अमेरिकी
विदेश और रक्षा नीति के केन्द्र में है तेल
ईरान एक बार फिर अमेरिकी-इजरायली निशाने
पर है. उसे घेरने की कोशिशें तेज हो गईं हैं. ईरान पर आसन्न इजरायली हमले की
चर्चाएँ जोर पकड़ने लगी हैं. तनाव बढ़ता जा रहा है. युद्ध के हालात बनने लगे हैं.
लेकिन इसमें कोई नई बात नहीं है.
ईरान आज से नहीं बल्कि पिछले कई दशकों से अमेरिकी-इजरायली गठबंधन के आँखों की किरकिरी बना हुआ है. इस चिढ़ की सबसे बड़ी वजह ईरान में १९७९ की वह इस्लामी क्रांति है जिसने अमेरिका समर्थक शाह मोहम्मद रजा पहलवी की हुकूमत को उखाड़ फेंका था. कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका इसे कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया.
ईरान आज से नहीं बल्कि पिछले कई दशकों से अमेरिकी-इजरायली गठबंधन के आँखों की किरकिरी बना हुआ है. इस चिढ़ की सबसे बड़ी वजह ईरान में १९७९ की वह इस्लामी क्रांति है जिसने अमेरिका समर्थक शाह मोहम्मद रजा पहलवी की हुकूमत को उखाड़ फेंका था. कहने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका इसे कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया.
इसके बाद से अमेरिका, इजरायल और पश्चिम
एशिया की अपनी अन्य कठपुतली हुकूमतों की मदद से ईरान में तख्तापलट की कोशिश में
जुटा हुआ है. वैसे कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि ईरान में अमेरिकी घुसपैठ उससे
भी पहले से है.
माना जाता है कि ईरान में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सी.आई.ए ने १९५३
में प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादिग की चुनी हुई सरकार के तख्तापलट में सबसे अहम
भूमिका निभाई थी. अधिकांश ईरानी मानते हैं कि अमेरिका ने तब से ही ईरान के खिलाफ
कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष युद्ध छेड़ा हुआ है.
लेकिन मोसादिग का कसूर क्या था? अमेरिका
की निगाह में उनका सबसे बड़ा अपराध यह था कि उनके नेतृत्व में ही ईरान ने १९५१ में
तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था. असल में, ईरान में अमेरिकी दिलचस्पी की सबसे
बड़ी वजह यह तेल ही है. इस तेल पर कब्जे और उसके उत्पादन-वितरण को नियंत्रित करने
के लिए अमेरिका वहां अपनी कठपुतली सरकार चाहता रहा है.
इसके लिए ही उसने ब्रिटेन
की मदद से मोसादिग की सरकार पलटी और शाह रजा पहलवी की तानाशाह हुकूमत को खुला
समर्थन दिया. इससे ईरानी तेल उद्योग पर अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिमी कंपनियों का
फिर से नियंत्रण कायम हो गया था.
लेकिन ईरानी जनता से इसे कभी स्वीकार
नहीं किया. नतीजा, १९७९ की इस्लामी क्रांति जिसने एक बार फिर ईरानी तेल पर से
अमेरिकी और पश्चिमी कंपनियों के कब्जे को खत्म कर दिया. यही कारण है कि अमेरिका
१९७९ की इस्लामी क्रांति को कभी पचा नहीं पाया. वह उसे अस्थिर और पलटने की कोशिशों
में लगातार जुटा रहा.
यह किसी से छुपा नहीं है कि अमेरिकी और पश्चिमी देशों के
उकसावे पर ही इराक ने सितम्बर’१९८० में ईरान पर हमला बोल दिया था. आठ साल चले इस
युद्ध में इराक को अमेरिकी और पश्चिमी देशों ने ही हथियारों की आपूर्ति की. इस
युद्ध में लाखों ईरानी और इराकी सैनिक और नागरिक मारे गए.
यही नहीं, पिछले दो-ढाई दशकों में अमेरिकी
अगुवाई में पश्चिमी देशों ने ईरान को विश्व समुदाय के बीच अलग-थलग करने, उसपर
आर्थिक-राजनीतिक प्रतिबन्ध लगाने और उसके खिलाफ घोषित-अघोषित छाया युद्ध सा छेड़
रखा है. इसके लिए मुद्दा उसके परमाणु कार्यक्रम को बनाया गया है.
पिछले डेढ़-दो
दशकों से अमेरिकी नेतृत्व में ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ एक जबरदस्त
प्रचार अभियान चलाया जा रहा है. इस प्रचार अभियान की थीम जानी-पहचानी है कि ईरान
परमाणु बम बनाने में लगा है और अगर उसे रोका नहीं गया तो बहुत जल्दी वह बम बनाने
में कामयाब हो जाएगा. इससे इस इलाके की शांति-सुरक्षा और स्थायित्व को गंभीर खतरा
पैदा हो जाएगा.
