक सर्वेक्षण यह भी सिफारिश करता है कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढ़ाकर 49 फीसदी कर दिया जाना चाहिए. उसका यह भी कहना है कि चीनी, उर्वरक और दवाओं को मूल्य नियंत्रण से बाहर कर दिया जाना चाहिए. इसके साथ ही कोयला खनन के क्षेत्र में निजी भागीदारी की अनुमति दी जानी चाहिए.

 

सर्वेक्षण एक कदम आगे बढ़कर मुनाफा दे रही सार्वजनिक क्षेत्र की गैर-नवरत्न कंपनियों को शेयर बाजार में लिस्ट करने के लिए पांच से लेकर दस फीसदी शेयर बेचने की सिफारि करता है. कहने की जरूरत नहीं है कि यह पिछले दरवाजे से विनिवेश और निजीकरण की वकालत है.

 

आश्चर्य की बात तो यह है कि वित्तमंत्री पी चिदंबरम द्वारा पेश आर्थिक सर्वेक्षण यूपीए सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम की हदों को पार करते हुए व्यापक आर्थिक सुधारों की सिफारिश करता है.

 

आर्थिक सर्वेक्षण सिर्फ  अर्थव्यवस्था के साल भर के कामकाज का लेखा-जोखा भर नहीं होता है. उसे किसी भी सरकार की आर्थिक सोच और दर्शन का प्रतिबिंब माना जाता है. ऐसे में, यह सचमुच हैरत की बात है कि ताजा आर्थिक सर्वेक्षण न्यूनतम कार्यक्रम को पूरी तरह से ठेंगा दिखाता नजर आता है.

 

सवाल यह है कि ताजा सर्वेक्षण के जरिए वित्त मंत्रालय क्या संदेश देना चाहता है ? यह माना जाता है कि बजट से ठीक पहले आर्थिक सर्वेक्षण आम बजट के लिए मंच तैयार करता है. परंपरा के अनुसार सर्वेक्षण में उठाए गए मुद्दों और सिफारिशों के अनुसार वित्तमंत्री को बजट तैयार करना चाहिए. लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि आज जब वित्तमंत्री आम बजट पेश करेंगे तो उस पर सर्वेक्षण का असर दिखाई देगा ?

 

क्या वह इसी धमाकेदार अंदाज में आर्थिक सुधारों के पैकेज को आगे बढ़ाएगा ? मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में यह संभव नहीं दिखाई देता. मनमोहन सिंह सरकार वामपंथी दलों से समर्थन पर टिकी है. उन्हें नाराज करके न तो सरकार चल सकती है और न ही बजट पास हो सकता है.

ऐसे में, इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि वित्तमंत्री के बजट में मौखिक रूप से आर्थिक सुधारों को बढ़ाने की बातें भले हों लेकिन व्यवहार में पिछले वर्षों की तरह ही सर्वेक्षण और बजट के बीच का फासला बना रहे.

 

उल्लेखनीय है कि पिछले चार आर्थिक सर्वेक्षणों में आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की सिफारिशों के बावजूद वित्तमंत्री ने बजट में इस दिशा में कोई बड़ा कदम उठाने से परहेज किया है. असल में, पिछले कुछ वर्षों में आर्थिक सर्वेक्षण की भूमिका आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के पक्ष में माहौल बनाने का हो गया है. ताजा सर्वेक्षण भी इसका अपवाद नहीं है.

 

अर्थव्यवस्था को लेकर सर्वेक्षण पिछले वर्षों की तरह इस साल भी बमबम है. यूपीए सरकार ने अर्थव्यवस्था के मामले में एक बार फिर अपनी पीठ ठोंकी है. उसका दावा है कि इस बात में अब किसी को कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि अर्थव्यवस्था उच्च वृद्धि दर के नए दौर में पहुंच गई है. 2003-04 के बाद जीडीपी की विकास दर सालाना औसतन आठ फीसदी से ऊपर पहुंच गई है. सर्वेक्षण में यह स्वीकार किया गया है कि चालू वित्तीय वर्ष 2007-08 में अर्थव्यवस्था की विकास दर पिछले वर्ष के 9.6 प्रतिशत की तुलना में गिरकर 8.7 प्रतिशत रह जाने का अनुमान है.

