मंगलवार, नवंबर 29, 2011

क्या भारतीय मीडिया हिन्दूवादी मीडिया है?

मुसलमान और इस्लाम को आतंकवाद का पर्याय बनाने में मीडिया की भूमिका   


पहली किस्त


ऐसा लगता है कि मीडिया खासकर समाचार मीडिया को जवाबदेह बनाने और इसके लिए इलेक्ट्रानिक मीडिया को स्व-नियमन के बजाय प्रेस काउन्सिल जैसे किसी स्वतंत्र नियामक के दायरे में लाने मांग करके प्रेस काउन्सिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है.

यही नहीं, उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में समाचार मीडिया में उभरी कई नकारात्मक प्रवृत्तियों, विचलनों और पत्रकारीय मूल्यों और एथिक्स की अनदेखी और उल्लंघनों को आड़े हाथों लेते हुए इससे निपटने के लिए प्रेस काउन्सिल को दंडात्मक अधिकार देने की भी मांग की है.

कहने की जरूरत नहीं है कि उनके हालिया बयानों और साक्षात्कारों पर मीडिया जगत में हंगामा मचा हुआ है. हालांकि कुछ मीडिया विश्लेषकों, संपादकों और पत्रकारों ने जस्टिस काटजू के बयानों खासकर उसकी मूल भावना के प्रति काफी हद तक सहमति जताई है.

लेकिन कई संपादकों के साथ-साथ एडिटर्स गिल्ड, अखबार मालिकों के संगठन- आई.एन.एस से लेकर न्यूज चैनलों के मालिकों के संगठन- न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसियेशन (एन.बी.ए) और संपादकों के संगठन- ब्राडकास्टर्स एडिटर्स एसोसियेशन (बी.ई.ए) ने एक सुर में जस्टिस काटजू के बयानों की कड़ी आलोचना हुए उसे वापस लेने की मांग की है.

इन सभी की शिकायत है कि जस्टिस काटजू की समाचार मीडिया की समझ न सिर्फ बहुत सतही है बल्कि वे सभी अख़बारों, न्यूज चैनलों और पत्रकारों को एक साथ काले ब्रश से पेंट कर रहे हैं. उन्हें यह भी लग रहा है कि जस्टिस काटजू जवाबदेही के नाम पर समाचार माध्यमों गला दबाने का अधिकार मांग रहे हैं.

हालांकि जस्टिस काटजू ने अपने शुरूआती बयानों पर सफाई दी है और थोड़ा पीछे भी हटे हैं लेकिन कुलमिलाकर वे समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों को लेकर अपने मूल बयानों पर डटे हुए हैं.

नतीजा, दोनों ओर से तलवारें खींच गईं हैं. जस्टिस काटजू पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. न्यूज चैनलों पर कुछ हद तक इसका असर भी दिख रहा है. उदाहरण के लिए, मशहूर अभिनेत्री एश्वर्या राय की बेटी के जन्म की खबर पर चैनल बावले नहीं हुए.

यह और बात है कि इसके लिए बी.ई.ए ने सदस्य चैनलों को दस सूत्री निर्देश जारी किया था. चैनल इसे अपने स्व-नियमन व्यवस्था की कामयाबी के बतौर पेश कर रहे हैं. न्यूज चैनलों का दावा है कि स्व-नियमन की यह व्यवस्था हर लिहाज से बेहतर है और इसे काम करने और अपनी जड़ें जमाने का मौका मिलना चाहिए.

इस बहस और टकराव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि जस्टिस काटजू के बयानों ने न्यूज चैनलों के नैतिक विचलनों, कंटेंट के छिछलेपन, सनसनी और पूर्वाग्रहों-झुकावों से लेकर उनके नियमन, उसके स्वरूप, तरीके और दंड की सीमा जैसे मुद्दों पर पहले से ही जारी बहस को और तेज कर दिया है. इसका स्वागत किया जाना चाहिए.

उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे समाचार मीडिया को टीका-टिप्पणी और आलोचना से ऊपर एक ‘पवित्र गाय’ मानने की धारणा और उसपर खुद समाचार मीडिया के अंदर बरती जानेवाली ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ टूटेगी.

