बुधवार, मार्च 19, 2008

चिदंबरम और खेतीबारीः पहली किस्त...

यूपीए सरकार के पांचवें बजट को लोकलुभावन और चुनावी माना जा रहा है. इसमें कोई बुराई नहीं है. हर बजट राजनीतिक होता है और होना चाहिए. बजट से यह पता चलता है कि उस सरकार की राजनीति क्या है? सवाल यह है कि यूपीए सरकार के आखिरी बजट की राजनीति क्या है?
 
अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि यह बजट राजनीतिक अवसरवाद का एक और उदाहरण है. चिदंबरम के पिछले चार बजटों और इस बजट में कुछ समानताओं को छोड़कर सबसे बड़ा फर्क यह है कि जहां पिछले सभी बजट नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी और वित्तीय कठमुल्लावाद की राजनीति में पगे थे, वहीं पांचवां बजट आगामी आम चुनावों को ध्यान में रखते हुए आम आदमी खासकर किसानों को कुछ राहत और मध्यवर्ग को रियायतें देने की कोशिश करता है.
 
कहने की जरूरत नहीं है कि पी. चिदबरम ने दिल पर पत्थर रखकर चुनाव वर्ष होने के कारण अपवाद के बतौर इस साल थोड़ी दयानतदारी दिखाने की कोशिश की है. यह अवसरवाद है. उनकी मंशा पर शक इसलिए हो रहा है कि उन्हें आम आदमी खासकर किसानों की याद पिछले चार वर्षों में क्यों नहीं आई और अचानक इस साल ऐसा क्या हो गया कि उनकी झोली खुल गई?
 
जाहिर है कि इस साल चुनाव हैं और यूपीए किसानों, गरीबों, दलितों और मुसलमानों के सबसे बड़े हमदर्द के रूप में चुनाव में जाना चाहती है. वित्तमंत्री की यही मजबूरी है कि देश में कर पांच साल में चुनाव होते हैं और चुनाव में आम आदमी का वोट निर्णायक बना हुआ है. इस कारण सरकारों को पांच सला में कम से कम एक बार उसे याद करना पड़ता है.
 
लेकिन उसमें ईमानदारी कम और चालाकी अधिक होती है. उदाहरण के लिए इस बजट के सबसे चर्चित छोटे और सीमांत किसानों की पूरी और अन्य किसानों की एक चौथाई कर्ज माफी के प्रावधान को ले लीजिए. इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह बेहद जरूरी और पिछले कई वर्षों से लंबित फैसला था जिसका खुले दिल से स्वागत किया जाना चाहिए.
 
अफसोस की बात सिर्फ यह है कि मनमोहन सिंह सरकार को यह फैसला लेने में चार साल लग गए. इस बीच, हजारों किसानों को कर्ज के बोझ तले आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना पड़ा. अगर चिदंमरम ने चार पहले जनादेश और 'कृषि क्षेत्र को नई डील' के वायदे के मुताबिक यह फैसला ले लिया होता तो न सिर्फ हजारों किसानों की जान बच जाती बल्कि उनकी ईमानदारी और सदाशयता पर कोई ऊंगली नहीं उठती कि चुनाव वर्ष में उन्हें किसानों की सुध आई है.
 
यहीं नहीं चार साल बाद किसानों की सुध आई भी तो वह आधी-अधूरी और एक सीमा से बाहर नहीं निकल पाई. हैरत की बात है कि जब यूपीए सरकार ने किसानों पर बैंकों के बकाया कर्ज को माफ करने का 'साहसिक' फैसला कर लिया तो उसी साहस के साथ एक कदम आगे बढ़कर गैर संस्थागत स्रोतों जैसे सूदखोंरो से लिए गए कर्ज को माफ करने में हिचकिचाहट क्यों हो गई?
 
वित्तमंत्री का यह कहना सही है कि ऐसा करने में कई व्यावहारिक समस्याएं हैं क्योंकि यह पता करना मुश्किल है कि गैर संस्थागत स्रोतों से किसने, किससे और कितना कर्ज ले रखा है? लेकिन क्या यह इतनी पड़ी समस्या है कि सूदखोंरो के शोषण से त्रस्त किसानों को कोई राहत ही नहीं दे सके?
 
 
 
 
दूसरी किस्त अगले दिन....

1 टिप्पणी:

ab inconvenienti ने कहा…

पता नहीं क्यों आप क़र्ज़ माफ़ी को बुरा नहीं मानते, यह ग़लत है, देश कब तक नुकसान सह कर क़र्ज़ माफ़ करता रहेगा, अगर चिदंबरम को करना ही था तो प्राथमिकता के साथ कृषि सुधार लागू करते, सिंचाई की पुख्ता व्यवस्था करते, बीजों, उर्वरकों वगैरह की कमी का प्रबंधन करते. पूरे ४ साल क्रिकेट मंत्री बी.सी.सी.आई. और कृषि मंत्रालय से पैसा कूटते रहे, और जब चुनाव सिर पे आया तो वित्त मंत्री पर दबाव डालकर क़र्ज़ माफ़ी कर दी. मुबारक हो, अब भविष्य में कभी कोई किसान आत्महत्या नही करेगा. (पर क्रिकेट मंत्री ने २००३ बजट में ही आम क़र्ज़ माफ़ी करा दी होती तो शायद कई हज़ार जानें बच जाती, पर क्या करें जनसंख्या भी तो बड़ी समस्या है).