लेकिन सर्वेक्षण के मुताबिक इसमें चिंता की कोई बात नहीं है. जरूरत सिर्फ इस बात की है कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार को नौ फीसदी से ऊपर ले जाने के लिए सर्वेक्षण द्वारा सुझाए गए आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू किया जाए.

 

इस तरह सर्वेक्षण बहुत चालाकी के साथ अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ्तार को तेज करने के बहाने आर्थिक सुधारों के पक्ष में राय बनाने की कोशिश करता है. यह सचमुच में बहुत हैरान करने वाला तर्क है कि अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार का श्रेय आर्थिक सुधारों को दिया जाता है. लेकिन वृद्धि दर में गिरावट का दोष सुधारों को आगे न बढ़ाने के मत्थे मढ़ दिया जाता है.

यहां कृषि क्षेत्र का उल्लेख करना जरूरी है. कृषि क्षेत्र आर्थिक सुधारों की मार झेल रहा है. सर्वेक्षण में यह स्वीकार किया गया है कि चालू वित्तीय वर्ष में कृषि क्षेत्र की विकास दर मात्र 2.6 फीसदी रहने का अनुमान है. पिछले वित्तीय वर्ष 2006-07 में कृषि की विकास दर 3.8 फीसदी थी. यही नहीं, कृषि क्षेत्र की विकास दर में लगातार गिरावट के कारण सकल घरेलू उत्पाद
(जीडीपी) में कृषि क्षेत्र का योगदान 2001-02 के 24 फीसदी से घटकर मात्र 17.5 फीसदी रह गया है.

 

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र की स्थिति कितनी खराब है. उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि तमाम घोषणाओं और कार्यक्रमों के बावजूद सुधार तो दूर, स्थिति लगातार बद से बदतर होती जा रही है.

 

लेकिन सर्वेक्षणों में कृषि क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ पिटी-पिटाई बातों को दोहराने के अलावा कुछ नहीं है. इसी तरह चालू वित्तीय वर्ष में उद्योंग क्षेत्र की वृद्धि दर में गिरावट भी दर्ज की गई है. सर्वेक्षण के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष में विनिर्माण-मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले वित्तीय वर्ष के 12 फीसदी की तुलना में घटकर 9.4 फीसदी रह गई है. लेकिन सर्वेक्षण में इसकी दवा भी आर्थिक सुधारों को ही बताया गया है.

 

तथ्य यह है कि उद्योग क्षेत्र, ढांचागत क्षेत्र के पर्याप्त विकास न होने, घरेलू मांग में गिरावट के साथ-साथ अमेरिकी मंदी से जूझ रहा है. अर्थव्यवस्था ही नहीं यूपीए सरकार के सामने भी सबसे बड़ी आर्थिक चुनौती यह है कि महंगाई लगातार बढ़ रही है.

 

बढ़ती महंगाई मनमोहन सिंह सरकार के लिए राजनीतिक रूप से बहुत भारी पड़ सकती है. लेकिन सर्वेक्षण इसके लिए मौसमी, ढांचागत बदलाव और अंतरराष्ट्रीय बाजार में जिंसों की कीमतों में वृद्धि को जिम्मेदार ठहराकर और उसका प्रबंधन रिजर्व बैंक के जिम्मे डालकर अपनी जवाबदेही से बच निकलता है.

 

अब देखना यह होगा कि आज बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री पी चिदंबरम कृषि की बदतर होती स्थिति को सुधारने और उद्योग क्षेत्र की मुश्किलों को हल करने के साथ महंगाई को नियंत्रित करने के लिए क्या उपाय करते हैं  ? यही नहीं, उनके सामने चुनौती यह भी है कि वे अपने आर्थिक सलाहकारों द्वारा तैयार आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाए गए रास्ते पर चलने की हिम्मत कहां तक कर पाते हैं  ? अगर वह इस चुनौती पर खरे नहीं उतरते हैं तो यह सवाल जरूर पूछा जाएगा कि कथनी और करनी में इतना अंतर क्यों है ? उनके बजट से यह भी साफ हो जाएगा कि क्या सचमुच, यूपीए सरकार वामपंथी दलों से पीछा छुड़ाने का मन बना चुकी है....?

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