शनिवार, अक्तूबर 27, 2012

राजनीतिक व्यवस्था की बढ़ती सड़न का नतीजा है गडकरी परिघटना और यह अपवाद नहीं हैं

कार्पोरेट नियंत्रित धनतंत्र में हैं भ्रष्टाचार की जड़ें 

पहली क़िस्त
देश हैरान और स्तब्ध है. जिस तरह से लगभग हर दिन सत्ता पक्ष और विपक्ष के शीर्ष पर बैठे मंत्रियों और नेताओं के भ्रष्टाचार और घोटालों के नए-नए मामले सामने आ रहे हैं और भ्रष्टाचार और घोटालों के मामले में सत्ता और विपक्ष के बीच का फर्क खत्म होता दिख रहा है, उससे अचानक इन आरोपों में सच्चाई दिखने लगी है कि भ्रष्टाचार के हम्माम में सभी नंगे हैं.
ऐसा लगता है कि जैसे भ्रष्टाचार की बंद नाली का मुंह खुल गया हो और उससे निकलते कीचड़ की बाढ़ में सत्ता की राजनीति करनेवाला समूचा राजनीतिक वर्ग गले तक डूबा हुआ दिख रहा है. भ्रष्टाचार और घोटालों की कालिख के छींटों से शायद ही कोई अपवाद बचा हो.
सच पूछिए तो हालात कुछ हैं, जैसे शेक्सपीयर के नाटक ‘हैमलेट’ में मार्सेल्स कहता है कि ‘डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ सा गया है’, उसी तर्ज पर लगता है कि ‘भारतीय राजनीति और राज्य व्यवस्था में कुछ नहीं, बहुत कुछ सड़ गया है’ और उसकी दुर्गन्ध से पूरे सार्वजनिक और राजनीतिक परिदृश्य में दमघोंटू सा माहौल बनता जा रहा है.

इस पूरे परिदृश्य में एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोपों का बहरा कर देनेवाला शोर-शराबा है, एक-दूसरे को नंगा करने और बताने की होड़ है और इस प्रक्रिया में शायद पहली बार भारतीय राजनीति और राज्य व्यवस्था को कैंसर की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार की जड़ों के इतनी गहराई और दूर तक फैले होने की सच्चाई से पर्दा हटता हुआ दिख रहा है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश भर में आर.टी.आई और विभिन्न जन संगठनों के कार्यकर्ताओं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनकारियों, अदालतों, सी.ए.जी-लोकायुक्त जैसी कुछ सजग एजेंसियों और एक हद तक समाचार माध्यमों की सक्रियता के कारण भ्रष्टाचार की इस सर्वव्यापकता और खासकर शीर्ष नेताओं के भ्रष्टाचार पर पर्दा डाले रखने के लिए मुख्यधारा के सभी सत्ताधारी दलों और विपक्ष के बीच बने अघोषित से समझौते को करारा झटका लगा है.
भ्रष्टाचार खासकर सत्ता के शीर्ष के भ्रष्टाचार पर ऊँगली न उठाने और उसे दबाए-छुपाये रखने के लिए बनी सत्ता और विपक्ष की सहमति और उसे लेकर सार्वजनिक जीवन में बरती जानेवाली षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी टूट सी गई है.
इसके कारण सत्ता और विपक्ष दोनों की बिलबिलाहट, बेचैनी और घबड़ाहट देखने लायक है. कांग्रेस और भाजपा से लेकर एन.सी.पी-राजद-सपा और दूसरे सभी सत्ताधारी-विपक्षी दलों को यह अहसास होने लगा है कि भ्रष्टाचार की इस बाढ़ में वे सभी एक साथ डूब रहे हैं. नतीजा यह कि सभी एक-दूसरे को समझाने, चेताने और बचाने के लिए आगे आने लगे हैं.

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भाजपा नेताओं को चुप रहने का संकेत देते हुए कहा कि उनके पास भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के दामाद-बेटियों-बेटों के गडबड घोटालों के सबूत हैं लेकिन वे उनका खुलासा इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि कांग्रेस राजनीतिक दलों के नेताओं के बेटे-बेटियों और सगे-सम्बन्धियों को निशाना नहीं बनाती है.

