शनिवार, जनवरी 25, 2014

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के नए दांव हैं मोदी

लोगों के सामने है सीमित और संकीर्ण आर्थिक विकल्पों के बीच चुनाव की मजबूरी 

लोकसभा चुनावों के मद्देनजर केन्द्रीय सत्ता की दावेदार पार्टियों और उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों के आर्थिक दर्शन और कार्यक्रमों/योजनाओं को लेकर आम लोगों से लेकर अर्थशास्त्रियों तक और शेयर बाजार के सटोरियों से लेकर देशी-विदेशी औद्योगिक लाबी संगठनों जैसे फिक्की, सी.आई.आई आदि तक सभी की उत्सुकता और दिलचस्पी बढ़ गई है.
यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन चुनावों में आर्थिक-राजनीतिक तौर पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. सवाल यह है कि सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने से लेकर महंगाई और बेरोजगारी से निपटने तक, कृषि से लेकर उद्योगों तक, शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक और गरीबी से लेकर बढ़ती गैर बराबरी तक अनेकों गंभीर आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री के दावेदारों का आर्थिक दर्शन क्या है और उनके पास कौन से कार्यक्रम/योजनाएं हैं?
हालाँकि दोनों ही गठबंधनों के विस्तृत आर्थिक दर्शन, कार्यक्रम और योजनाओं के लिए उनके घोषणापत्र और विजन दस्तावेज का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन बीते सप्ताह कांग्रेस की ओर से चुनाव अभियान की अगुवाई कर रहे राहुल गाँधी ने कांग्रेस महासमिति और खासकर भाजपा/एन.डी.ए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में अपना आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम पेश किया है.

इसमें भी जहाँ राहुल गाँधी आर्थिक दर्शन के नामपर यू.पी.ए सरकार की उपलब्धियों (आर.टी.आई, मनरेगा, आर.टी.ई और भोजन के अधिकार आदि) को गिनाने और समावेशी विकास के रटे-रटाए जुमलों को दोहराने से आगे नहीं बढ़ पाए, वहीँ नरेन्द्र मोदी ने बड़े-बड़े कार्यक्रमों/योजनाओं और कुछ लोकप्रिय मैनेजमेंट जुमलों के एलान के जरिये सपनों की सौदागरी करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी.

लेकिन अगर बारीकी से देखा जाए तो मोदी और राहुल के आर्थिक दर्शन में बुनियादी तौर पर कोई फर्क नहीं है. अगर कोई फर्क है तो सिर्फ उसके विभिन्न पहलुओं पर जोर और उसकी प्रस्तुति, पैकेजिंग और मार्केटिंग के तरीके में फर्क है.
लेकिन बुनियादी तौर पर दोनों ‘मुक्त बाजार’ पर आधारित नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार हैं जो अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित या न के बराबर भूमिका और निजी पूंजी खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को अगुवा भूमिका देने की वकालत करती है. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी मूलतः मुक्त बाजार पर आधारित भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण को आगे बढाती है और वह न सिर्फ अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित भूमिका पर जोर देती है बल्कि राज्य की कल्याणकारी भूमिका को भी सीमित करने की पैरवी करती है.
लेकिन मुश्किल यह है कि पिछले दो दशकों से देश में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी पर आधारित आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाए जाने और जी.डी.पी के पैमाने पर आर्थिक विकास की अपेक्षाकृत तेज गति के बावजूद गरीबों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है, आर्थिक गैर बराबरी तेजी से बढ़ी है और गरीबों, निम्न मध्यमवर्ग, छोटे-मध्यम किसानों, श्रमिकों, दलितों और आदिवासियों में असंतोष बढ़ा है.

इसकी मुख्य वजह यह है कि उन्हें आर्थिक सुधारों का कोई खास फायदा नहीं मिला है लेकिन कीमत भारी चुकानी पड़ी है. सच यह है कि इन वर्गों के लिए आर्थिक सुधार एक कड़वी गोली की तरह साबित हुए हैं जिसे और निगलने के लिए वे तैयार नहीं हैं. यहाँ तक कि इन आर्थिक सुधारों के लाभार्थी- मध्यम वर्ग में भी हाल के वर्षों में अवसरों के सीमित होने और याराना पूंजीवाद की अगुवाई में बेतहाशा भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ने से निराशा का माहौल है.

इसके कारण नव उदारवादी आर्थिक सुधारों पर सवाल उठने लगे हैं और राजनीतिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आम लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना एक बड़ी चुनौती बन गई है. कांग्रेस के नेतृत्ववाले यू.पी.ए ने इसी चुनौती के मद्देनजर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की कड़वी गोली को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसे मनरेगा जैसी योजनाओं की चाशनी में लपेट कर पेश करने और गरीबों, कृषि मजदूरों, दलितों और आदिवासियों का समर्थन जीतने की कोशिश की लेकिन शुरूआती सफलता के बाद यह रणनीति भी दस सालों में फीकी पड़ने लगी है.
दूसरी ओर, देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स आर्थिक सुधारों की गति धीमी पड़ने के कारण बेचैन होने लगे हैं. वे सरकार से सुधारों की गति तेज करने यानी सब्सिडी में कटौती और खुद के लिए अधिक से अधिक रियायतें मांग रहे हैं.    
हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी ने यू.पी.ए/कांग्रेस की अर्थनीति की आलोचना करते हुए कहा कि वे ‘खैरात बाँटने’ वाली आर्थिक सैद्धांतिकी (डोलोनोमिक्स) यानी सब्सिडी के विरोधी हैं. हालाँकि वे गरीबों और कमजोर वर्गों के वोट को लुभाने के दबाव के कारण यह खुलकर नहीं कहते लेकिन इसका सीधा संकेत यह है कि वे मनरेगा और ऐसी दूसरी ‘लोकलुभावन योजनाओं’ में सब्सिडी दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं.

