अर्थव्यवस्था का संकट निवेश की कमी से गहरा रहा है लेकिन चिदंबरम वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं
दूसरी क़िस्त
इसमें कोई शक नहीं है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है. खुद भारत सरकार के केन्द्रीय सांख्यकीय संगठन (सी.एस.ओ) के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है जो पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.
इस कारण वित्त मंत्री पर एक ऐसा बजट पेश करने का दबाव है जो अर्थव्यवस्था की मद्धिम पड़ती रफ़्तार को फिर से तेज कर सके. इसके लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़े. इस मुद्दे पर व्यापक सहमति है कि अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से बाहर निकालने के लिए निवेश बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
लेकिन निवेश बढ़ाने की रणनीति को लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं. खुद वित्त मंत्री और उनके आर्थिक मैनेजरों समेत नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का मानना है कि निवेश बढ़ाने के लिए सरकार को निवेश के अनुकूल माहौल बनाने और निजी निवेश की राह में आनेवाली बाधाओं को हटाने पर जोर देना चाहिए और बाकी निजी क्षेत्र पर छोड़ देना चाहिए.
इस नव उदारवादी रणनीति के तहत ही पी. चिदंबरम अगले बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने, ब्याज दरों में कमी करने के लिए रिजर्व बैंक को मनाने और देशी-विदेशी निजी निवेशकों और कार्पोरेट्स को निवेश के लिए प्रेरित करने हेतु और अधिक रियायतें देने की तैयारी कर रहे हैं.
लेकिन अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का तर्क है कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी के संकट से उबारने के लिए चार साल पहले ही स्टिमुलस पैकेज दिया जा चुका है और उसके कारण बढ़ते राजकोषीय घाटे को देखते हुए अब राजकोषीय स्थिति को सुदृढ़ करने की सख्त जरूरत है.
लेकिन उसके बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बढ़ते राजकोषीय घाटे की दुहाई देकर स्टिमुलस उपायों को वापस लेना शुरू कर दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष २०११-१२ में जी.डी.पी की वृद्धि दर एक बार फिर लुढककर ६.२ फीसदी रह गई जिसके चालू वित्तीय वर्ष में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रह जाने का अनुमान है.
यही नहीं, अगर वे निजी निवेश को प्रोत्साहित करने में कामयाब भी होते हैं तो यह सवाल बना रहेगा कि यह किस कीमत पर हुआ और कितना स्थाई है? आखिर आमलोगों पर इतना बोझ डालकर और उनकी बुनियादी जरूरतों की अनदेखी करके और दूसरी ओर, बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को इतनी रियायतें देकर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने की इस रणनीति से किसे लाभ हो रहा है?
अलबत्ता यह संभव है कि चिदंबरम आम आदमी के नामपर मध्यवर्ग को करों में रियायत देकर कांग्रेस की ओर आकर्षित करने की कोशिश करें. इससे बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को भी शिकायत नहीं होगी क्योंकि मध्य वर्ग के हाथ में अधिक पैसा आने का सबसे अधिक फायदा उसे ही होता है. मध्य वर्ग आमतौर पर उस अतिरिक्त आय को उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च करता है जिससे इन उत्पादों की मांग बढ़ती है.
लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि वित्त मंत्री इस बजट में खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर क्या प्रावधान करेंगे? कांग्रेस अगले आम चुनावों में इस योजना को भुनाना चाहती है. इस बात के पूरे आसार हैं कि वित्त मंत्री न चाहते हुए भी इस योजना के लिए बजटीय प्रावधान करेंगे.
लेकिन राजकोषीय घाटे को काबू में करने की उनकी प्राथमिकता के मद्देनजर यह संभव है कि वे इस योजना पर ईमानदारी से अमल के लिए जरूरी बजटीय प्रावधान के बजाय प्रतीकात्मक प्रावधान करें लेकिन बजट भाषण में बड़े-बड़े दावे करें.
यही नहीं, चुनावी वर्ष का बजट होने के नाते इसमें लच्छेदार बातें खूब होंगी, आम आदमी की खूब कसमें खाई जायेंगी, किसानों की दुहाई दी जाएगी लेकिन बजटीय प्रावधानों में वित्तीय कठमुल्लावाद की ही चलेगी.
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के मार्च के अंक में कवर स्टोरी)
दूसरी क़िस्त
इसमें कोई शक नहीं है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है. खुद भारत सरकार के केन्द्रीय सांख्यकीय संगठन (सी.एस.ओ) के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर मात्र ५ फीसदी रहने का अनुमान है जो पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है.
इस कारण वित्त मंत्री पर एक ऐसा बजट पेश करने का दबाव है जो अर्थव्यवस्था की मद्धिम पड़ती रफ़्तार को फिर से तेज कर सके. इसके लिए जरूरी है कि अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़े. इस मुद्दे पर व्यापक सहमति है कि अर्थव्यवस्था को मौजूदा स्थिति से बाहर निकालने के लिए निवेश बढ़ाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
लेकिन निवेश बढ़ाने की रणनीति को लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और अर्थशास्त्रियों में मतभेद हैं. खुद वित्त मंत्री और उनके आर्थिक मैनेजरों समेत नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का मानना है कि निवेश बढ़ाने के लिए सरकार को निवेश के अनुकूल माहौल बनाने और निजी निवेश की राह में आनेवाली बाधाओं को हटाने पर जोर देना चाहिए और बाकी निजी क्षेत्र पर छोड़ देना चाहिए.