लेकिन यह सिर्फ बहाना है. असली निशाना
ईरानी तेल है. इराक का उदाहरण अभी पुराना नहीं पड़ा है. इराक के मामले में भी बहाना
उसके परमाणु और रासायनिक-जैविक हथियारों को ही बनाया गया था.
लेकिन सभी जानते हैं
कि उसका असली मकसद इराकी तेल भंडारों पर कब्ज़ा जमाना था. तत्कालीन अमेरिकी रक्षा
उपमंत्री और इराक पर हमले के प्रमुख रणनीतिकार पाल वुल्फोवित्ज़ के मुंह से एक बार
गलती से निकल गया था कि ‘इराक तेल के समुद्र पर तैर’ रहा है.
असल में, यह अमेरिकी पी.आर मशीनरी की
जबरदस्त खूबी है कि वह असली मकसद पर पर्दा डालने और नकली मकसद को उछालने और झूठ को
सच बनाने में कामयाब रहती है. इसका एक और ताजा उदाहरण लीबिया है जहां अमेरिकी
अगुवाई में नाटो देशों ने ‘आम नागरिकों के जनसंहार’ को रोकने के नाम पर सैन्य हमले
को ‘मानवीय हस्तक्षेप’ बताते हुए जायज ठहराया.
लेकिन असली मकसद किसी से छुपा नहीं
है. लीबिया लंबे समय से अमेरिकी निशाने पर था और कर्नल मुअम्मर गद्दाफी का तख्ता
पलटने से लेकर हत्या करने की दर्जनों कोशिशें की गईं.
यही नहीं, नाटो ने सैन्य हस्तक्षेप से
पहले लीबियाई विद्रोहियों से पश्चिमी तेल कंपनियों को प्राथमिकता देने का वायदा ले
लिया था. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि अमेरिका पश्चिम एशिया में इतनी दिलचस्पी
क्यों लेता है? अगर पश्चिम एशिया में तेल का विशाल भण्डार नहीं होता तो शायद ही
अमेरिका इधर झांकने आता.
दरअसल, उर्जा आधुनिक अर्थव्यवस्था की चालक शक्ति है.
उर्जा के विभिन्न स्रोतों के विकास के बावजूद पेट्रोलियम अभी भी उर्जा का सबसे
महत्वपूर्ण स्रोत बना हुआ है. अमेरिकी अर्थव्यवस्था तो तेल पर ही चलती है. वह
तेल/गैस के बिना एक पल के लिए नहीं चल सकती है.
तेल पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था की
निर्भरता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दुनिया की विकसित
अर्थव्यवस्थाओं में वह एकमात्र अर्थव्यवस्था है जिसकी उर्जा जरूरतों का ४० फीसदी
तेल से पूरा होता है. यही नहीं, वैश्विक राजनीति और अर्थव्यवस्था में अमेरिकी
दबदबे और वर्चस्व के केन्द्र में सबसे महत्वपूर्ण कारण दुनिया के तेल भंडारों पर
उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण है.
चौंकाने वाला तथ्य यह है कि दुनिया भर में
अपने सैन्य वर्चस्व को बनाए रखने के लिए अकेले अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान हर दिन
जितना तेल जलाता है, वह स्वीडन जैसे बड़े देश की खपत के बराबर है.
असल में, कोई सौ साल पहले अमेरिका के
आर्थिक विस्तार में इसकी बड़ी तेल कंपनियों जैसे जान डी राकफेलर की स्टैण्डर्ड आयल ने
सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. जैसे-जैसे इन अमेरिकी तेल कंपनियों ने
मेक्सिको से लेकर उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया और एशिया में उत्पादन, शोधन और
वितरण में अपने कारोबार को फैलाना शुरू किया, इन तेल भंडारों की सुरक्षा और
अमेरिकी कंपनियों के हितों की रक्षा अमेरिकी विदेश और रक्षा नीति के केन्द्र में आ
गई.
खासकर दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद शीत
युद्ध के दौरान तो अमेरिकी विदेश और रक्षा नीति तेल के साथ ऐसी नाभिनालबद्ध हो गई
कि उन्हें अलग करके देखना मुश्किल है. इस दौरान अमेरिका ने इन तेल भंडारों पर अपने
कब्जे को हर हाल में बनाए रखने के लिए न सिर्फ विशाल सैन्य शक्ति खड़ी की बल्कि
पश्चिम एशिया में अपने हस्तक्षेप को जायज ठहराने के लिए “मानवीय हस्तक्षेप”, “लोकतंत्र,
स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की हिफाजत”, “आतंकवाद के खिलाफ युद्ध” और “बचाव में
हमला” (प्री-एम्प्टीव स्ट्राइक) जैसे विवादस्पद सिद्धांत गढे.