उनका तर्क है कि सिर्फ वोट बटोरने के लिए शुरू की गई लोकलुभावन योजनाएं गरीबों और कमजोर वर्गों को अपने पैरों पर खड़ा नहीं होने देतीं, कीमती संसाधनों की बर्बादी है, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं और सबसे बढ़कर मुक्त बाजार की व्यवस्था को तोडमरोड (डिसटार्ट) करती है.

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों की तरह उनका भी दावा है कि वे अर्थव्यवस्था में निजी निवेश को प्रोत्साहित करके रोजगार के नए अवसर पैदा करेंगे ताकि गरीबों को अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका मिल सके.

दरअसल, मोदी नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी को लोगों में स्वीकार्य बनाने के लिए उसकी ‘विकास’ और ‘गुड गवर्नेंस’ के सपनों के साथ पैकेजिंग करने की कोशिश कर रहे हैं. एक अच्छे सेल्समैन की तरह वे देश के चारों दिशाओं में बुलेट ट्रेन से लेकर १०० स्मार्ट शहर बसाने, देश के हर राज्य में आई.आई.टी-आई.आई.एम-एम्स खोलने से लेकर ब्रांड इंडिया को चमकाने और गैस ग्रिड से लेकर राष्ट्रीय फाइबर आप्टिक ब्राडबैंड नेटवर्क बनाने तक की बड़ी और अत्यंत महत्वाकांक्षी योजनाओं के एलान से निम्न, मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग को चमत्कृत करने की कोशिश कर रहे हैं.
दूसरी ओर, कृषि से लेकर गांव तक और किसान से लेकर महिलाओं और युवाओं की बातें करके सबको खुश करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीँ आर.एस.एस से जुड़े अपने कोर समर्थकों को पारिवारिक मूल्यों से लेकर भारत माता के नारों से बाँधने में जुटे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी कोई कसर नहीं छोड़ना नहीं चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि वे अपने आर्थिक दर्शन और कार्यक्रम/योजनाओं को वोटरों के सभी वर्गों के लिए आकर्षक और लुभावना बनाने के लिए हर उस सपने को बेच रहे हैं जो पिछले डेढ़ दशकों में बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स ने देश को बेचने की कोशिश की है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी की बड़ी-बड़ी घोषणाएं और योजनाएं उनकी मौलिक सोच से नहीं बल्कि वहीँ से आईं हैं. आप चाहें तो पिछले सालों में विश्व बैंक-मुद्राकोष से लेकर मैकेंसी, बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, डेलोइट, प्राइस-हॉउस कूपर्स जैसी बड़ी कारपोरेट कंसल्टिंग कंपनियों और योजना आयोग तक और सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम जैसी औद्योगिक लाबी संगठनों से लेकर गुलाबी अखबारों और मैनेजमेंट गुरुओं के भाषणों, सलाहों, पालिसी दस्तावेजों और कंट्री पेपर्स में इन बड़ी और महत्वाकांक्षी योजनाओं के ब्लू-प्रिंट देख सकते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि नरेन्द्र मोदी की इन घोषणाओं पर शेयर बाजार, देशी-विदेशी कारपोरेट समूहों से लेकर अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां तक खुश हैं और मोदी के सत्ता में आने की संभावनाओं को लेकर उत्साहित हैं. कार्पोरेट्स और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को अब सिर्फ मोदी से ही उम्मीदें हैं कि वे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा सकते हैं क्योंकि कांग्रेस/यू.पी.ए की साख भ्रष्टाचार और महंगाई के कारण बहुत नीचे गिर गई है.
देशी-विदेशी कार्पोरेट्स और बड़ी पूंजी को मोदी के रूप में एक ऐसा नेता दिखाई पड़ रहा है जिसकी नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की प्रतिबद्धता असंदिग्ध है और जो इसे बेहतर तरीके से पैकेज और मार्केट करके लोगों में स्वीकार्य भी बना सकता है.
यही नहीं, कार्पोरेट्स को यह भी भरोसा है कि मोदी ही इन सुधारों और बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर योजनाओं (पास्को, वेदांता आदि) की राह में रोड़ा बन रहे ‘जल, जंगल और जमीन’ बचाने के जनांदोलनों से राजनीतिक और पुलिसिया तरीके से सख्ती से निपट सकते हैं. मोदी ने जिस तरह से गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन को दबाने की कोशिश की या अपने हाल के भाषणों में ‘झोलावालों’ (एन.जी.ओ और जनांदोलनों) को निशाना बनाया है, उससे भी कारपोरेट क्षेत्र आश्वस्त है.

गुजरात में मोदी ने ‘डिलीवर’ करके दिखाया है जबकि यू.पी.ए/कांग्रेस का ‘समावेशी विकास’ का नव उदारवादी माडल अब उस तरह से ‘डिलीवर’ नहीं कर पा रहा है, जैसे उसने २००४ के बाद के शुरूआती पांच-सात वर्षों में ‘डिलीवर’ किया था. यही नहीं, कार्पोरेट्स का भरोसा जीतने के लिए मोदी ने हाल में फिक्की के सम्मेलन में वायदा किया कि वे यू.पी.ए सरकार के राज में शुरू किये गए ‘टैक्स आतंकवाद’ को खत्म करेंगे.