इस नव उदारवादी रणनीति के तहत ही पी. चिदंबरम अगले बजट में राजकोषीय घाटे को कम करने, ब्याज दरों में कमी करने के लिए रिजर्व बैंक को मनाने और देशी-विदेशी निजी निवेशकों और कार्पोरेट्स को निवेश के लिए प्रेरित करने हेतु और अधिक रियायतें देने की तैयारी कर रहे हैं.
लेकिन इस रणनीति की सफलता को लेकर अर्थशास्त्रियों में गहरे मतभेद
हैं. अर्थशास्त्रियों के एक हिस्से का मानना है कि राजकोषीय घाटे में कटौती के
‘आब्सेशन’ और वित्तीय कठमुल्लावाद से अर्थव्यवस्था का संकट और गहरा सकता है.
इसके
लिए वे यूरोप का उदाहरण देते हैं जहाँ राजकोषीय घाटे में कटौती के नामपर अपनाई गई
किफायतशारी (आस्ट्रीटी) की नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस गई
है. असल में, जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी पड़ रही हो और मांग में गिरावट और
आर्थिक अनिश्चितताओं के कारण निजी निवेश ठहर गया हो, उस समय अर्थव्यवस्था में निजी
निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए ‘उत्प्रेरक’ (स्टिमुलस) की जरूरत होती है.
कीन्सवादी अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, ऐसे समय में सरकार को कुछ समय
के लिए राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़कर अर्थव्यवस्था में उत्पादक सार्वजनिक निवेश
खासकर सामाजिक और भौतिक ढांचागत क्षेत्र में बढ़ाना चाहिए. सार्वजनिक निवेश बढ़ने से
न सिर्फ रोजगार के नए अवसर बढ़ेंगे बल्कि उससे विभिन्न वस्तुओं और उत्पादों की मांग
भी बढ़ेगी जिसे पूरा करने के लिए निजी निवेश आगे आएगा. लेकिन अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का तर्क है कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी के संकट से उबारने के लिए चार साल पहले ही स्टिमुलस पैकेज दिया जा चुका है और उसके कारण बढ़ते राजकोषीय घाटे को देखते हुए अब राजकोषीय स्थिति को सुदृढ़ करने की सख्त जरूरत है.
उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने वर्ष २००७-०८ में अमेरिकी आर्थिक
संकट के बाद पैदा हुई वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने कोई दो लाख करोड़ रूपये के
स्टिमुलस पैकेज का एलान किया था. लेकिन इस स्टिमुलस पैकेज में करो में छूट और
कारपोरेट क्षेत्र को दी गई रियायतें ज्यादा थीं और सार्वजनिक निवेश को बढ़ाने के
लिए कोई खास कोशिश नहीं की गई.
इसका नतीजा यह हुआ कि इस पैकेज के कारण कारपोरेट
क्षेत्र अपने मुनाफे को बनाए रखने में कामयाब रहा लेकिन उसने वैश्विक आर्थिक संकट
के मद्देनजर निवेश बढ़ाने में रूचि नहीं दिखाई. दूसरी ओर, स्टिमुलस पैकेज के कारण राजकोषीय
घाटे में तेजी से वृद्धि हुई.
इसके बावजूद यह एक तथ्य है कि स्टिमुलस पैकेज के कारण राजकोषीय घाटे
में भले वृद्धि हुई हो लेकिन उससे अर्थव्यवस्था को वैश्विक मंदी की मार से उबरने
में मदद मिली. आश्चर्य नहीं कि जी.डी.पी वृद्धि की रफ़्तार वैश्विक आर्थिक संकट के
कारण वर्ष २००७-०८ के ९.३ फीसदी की तुलना में २००८-०९ में गिरकर ६.७ फीसदी रह गई
थी, वह २००९-१० और १०-११ में बढ़कर क्रमश: ८.६ और ९.३ फीसदी तक पहुँच गई. लेकिन उसके बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बढ़ते राजकोषीय घाटे की दुहाई देकर स्टिमुलस उपायों को वापस लेना शुरू कर दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि वर्ष २०११-१२ में जी.डी.पी की वृद्धि दर एक बार फिर लुढककर ६.२ फीसदी रह गई जिसके चालू वित्तीय वर्ष में और गिरकर मात्र ५ फीसदी रह जाने का अनुमान है.
साफ़ है कि किफायतशारी की नीति काम नहीं कर रही हैं. उसका असर उल्टा हो
रहा है. ऐसे में, यह सवाल बहुत मौजूं हो जाता है कि क्या वित्त मंत्री पी. चिदंबरम
के उन्हीं नीतियों पर और जोर देने से स्थिति और नहीं बिगड़ जाएगी?
