सरकार, नौकरशाही और संसद में कार्पोरेट्स से सीधे और परोक्ष रूप से जुड़े मंत्रियों, अफसरों और सांसदों की संख्या बढ़ रही है
यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में केन्द्रीय बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को करों में छूट, रियायतों और प्रोत्साहन के जरिये २२ लाख करोड़ रूपये से अधिक की सौगात देने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. अकेले इस साल के बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को लगभग ५ लाख करोड़ रूपये की छूट दी गई है.
लेकिन इनसे ज्यादा बड़ा सच यह है कि इस आर्थिक समृद्धि का सबसे बड़ा हिस्सा बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों, बड़े निवेशकों, टाप मैनेजरों, अमीरों, शहरी मध्य और उच्च मध्यवर्ग और ग्रामीण कुलकों के अलावा नेताओं-अफसरों-दलालों-माफियाओं-ठेकेदारों की जेब में गया है.
हालाँकि इनकी संख्या देश की कुल आबादी के ३ से ५ फीसदी भी नहीं होगी लेकिन उनके घरों, रहन-सहन और जीवनशैली में जो समृद्धि और तड़क-भड़क आई है, वह अभूतपूर्व है. उनमें और दुनिया के सबसे विकसित देशों के अमीरों की जीवनशैली और उपभोग में कोई खास फर्क नहीं है.
यही नहीं, एन.एस.एस.ओ के ताजा सर्वेक्षण (२०११-१२) के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में आय के मामले में उपरी १० फीसदी और निचली १० फीसदी आबादी के बीच की कमाई में वृद्धि का अनुपात बढ़कर ६.९ हो गया है जबकि शहरों में इस अंतर का अनुपात बढ़कर १० से अधिक हो गया है.
इस बढ़ती गैर बराबरी का अंदाज़ा यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट से भी होता है जिसके अनुसार, देश में ७८ फीसदी आबादी २० रूपये से कम के उपभोग पर गुजारे के लिए मजबूर है.
यही नहीं, केपजेमिनी और रायल बैंक आफ कनाडा की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में डालर लखपतियों (दस लाख डालर या ५.६ करोड़ रूपये से अधिक संपत्ति) की संख्या पिछले साल १.२५ लाख थी. हालाँकि यह संख्या वास्तविकता से काफी कम है क्योंकि यह शेयर बाजार और आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर है लेकिन इसके बावजूद डालर लखपतियों के मामले में भारत दुनिया के टाप देशों की सूची में है.
आश्चर्य नहीं कि तेज विकास दर और समृद्धि की बरसात के बावजूद भारत वर्ष २०११ में मानव विकास के मामले में संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में दुनिया के १८७ देशों में १३४ वें स्थान पर था जबकि उसके पहले २०१० में भारत १६९ देशों की सूची में ११९ वें स्थान पर था.
दूसरी क़िस्त
आश्चर्य नहीं कि संसद और विधानसभाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों में
करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. यही नहीं, आज राज्यसभा और
लोकसभा में ऐसे निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है जो
सीधे-सीधे किसी न किसी बड़े कारपोरेट समूह के मुखिया हैं या उसके प्रमुख अधिकारी
रहे हैं या सीधे तौर पर जुड़े रहे हैं. बात यहीं नहीं खत्म नहीं होती.
राजनीति पर
बड़ी पूंजी का नियंत्रण किस हद तक बढ़ गया है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता
है कि सरकार में अपने समर्थक मंत्रियों और अफसरों की नियुक्ति के लिए कारपोरेट
समूह जमकर लाबीइंग कर रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं. ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं
है जिनमें देशी-विदेशी कारपोरेट समूह केन्द्र और राज्यों में अपनी पसंद के
मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति और उन्हें अनुकूल मंत्रालय दिलवाने में
कामयाब हुए हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों में सरकार चाहे किसी भी
पार्टी या गठबंधन की रही हो लेकिन इन कारपोरेट समूहों के समर्थक मंत्रियों और
अफसरों की तादाद बढ़ती ही गई है. आश्चर्य नहीं कि राजनीति को आज देश में ८० फीसदी
गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की चिंता नहीं रह गई है. वह अमीरों और बड़ी पूंजी के
हितों को आगे बढ़ाने और उनकी रक्षा में जुटी हुई है. यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में केन्द्रीय बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को करों में छूट, रियायतों और प्रोत्साहन के जरिये २२ लाख करोड़ रूपये से अधिक की सौगात देने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. अकेले इस साल के बजट में बड़ी पूंजी और अमीरों को लगभग ५ लाख करोड़ रूपये की छूट दी गई है.