उल्लेखनीय है कि देशी-विदेशी कार्पोरेट्स पिछले काफी दिनों से वोडाफोन से लेकर नोकिया टैक्स विवाद को सरकार का ‘टैक्स आतंकवाद’ बता रहे हैं. मोदी इससे निजात दिलाने का वायदा कर रहे हैं. यह और बात है कि इससे टैक्स कानूनों में मौजूद छिद्रों का लाभ उठानेवाले कार्पोरेट्स को खुली छूट मिल जाएगी. दोहराने की जरूरत नहीं है कि कार्पोरेट्स मोदी से खुश क्यों हैं?
लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी अपने आर्थिक दर्शन और योजनाओं/कार्यक्रमों से गरीबों और आम आदमी को अपनी ओर खींच पाएंगे? दूसरे, क्या वे जो वायदे कर रहे हैं, उसे ‘डिलीवर’ कर पाएंगे? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बड़ी-बड़ी घोषणाएं करना एक बात है और उसे आर्थिक तौर पर लागू करना बिलकुल दूसरी बात है.
याद रहे कि देश में कई बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं इसलिए ठप्प हैं क्योंकि उनकी आर्थिक-वित्तीय उपयोगिता (वायबिलिटी) पर सवाल उठ गए हैं. उदाहरण के लिए, बुलेट ट्रेन की योजना दुनिया के अधिकांश देशों में नाकाम साबित हुई है.
दूसरी ओर, कांग्रेस/यू.पी.ए ने २०१२ के उत्तरार्ध से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और पेट्रोलियम उत्पादों से सब्सिडी खत्म करने से लेकर हाल में के.जी. बेसिन गैस की कीमतों और पर्यावरण सम्बन्धी रुकावटों को हटाने के फैसलों के जरिये बड़ी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने की कोशिश की है लेकिन लगता है कि अब तक काफी देर हो चुकी है.

यही कारण है कि राहुल गाँधी के सी.आई.आई और फिक्की के सम्मेलनों में जाकर कार्पोरेट्स को आश्वस्त करने के बावजूद वे उनका भरोसा नहीं हासिल कर पा रहे हैं. यही नहीं, कांग्रेस की आर्थिकी अपने ही अंतर्विरोधों में उलझकर रह गई है और वह न कार्पोरेट्स का और न आम आदमी का भरोसा जीत पा रही है.

लेकिन असली मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री पद के दोनों दावेदारों की बुनियादी तौर पर एक तरह के आर्थिक दर्शन- नव उदारवादी और कारपोरेटपरस्त सैद्धांतिकी और योजनाओं/कार्यक्रमों के कारण आमलोगों के पास चुनने को वास्तव में बहुत सीमित और संकीर्ण विकल्प रह गया है.   

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 25 जनवरी को प्रकाशित टिप्पणी)

शुक्रवार, जनवरी 24, 2014

एक सितारे का पतन

बहुत पहले हो गई थी तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत

पहली क़िस्त

विडम्बना देखिए कि मुख्यधारा की कारपोरेट पत्रकारिता और उसके नैतिक विचलनों के खिलाफ आवाज़ उठानेवाली और खुद को वैकल्पिक पत्रकारिता के साथ जोड़नेवाली पत्रिका ‘तहलका’ के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल अपनी ही एक युवा रिपोर्टर के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोपों में जेल में हैं.
यही नहीं, युवा रिपोर्टर की शिकायत पर त्वरित, उचित और कानून के मुताबिक कार्रवाई न करने, मामले को दबाने और लीपापोती करने की कोशिश के आरोप में ‘तहलका’ की प्रबंध संपादक शोमा चौधरी को भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा है.
हालाँकि तेजपाल पर लगे आरोपों पर फैसला कोर्ट में होगा और उन्हें अपने कानूनी बचाव का पूरा हक है लेकिन इस मामले में तेजपाल ने खुद अपना स्टैंड जिस तरह से कई बार बदला है और पहले पश्चाताप के एलान के बाद अब उस युवा रिपोर्टर पर सवाल उठा रहे हैं, उसे लेखिका अरुंधती राय ने ठीक ही ‘दूसरा बलात्कार’ कहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि तेजपाल प्रकरण सामने आने और उससे सख्ती से निपटने में पत्रिका प्रबंधन की नाकामी के बाद ‘तहलका’ के आधा दर्जन से ज्यादा पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया है.

इस बीच, ‘तहलका’ की फंडिंग और खासकर तेजपाल के व्यावसायिक लेनदेन को लेकर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं. इस कारण एक संस्थान और पत्रिका के रूप में ‘तहलका’ के भविष्य पर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘तहलका’ के संस्थापक तरुण तेजपाल पर लगे यौन उत्पीडन और बलात्कार के आरोपों और संदिग्ध व्यावसायिक लेनदेन और संबंधों के कारण पत्रिका की साख को गहरा धक्का लगा है और उससे उबरना आसान नहीं होगा.
यही नहीं, ‘तहलका’ पर जिस तरह से चौतरफा हमले हो रहे हैं, उसमें पत्रिका के लिए टिके रहना खासकर अपने युवा और वरिष्ठ पत्रकारों को पत्रिका के साथ खड़े रहने और इन हमलों का मुकाबला करने के लिए तैयार करना बड़ी चुनौती बन गया है.

यह सच है कि ‘तहलका’ की भंडाफोड और आक्रामक पत्रकारिता से नाराज और चिढ़ी राजनीतिक ताकतों और निहित स्वार्थी तत्वों खासकर भगवा ब्रिगेड ने इस मौके का फायदा उठाते हुए ‘तहलका’ पर हमले तेज कर दिए हैं.

यह किसी से छुपा नहीं है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में रक्षा सौदों में दलाली के मामले के भंडाफोड के बाद भाजपा को जितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण से लेकर तत्कालीन रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज को इस्तीफा देना पड़ा था, उस चोट को वे कभी भुला नहीं पाए.

