सोमवार, अक्तूबर 31, 2011

अफ्स्पा पर दाएं-बाएं करती यू.पी.ए सरकार

केन्द्र सरकार अफ्स्पा को हटाने के फैसले पर टालमटोल करके कश्मीर में राजनीतिक समाधान का एक और मौका गँवा रही है


यू.पी.ए सरकार का मौके गंवाने में कोई सानी नहीं है. कश्मीर समस्या इसकी एक और मिसाल है. यह सचमुच हैरानी की बात यह है कि कश्मीर में अनुकूल राजनीतिक हालात होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार साहसिक राजनीतिक पहलकदमी लेने से हिचकिचा रही है. 

चिंता की बात यह है कि खुद गृह मंत्रालय का दावा है कि कश्मीर में हालात पहले से बेहतर हुए हैं. आतंकवादी घटनाओं में कमी आई है. लेकिन इसके बावजूद केन्द्र सरकार न सिर्फ मानसिक रूप से कोई साहसिक राजनीतिक पहलकदमी के लिए तैयार नहीं दिख रही है बल्कि लगातार परस्पर विरोधी संकेत दे रही है.

इससे स्थिति के फिर से बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया है. ऐसा लगता है कि वह कश्मीर के मामले में एक कदम आगे और दो कदम पीछे की रणनीति पर चल रही है. इसका नतीजा यह हुआ है कि कश्मीर मामले में यू.पी.ए सरकार की स्थिति नौ दिन चले अढाई कोस की है.

उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट यानी अफ्स्पा) को हटाने के मुद्दे को ही लीजिए. इस मुद्दे पर केन्द्र और राज्य सरकार के अंदर भ्रम और मतभेद की स्थिति यह है कि बाएं हाथ को पता नहीं है कि दायाँ हाथ क्या कर रहा है?

हैरत की बात नहीं है कि खुद केन्द्र सरकार और राज्य की उमर अब्दुल्ला सरकार के अंदर से इस मुद्दे पर जिस तरह से परस्पर विरोधी बयान आ रहे हैं और खुली राजनीति शुरू हो गई है, उससे लगता नहीं है कि इनमें से कोई भी वास्तव में अफ्स्पा को राज्य से हटाने के मुद्दे पर गंभीर है.

अफ्स्पा के मुद्दे पर कई मुंह से बोलती सरकार न सिर्फ अपना ही मजाक उड़ा रही है बल्कि घाटी में एक बड़ी राजनीतिक पहलकदमी लेने के लिए अनुकूल माहौल बनाने का मौका चूक रही है. इसका फायदा किसे होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है.

ऐसा नहीं है कि राज्य से अफ्स्पा हटा लेने से कश्मीर का मुद्दा रातों-रात सुलझ जाएगा या वहां पूरी तरह से अमन-चैन आ जाएगा या फिर वहां की सभी राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएँगी.

असल में, कश्मीर मुद्दे के स्थाई राजनीतिक समाधान के लिए सभी राजनीतिक दलों, संगठनों और समूहों से बातचीत का रास्ता साफ़ करने के लिए जरूरी है कि कश्मीर घाटी का पूरी तरह से वि-सैन्यीकरण किया जाए. इस वि-सैन्यीकरण की दिशा में पहला कदम अफ्स्पा को हटाना है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अफ्स्पा हटाने से कश्मीर घाटी में लोगों में भरोसा पैदा करने और अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने में मदद मिलेगी.

सच यह है कि अफ्स्पा का समय पूरा हो चुका है. इसकी वजह यह है कि न सिर्फ कश्मीर में बल्कि देश के अन्य हिस्सों खासकर मणिपुर में अफ्स्पा एक काले कानून के रूप में बदनाम हो चुका है.

दरअसल, यह आंतरिक अशांति और उग्रवाद से निपटने के नाम पर सेना को इतने व्यापक और असीमित अधिकार दे देता है कि वह बिना वारंट के किसी के भी घर में घुसकर तलाशी ले सकती है, शक के बिना पर गिरफ्तार कर सकती है, गोली चला और मार सकती है. इस कानून के तहत सैन्य अधिकारियों को इन फैसलों के लिए उन्मुक्ति मिली हुई है.

