सरकार माने या न माने लेकिन सीधा रिश्ता है
महंगाई और भूख के बीच
असल में, महंगाई गरीबों पर अतिरिक्त टैक्स की तरह है जो उनसे उनकी रही-सही क्रयशक्ति भी छीन लेती है. महंगाई बाजार की वह व्यवस्था है जिसके जरिये गरीबों को बाजार से बाहर कर दिया जाता है. इसके कारण उसकी बढ़ी हुई कमाई भी उसकी भूख मिटाने में नाकाम रहती है और भोजन उसकी पहुँच से और बाहर हो जाता है.
यह तर्क फ्रेंच महारानी मैरी की उस मानसिकता से अलग नहीं है जिसमें उसने लोगों को रोटी न मिलने की शिकायत पर केक खाने की सलाह दी थी.
यही कारण है कि ऊँची वृद्धि दर के बावजूद देश में न सिर्फ कुपोषण कम नहीं हो रहा है बल्कि बाल मृत्यु दर भी ऊँची बनी हुई है और भारत भूखमरी सूचकांक में सब सहारा देशों के साथ खड़ा है.
हैरानी की बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतों में १६ फीसदी, चावल में २३ और मक्के में ३५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई लेकिन भारत में रिकार्ड अनाज पैदावार और सरकारी गोदामों में रिकार्ड अनाज भण्डार के बावजूद खादयान्नों की कीमतों में कोई गिरावट नहीं आई है.
आश्चर्य नहीं कि चुनावों के मद्देनजर हो रहे सभी जनमत सर्वेक्षणों में आमलोग सबसे बड़े मुद्दों में की सूची में महंगाई को सबसे ऊपर बता रहे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह महंगाई लोगों को इसलिए ज्यादा चुभ और परेशान कर रही है क्योंकि इसमें खाद्य वस्तुओं की महंगाई की सबसे बड़ी भूमिका है और यह गरीबों की बड़ी संख्या को भूखमरी की ओर ढकेल रही है.
एक बार फिर से तेज आर्थिक विकास के दावों और उछलते शेयर बाजार की
खबरों के बीच वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की ६३वें स्थान पर मौजूदगी और दुनिया
में भूखमरी के शिकार लोगों में एक चौथाई के भारत में होने की रिपोर्ट एक रुटीन खबर
की तरह आई और चली गई.
लगा नहीं कि इस रिपोर्ट से कहीं कोई बेचैनी हुई और नीति
नियंताओं को कोई शर्म महसूस हुई. इस मुद्दे पर हर ओर छाई एक ‘षड्यंत्रपूर्ण
चुप्पी’ को समझना मुश्किल नहीं है.
यहाँ तक कि हर रात प्राइम टाइम में ‘देश की अंतरात्मा’ की नई ‘आवाज़’
बन गए टी.वी एंकरों ने भी नीति नियंताओं को कटघरे में खड़ा करने और ‘देश उनसे जानना
चाहता है’ (नेशन वांट्स टू नो) की तर्ज पर तीखे सवाल पूछने की जरूरत नहीं समझी.
ठीक भी है कि खाए-पीये-अघाये उच्च मध्यवर्ग और उनके नुमाइंदे एंकरों के लिए २१
करोड़ भारतीयों की भूख कोई बड़ा मुद्दा नहीं है.
हैरानी की बात नहीं है कि जब यह रिपोर्ट आई कि भूखमरी के सूचकांक में
भारत सब सहारा अफ्रीका के इथियोपिया, सूडान, चाड और नाइजर जैसे देशों की कतार में
खड़ा है, उसी के आसपास एक और रूटीन खबर आई और चली गई कि थोक मूल्य सूचकांक पर
आधारित मुद्रास्फीति यानी महंगाई की वृद्धि दर बढ़कर ६.४६ प्रतिशत पहुँच गई है जोकि
पिछले सात महीने की सबसे ऊँची दर है. इसमें खाद्य वस्तुओं की महंगाई वृद्धि दर
वास्तव में आसमान छू रही है और १८ फीसदी तक पहुँच गई है.
हालाँकि यू.पी.ए सरकार इसे स्वीकार नहीं करेगी लेकिन इन दोनों खबरों
के बीच सीधा संबंध है. आसमान छूती महंगाई और भूखमरी सूचकांक पर भारत के लगातार
शर्मनाक प्रदर्शन के बीच गहरा संबंध है. असल में, महंगाई गरीबों पर अतिरिक्त टैक्स की तरह है जो उनसे उनकी रही-सही क्रयशक्ति भी छीन लेती है. महंगाई बाजार की वह व्यवस्था है जिसके जरिये गरीबों को बाजार से बाहर कर दिया जाता है. इसके कारण उसकी बढ़ी हुई कमाई भी उसकी भूख मिटाने में नाकाम रहती है और भोजन उसकी पहुँच से और बाहर हो जाता है.
लेकिन लगातार ऊँची महंगाई और भूख के बीच इस सीधे रिश्ते को नीति
नियंता स्वीकार नहीं करते हैं. इस मुद्दे पर उनकी उलटबांसियां हैरान करनेवाली है.
भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति नियंताओं का दावा है कि महंगाई खासकर
खाद्य वस्तुओं की महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि गरीबों की आय बढ़ी है और इस कारण
खाद्य वस्तुओं की मांग पर दबाव बढ़ा है और महंगाई बढ़ रही है.