यही नहीं, इसके बाद भी गुजरात के २००२ के दंगों के आरोपियों की स्टिंग आपरेशन के जरिये पहचान करवाने, उनके खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने और उन्हें सजा दिलवाने में ‘तहलका’ की साहसिक पत्रकारिता की भूमिका किसी से छुपी नहीं है.
यह भी तथ्य है कि ‘तहलका’ के खुलासों से बौखलाई तत्कालीन एन.डी.ए सरकार ने उसे बर्बाद करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रहा. इसके अलावा भगवा संगठन हमेशा से ये आरोप लगाते रहे हैं कि ‘तहलका’ कांग्रेस समर्थक, पूर्वाग्रह-ग्रसित और हिंदू विरोधी है और केवल भाजपा या दूसरी भगवा ताकतों के भ्रष्टाचार, घोटालों और अपराधों को सामने लाने की कोशिश करता है.
लेकिन सच यह है कि ‘तहलका’ ने कोयला खान आवंटन घोटाले से लेकर महाराष्ट्र सिंचाई घोटाले तक कई ऐसे घोटालों का पर्दाफाश किया है जिसके निशाने पर कांग्रेस और उसके समर्थक दल रहे हैं.
इसके बावजूद जब तरुण तेजपाल ने जब अपनी कनिष्ठ सहयोगी के यौन उत्पीड़न और बलात्कार के आरोपों पर खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते हुए इसे सांप्रदायिक ताकतों की साजिश बताने की कोशिश की तो यह साफ़ था कि वे खुद को बचाने के लिए धर्मनिरपेक्षता की आड़ ले रहे हैं.

ऐसा करते हुए वे न सिर्फ एक बहुत कमजोर और अनैतिक तर्क पेश कर रहे हैं बल्कि साम्प्रदायिकता के खिलाफ धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई को भी कमजोर कर रहे हैं. आखिर सांप्रदायिक शक्तियों को ‘तहलका’ के खिलाफ पलटवार करने का मौका किसने दिया?

क्या तरुण तेजपाल और शोमा चौधरी को मालूम नहीं था कि ‘तहलका’ और उसकी पत्रकारिता जिन ऊँचे आदर्शों, मूल्यों और प्रतिमानों की कसौटी पर राजनेताओं, अफसरों से लेकर बाकी दूसरे ताकतवर लोगों को कसती रही है, उसी कसौटी पर उसे भी खरा उतरना होगा?              

खासकर तब जब आप ताकतवर और प्रभावशाली लोगों की अनियमितताओं और अपराधों का पर्दाफाश करने में लगे हों और उनसे जवाबदेही मांग रहे हों, यह याद रखना चाहिए कि आपसे कहीं ज्यादा जवाबदेही मांगी जाएगी और ऊँची कसौटियों पर कसा जाएगा.

सवाल यह है कि एक ओर ‘तहलका’ महिलाओं के यौन उत्पीडन और बलात्कार के मामले जोरशोर से उठा रहा था, सोनी सोरी से लेकर मनोरमा देवी जैसे अनेकों मामलों पर अभियान चला रहा था और यहाँ तक कि गोवा के जिस थिंक-फेस्ट के दौरान तरुण तेजपाल पर अपनी कनिष्ठ सहयोगी के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोप लगे हैं, वहां भी एक सत्र यौन उत्पीड़न और बलात्कार पीडितों के संघर्ष पर था लेकिन तरुण तेजपाल को अपनी सहयोगी पत्रकार, मित्र की बेटी और अपनी बेटी की दोस्त पर सख्त विरोध के बावजूद दो बार यौन हमला करने का साहस कहाँ से आया?

ऐसा लगता है कि तेजपाल जिन सरोकारों और उद्देश्यों की पत्रकारिता को आगे बढ़ाने का दावा कर रहे थे, उन उद्देश्यों और सरोकारों से खुद को बड़ा मान बैठने की भूल कर बैठे. उन्हें यह मुगालता हो गया कि वे खुद जनहित की पत्रकारिता के पर्याय बन गए हैं.
यह भी कि वे जैसे चाहेंगे, जनहित को पारिभाषित करेंगे और मुद्दे, सरोकार और उद्देश्य उनके पीछे चलेंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि जैसे ही कोई व्यक्ति खुद को उन आदर्शों, मूल्यों, सरोकारों और उद्देश्यों से बड़ा और अहम मानने लगता है जिससे उसे पहचान और सम्मान मिला है, उसके फिसलन और विचलनों की शुरुआत हो जाती है.
तेजपाल भी इसके अपवाद नहीं हैं. मीडिया से आ रही रिपोर्टों से साफ़ है कि तेजपाल के फिसलन और विचलनों की शुरुआत बहुत पहले हो गई थी जब उन्होंने बड़ी पूंजी की कारपोरेट पत्रकारिता के जवाब में वैकल्पिक और जनहित पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के नाम पर संदिग्ध उद्योगपतियों और व्यवसायियों से समझौते करने शुरू कर दिए.

‘तहलका’ के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के नामपर तेजपाल ने नैतिक रूप से संदिग्ध उपक्रम शुरू किये, जैसे व्यवसायियों के साथ हाथ मिलाये और खुद और परिवार के दूसरे सदस्यों के साथ पैसे और संपत्ति बनाई, वह वैकल्पिक और सरोकारी जनहित की पत्रकारिता के मूल्यों और आदर्शों के कहीं से भी अनुकूल नहीं थे.

यही नहीं, तेजपाल के कुछ पूर्व सहयोगियों का आरोप है कि उन्होंने कुछ खोजी रिपोर्टें जैसे गोवा में अवैध खनन से संबंधित रिपोर्ट को प्रकाशित होने से रोक दिया और बदले में गोवा सरकार और खनन कंपनियों से अनुचित फायदा उठाया. गोवा के कुछ वरिष्ठ और सम्मानित पत्रकारों ने गोवा में नियमों को तोड़कर बने तेजपाल के बंगले और संपत्ति पर गंभीर सवाल उठाए हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इन आरोपों में अगर जरा भी दम है तो यह तेजपाल पर लगे बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोपों से कम गंभीर नहीं हैं. साफ़ है कि ‘तहलका’ के घोषित आदर्शों और सरोकारों के विपरीत नैतिक विचलन की शुरुआत बहुत पहले ही हो चुकी थी और उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार खुद तेजपाल थे.
अफसोस और चिंता की बात यह है कि वैकल्पिक पत्रकारिता के दावों के बावजूद ‘तहलका’ का खुद का सांस्थानिक ढांचा इतना लोकतांत्रिक और पारदर्शी नहीं था कि उसमें तेजपाल की महत्वाकांक्षाओं और उसके कारण उनके नैतिक विचलनों पर अंकुश लगाया जा सकता.

