सोमवार, जनवरी 16, 2012

अर्थव्यवस्था के साथ नीमहकीमी

सरकार का कन्फ्यूजन अर्थव्यवस्था के लिए भारी पड़ रहा है

अर्थव्यवस्था को लेकर यू.पी.ए सरकार की नीमहकीमी जारी है. सरकार को न तो अर्थव्यवस्था के असली मर्ज और मुश्किलों का सटीक अंदाज़ा है और न ही उसके इलाज को लेकर स्पष्टता है. मनमोहन सिंह सरकार अर्थव्यवस्था को लेकर कितनी ‘कन्फ्यूज्ड’ है, इसका अंदाज़ा सरकार के अंदर से आ रहे परस्पर अंतर्विरोधी बयानों और फैसलों में देखा जा सकता है.

खुद प्रधानमंत्री का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही है और चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर ७ फीसदी ही रह पाएगी. हालांकि इसके ठीक एक दिन पहले वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस साल जी.डी.पी के ७.३० प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था.

लेकिन असल बात यह है कि पिछले साल जी.डी.पी की वृद्धि दर ८.५ फीसदी थी और वित्त मंत्री ने बजट भाषण में चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी के ९ फीसदी रहने का अनुमान जाहिर किया था. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है और ऐसे संकेत हैं कि वह पटरी से उतर भी सकती है.

खासकर जब औद्योगिक उत्पादन की दर अक्टूबर महीने में गिरकर नकारात्मक -४.७ प्रतिशत हो गई थी. सरकार के अंदर और बाहर निराशा और घबराहट का माहौल बन गया. लेकिन जैसे ही पिछले सप्ताह नवंबर महीने के औद्योगिक उत्पादन के सकारात्मक आंकड़े आए और उत्पादन दर बढ़कर ५.९ प्रतिशत हो गया और पिछले तीन सप्ताहों से खाद्य मुद्रास्फीति दर के आंकड़े नकारात्मक आए, सरकार के आर्थिक मैनेजर अपने पुराने फार्म में वापस लौट आए.

कहा जाने लगा कि अर्थव्यवस्था की सेहत ठीक है और वैश्विक कारणों से धीमी पड़ी उसकी रफ़्तार जल्दी ही फिर से पटरी पर दौड़ने लगेगी. इस तरह से अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार में एक बार फिर निश्चिन्तता और खुशफहमी बढ़ने लगी है.

लेकिन सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों की यह निश्चिन्तता और खुशफहमी अर्थव्यवस्था को बहुत भारी पड़ सकती है. इसकी वजह यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में मौजूद अनिश्चितता बढ़ती जा रही है, अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी पटरी पर नहीं लौटी है जबकि यूरोपीय आर्थिक संकट थमने के बजाय और गहराता जा रहा है.

अब यह तय है कि यूरोप २०१२ में मंदी की चपेट में आने से नहीं बच पायेगा. जाहिर है कि इसका असर भारत समेत तमाम विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़ेगा. विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट में फंसे होने का सीधा असर विदेशी पूंजी के प्रवाह, निवेश और निर्यात में गिरावट के रूप में दिखाई पड़ने लगा है.

ऐसे में, भारतीय अर्थव्यवस्था के पास सिवाय अंदर की ओर देखने के कोई और उपाय नहीं है. लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए सरकार पर अभी भी विदेशी पूंजी का मोह इस कदर हावी है कि वह उसे आकर्षित करने के लिए जमीन-आसमान एक किये हुए है. प्रधानमंत्री से लेकर दूसरे आर्थिक मैनेजरों तक सभी खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के वायदे को दोहराने से लेकर शेयर बाजार में विदेशी निवेश को और ढीला करने जैसे फैसले कर रहे हैं.

लेकिन इन टोटकों से कोई मदद मिलनेवाली नहीं है. आवारा विदेशी पूंजी मौजूदा वैश्विक अनिश्चितता के माहौल में सुरक्षित ठिकानों का रुख कर रही है. अगर नियमों को ढीला करने और निवेश को अधिक से अधिक लुभावना बनाने भर से विदेशी पूंजी किसी देश की ओर दौड़ पड़ती तो लातीनी अमेरिका और अफ्रीका से लेकर एशिया के सभी गरीब मुल्कों में विदेशी पूंजी की बहार होती.