लेकिन दूसरी ओर, तेल
के लिए उसने राष्ट्रों की संप्रभुता को रौंदने और बर्बर तानाशाहियों को खुला
समर्थन में कभी संकोच नहीं किया.
सच यह है कि अमेरिका ने ईरानी क्रांति
के बाद जनवरी’१९८० में यह फैसला किया कि फारस की खाड़ी में अगर किसी भी देश ने तेल
की आवाजाही को रोकने की कोशिश की तो अमेरिका उसके खिलाफ युद्ध छेड़ देगा. इसे
अमेरिकी राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर के नाम पर कार्टर सिद्धांत के नाम से जाना जाता
है.
यही नहीं, उसके बाद से एक के बाद दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने इसी सिद्धांत
का हवाला देकर पश्चिम एशिया में हमले और सैन्य हस्तक्षेप किये. १९८७ में रोनाल्ड
रीगन ने इसी सिद्धांत के आधार पर खाड़ी में कुवैती तेल टैंकरों की सुरक्षा के नाम
पर अमेरिकी नौसेना तैनात कर दी थी.
राष्ट्रपति जार्ज बुश सीनियर ने १९९०-९१
में इसी कार्टर डाक्ट्रिन के आधार पर पहले खाड़ी युद्ध की शुरुआत की थी जिसे जार्ज
बुश जूनियर ने २००३ में इराक पर हमले के साथ समाप्त किया. इन उदाहरणों से साफ़ है
कि अमेरिका तेल के लिए कहाँ तक जा सकता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि पहले इराक और
हाल में लीबिया में अमेरिका विरोधी सत्ताओं को निपटाने और वहां अपनी कठपुतली
हुकूमतों को स्थापित करने के बाद पश्चिम एशिया में उसके निशाने पर अब सिर्फ ईरान
और सीरिया बचे हैं. ईरान में उसकी दिलचस्पी इसलिए ज्यादा है कि पश्चिम एशिया में
साउदी अरब के बाद तेल का सबसे बड़ा भण्डार वहीँ है.
ईरान के इस तेल भण्डार ने ही अमेरिका को
बेचैन कर रखा है. लेकिन इसे कब्जाने के लिए वह ज्यादा जोखिम लेने को तैयार नहीं
है. उसे अच्छी तरह मालूम है कि ईरान, इराक नहीं है और उसपर हमले का मतलब पश्चिम
एशिया में भारी तबाही और तेल की बेकाबू कीमतों के कारण लड़खड़ाती वैश्विक
अर्थव्यवस्था का बैठ जाना होगा.
यही कारण है कि उसने पश्चिम एशिया में अपने लठैत
इजरायल को आगे करके ईरान को निशाना बनाने की व्यूह रचना शुरू कर दी है. लेकिन विडम्बना देखिए कि ईरान को जिस परमाणु बम को बनाने से
रोकने के नाम पर अमेरिका ईरान को घेरने की तैयारी कर रहा है, उससे खुद ईरान के
अंदर परमाणु बम बनाने की वकालत करने वाली लाबी मजबूत हुई है.
उसे यह कहने का मौका
मिल गया है कि अगर ईरान के पास परमाणु बम होगा तो इजरायल या अमेरिका की हिम्मत
नहीं होगी कि वे उसपर हमला कर सकें. साफ़ तौर पर यह अमेरिकी कूटनीति की विफलता है.
लेकिन तेल के नशे में अंधे अमेरिका को इसकी परवाह कहाँ है? वैसे भी उसे कूटनीति से
ज्यादा अपने हथियारों और बम वर्षकों पर भरोसा रहा है. तेल जो न करवाए.
(दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३ मार्च को प्रकाशित टिप्पणी..यह उसका असंपादित आलेख है..आपकी टिप्पणियों का इंतज़ार रहेगा)
3 टिप्पणियां:
सर यह आलेख मैने शनिवार को ही हस्तक्षेप के अंक में देखा...तेल के खेल का काफी अच्छा ओवरव्यू है..साथ ही इसके पीछे के इतिहास का ज़िक्र भी ज्ञानवर्द्धक है...बहुत शुक्रिया !
सर यह आलेख मैने शनिवार को ही हस्तक्षेप के अंक में देखा...तेल के खेल का काफी अच्छा ओवरव्यू है..साथ ही इसके पीछे के इतिहास का ज़िक्र भी ज्ञानवर्द्धक है...बहुत शुक्रिया !
sir apne america ki asliyat ko bade hi tarkpurn dishti se vishleshit kiya hai..... padhkar labhanvit hua
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