इस कानून से देश में खाद्य असुरक्षा बढ़ेगी
दूसरी और आखिरी किस्त
यह विधेयक खाद्य सुरक्षा के दायरे को बढ़ाने के बजाय कई मामलों में और सीमित कर देता है. इसमें खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को ‘प्राथमिकता’ और ‘सामान्य’ के दो खांचों में बांटा गया है जो वास्तव में पहले से मौजूद बी.पी.एल और ए.पी.एल श्रेणियों के ही नए नाम हैं.
विधेयक में प्राथमिकता श्रेणी में शामिल लाभार्थियों में प्रत्येक व्यक्ति को सस्ते दर (दो रूपये किलो गेहूं और तीन रूपये किलो चावल) पर सात किलो अनाज मिलेगा जबकि सामान्य श्रेणी में शामिल प्रत्येक लाभार्थी को अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी कीमत (मौजूदा कीमतों के आधार पर ६.५० रूपये किलो गेहूं और ५.५० रूपये किलो चावल) पर तीन किलो अनाज मिलेगा.
साफ़ है कि सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को न सिर्फ अनाजों की दोगुनी से लेकर तिगुनी कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि उन्हें प्राथमिकता श्रेणी की तुलना में अनाज भी आधे से कम मिलेगा. इस तरह लगभग सभी व्यावहारिक अर्थों में सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को खाद्य सुरक्षा नाम पर एक झुनझुना भर थमा दिया गया है.
यही नहीं, खाद्य सुरक्षा का यह केन्द्रीय कानून तमिलनाडु जैसे राज्यों में जहां पी.डी.एस का दायरा कहीं ज्यादा बड़ा है, उसे भी सीमित कर देगा. इसके अलावा देश के कई राज्यों में प्रस्तावित कानून की तुलना में कहीं ज्यादा सस्ता अनाज राज्य सरकारें पहले से दे रही हैं, उसपर भी रोक लग जायेगी.
खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक कितना सीमित है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके तहत कथित खाद्य सुरक्षा का लाभ ग्रामीण क्षेत्र के ७५ प्रतिशत और शहरी क्षेत्र के ५० प्रतिशत नागरिकों को मिलेगा. लेकिन इसमें भी प्राथमिकता (पूर्व बी.पी.एल) श्रेणी के लाभार्थियों की संख्या विधेयक के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में ४६ फीसदी और शहरी इलाकों में २८ फीसदी होगी.
यह और कुछ नहीं बल्कि तेंदुलकर समिति द्वारा तय गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों की संख्या में १० फीसदी और जोड़कर बनाई गई सीमा है. इस तरह ना-ना करते हुए भी वही पुरानी गरीबी रेखा फिर से भूखमरी के शिकार करोड़ों लोगों के भाग्य का फैसला करने आ गई.
यह साफ़ तौर पर यू.पी.ए सरकार की वायदाखिलाफी है. याद रहे कि ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रूपये और शहरी क्षेत्रों में ३२ रूपये से कम की आय वाले लोगों को ही गरीब मानने वाले योजना आयोग के हलफनामे के बाद पूरे देश में जबरदस्त हंगामा हुआ था. उस समय केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने वायदा किया था कि इस गरीबी रेखा को भोजन के अधिकार के लाभार्थियों के साथ नहीं जोड़ा जाएगा.
लेकिन संसद में पेश विधेयक से साफ़ है कि गरीबी निर्धारण के नाम पर गरीबों का मजाक उड़ानेवाली गरीबी रेखा से ही यह तय होगा कि देश में कितने और कौन लोगों को खाद्य सुरक्षा का लाभ मिलेगा.
साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने इस विधेयक के जरिये न सिर्फ भोजन के सार्वभौम (यूनिवर्सल) अधिकार यानी सभी नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा के अधिकार को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है बल्कि करोड़ों गरीबों और भूखमरी के शिकार लोगों को प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के कृत्रिम विभाजन में बांटकर करोड़ों भूखे लोगों को भी ठेंगा दिखा दिया है.
लेकिन इस मजाक के लिए सिर्फ यू.पी.ए सरकार ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनके नेतृत्व में काम करनेवाली एन.ए.सी भी उतनी ही जिम्मेदार है. एन.ए.सी ने ही सबसे पहले प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के इस कृत्रिम विभाजन का प्रस्ताव करके सरकार को और मनमानी करने की छूट दे दी.
लेकिन मजा देखिए कि इतने सीमित प्रावधानों बावजूद अभी भी इस विधेयक का सरकार के अंदर और बाहर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की ओर से जितना कड़ा विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस सीमित कानून को भी लागू करने को लेकर सरकार बहुत उत्सुक और उत्साहित नहीं है. साफ़ है कि भोजन के मौलिक अधिकार की लड़ाई अभी लंबी चलनी है.