याद कीजिए, कुछ वर्ष
पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने एक बहुत हास्यास्पद बयान में कहा था कि
दुनिया भर में खाद्यान्नों की कीमतें इसलिए बढ़ रही हैं क्योंकि भारत-चीन में लोग
ज्यादा खाने लगे हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में भी बुश के बहुतेरे प्रशंसक हैं
खासकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में. आश्चर्य नहीं कि जब यह तथ्य सामने रखा गया कि
भारत में प्रति व्यक्ति अनाजों की उपलब्धता लगातार घट रही है तो इसी से
मिलता-जुलता तर्क दिया गया था कि आय बढ़ने के साथ लोगों के खानपान के तरीकों और
रुचियों में बदलाव आया है और लोग रोटी-चावल-दाल के बजाय अब प्रोटीन की चीजें जैसे
दूध-अंडे-मांस-मछली ज्यादा खा रहे हैं. यह तर्क फ्रेंच महारानी मैरी की उस मानसिकता से अलग नहीं है जिसमें उसने लोगों को रोटी न मिलने की शिकायत पर केक खाने की सलाह दी थी.
तथ्य यह है कि खुद सरकार की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण गरीबों के
भोजन में कुल कैलोरी और प्रोटीन के उपभोग में कमी आई है. इसी तरह आंकड़े बताते हैं
कि प्रति व्यक्ति अनाजों और दलों की उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है.
उदाहरण के
लिए, १९८७-९१ के बीच औसतन प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता ४४० ग्राम और दाल ४०
ग्राम थी जो २००७-१० के बीच औसतन ४०४ ग्राम और ३६ ग्राम रह गई है. हालाँकि ये
आंकड़े भी सच्चाई बयान नहीं करते क्योंकि इसमें निजी व्यापारियों के पास उपलब्ध
अनाजों को जोड़ने के अलावा संपन्न वर्गों के अति उपभोग को भी शामिल किया गया है.
दरअसल, सच्चाई यह है कि पिछले दो दशकों में ऊँची वृद्धि दर के साथ
ऊँची महंगाई दर ने लोगों के मुंह से निवाला छीन लिया है. इन वर्षों में गरीबों की
आय में जो मामूली वृद्धि हुई, वह भी ऊँची महंगाई ने लील ली है. यही कारण है कि ऊँची वृद्धि दर के बावजूद देश में न सिर्फ कुपोषण कम नहीं हो रहा है बल्कि बाल मृत्यु दर भी ऊँची बनी हुई है और भारत भूखमरी सूचकांक में सब सहारा देशों के साथ खड़ा है.
हैरानी की बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गेहूं की कीमतों में १६ फीसदी, चावल में २३ और मक्के में ३५ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई लेकिन भारत में रिकार्ड अनाज पैदावार और सरकारी गोदामों में रिकार्ड अनाज भण्डार के बावजूद खादयान्नों की कीमतों में कोई गिरावट नहीं आई है.
ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, महंगाई कम करने के सरकार के तमाम दावों के
बावजूद उपभोक्ता मूल्य सूचकांक लगातार दोहरे अंकों के आसपास बना हुआ है और सितम्बर
महीने में यह बढ़कर ९.८४ प्रतिशत तक पहुँच गया है.
यही नहीं, खेतिहर श्रमिकों और
ग्रामीण श्रमिकों के लिए खुदरा महंगाई की दर सितम्बर महीने में १२ फीसदी से ऊपर
दर्ज की गई है. इस महंगाई दर खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई के साथ सबसे खास बात
यह है कि पिछले चार-पांच सालों से यह लगातार दोहरे अंकों में बनी हुई है.
इसकी सबसे अधिक कीमत जाहिर है कि गरीबों खासकर पहले से भूखमरी के
शिकार लोगों को उठानी पड़ रही है. इसका सबूत यह है कि गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के
कुल आय और उपभोग का बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च करना पड़ रहा है. इस कारण लोगों को
अपनी बचत से लेकर बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च में कटौती करनी पड़ रही
है. आश्चर्य नहीं कि चुनावों के मद्देनजर हो रहे सभी जनमत सर्वेक्षणों में आमलोग सबसे बड़े मुद्दों में की सूची में महंगाई को सबसे ऊपर बता रहे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह महंगाई लोगों को इसलिए ज्यादा चुभ और परेशान कर रही है क्योंकि इसमें खाद्य वस्तुओं की महंगाई की सबसे बड़ी भूमिका है और यह गरीबों की बड़ी संख्या को भूखमरी की ओर ढकेल रही है.
इस सिलसिले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भोजन के अधिकार के कानून
और गरीबों की बड़ी संख्या को सस्ती दरों पर अनाज मुहैया कराने के दावों के बावजूद
यह सबक याद रखना जरूरी है कि खाद्य वस्तुओं की ऊँची महंगाई पर रोक नहीं लगाई गई तो
शोध बताते हैं कि पीडीएस का अनाज चोरबाजारी के जरिये बाजार में पहुँचने लगता है और
नतीजे में, खाद्यान्नों की उठान भी गिर जाती है.
दूसरी ओर, गरीबों को उसी अनाज की
ऊँची कीमत चुकानी पड़ती है. साफ़ है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई पर
लगाम लगाये बगैर गरीबों को भूखमरी की मार से बचा पाना मुश्किल है.
( 'शुक्रवार' के ३१ अक्टूबर के अंक में प्रकाशित)
1 टिप्पणी:
Comfortable with current level of Inflation, says Rajan and notwithstanding the expected edging down of food inflation, retail inflation is likely to remain around or even above 9 percent in the months ahead, he also added. "महंगाई की महामारी ने हमरा भट्टा विठा दिया,चले थे गरीबी हटाने गरीबों को ही हटा दिया,
शरबत की तरह देश को गटका है गटा-गट,आमआदमी की जेब होगई है सफाचट.."
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