कांग्रेस की राजनीतिक नैतिकता और मर्यादा के इस नए पाठ के बीच भाजपा महासचिव अरुण जेटली ने अपने अध्यक्ष नितिन गडकरी के विशाल कारोबार का बचाव यह करते हुए किया है कि आखिर नेताओं को भी अपना परिवार और जीवन चलाना है.
खुद गडकरी का दावा रहा है कि वे कोई आम कारोबारी नहीं हैं बल्कि ‘सामाजिक उद्यमी’ हैं और उन्होंने अपने लिए नहीं बल्कि महाराष्ट्र के किसानों, गरीबों और बेरोजगारों के लिए चीनी मिल और बिजलीघर आदि लगाये हैं. अब पता चल रहा है कि उनके ‘सामाजिक उद्यमों’ के निवेशकों में ज्यादातर वे ठेकेदार और बिल्डर हैं जिन्हें उनके महाराष्ट्र का लोक निर्माण मंत्री रहते हुए ठेके मिले थे.
यही नहीं, गडकरी की ‘सामाजिक उद्यमिता’ का सबूत यह भी है कि उनकी कंपनी में निवेश करनेवाली कई कम्पनियाँ मुंबई की झुग्गियों से चलती हैं और उनके ड्राइवर से लेकर पी.ए तक कंपनी के निदेशकों में हैं! याद रखिये कि ये वही गडकरी हैं जिन्होंने भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में फंसे कर्नाटक के अपने मुख्यमंत्री येदियुरप्पा का यह कहते हुए बचाव किया था कि उनके फैसले अनैतिक हो सकते हैं लेकिन वे गलत या गैर-कानूनी नहीं हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि खुद को सबसे अलग बतानेवाली (पार्टी विथ डिफ़रेंस) के अध्यक्ष ही नैतिक और अवैध होने के बीच इतनी साफ़ रेखा खींच सकते हैं. आश्चर्य नहीं कि उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बसपा से निकले गए और एन.आर.एच.एम घोटाले के प्रमुख आरोपी बाबू सिंह कुशवाहा को ससम्मान पार्टी में शामिल कराया.

निश्चय ही, कांग्रेस से लेकर भाजपा तक और तीसरे मोर्चे के तमाम दलों तक सभी जिस तरह से भ्रष्टाचार और घोटालों के संगीन आरोपों से घिरे हैं, उसके कारण राष्ट्रीय राजनीति और राज्य व्यवस्था की साख गहरे संकट में है. उसकी राजनीतिक वैधता सवालों के घेरे में है.
इस संकट का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि यू.पी.ए सरकार भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की कंपनियों में सामने आई अनियमितताओं और गडबडियों की स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच कराने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है. आखिर कांग्रेस किस मुंह से स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच कराने की मांग कर सकती है जबकि खुद अध्यक्ष सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट वाड्रा से लेकर कई मंत्रियों और नेताओं पर भ्रष्टाचार, घोटाले या अनियमितताओं के गंभीर आरोप हैं.
दूसरी ओर, गडकरी के मामले के सामने आने के बाद से भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने का नाटक कर रही भाजपा के सुर भी मद्धिम पड़ने भी लगे हैं क्योंकि उसकी अपनी पूंछ दबी हुई है. मजे की बात यह है कि सार्वजनिक तौर पर दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे के भ्रष्टाचार की जांच की मांग कर रही हैं, इसके बावजूद आपसी अघोषित सहमति का आलम यह है कि अब तक किसी स्वतंत्र और उच्चस्तरीय जांच की घोषणा नहीं हुई.

इन दोनों पार्टियों के अलावा बाकी सभी क्षेत्रीय पार्टियों की तो जैसे आवाज़ ही चली गई है. सब खामोशी से तमाशा देखने में लगी हैं और तूफ़ान गुजरने का इंतज़ार कर रही हैं....

जारी .....

('जनसत्ता' के 27 अक्तूबर के अंक में प्रकाशित सम्पादकीय आलेख की पहली क़िस्त) 

2 टिप्‍पणियां:

अमित/Амит/অমিত/Amit ने कहा…

अच्छे शासन या सरकार के लिये भाजपा एक विकल्प हो सकती है, लेकिन भ्रष्टाचार से निबटने के लिये सिर्फ दो ही विकल्प है-'टीम अन्ना' और 'टीम अरविँद'..!!

Siddha Nath Tiwari ने कहा…

सभी एक ही गड्ढे में गिरने को आतुर लगते हैं . एक के बाद एक के खुलासे हो रहे है . ये बीमारी काफी पुरानी है पर असाध्य सडांध इस कदर बढ़ चुकी है की अब दुर्गन्ध असह्य हो चुकी है .... हर शाख पे उल्लू... वाली कहावत चरितार्थ हो रही है..