बुधवार, नवंबर 02, 2011

चैनलों से नाराज क्यों है सरकार?


न्यूज चैनलों के रेगुलेशन की सरकार की मंशा में खोट है

 पहली किस्त

भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों और चौतरफा आलोचनाओं से घिरी यू.पी.ए सरकार ने न्यूज चैनलों की नकेल कसने की तैयारी शुरू कर दी है. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से कैबिनेट में पास एक ताजा प्रस्ताव में नए न्यूज चैनल शुरू करने के लिए मौजूदा नियमों को और कड़ा करने और मौजूदा चैनलों के लाइसेंस के पुनर्नवीनीकरण की प्रक्रिया सशर्त करने का फैसला किया गया है.

इस नए प्रस्ताव के मुताबिक, नए न्यूज चैनल शुरू करने के वास्ते अपलिंकिंग और डाउनलिंकिंग का लाइसेंस लेने के लिए संबंधित कंपनी की निवल संपत्ति तीन करोड़ रूपये से बढाकर २० करोड़ रूपये कर दी गई है. इसके बाद हर नए चैनल के लिए ५ करोड़ की अतिरिक्त रकम जरूरी होगी.

यही नहीं, न्यूज चैनलों के लिए यह भी शर्त लगा दी गई है कि लाइसेंस मिलने के एक साल के अंदर चैनल शुरू हो जाना चाहिए. इसके साथ ही, न्यूज चैनलों के लिए दो करोड़ रूपये की परफार्मेंस बैंक गारंटी की शर्त लगा दी गई है जो एक साल के अंदर चैनल न शुरू होने की स्थिति में जब्त कर ली जायेगी.

इसके अलावा मौजूदा चैनलों के लाइसेंसों का दस वर्षों में पुनर्नवीनीकरण करना होगा. इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह होगी कि संबंधित चैनल के खिलाफ केबल नेटवर्क कानून में उल्लिखित कार्यक्रम और विज्ञापन कोड के उल्लंघन के पांच या उससे अधिक मामलों में कार्रवाई न हुई हो. अगर ऐसा हुआ है तो चैनल का लाइसेंस रद्द किया जा सकता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इन प्रस्तावों और संशोधनों पर चैनलों की ओर से बहुत तीखी प्रतिक्रिया आई है. चैनलों ने इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए खतरा बताते हुए असंवैधानिक, मनमाना और एकतरफा करार दिया है.

उनकी यह भी शिकायत है कि सरकार ने इस फैसले के जरिये चैनलों द्वारा स्थापित स्व-नियमन की उस व्यवस्था पर सीधा आघात किया है जिसकी खुद सरकार ने प्रशंसा की है. चैनलों का आरोप है कि केबल कानून में उल्लिखित कार्यक्रम और विज्ञापन कोड के उल्लंघन के मामलों का फैसला सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अफसरों के हाथ में होगा जिसमें मनमानी की काफी गुंजाइश होगी.

चैनलों का यह भी आरोप है कि केन्द्र सरकार इस फैसले के जरिये उन्हें सबक सिखाने और उनपर अंकुश लगाने की तैयारी कर रही है. इसकी वजह यह है कि सरकार अपनी मौजूदा राजनीतिक मुश्किलों के लिए काफी हद तक न्यूज मीडिया खासकर चैनलों को जिम्मेदार मानती है.

सरकार के कई मंत्रियों और कांग्रेस के नेताओं ने न्यूज चैनलों से अपनी नाराजगी का कई मौकों पर खुलकर इजहार भी किया है. यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री ने भी अपनी सरकार के प्रति मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की आलोचना करते हुए कहा था कि मीडिया एक साथ ‘आरोपकर्ता, जांचकर्ता और जज’ तीनों की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले कई महीनों से मीडिया खासकर कुछ प्रमुख न्यूज चैनलों के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के कारण यू.पी.ए सरकार की काफी राजनीतिक फजीहत हुई है. यही नहीं, सरकार को यह भी लगता है कि चैनल विपक्ष के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को न सिर्फ हवा दे रहे हैं बल्कि वे इस मुहिम में एक सक्रिय खिलाड़ी बन गए हैं.

कई मंत्रियों और कांग्रेसी नेताओं के मुताबिक, चैनलों ने अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे भ्रष्टाचार और कालाधन विरोधी आंदोलनों को खड़ा किया है. उन्हें यह लगता है कि अगर चैनलों ने एकतरफा तरीके से इन आन्दोलनों को उछाला और कांग्रेस और सरकार को खलनायक की तरह पेश नहीं किया होता तो सरकार की इतनी किरकिरी नहीं होती.