लेकिन जब भी गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा और उन्हें भोजन का अधिकार
देने की बात होती है, राजनीति और बड़ी पूंजी को सब्सिडी और वित्तीय घाटे की चिंता
सताने लगती है. हालांकि इसमें सिर्फ ७५ हजार से अधिकतम एक लाख करोड़ रूपये खर्च
होने का आकलन है लेकिन हंगामा ऐसा होता है कि जैसे पूरा खजाना लुट रहा हो.
साफ है
कि राजनीति और राजनेता अब गाँधी जी की वह जंत्री भूल चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा
था कि ‘कोई भी फैसला करने से पहले यह जरूर सोचो कि उससे सबसे गरीब भारतीय की आंख
के आंसू पोंछने में कितनी मदद मिलेगी.’ कारण यह कि खुद राजनीति की आंख का पानी सूख
चुका है और उसने बड़ी पूंजी नियंत्रित अर्थतंत्र के आगे घुटने टेक दिए हैं.
यह सही है कि इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पिछले दो दशकों
में आर्थिक विकास यानी जी.डी.पी की वृद्धि दर में तेजी आई है और वह औसतन ७ से ८
फीसदी के बीच रही है. यह भी सही है कि इसके साथ भारी आर्थिक समृद्धि आई है. लेकिन इनसे ज्यादा बड़ा सच यह है कि इस आर्थिक समृद्धि का सबसे बड़ा हिस्सा बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों, बड़े निवेशकों, टाप मैनेजरों, अमीरों, शहरी मध्य और उच्च मध्यवर्ग और ग्रामीण कुलकों के अलावा नेताओं-अफसरों-दलालों-माफियाओं-ठेकेदारों की जेब में गया है.
हालाँकि इनकी संख्या देश की कुल आबादी के ३ से ५ फीसदी भी नहीं होगी लेकिन उनके घरों, रहन-सहन और जीवनशैली में जो समृद्धि और तड़क-भड़क आई है, वह अभूतपूर्व है. उनमें और दुनिया के सबसे विकसित देशों के अमीरों की जीवनशैली और उपभोग में कोई खास फर्क नहीं है.
लेकिन दूसरी ओर देश की बड़ी आबादी खासकर छोटे-मंझोले और भूमिहीन
किसानों असंगठित श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछडों, अल्पसंख्यकों की स्थिति
में कोई खास सुधार नहीं हुआ है बल्कि उल्टे उनकी स्थिति बद से बदतर हुई है.
इसके
कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई और तेजी से बढ़ी है और आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी
कई गुना बढ़ गई है. सरकारी संगठन- एन.एस.एस.ओ के ६६ वें दौर (२००९-१०) के सर्वेक्षण
के मुताबिक, अकेले यू.पी.ए- एक के कार्यकाल (२००४-२००९) में शहरी और ग्रामीण
परिवारों के उपभोग व्यय में अंतर ९१ फीसदी तक पहुँच गया है.
उल्लेखनीय है कि इन वर्षों में जी.डी.पी की औसत वृद्धि दर ८.६४
प्रतिशत रही जोकि एक रिकार्ड है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ने मनरेगा जैसी योजनाएं
भी शुरू कीं, इसके बावजूद स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है. यही नहीं, एन.एस.एस.ओ के ताजा सर्वेक्षण (२०११-१२) के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में आय के मामले में उपरी १० फीसदी और निचली १० फीसदी आबादी के बीच की कमाई में वृद्धि का अनुपात बढ़कर ६.९ हो गया है जबकि शहरों में इस अंतर का अनुपात बढ़कर १० से अधिक हो गया है.
इस बढ़ती गैर बराबरी का अंदाज़ा यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट से भी होता है जिसके अनुसार, देश में ७८ फीसदी आबादी २० रूपये से कम के उपभोग पर गुजारे के लिए मजबूर है.
यही नहीं, पिछले साल अक्टूबर में जब योजना आयोग ने ग्रामीण इलाके में
२६ रूपये और शहरी इलाके में ३२ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को गरीबी
रेखा से बाहर कर दिया था तो देश में भारी हंगामा मचा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट में
इस साल दाखिल संशोधित हलफनामे में योजना आयोग ने इसे और घटाकर ग्रामीण इलाके में
२२.४२ रूपये और शहरी इलाके में २८.३५ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को
गरीबी रेखा से बाहर कर दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह गरीबी रेखा नहीं
बल्कि भूखमरी रेखा है. साफ़ है कि आंकड़ों में गरीबी घटाई जा रही है लेकिन सच्चाई यह
है कि इन दो दशकों में आर्थिक सुधारों और तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में
गरीबों की वास्तविक संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है.