साफ़ है कि विदेशी पूंजी खासकर वित्तीय पूंजी उन्हीं मुल्कों का रूख करती है जहां उसे सबसे अधिक मुनाफा हो. उसे अपने मुनाफे की जितनी चिंता होती है, उतनी किसी देश की अर्थव्यवस्था की नहीं. लेकिन किसी देश के लिए पहली चिंता उसकी अपनी अर्थव्यवस्था, समग्र और समावेशी विकास और अपने नागरिकों की बेहतरी होनी चाहिए न कि विदेशी पूंजी के लिए अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी करना.

अफसोस की बात यह है कि देश के नीति-नियंताओं से लेकर आर्थिक मैनेजरों तक की आँख पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का ऐसा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें विदेशी पूंजी में ही देश और अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल और मुक्ति दिखाई देती है. इस कारण उन्हें देश के अंदर मौजूद संभावनाएं नहीं दिखाई देती हैं या वे जान-बूझकर उससे आँखें मूंदे रहते हैं.

उदाहरण के लिए, इस समय अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती निवेश बढ़ाने की है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि नवंबर महीने में औद्योगिक उत्पादन की दर में वृद्धि के बावजूद पूंजीगत सामानों की उत्पादन दर लगातार तीसरे महीने नकारात्मक – ४.६ फीसदी रही है.

साफ़ है कि नया निवेश नहीं हो रहा है. इसके कारण अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. ऐसा नहीं है कि देश में निवेश की गुंजाइश नहीं है. अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों लेकिन खासकर कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सामाजिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश की गुंजाइश है.

सच पूछिए तो अर्थव्यवस्था इसके लिए भूखी है. लेकिन निजी क्षेत्र इन क्षेत्रों में आने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है. दूसरी ओर, सरकार का रोना है कि उसके पास संसाधन नहीं है. लेकिन यह सच नहीं है.

सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है बशर्ते अगर वह वित्तीय घाटे के आब्शेसन से बाहर निकल सके. सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास इस समय दो लाख करोड़ रूपये से अधिक का नगद और बैंक जमा पड़ा हुआ है. सरकार अगर इन कंपनियों को प्रेरित करे तो वे निवेश बढ़ा सकती हैं.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस मुद्दे पर सरकार के अंदर से दो परस्पर विरोधी संकेत आ रहे हैं. एक ओर प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव पुलोक चैटर्जी ने पिछले सप्ताह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के प्रमुखों की बैठक करके उनसे निवेश बढ़ाने को कहा.

अखबारों में खबरें आईं कि सरकार अर्थव्यवस्था को 'स्टिमुलेट' करने के लिए कमर कस चुकी है. निश्चय ही, यह अच्छी पहल थी. इस स्तम्भ में हमने पहले ही यह सुझाव दिया था क्योंकि माना जाता है कि सार्वजनिक निवेश बढ़ने से निजी निवेशक भी निवेश करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं.

लेकिन अब वित्त मंत्रालय के सचिव आर. गोपालन इन कंपनियों को निवेश बढ़ाने के बजाय अपने नगद से अधिक लाभांश देने की मांग कर रहे हैं ताकि वित्तीय घाटा कम किया जा सके. जाहिर है कि अगर ये कम्पनियाँ ज्यादा लाभांश देंगी तो निवेश नहीं बढ़ा पाएंगी. सवाल यह है कि यह सरकार क्या चाहती है? यह 'कन्फ्यूजन' अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो रहा है.

('नया इंडिया' में १६ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)

2 टिप्‍पणियां:

Patali-The-Village ने कहा…

सशक्त और प्रभावशाली रचना|

GB ने कहा…

Dear Anand,
Your article provides a very cutting edge analysis of the way economy is
working in fits and starts.
The government has been responding euphorically to the immediate
recovery which can find parallel with the way we respond to the
performance of the Indian Cricket team which has been behaving like the
economy . We are not consistent and have no policy of grooming small and
medium industrial sector with proper stimulus since most of the government
bail-out efforts are directed towards bigger industrial units and sector.
Best
GB