ऐसा लगता है कि तेजपाल ‘तहलका’ को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चला रहे थे जिसमें ‘तहलका’ की जनहित पत्रकारिता के घोषित उद्देश्य और सरोकार पीछे चले गए थे और निजी हित ज्यादा महत्वपूर्ण और प्रभावी हो गए थे.

इसकी वजह यह थी कि ‘तहलका’ के घोषित उद्देश्यों और सरोकारों को सितारा (स्टार) समझने के बजाय तेजपाल खुद को स्टार समझने लगे थे और सरोकारों की मार्केटिंग और कारोबार में लग गए थे. उसकी स्वाभाविक परिणति अनैतिक समझौतों और विचलनों में ही होनी थी.

जारी.... 

('कथादेश' के जनवरी अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली क़िस्त)

गुरुवार, जनवरी 23, 2014

राजनीति और पत्रकारिता: किसकी राजनीति, किसकी पत्रकारिता?

मुद्दा आशुतोष का राजनीति में जाना नहीं बल्कि कारपोरेट न्यूज मीडिया की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता और झुकाव का है
दूसरी क़िस्त 
ऐसे में यह सवाल ज्यादा प्रासंगिक है कि किसी पत्रकार या संपादक की निजी वैचारिक-राजनीतिक राय और पक्षधरता से ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा क्या उस समाचार संस्थान की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता नहीं है?
यह सवाल इसलिए और ज्यादा जरूरी है क्योंकि समाचार संस्थान के अंदर विभिन्न स्तरों पर जांच-पड़ताल और छानबीन की ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें अगर किसी एक या दो या उससे अधिक पत्रकारों की ‘खबरों और रिपोर्टों’ में मौजूद राजनीतिक झुकाव या पूर्वाग्रह को सम्पादित किया जा सकता है.
लेकिन अगर वह समाचार संस्थान वैचारिक-राजनीतिक तौर पर खुद एक पक्ष में झुका हो तो संस्थान के सभी पत्रकारों/संपादकों पर उस ‘लाइन’ के अनुसार रिपोर्ट करने या विचार प्रकट करने के अलावा क्या विकल्प बचता है?
आश्चर्य नहीं कि अमरीका समेत सभी उदार पूंजीवादी लोकतंत्रों में मुख्यधारा के कारपोरेट समाचार संस्थानों में ‘समाचार और विचार के बीच चर्च और राज्य की तरह की स्पष्ट विभाजन रेखा’ के दावों और स्वतंत्रता, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठता, संतुलन और निष्पक्षता जैसे पत्रकारीय मूल्यों पर अत्यधिक जोर के बावजूद उसकी वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता, पूर्वाग्रह और झुकाव किसी से छुपे नहीं रहे हैं.

यही नहीं, पत्रकारों और संपादकों के चयन में भी उनकी सोच का ध्यान रखा जाता रहा है. यहाँ तक कि ५०-६० के दशक में अमरीका में सीनेटर मैकार्थी के नेतृत्व में न्यूज मीडिया, अकादमिक जगत से लेकर शासन-प्रशासन के सभी हिस्सों से वाम-प्रगतिशील-लिबरल सोच रखनेवाले पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को योजनाबद्ध तरीके से बाहर निकाला गया था.

नोम चोमस्की और एडवर्ड हरमन के अध्ययनों से भी यह साफ़ है कि अमरीकी मीडिया वैचारिक-राजनीतिक तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था और सत्ता प्रतिष्ठान के साथ गहराई से नाभिनालबद्ध है और अभिव्यक्ति/प्रेस की आज़ादी एक बहुत संकीर्ण दायरे में बंधी हुई है.
लेकिन कारपोरेट न्यूज मीडिया की साख और विश्वसनीयता के भ्रम को बनाए रखने और वास्तव में, पत्रकारों की स्वतंत्र रिपोर्टिंग की संभावनाओं को सीमित करने के लिए उनपर पार्टी राजनीति और यहाँ तक कि स्वतंत्र राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने की आचार संहिता थोपी जाती है.
ऐसा लगता है कि प्रोफेशनलिज्म के नामपर पत्रकारों को राजनीति और राजनीतिक गतिविधियों यहाँ तक कि स्वतंत्र नागरिक पहलकदमियों और कार्रवाइयों से दूर रखने के पीछे असली उद्देश्य उनकी स्वतंत्र रिपोर्टिंग की संभावनाओं को सीमित करना और सत्ता का भोंपू बनाए रखना है.   
भारत भी इसका अपवाद नहीं है. यहाँ भी न्यूज मीडिया की पत्रकारीय आचार संहिता में पत्रकार/संपादक के किसी राजनीतिक पार्टी के साथ खुले संबंधों और राजनीति गतिविधियों में शिरकत पर पाबन्दी है. पत्रकारों और रिपोर्टरों से अपेक्षा की जाती है कि वे बिना किसी वैचारिक-राजनीतिक पूर्वाग्रह या झुकाव के रिपोर्ट और विश्लेषण करें. लेकिन व्यवहार में सच्चाई ठीक इसके उलट है.