दरअसल, मीडिया का अपने कामकाज के तौर-तरीकों और प्रदर्शन पर खुद मीडिया में खुली चर्चा को प्रोत्साहित करना स्व-नियमन का ही हिस्सा है. सच यह है कि जस्टिस काटजू ने वास्तव में कोई नया मुद्दा नहीं उठाया है. अलबत्ता, उनकी भाषा खासकर उसकी टोन और कुछ मामलों में उनके अतिरेक पर ऊँगली उठाई जा सकती है.

लेकिन सच यह है कि उन्होंने वही बातें दोहराई हैं और वही सवाल उठाये हैं जो पिछले काफी समय से उठाये जा रहे हैं. लेकिन मीडिया में आमतौर पर उन्हें अनदेखा किया जाता रहा है. लेकिन अब समय आ गया है जब चैनलों को उन मुद्दों से नजरें चुराने या उनकी अनदेखी के बजाय उनपर खुलकर चर्चा करनी चाहिए.

ऐसा ही मुद्दा है न्यूज चैनलों सहित समूचे समाचार मीडिया में अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम समाज के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त रवैये और उनकी एक नकारात्मक स्टीरियोटाइप छवि प्रस्तुत करने का. जस्टिस काटजू ने इस मुद्दे से जुड़े एक बहुत संवेदनशील पहलू को उठाया है.

उनके मुताबिक, अधिकांश आतंकवादी हमलों, बम विस्फोटों आदि के बाद मीडिया खासकर न्यूज चैनल जिस तरह से बिना किसी गहरी जांच-पड़ताल और छानबीन के जल्दबाजी में आतंकवादी समूहों के बारे में कयास लगाने लगते हैं या किसी अज्ञात ई-मेल/फोन के आधार किसी विशेष आतंकवादी समूह को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं, उस दौरान चैनलों की भाषा और टोन के कारण एक पूरे समुदाय को शक की निगाह से देखा जाने लगता है.

जस्टिस काटजू के मुताबिक, चैनलों समेत पूरे समाचार मीडिया के इस रवैये के कारण समाज में विभाजन बढ़ता है. हैरानी की बात यह है कि मीडिया में काटजू के बयानों/उद्गारों के हर पहलू पर चर्चा हुई और हो रही है लेकिन इस मुद्दे पर चुप्पी छाई हुई है. क्या यह मीडिया की ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ का एक और उदाहरण है?

निश्चय ही, यह मुद्दा समाचार मीडिया की एक ऐसी दुखती रग है जिसे या तो सिरे से ख़ारिज करने की कोशिश की जाती है और चर्चा लायक नहीं माना जाता है या फिर इसे एक अत्यधिक संवेदनशील मुद्दा बताकर उसपर चर्चा से बचने की कोशिश की जाती है. इस तरह इस मुद्दे पर एक सामूहिक चुप्पी साध ली जाती है.

लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारतीय समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में हाल के वर्षों में घटी आतंकवादी घटनाओं की कवरेज में कभी खुलकर और कभी बारीकी के साथ मुस्लिम समुदाय और इस्लाम धर्म के प्रति पूर्वाग्रह (कुछ मामलों में विद्वेष की हद तक) दिखाई पड़ा है.

हालांकि भारतीय मीडिया में अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति यह पूर्वाग्रह नया नहीं है लेकिन पिछले डेढ़-दो दशकों में यह और अधिक गहरा और विकृत होता गया है. खासकर १९९३ के मुंबई बम धमाकों के बाद से आतंकवादी हमलों और धमाकों की रिपोर्टिंग की भाषा, टोन और कलर में इस पूर्वाग्रह को साफ देखा जा सकता है. कुछ मामलों में इस कवरेज में एक सांप्रदायिक रुझान भी किसी से छुपा नहीं है.

मीडिया के इस पूर्वाग्रह और अतिरेकपूर्ण कवरेज से मुस्लिम समुदाय और इस्लाम धर्म की ऐसी छवि बनी है जिसमें पूरा समुदाय आतंकवादी या फिर आतंकवाद के समर्थक या उससे छुपे तौर पर सहानुभूति रखनेवाले समुदाय के बतौर पहचाना जाने लगा है जबकि इस्लाम धर्म की छवि एक हिंसक, आक्रामक, असहिष्णु, दकियानूसी और कट्टरपंथी धर्म की बना दी गई है.