स्वाभाविक तौर पर इसे लेकर सरकार में बौखलाहट है. हालांकि मीडिया खासकर न्यूज चैनलों भारी विरोध के बाद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने वायदा किया है कि सरकार लाइसेंस के पुनर्नवीनीकरण के लिए कार्यक्रम और विज्ञापन कोड के उल्लंघन के मामलों की जांच और उनपर किसी फैसले पर पहुँचने की प्रक्रिया में चैनलों के स्व-नियमन व्यवस्था का ध्यान रखेगी.

इस बारे में कोई भी फैसला उनसे चर्चा के बाद ही होगा. इसके बावजूद यह तथ्य है कि सरकार ने इन प्रस्तावों और संशोधनों को वापस नहीं लिया है.

साफ है कि वह न्यूज चैनलों को अपने ‘तौर-तरीके ठीक करने’ (मतलब चुप रहने और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से दूर रहने) का सन्देश देने की कोशिश कर रही है. वह चैनलों पर दबाव बनाने और उन्हें ‘रास्ते पर लाने’ के लिए मन बना चुकी है. अपलिंकिंग और डाउनलिंकिंग गाइडलाइन्स और नए न्यूज चैनल शुरू करने के लिए प्रस्तावित नई शर्तों के बारे में केन्द्रीय कैबिनेट के ताजा फैसले को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए.

यही नहीं, वह ऐसे मौके और मुद्दे के इंतज़ार में है जब चैनलों को पकड़ा और सबक सिखाया जा सके. आश्चर्य नहीं होगा, अगर आनेवाले महीनों में कुछ चैनलों को कार्यक्रम और विज्ञापन कोड के उल्लंघन के लिए निशाना बनाया जाए.

इस मामले में सरकार की मंशा साफ़ है. इस बारे में किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए. उसका एकमात्र मकसद न्यूज चैनलों को अंकुश में रखना है. अलबत्ता इसके लिए वह बहाना चैनलों की मनमानी, सनसनीखेज, बेतुके और बे-सिरपैर के कंटेंट के अलावा पत्रकारीय नैतिकता और मूल्यों के खुले उल्लंघन को बना रही है.

यह सच है कि सरकार को यह मौका खुद चैनलों ने दिया है. सरकार चैनलों की इस कमजोर नस को जानती है. वह जानती है कि चैनल कोई दूध के धुले नहीं हैं. उसे पता है कि अधिकांश न्यूज चैनलों के बारे में आम लोगों और उनके दर्शकों की राय क्या है?

असल में, अधिकांश न्यूज चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों ने आपसी गलाकाट होड़ में टी.आर.पी हासिल करने के लिए पत्रकारिता की मर्यादाओं और मूल्यों का जिस तरह से मजाक उड़ाया है, उसके कारण उनके न्यूज चैनल होने पर भी उँगलियाँ उठने लगी थीं. यही नहीं, दर्शकों में उनकी विश्वसनीयता और साख भी कमजोर हुई है. धीरे-धीरे वे मजाक के विषय बनने लगे हैं.

‘रण’ और ‘पीपली लाइव’ जैसी फ़िल्में इस बात का सबूत हैं कि पापुलर कल्चर में लोग चैनलों को किस तरह से देखने लगे हैं. इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों में न्यूज चैनल चलाने के बिजनेस में जिस तरह के लोग और कम्पनियाँ आईं हैं, उनके चाल-चरित्र, उद्देश्यों और तौर-तरीकों के बारे में जितना कहा जाए, कम है.

जारी...दूसरी किस्त कल....

('कथादेश' के नवम्बर'११ के अंक में इलेक्ट्रानिक मीडिया स्तम्भ में प्रकाशित)

1 टिप्पणी:

sudhanshu chouhan ने कहा…

जो भी हो सरकार का रवैया भी सही है......गली-गली में न्यूज़ चैनल......पैसे लेकर एकतरफ़ा रिपोर्टिंग.......अन्ना के कथित आंदोलन में अंधाधुंध एकतरफ़ा रिपोर्टिंग हुई.......चैनल के कथित दिग्गज पत्रकार भी टीआरपी को सरपट दौड़ाने के लिए रामलीला ग्राउंड पहुंच गए, जो दस सालों से न्यूज़ रुम से बाहर नहीं निकले थे.....रामलीला ग्राउंड में रात में हुई दारुबाज़ी क्रयों नहीं ख़बर बनी.....तिरंगा लेकर लड़कियों से छेड़खानी क्यों नहीं ख़बर बनी.....कई महिला रिपोर्टरों से भी छेड़खानी हुई, जिसे बीबीसी की एक महिल पत्रकार ने छापा भी.......अगर वक़्त रहते इनपर लगाम नहीं लगाया तो ये भी लोकतंत्र के लिए एक बड़ा ख़तरा साबित होंगे.........