अधिकांश समाचार संस्थानों का वैचारिक-राजनीतिक झुकाव स्पष्ट है और उनके संपादकों के विचार-राजनीतिक झुकाव भी किसी से छुपे नहीं हैं. लेकिन मजे की बात यह है कि फिर भी वे अपनी निष्पक्षता और स्वतंत्रता का दावा करते नहीं थकते हैं.

यह भी तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि इमर्जेंसी के बाद आई जनता पार्टी की सरकार के दौरान तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने योजनाबद्ध तरीके से आर.एस.एस समर्थकों और उससे सहानुभूति रखनेवाले कार्यकर्ताओं को अखबारों में घुसाया था.

दूसरी ओर, वाम और जे.पी की सर्वोदयी राजनीति से कार्यकर्ता और समर्थक भी अच्छी-खासी संख्या में अखबारों में आए हालाँकि ९० और उसके बाद के दशक में ऐसे ज्यादातर वाम समर्थक पत्रकारों/संपादकों को भारतीय किस्म के मैकार्थीवाद के तहत नव उदारवादी तख्तापलट में अखबारों और दूसरे समाचार संस्थानों से बाहर कर दिया गया.
इसके बाद ज्यादातर कारपोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों में नव उदारवादी बाजार समर्थक सुधारों और दक्षिणपंथी राजनीति के समर्थकों को जगह दी गई या उन्हें आगे बढ़ाया गया और संपादक आदि महत्वपूर्ण पदों पर बैठाया गया. इसी दौर में राजनीति से दूर रहने और अराजनीतिक न्यूज मीडिया के दावों के बीच मुख्यधारा के अधिकांश कारपोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों ने खुलकर नव उदारवादी अर्थनीति और अनुदार राजनीति का सर्थन किया.
याद रहे कि ८० के दशक के उत्तरार्ध और ९० के दशक में घोर सांप्रदायिक रामजन्मभूमि अभियान को अनेकों अखबार समूहों ने खुला समर्थन दिया और भाजपा के राजनीतिक उभार में मदद की.       
इसी दौर में कई पत्रकार/संपादक ‘निष्पक्षता’ का चोला उतारकर भाजपा में शामिल हुए. दूसरी ओर, इसी दौर में बहुतेरे संपादकों/पत्रकारों को ‘फ्री मार्केट’ में मुक्ति दिखाई दी जबकि कई लालू से लेकर मुलायम सिंह के ‘सामाजिक न्याय’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ पर फ़िदा दिखाई दिए. हैरानी की बात नहीं है कि आज आशुतोष समेत अनेक पत्रकारों/संपादकों को आम आदमी पार्टी में ‘ईमानदारी’ और ‘बदलाव’ की संभावनाएं दिख रही हैं.
साफ़ है कि भारतीय पत्रकारिता में प्रोफेशनलिज्म, स्वतंत्रता और निष्पक्षता के तमाम दावों के बावजूद न सिर्फ मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों का वैचारिक-राजनीतिक झुकाव और पूर्वाग्रह एक तथ्य रहा है बल्कि ज्यादातर संपादकों/पत्रकारों की राजनीतिक-वैचारिक पक्षधरता भी जगजाहिर रही है.
यही नहीं, उनकी राजनीति का दायरा और दिशा भी उतनी ही स्पष्ट रही है. वह बिना किसी अपवाद के सत्ता प्रतिष्ठान और मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के साथ जुड़ी रही है. इसका नीरा राडिया टेप्स से बड़ा प्रमाण और क्या होगा? दूसरी ओर, वैकल्पिक और जन राजनीति के प्रति उसकी चिढ़ भी किसी से छुपी नहीं है.  
यह एक कड़वी सच्चाई है कि ‘निष्पक्षता’ और ‘गैर राजनीतिक’ होने के दावों के बावजूद अनेकों अखबारों और न्यूज चैनलों में प्रधान संपादक और स्थानीय संपादक से लेकर ब्यूरो चीफ और संवाददाताओं की नियुक्ति में बड़े नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और कार्पोरेट्स की सीधी दखल है.

‘द हिंदू’ और ‘ओपन’ के संपादकों की बर्खास्तगी में राजनीतिक और कार्पोरेट्स की भूमिका की चर्चा आम है. इसी तरह ज्यादातर रिपोर्टर खासकर राजनीतिक बीट कवर करनेवाले रिपोर्टर/ब्यूरो संवाददाताओं के राजनीतिक संबंध और झुकाव साफ़ दिखाई पड़ते हैं.

उनमें से कई तो उन पार्टियों के प्रवक्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं. इसके कारण राजनीतिक रिपोर्टिंग और उसकी धार लगातार कमजोर और भोथरी हुई है और कारपोरेट न्यूज मीडिया मुख्यधारा की कारपोरेट-परस्त राजनीति का प्रवक्ता बन गया है. नरेन्द्र मोदी को लेकर इस कारपोरेट न्यूज मीडिया का उत्साह किसी से छुपा नहीं है.
  
कहने का तात्पर्य यह है कि जब सगरे कूप में भंग पड़ी है तो आशुतोष के बजरिये पत्रकारिता, राजनीति प्रवेश की शिकायत क्या करें?

असल में, मुद्दा आशुतोष का पत्रकारिता छोड़कर पूर्णकालिक राजनीति में जाना नहीं बल्कि मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया की वैचारिक-राजनीतिक पक्षधरता और झुकाव का है. ‘स्वतंत्र’ और ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता के नामपर कारपोरेट समाचार संस्थानों और सत्ता प्रतिष्ठान और उसके प्रतिनिधि राजनीतिक दलों के बीच जिस तरह का अघोषित गठबंधन बना है और वह जिस तरह की राजनीति को आगे बढ़ा रहा है, उसमें  आशुतोष के अलावा और क्या अपेक्षा की जा सकती है?