समाप्त
('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और अंतिम किस्त)
दूसरी और आखिरी किस्त
यह विधेयक खाद्य सुरक्षा के दायरे को बढ़ाने के बजाय कई मामलों में और सीमित कर देता है. इसमें खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को ‘प्राथमिकता’ और ‘सामान्य’ के दो खांचों में बांटा गया है जो वास्तव में पहले से मौजूद बी.पी.एल और ए.पी.एल श्रेणियों के ही नए नाम हैं.
विधेयक में प्राथमिकता श्रेणी में शामिल लाभार्थियों में प्रत्येक व्यक्ति को सस्ते दर (दो रूपये किलो गेहूं और तीन रूपये किलो चावल) पर सात किलो अनाज मिलेगा जबकि सामान्य श्रेणी में शामिल प्रत्येक लाभार्थी को अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की आधी कीमत (मौजूदा कीमतों के आधार पर ६.५० रूपये किलो गेहूं और ५.५० रूपये किलो चावल) पर तीन किलो अनाज मिलेगा.
साफ़ है कि सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को न सिर्फ अनाजों की दोगुनी से लेकर तिगुनी कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि उन्हें प्राथमिकता श्रेणी की तुलना में अनाज भी आधे से कम मिलेगा. इस तरह लगभग सभी व्यावहारिक अर्थों में सामान्य श्रेणी के लाभार्थियों को खाद्य सुरक्षा नाम पर एक झुनझुना भर थमा दिया गया है.
यही नहीं, खाद्य सुरक्षा का यह केन्द्रीय कानून तमिलनाडु जैसे राज्यों में जहां पी.डी.एस का दायरा कहीं ज्यादा बड़ा है, उसे भी सीमित कर देगा. इसके अलावा देश के कई राज्यों में प्रस्तावित कानून की तुलना में कहीं ज्यादा सस्ता अनाज राज्य सरकारें पहले से दे रही हैं, उसपर भी रोक लग जायेगी.
खाद्य सुरक्षा का यह विधेयक कितना सीमित है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इसके तहत कथित खाद्य सुरक्षा का लाभ ग्रामीण क्षेत्र के ७५ प्रतिशत और शहरी क्षेत्र के ५० प्रतिशत नागरिकों को मिलेगा. लेकिन इसमें भी प्राथमिकता (पूर्व बी.पी.एल) श्रेणी के लाभार्थियों की संख्या विधेयक के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में ४६ फीसदी और शहरी इलाकों में २८ फीसदी होगी.
यह और कुछ नहीं बल्कि तेंदुलकर समिति द्वारा तय गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे लोगों की संख्या में १० फीसदी और जोड़कर बनाई गई सीमा है. इस तरह ना-ना करते हुए भी वही पुरानी गरीबी रेखा फिर से भूखमरी के शिकार करोड़ों लोगों के भाग्य का फैसला करने आ गई.
यह साफ़ तौर पर यू.पी.ए सरकार की वायदाखिलाफी है. याद रहे कि ग्रामीण क्षेत्रों में २६ रूपये और शहरी क्षेत्रों में ३२ रूपये से कम की आय वाले लोगों को ही गरीब मानने वाले योजना आयोग के हलफनामे के बाद पूरे देश में जबरदस्त हंगामा हुआ था. उस समय केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने वायदा किया था कि इस गरीबी रेखा को भोजन के अधिकार के लाभार्थियों के साथ नहीं जोड़ा जाएगा.
लेकिन संसद में पेश विधेयक से साफ़ है कि गरीबी निर्धारण के नाम पर गरीबों का मजाक उड़ानेवाली गरीबी रेखा से ही यह तय होगा कि देश में कितने और कौन लोगों को खाद्य सुरक्षा का लाभ मिलेगा.
साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार ने इस विधेयक के जरिये न सिर्फ भोजन के सार्वभौम (यूनिवर्सल) अधिकार यानी सभी नागरिकों के लिए खाद्य सुरक्षा के अधिकार को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है बल्कि करोड़ों गरीबों और भूखमरी के शिकार लोगों को प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के कृत्रिम विभाजन में बांटकर करोड़ों भूखे लोगों को भी ठेंगा दिखा दिया है.
लेकिन इस मजाक के लिए सिर्फ यू.पी.ए सरकार ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और उनके नेतृत्व में काम करनेवाली एन.ए.सी भी उतनी ही जिम्मेदार है. एन.ए.सी ने ही सबसे पहले प्राथमिकता और सामान्य श्रेणियों के इस कृत्रिम विभाजन का प्रस्ताव करके सरकार को और मनमानी करने की छूट दे दी.
लेकिन मजा देखिए कि इतने सीमित प्रावधानों बावजूद अभी भी इस विधेयक का सरकार के अंदर और बाहर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की ओर से जितना कड़ा विरोध हो रहा है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस सीमित कानून को भी लागू करने को लेकर सरकार बहुत उत्सुक और उत्साहित नहीं है. साफ़ है कि भोजन के मौलिक अधिकार की लड़ाई अभी लंबी चलनी है.
समाप्त
('समकालीन जनमत' के जनवरी'१२ में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और अंतिम किस्त)