सोमवार, नवंबर 21, 2011

बड़ी पूंजी को खुश करने की कवायद

लेकिन आँख मूंदकर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के खतरे बहुत हैं 

भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों और महंगाई रोकने में नाकामी के आरोपों से घिरी यू.पी.ए सरकार अपनी खोई हुई साख हासिल करने के लिए बेचैन है. उसकी यह बेचैनी स्वाभाविक है. इसकी वजह यह है कि लोगों के बीच साख खो चुकी सरकार अपना वह इकबाल भी गँवा देती है जिसके बिना शासन करना मुश्किल हो जाता है.

यू.पी.ए सरकार भी अपना इकबाल गंवाती जा रही है. लेकिन साख गंवाना आसान है पर उसे दोबारा हासिल करना उतना ही मुश्किल है. यह सच्चाई यू.पी.ए सरकार और खासकर कांग्रेस को भी पता है.

आश्चर्य नहीं कि सरकार और कांग्रेस दोनों को समझ में नहीं आ रहा है कि वह अपनी पाताल में पहुँच गई साख को हासिल करने के लिए क्या करें? ऐसी स्थिति में सरकारें अक्सर ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार हो जाती हैं. उनमें बड़े नीतिगत फैसले करने के लिए जरूरी राजनीतिक साहस नहीं रह जाता है.

मनमोहन सिंह सरकार पर भी यह आरोप लग रहा है कि वह ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार हो गई है. मजे की बात यह है कि यह शिकायत उस आम आदमी की ओर से कम आ रही है जिसके वोट पर वह २००९ में दोबारा सत्ता में पहुंची. यह शिकायत सबसे ज्यादा उद्योग जगत और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की ओर से आ रही है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले छह महीने में बड़े उद्योगपतियों की ओर से आ रही ऐसी शिकायतों और अपीलों की झडी सी लग गई है जिसमें यू.पी.ए सरकार को ‘नीतिगत पक्षाघात’ के लिए लताड़ते, पुचकारते और धमकाते हुए रुके हुए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और जमीन अधिग्रहण से लेकर कोयला आदि प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन और दोहन की प्रक्रिया में आ रही रुकावटों को हटाने के लिए सख्त फैसले करने के लिए समझाया जा रहा है. गुलाबी अख़बारों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की यह बेचैनी सबसे ज्यादा दिखाई पड़ रही है.

उनकी इस बेचैनी के कारणों को समझना मुश्किल नहीं है. असल में, पिछले डेढ़-दो वर्षों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, भ्रष्टाचार के मामलों में राजनेताओं-उद्योगपतियों के साथ कुछ वरिष्ठ नौकरशाहों की गिरफ्तारी, सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के बीच घात-प्रतिघात की राजनीति और सरकार और कांग्रेस पार्टी के बीच खींचतान के कारण पूरी सरकार ठप्प सी हो गई है.

मंत्री और नौकरशाह फैसले लेने में हिचक रहे हैं. सरकार राजनीतिक बैकलैश के डर से बड़े नीतिगत फैसले लेने से बच रही है. यही नहीं, सरकार का ज्यादा समय गठबंधन के प्रबंधन और अन्ना हजारे के आंदोलन की राजनीतिक चुनौती से निपटने में जाया हो रहा है.

इससे बड़ी पूंजी और उद्योगपतियों में गहरी नाराजगी और बेचैनी है क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि २००९ के चुनावों में यू.पी.ए की जीत और वामपंथी पार्टियों के समर्थन पर सरकार की निर्भरता के खत्म होने के बाद मनमोहन सिंह सरकार रुके पड़े आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएगी.

खासकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को लग रहा था कि सरकार आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण खासकर वित्तीय क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए और अधिक खोलने, खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और उड्डयन-रक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने जैसे राजनीतिक रूप से कठिन फैसले करेगी.

उनकी बढ़ती बेचैनी की एक वजह यह भी है कि राजनीतिक रूप से कठिन और संवेदनशील नीतिगत फैसले किसी सरकार के कार्यकाल के पहले दो-तीन वर्षों में ही संभव हो पाते हैं क्योंकि तीसरे वर्ष के बाद चुनाव नजदीक आने के कारण सरकारों के लिए राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय फैसले करना मुश्किल होने लगता है और उनपर लोकलुभावन फैसलों का दबाव बढ़ने लगता है.