जारी… 

('कथादेश' के फ़रवरी'14 अंक में प्रकाशित स्तम्भ)  

बुधवार, जनवरी 22, 2014

राजनीति बजरिये पत्रकारिता बनाम पत्रकारिता की राजनीति

राजनीति में शामिल होनेवाले आशुतोष पहले या आखिरी पत्रकार नहीं हैं     
पहली क़िस्त

वरिष्ठ पत्रकार, न्यूज एंकर और न्यूज चैनल- आई.बी.एन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष पिछले महीने चैनल से इस्तीफा देकर आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए. ऐसी चर्चा है कि आशुतोष २०१४ के लोकसभा चुनावों में पार्टी के प्रत्याशी होंगे.
आप पार्टी ने उन्हें अपने राष्ट्रीय प्रवक्ताओं की सूची में शामिल कर लिया है और आशुतोष पार्टी प्रवक्ता के बतौर चैनलों पर आम आदमी पार्टी की ओर से पार्टी का बचाव करने के साथ उसका पक्ष रखने लगे हैं. लेकिन उनके आप पार्टी में शामिल होने के बाद से पत्रकारों और राजनीति के बीच संबंधों को लेकर बहस फिर शुरू हो गई है और विरोधी आरोप भी लगा रहे हैं.
सवाल उठ रहे हैं कि क्या आशुतोष पहले से आप पार्टी की राजनीति और विचारों के समर्थक थे? फिर उनकी पत्रकारिता उनके राजनीतिक विचारों से प्रभावित तो नहीं थी? कि, क्या यह हितों के टकराव (कन्फ्लिक्ट आफ इंटरेस्ट) का मामला नहीं है? कि, क्या आशुतोष ने पत्रकारिता के मूल्यों- स्वतंत्रता, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता के साथ समझौता नहीं किया है?

यही नहीं, उनके आलोचक और विरोधी उनपर राजनीतिक अवसरवाद का आरोप लगा रहे हैं. उनके कई आलोचक उनकी राजनीति को लेकर भी सवाल उठा रहे हैं. उनका आरोप है कि जब वे आई.बी.एन-7 के प्रबंध संपादक थे और पिछले साल चैनल से सैकड़ों पत्रकारों/चैनलकर्मियों की छंटनी की गई तो वे चुप क्यों रहे? क्या उन्हें उस समय अपने सहकर्मियों के साथ खड़े नहीं होना चाहिए था, जैसीकि एक जनपक्षधर और ईमानदार राजनीति का दावा करनेवाले राजनेता से अपेक्षा की जाती है?

खुद आशुतोष ने कुछ टी.वी साक्षात्कारों में अपने बचाव में यह कहा है कि जब तक वे चैनल में संपादक रहे उन्होंने एक प्रोफेशनल पत्रकार, संपादक/एंकर की भूमिका और चैनल की रिपोर्टिंग और पत्रकारिता के साथ किसी तरह का समझौता नहीं किया. उनका यह भी दावा है कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से पत्रकारिता की और उसके मूल्यों के साथ कोई समझौता नहीं किया.
यह भी कि उन्होंने अपनी पत्रकारिता में कोई पक्षपात नहीं किया और अपनी स्वतंत्रता बनाए रखी. अवसरवाद के आरोपों पर उनका यह तर्क है कि देश आज बदलाव के जिस ऐतिहासिक दौर से गुजर रहा है, उसमें यह एक अवसर है जिसमें वह अपना योगदान करने से पीछे नहीं रहना चाहते हैं.
निश्चय ही, आशुतोष न तो पहले पत्रकार हैं जो पत्रकारिता छोड़कर सक्रिय पार्टी राजनीति में शामिल हो रहे हैं और न ही आखिरी. अगर इतिहास में बहुत पीछे न भी जाएँ तो पिछले दो-ढाई दशकों में ऐसे पत्रकारों की सूची लंबी है जो कुलवक्ती पत्रकारिता छोड़कर राजनीति (जैसे एम.जे. अकबर, संतोष भारतीय, सीमा मुस्तफा, उदयन शर्मा, अरुण शौरी, चन्दन मित्र आदि) में आए.

मजे की बात यह है कि उनमें से कई चुनाव लड़ने और सांसद रहने के बाद मुख्यधारा की पत्रकारिता में वापस (जैसे एम.जे. अकबर, उदयन शर्मा, सीमा मुस्तफा आदि) भी लौट आए. चन्दन मित्र और संतोष भारतीय जैसे कुछ पत्रकार और नेता दोनों भूमिकाएं निभा रहे हैं. इनके अलावा अशोक टंडन, हरीश खरे, पंकज पचौरी जैसे कुछ पत्रकारों ने पत्रकारिता छोड़कर तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के मीडिया सलाहकार का काम भी संभाला है.

कहने का तात्पर्य यह कि कुलवक्ती पत्रकारिता छोड़कर राजनीति में जाने की प्रक्रिया नई नहीं है और राजनीति से वापस पत्रकारिता में लौटने या दोनों ही भूमिकाएं निभाने की मिसालें भी कम नहीं हैं. जाहिर है कि पत्रकारिता से राजनीति और फिर पत्रकारिता में आवाजाही की इस कड़ी में ही आशुतोष के राजनीति प्रवेश को भी देखा जाना चाहिए.
लेकिन इसका पत्रकारिता और राजनीति- दोनों के लिए क्या अर्थ है? असल में, दुनिया के ज्यादातर उदार लोकतंत्रों में पत्रकारिता को एक स्वतंत्र संस्था और लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में देखा जाता है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह लोकतांत्रिक व्यवस्था की तीन प्रमुख संस्थाओं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज पर निगरानी रखेगी और लोगों को उनके क्रियाकलापों के बारे में तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ, संतुलित और निष्पक्ष समाचार देगी और विभिन्न विचारों से अवगत कराएगी.
माना जाता है कि इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए यह जरूरी है कि पत्रकारिता न सिर्फ इन तीनों संस्थाओं और उनके प्रभाव/दबाव से मुक्त और स्वतंत्र रहे बल्कि पत्रकारिता करनेवाले पत्रकार भी उन सभी व्यक्तियों/संस्थाओं/हितों से स्वतंत्र और मुक्त रहें जिन्हें वे रिपोर्ट या कवर करते हैं. इसकी वजह यह है कि लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि से लेकर विभिन्न राजनीतिक विकल्पों के बीच चुनाव करते हुए नागरिकों के लिए तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष सूचनाएं बेहद जरूरी हैं.