आश्चर्य नहीं कि इस कानून के बेजा इस्तेमाल और सेना पर मानवाधिकार हनन के अनेकों गंभीर आरोप लगते रहे हैं. इस कारण पिछले एक-डेढ़ दशक से इस कानून को खत्म करने की मांग रह-रहकर उठती रही है.

खासकर मणिपुर से अफ्स्पा को हटाने की मांग को लेकर पिछले एक दशक से अधिक समय से अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला के ऐतिहासिक प्रतिरोध ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. सच पूछिए तो किसी भी लोकतान्त्रिक मुल्क में अफ्स्पा जैसे कानून का होना न सिर्फ शर्मनाक है बल्कि उस लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है.

हैरानी की बात यह है कि इस कानून की समीक्षा के लिए खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में पांच सदस्यी समिति का गठन किया था जिसने जून’२००५ में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. इस समिति ने अफ्स्पा को खत्म करने की सिफारिश की थी.

कहने की जरूरत नहीं है कि उसके बाद से ही देश में अफ्स्पा की प्रासंगिकता और उसे रद्द करने के मुद्दे पर सरकार के अंदर और बाहर बहस और चर्चा चल रही है. लेकिन देश में जनवाद और इंसाफपसंद लोगों के बीच इस कानून को खत्म करने को लेकर आमराय होने के बावजूद केन्द्र सरकार कोई ठोस फैसला करने में हिचकिचा रही है.

यही नहीं, कश्मीर मामले के राजनीतिक समाधान की संभावनाओं का पता लगाने के लिए वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में अफ्स्पा को हटाने की सिफारिश की है. लेकिन ऐसा लगता है कि इस मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार का एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस और सैन्य प्रतिष्ठान से जुड़े आक्रामक तत्व तय कर रहे हैं.

यही कारण है कि वह कश्मीर मुद्दे पर बड़ी राजनीतिक पहलकदमी तो दूर घाटी से अफ्स्पा हटाने तक का फैसला नहीं कर पा रही है. मजे की बात यह है कि उमर सरकार का प्रस्ताव तो अफ्स्पा को शुरुआत में घाटी के सिर्फ दो जिलों से हटाने भर का है.

अगर यू.पी.ए सरकार कश्मीर जैसे जटिल और संवेदनशील मुद्दे के हल की दिशा में इतना मामूली सा राजनीतिक जोखिम उठाने का भी साहस नहीं दिखा सकती तो उसे समझ लेना चाहिए कि वह बड़े राजनीतिक संकट को दावत दे रही है. उसे याद रखना चाहिए कि ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं’ और समस्याओं को लटकाने की नीति से चीजें बेहतर नहीं होती बल्कि बिगड़ती हैं.

कश्मीर मसला इसका सबसे त्रासद उदाहरण है जहाँ आज़ादी के बाद से एक के बाद दूसरी केन्द्र और राज्य सरकारों ने पहले सत्ता के लिए राजनीतिक छल, जोड़तोड़ और मनमानी से हालात खराब किये और बाद में आतंकवाद से निपटने के नाम पर राजनीति, जनतंत्र और मानवाधिकारों को ताक पर रखकर कमान सेना को सौंप दी.

लेकिन ऐसा करते हुए वे इतिहास का सबसे बड़ा सबक भूल गईं. इतिहास गवाह है कि राजनीतिक मसलों का समाधान बंदूक से नहीं राजनीति से ही निकलता है. लेकिन ऐसी राजनीति साहस, विवेक, दूरदृष्टि और प्रतिबद्धता मांगती है. अफसोस की आज की राजनीति में ये सबसे दुर्लभ चीजें हैं. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है.



('नया इंडिया' के ३१ अक्तूबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

रविवार, अक्तूबर 30, 2011

यह इतिहास का अंत नहीं, शुरुआत है

कंपनियों को बेल आउट और आम लोगों पर बढ़ता बोझ


दूसरी और आखिरी किस्त


यह वही दौर था जब कारपोरेट मीडिया में वाल स्ट्रीट की सट्टेबाजी और वित्तीय जोड़तोड़ को वित्तीय इंजीनियरिंग और नवोन्मेशीकरण बताकर उनकी बलैयां ली जा रही थीं. इस बीच, राजनीतिक और कारपोरेट जगत के बीच रिश्ता इतना गहरा हो चुका था कि दोनों के बीच का दिखावटी फर्क भी खत्म हो गया. बड़े बैंकों-वित्तीय संस्थाओं और कारपोरेट समूहों के बोर्डरूम से सीधे मंत्रिमंडल और मंत्रिमंडल से सीधे बोर्डरूम के बीच की आवाजाही सामान्य बात हो गई.