लेकिन चिदंबरम के
रवैये से लगता नहीं है कि वे इस नीति पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार हैं. जाहिर
है कि वे एक बड़ा जोखिम ले रहे हैं. वे सार्वजनिक निवेश के बजाय निजी देशी-विदेशी
निवेश में बढ़ोत्तरी पर दांव लगा रहे हैं. इसके लिए वे उसकी हर मांग पूरी कर रहे
हैं. राजकोषीय घाटे में कमी के लिए आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने के साथ-साथ
वे अर्थव्यवस्था के बचे क्षेत्रों जैसे खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोल
रहे हैं.
लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि क्या बड़ी देशी-विदेशी निजी पूंजी और
कार्पोरेट्स अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की पहल करेंगे? हालाँकि चिदंबरम का जादू
चला या नहीं, यह जानने के लिए अगले कुछ महीनों का इंतज़ार करना पड़ेगा लेकिन इतना तय
है कि वे एक बड़ा जुआ खेल रहे हैं जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत भारी भी पड़ सकता है.
यही नहीं, अगर वे निजी निवेश को प्रोत्साहित करने में कामयाब भी होते हैं तो यह सवाल बना रहेगा कि यह किस कीमत पर हुआ और कितना स्थाई है? आखिर आमलोगों पर इतना बोझ डालकर और उनकी बुनियादी जरूरतों की अनदेखी करके और दूसरी ओर, बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को इतनी रियायतें देकर अर्थव्यवस्था की रफ़्तार को तेज करने की इस रणनीति से किसे लाभ हो रहा है?
यही नहीं, इस रणनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि निजी निवेश को
प्रोत्साहित करने के नामपर यह कार्पोरेट्स और आवारा विदेशी पूंजी को अधिक से अधिक
रियायतें देने और उसकी सभी जायज-नाजायज मांगों को स्वीकार करती जा रही है.
एक अर्थ
में यह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के ब्लैकमेल के आगे घुटने टेकने की तरह है. लेकिन
अर्थव्यवस्था की कमान बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स के हाथों में सौंपने
के बाद वित्त मंत्री के पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी नहीं रह गया है.
काबू से बाहर महंगाई और आम आदमी की उम्मीदें
लेकिन सवाल यह भी है कि इस बजट में महंगाई से निपटने के लिए क्या
होगा? दूसरे, इस चुनावी वर्ष में बजट से आम आदमी को क्या मिलनेवाला है? तीसरे,
खाद्य सुरक्षा जैसे पिछले चुनावी वायदों का क्या होगा? क्या ये चिंताएं भी वित्त
मंत्री की प्राथमिकता सूची में कहीं हैं?
निश्चय ही, वित्त मंत्री महंगाई को लेकर
इनसे चिंतित हैं. लेकिन उनका मानना है कि महंगाई पर अंकुश के लिए भी राजकोषीय घाटे
पर काबू पाना जरूरी है. इसलिए बजट में महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए अलग से कोई
पहल और उपाय करने के बजाय वे राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने और इसके जरिये मांग और
कीमतों पर दबाव कम करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन इससे महंगाई खासकर खाद्य महंगाई में कमी आने की उम्मीद बहुत कम
है जोकि अभी भी दोहरे अंकों में चल रही है. इसी तरह बजट में आम आदमी खासकर गरीबों
को कुछ नहीं मिलने जा रहा है. उल्टे गरीबी उन्मूलन की कई योजनाओं में काट-छांट और
उनके बजट में कटौती की आशंका है. अलबत्ता यह संभव है कि चिदंबरम आम आदमी के नामपर मध्यवर्ग को करों में रियायत देकर कांग्रेस की ओर आकर्षित करने की कोशिश करें. इससे बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को भी शिकायत नहीं होगी क्योंकि मध्य वर्ग के हाथ में अधिक पैसा आने का सबसे अधिक फायदा उसे ही होता है. मध्य वर्ग आमतौर पर उस अतिरिक्त आय को उपभोक्ता वस्तुओं पर खर्च करता है जिससे इन उत्पादों की मांग बढ़ती है.
लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि वित्त मंत्री इस बजट में खाद्य सुरक्षा कानून को लेकर क्या प्रावधान करेंगे? कांग्रेस अगले आम चुनावों में इस योजना को भुनाना चाहती है. इस बात के पूरे आसार हैं कि वित्त मंत्री न चाहते हुए भी इस योजना के लिए बजटीय प्रावधान करेंगे.
लेकिन राजकोषीय घाटे को काबू में करने की उनकी प्राथमिकता के मद्देनजर यह संभव है कि वे इस योजना पर ईमानदारी से अमल के लिए जरूरी बजटीय प्रावधान के बजाय प्रतीकात्मक प्रावधान करें लेकिन बजट भाषण में बड़े-बड़े दावे करें.
यही नहीं, चुनावी वर्ष का बजट होने के नाते इसमें लच्छेदार बातें खूब होंगी, आम आदमी की खूब कसमें खाई जायेंगी, किसानों की दुहाई दी जाएगी लेकिन बजटीय प्रावधानों में वित्तीय कठमुल्लावाद की ही चलेगी.
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के मार्च के अंक में कवर स्टोरी)