लेकिन तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष सूचनाओं का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत न्यूज मीडिया यानी पत्रकारिता है और पत्रकारिता इस अपेक्षा तब तक पूरी नहीं कर सकती है जब तक पत्रकार बिना किसी दबाव या प्रलोभन या संबंध के घटनाओं/समस्याओं/विचारों/मुद्दों को रिपोर्ट करे और लोग उसपर भरोसा करें.

यही कारण है कि अमरीका समेत कई पश्चिमी देशों में प्रोफेशनल पत्रकारों की पत्रकारीय आचार संहिता का यह अभिन्न हिस्सा है कि वे किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य नहीं हो सकते हैं, किसी भी राजनीतिक पार्टी के कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले सकते हैं और सार्वजनिक तौर पर किसी भी राजनीतिक पार्टी के प्रति समर्थन या लगाव का इजहार नहीं कर सकते हैं.
इसके तहत पत्रकारों को किसी राजनीतिक पार्टी को चंदा देने, उसका बैच लगाने या अपनी गाड़ी पर उसके स्टिकर लगाने पर भी पाबन्दी है. यहाँ तक कि अधिकांश समाचार संगठनों में पत्रकारों के लिए किसी मुद्दे जैसे महिला अधिकार या मानवाधिकार या ग्लोबल वार्मिंग से लेकर आक्युपाई वाल स्ट्रीट जैसे पर किसी स्वतंत्र प्रदर्शन या रैली में हिस्सा लेने या सोशल मीडिया पर निजी राय जाहिर करने पर भी प्रतिबन्ध है.
आशय यह कि पत्रकार किसी भी रूप में किसी राजनीतिक पार्टी या विचार या मुद्दे के साथ जुड़े नहीं दिखाई दें और इन सभी को स्वतंत्र रूप से रिपोर्ट, विश्लेषित और आलोचना कर सकें.
ऐसे एक नहीं, दर्जनों मामले हैं जब न्यूज मीडिया संस्थानों/कंपनियों ने पत्रकारों को राजनीतिक संबंधों या राजनीतिक मुद्दों पर निजी राय जाहिर करने के कारण नौकरी से निकाल दिया है. इसके बावजूद अमेरिकी में अधिकांश न्यूज मीडिया संस्थानों, संपादकों और पत्रकारों पर उदार या अनुदार विचारों और राजनीति के पक्ष में झुके होने का आरोप लगता रहा है.

मजे की बात यह है कि अमेरिकी मीडिया और पत्रकारों और यहाँ तक कि अकादमिक समुदाय पर अनुदारवादियों (कंजर्वेटिव/रिपब्लिकनों) की ओर से उदार-वाम (लिबरल, वाम और डेमोक्रेटिक) पूर्वाग्रह या झुकाव का आरोप लगाया जाता रहा है जबकि लिबरलों का आरोप है कि अमेरिकी मीडिया पर अनुदारवादियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है और वह उनके पक्ष में झुकता जा रहा है.

सच यह है कि रूपर्ट मर्डोक के फाक्स न्यूज चैनल और अन्य प्रकाशनों के नेतृत्व में हाल के वर्षों में अमरीकी न्यूज मीडिया में दक्षिणपंथियों और अनुदारवादियों का दबदबा लगातार बढ़ा है. यही नहीं, उनकी ओर से अपेक्षाकृत उदार न्यूज मीडिया संस्थानों और पत्रकारों पर लिबरल पूर्वाग्रह और झुकाव के आरोपों और लगातार हमलों के कारण इन संस्थानों और पत्रकारों की आवाज़ भी कमजोर पड़ी है.
इसका एक बड़ा प्रमाण यह है कि ईराक पर हमले से पहले मुख्यधारा के समूचे अमरीकी कारपोरेट मीडिया ने न सिर्फ हमले का समर्थन किया बल्कि युद्ध के पक्ष में माहौल बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई. उस दौरान अमरीकी न्यूज मीडिया बुश प्रशासन का भोंपू बन गया था.
यहाँ सवाल सिर्फ उन समाचार माध्यमों के वैचारिक-राजनीतिक स्टैंड का नहीं है बल्कि मुद्दा यह है कि ईराक पर हमले के मुद्दे पर उनके वैचारिक-राजनीतिक स्टैंड से क्या उनकी रिपोर्टिंग/न्यूज कवरेज भी प्रभावित हुई?

यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पत्रकारों के राजनीति से दूर रहने और निजी रुझानों को जाहिर न करने के पीछे बुनियादी आइडिया यह है कि वे पूरी स्वतंत्रता के साथ और तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष रिपोर्टिंग कर सकें; समाचार, उनके निजी विचारों से प्रभावित न हों और लोगों को सच पता चल सके.

लेकिन ईराक युद्ध समेत अनेक मामलों में यह सच्चाई खुलकर सामने आई कि पत्रकारों से ज्यादा मुख्यधारा के कारपोरेट न्यूज मीडिया ने स्पष्ट रूप से एक वैचारिक-राजनीतिक लाइन ली और पत्रकारों ने उसके मुताबिक और तथ्यों, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता के ठीक उलट रिपोर्ट किया.

(''कथादेश" के फ़रवरी'14 के लिए लिखी टिप्पणी की पहली क़िस्त। विस्तार से पढ़ने के लिए पत्रिका खरीदें)