यह सच है कि हाल के वर्षों में हुए कुछ बड़े और बर्बर आतंकवादी हमलों/बम विस्फोटों में कुछ मुस्लिम शामिल पाए गए हैं लेकिन इससे बड़ा सच यह है कि उन्हें न सिर्फ मुस्लिम समाज का समर्थन हासिल नहीं है बल्कि आम मुसलमान उसके खिलाफ है. यही नहीं, इन बम विस्फोटों और आतंकवादी हमलों में खुद कई निर्दोष मुसलमान भी मारे गए हैं.

लेकिन मीडिया और चैनलों में अक्सर इन तथ्यों की अनदेखी की जाती है. यह भी देखा गया है कि इन आतंकवादी घटनाओं और कथित ‘प्लाटों’ के खुलासे की रिपोर्टिंग और कवरेज में एक अंधराष्ट्रवादी दृष्टिकोण के साथ पाकिस्तान को निशाना बनाया जाता है लेकिन उसके वास्तविक निशाने पर देश के अंदर मुस्लिम समुदाय होता है. इन मौकों पर चैनलों की देशभक्ति जैसे उबाल मारने लगती है.

रिपोर्टिंग और कवरेज की भाषा और प्रस्तुति इतनी उग्र और आक्रामक होती है कि उसमें तर्क और तथ्यों के लिए जगह नहीं रह जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण पत्रकारीय मूल्यों- तथ्यपूर्णता (एक्यूरेसी), वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता और संतुलन की कुर्बानी सबसे पहले दी जाती है. जाहिर है कि सबसे ज्यादा जोर सनसनी पैदा करने और दर्शकों को डराने पर रहता है.

नोट: आप सभी मित्रों से आग्रह है कि आप इस मुद्दे पर जो सोचते हैं, अपनी टिप्पणी जरूर भेजे..इस विषय पर चर्चा बहुत जरूरी है...

('कथादेश' के आगामी दिसंबर'११ में प्रकाशित हो रहे स्तम्भ की पहली किस्त..पूरे लेख के लिए स्टाल से खरीदकर पढ़ें..)

2 टिप्‍पणियां:

The Catamount Reboot- The Never Ending Journey ने कहा…

काटजू जी ने जो भी कहा वो वाकई आज की मीडिया की भाषा, चरित्र और न० वन बनने की होड़़ जो लगी है उसकी सच्चाई बतलाता है... पर काटजू जी का इस तरहं की टिप्पडी वो भी समाज में साम्प्रदायिक तनाव पैदा कर सकती है बल्कि कर दिया है.. तो किसी समूदाय से जुड़़ा उदाहरण देने की क्या जरूरत थी?

Unknown ने कहा…

कालांतर में इलेक्ट्रानिक मीडिया के कई चैनलों ने आतंकवादी घटनाओ के नाट्य रूपांतरण करने की आड़ में मुसलमानों के पहनावे और उनकी वेश-भूषा के प्रति देश की जनता के मन में डर का भाव पैदा करने में बहुत हद तक सफलता हासिल की है. मुस्लिम आबादी को बहुसंख्यक हिंदू आबादी से अलग-थलग करने की और उनके बीच अलगाव पैदा करने की इस साजिश का ही परिणाम है कि कैफी आजमी और राहुल सां की जन्म भूमि आजमगढ़ को आतंकवाद का केंद्र समझा जाने लगा है. हालात इतने खराब हैं कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने इस शहर की सही तस्वीर पेश करने के लिए प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को पत्र भेजा है.
नवउदारवादी ढांचे पर खड़े भारत के मुख्य धारा मीडिया से यह उम्मीद करना तो बेईमानी होगा कि वह आतंकवाद को एक लॉजिक की तरह समझकर उसके कारणों और उससे निपटने के लिए किये जा रहे उपायों का सही विश्लेषण कर एक निष्पक्ष तस्वीर हमारे सामने रखे. लेकिन उससे किसी धर्म विशेष को आतंकवाद का पर्याय बताने से पहले थोडा जिम्मेदार रहने की उम्मीद तो की ही जा सकती है-अभिनव श्रीवास्तव