लेकिन यू.पी.ए सरकार के पहले दो-सवा साल भ्रष्टाचार और अंदरूनी झगडों में बर्बाद हो गए. बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और उद्योगपतियों को लगने लगा है कि अगर अब कुछ जल्दी नहीं हुआ तो फिर चीजें हाथ से निकल जाएँगी.

बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की बेचैनी और घबडाहट का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आमतौर पर राजनीतिक मामलों पर सार्वजनिक टिप्पणी करने से बचनेवाले उद्योगपतियों- एच.डी.एफ.सी के दीपक पारेख, टाटा समूह के रतन टाटा, विप्रो के अजीम प्रेमजी से लेकर रिलायंस के मुकेश अम्बानी तक ने खुलकर यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ की आलोचना शुरू कर दी है.

यहाँ तक कि भारती एयरटेल के सुनील मित्तल ने तो विपक्ष के नेताओं को भी खुली चिट्ठी लिखकर अपील की है कि वे टकराव की राजनीति छोड़ें और सरकार को आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में मदद करें.

बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की एक शिकायत यह भी है कि वे देश भर में जहाँ भी नए प्रोजेक्ट लगाने की कोशिश कर रहे हैं, जमीन-पानी और खनिज संसाधनों को लेकर स्थानीय जनता का विरोध शुरू हो जा रहा है. इससे अधिकांश बड़े प्रोजेक्ट ठप्प पड़े हुए हैं. राजनीतिक रूप से कमजोर सरकार लोगों के विरोध से निपट नहीं पा रही है.

इसके अलावा बड़े पूंजीपतियों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि भ्रष्टाचार के मामलों को सही तरीके से संभाल पाने में सरकार की नाकामी के कारण दर्जन भर बड़े उद्योगपति और सी.ई.ओ महीनों से जेल में हैं. कुछ और जांच के घेरे में हैं और जेल जा सकते हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि हर सरकार को बड़ी पूंजी की नाराजगी अपने लिए खतरे की घंटी लगती है. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है. उसे भी लगने लगा है कि अगर जल्दी ही बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए नीतिगत फैसले नहीं किये गए तो वह न सिर्फ उसका समर्थन खो देगी बल्कि सरकार की स्थिरता भी खतरे में पड़ जायेगी.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आशंका से घबड़ाई यू.पी.ए सरकार ने पिछले सप्ताह एक झटके में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के मन-माफिक कई बड़े नीतिगत फैसलों का एलान कर दिया है. इनमें खुदरा व्यापार को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (५१ फीसदी तक) के लिए खोलने से लेकर उड्डयन और वित्तीय क्षेत्र के और उदारीकरण और उनमें विदेशी निवेश बढ़ाने के फैसले किये हैं.

यही नहीं, आसमान छूती महंगाई और इससे आम लोगों में बढ़ती नाराजगी के बावजूद बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए सरकार पेट्रोल की कीमतों के वि-नियमन और वित्तीय घाटा न बढ़ने देने के फैसले पर डटी हुई है. इस कारण, सरकार भोजन के अधिकार विधेयक पर भी कुंडली मारकर बैठी हुई है. यही नहीं, वित्त मंत्री ने विनिवेश के लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प व्यक्त किया है.

साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार जनता की नाराजगी झेलने के लिए तैयार है लेकिन वह बड़ी पूंजी को और नाराज करने के लिए राजी नहीं है. यही कारण है कि वह खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की इजाजत के फैसले की छोटे-बड़े व्यापारियों द्वारा विरोध और उससे होनेवाले राजनीतिक नुकसान को भी उठाने के लिए तैयार है.

साफ़ है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने की हड़बड़ी में यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ से सीधे ‘नीतिगत ओवर-स्पीड’ की स्थिति में चली गई है. वह इन फैसलों से होनेवाले फायदे-नुकसान का ईमानदार और स्वतंत्र आकलन करने के बजाय सिर्फ बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का हित देख रही है.

इन फैसलों के जरिये वह उनका भरोसा जीतने की कोशिश कर रही है. लेकिन इस कोशिश में वह व्यापक जनहित और अर्थव्यवस्था की जरूरतों की अनदेखी कर रही है जो भविष्य में देश को भारी पड़ सकते हैं. साथ ही, इससे यह भी पता चलता है कि सरकारों को जनता से ज्यादा बड़ी पूंजी के हितों की चिंता है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में २१ नवम्बर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित संक्षिप्त लेख का पूरा हिस्सा)

1 टिप्पणी:

SANDEEP PANWAR ने कहा…

बेहतरीन लिखा हुआ लेख