दूसरी ओर, देश में आबादी एक छोटे से हिस्से के पास आई समृद्धि ने भी
सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका के मुताबिक, देश में डालर अरबपतियों
की संख्या ५५ तक पहुँच चुकी है. डालर अरबपतियों की कुल संख्या के मामले में भारत
दुनिया के तमाम देशों में अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथे स्थान पर है. यही नहीं, केपजेमिनी और रायल बैंक आफ कनाडा की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में डालर लखपतियों (दस लाख डालर या ५.६ करोड़ रूपये से अधिक संपत्ति) की संख्या पिछले साल १.२५ लाख थी. हालाँकि यह संख्या वास्तविकता से काफी कम है क्योंकि यह शेयर बाजार और आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर है लेकिन इसके बावजूद डालर लखपतियों के मामले में भारत दुनिया के टाप देशों की सूची में है.
हैरानी की बात नहीं है कि देश के एक छोटे से हिस्से के उपभोग का स्तर
दुनिया के टाप अमीरों से मुकाबला कर रहा है. यही कारण है कि दुनिया भर के सभी टाप
लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद देश के बड़े शहरों के शापिंग माल्स में उपलब्ध हैं.
उनके लिए अब लन्दन, पेरिस या न्यूयार्क जाने की जरूरत नहीं है. बड़े शहरों की सड़कों
पर दौड़ रही नई और मंहगी कारों और एस.यू.वी को देखकर यह कहना मुश्किल है कि भारत एक
विकासशील देश है जहाँ एक तिहाई आबादी को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं है.
लेकिन भारतीय
अरबपतियों और अमीरों का उपभोग अश्लीलता की हदें भी पार करता जा रहा है. डालर
अरबपतियों में से एक मुकेश अम्बानी ने मुंबई में एक अरब डालर यानी ५४०० करोड़ रूपये
का २७ मंजिला घर बनवाया है. यही नहीं, उन्होंने अपनी पत्नी को २५० करोड़ रूपये का
निजी हवाई जहाज उपहार में दिया जबकि छोटे भाई अनिल अम्बानी ने अपनी पत्नी टीना
अम्बानी को ४०० करोड़ रूपये की लक्जरी नौका उपहार में दी है.
विजय माल्या के किस्से सबको पता हैं. जाहिर हैं कि ये अपवाद नहीं हैं.
ऐसे अमीरों की संख्या बढ़ती जा रही है. लेकिन दूसरी ओर ऐसे भारतीयों की संख्या भी
बढ़ती जा रही है जिनकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो रही हैं. एक तिहाई से अधिक
भारतीय भूखमरी के शिकार हैं. पांच वर्ष से कम उम्र के ४१ फीसदी बच्चे कुपोषण के
शिकार हैं जिसका मतलब है कि वे कभी भी स्वस्थ-कामकाजी जीवन नहीं जी पायेंगे. मातृ
मृत्यु और शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत का रिकार्ड कई पडोसी देशों से भी बदतर
है. आश्चर्य नहीं कि तेज विकास दर और समृद्धि की बरसात के बावजूद भारत वर्ष २०११ में मानव विकास के मामले में संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में दुनिया के १८७ देशों में १३४ वें स्थान पर था जबकि उसके पहले २०१० में भारत १६९ देशों की सूची में ११९ वें स्थान पर था.
इस मायने में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों ने भारत को सचमुच दो हिस्सों
– इंडिया और भारत में बाँट दिया है. आर्थिक सुधारों का असली फायदा इंडिया और उसके
मुट्ठी भर अमीरों, उच्च और मध्य वर्ग को मिला है जबकि इस ‘इंडिया’ के बेलगाम उपभोग
की असली कीमत ८० फीसदी भारतीयों और देश के जल-जंगल-जमीन और प्राकृतिक संसाधनों को
चुकानी पड़ रही है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि इन दो दशकों में जब देश “तेजी से
तरक्की कर रहा था”, वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ के मुताबिक, सोलह वर्षों
(१९९५-२०१०) में कोई २.५ लाख से ज्यादा किसान बढ़ते कृषि संकट के कारण आत्महत्या
करने को मजबूर हुए. खासकर २००२ से २००६ के बीच औसतन हर साल १७५०० किसानों ने
आत्महत्या की है.
जारी.....