जाहिर है कि सरकारों और नौकरशाही का मुख्य काम कंपनियों के अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी के लिए उनके अनुकूल नियम-कानून बनवाना, रेगुलेशन को ढीला और अप्रभावी बनाना और कंपनियों को मनमानी की खुली छूट देना रह गया.


इस बीच, आवारा वित्तीय पूंजी की मुनाफे की हवस और उसके लिए सट्टेबाजी की लत ने मेक्सिको, दक्षिण पूर्वी एशिया, रूस से लेकर अर्जेंटीना तक दर्जनों देशों की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को तबाह करने से लेकर गंभीर संकट में फंसा दिया लेकिन वाल स्ट्रीट की असीमित वित्तीय ताकत और राजनीतिक प्रभाव के कारण किसी ने चूँ तक नहीं किया.

यही नहीं, वाल स्ट्रीट के पिछलग्गू बन चुके विश्व बैंक-मुद्रा कोष ने इन देशों को वित्तीय संकट से निकालने के नाम पर और निजीकरण, उदारीकरण और सरकारी खर्चों में कटौती की कड़वी दवाई पीने के लिए मजबूर किया.

दूसरी ओर, अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका में विदेशी निवेश आमंत्रित करने के नाम पर देशी-विदेशी कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों की लूट की खुली छूट दे दी गई. निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की औने-पौने दामों पर खरीद और स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं को निजी हाथों में सौंपने को खुशी-खुशी मंजूरी दी गई.

यहाँ तक कि विश्व व्यापार संगठन में हुए समझौतों के जरिये अर्थव्यवस्था के कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में राष्ट्रीय सरकारों और संसद से कानून और नीतियां बनाने का अधिकार भी छीन लिया गया. आश्चर्य नहीं कि इस दौर में जब वाल स्ट्रीट से लेकर दलाल स्ट्रीट की कंपनियों के मुनाफे में रिकार्डतोड़ बढोत्तरी हो रही थी, देशों के अंदर और वैश्विक स्तर पर गैर बराबरी, गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ रही थी.

आखिरकार वाल स्ट्रीट की कंपनियों के अंतहीन लालच और मुनाफे की भूख ने २००७-०८ में खुद अमेरिका और यूरोपीय देशों को वित्तीय संकट और मंदी में फंसा दिया. इस संकट ने विकसित पश्चिमी देशों में भी आवारा पूंजी के असली चरित्र और उनकी कारगुजारियों को सामने ला दिया. इसके बावजूद वाल स्ट्रीट की ताकत और प्रभाव देखिए कि उसने अमेरिकी राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान को अपने नुकसानों की भरपाई के लिए मजबूर कर दिया.

वित्तीय व्यवस्था को ढहने से बचाने के नाम पर वाल स्ट्रीट की कंपनियों को सरकारी खजाने से अरबों डालर के बेल आउट दिए गए. एक अनुमान के मुताबिक, अकेले अमेरिका ने वाल स्ट्रीट की कंपनियों को डूबने से बचाने के लिए कोई १६ खरब डालर का बेल आउट दिया.

यह और कुछ नहीं बल्कि निजी कंपनियों के घाटे को सरकारी खाते में डालने की तरह था. मतलब यह कि आवारा पूंजी और उनकी कंपनियों की सट्टेबाजी और धांधली का बोझ आम लोगों पर डाल दिया गया क्योंकि सरकारी घाटे की भरपाई के लिए खर्चों में कटौती के नाम पर आमलोगों की बुनियादी जरूरतों के बजट में कटौती शुरू हो गई.

हैरानी की बात यह है कि जब अमेरिका से लेकर यूरोप तक में सरकारें आम नागरिकों से मितव्ययिता बरतने की अपील कर रही थीं, उस समय वाल स्ट्रीट की कम्पनियाँ अरबों डालर के बेल आउट पैकेज का इस्तेमाल अपने टाप मैनेजरों और मालिकों को भारी बोनस देने में कर रही थीं. यही नहीं, लोगों ने यह भी देखा कि ‘बदलाव’ का नारा देकर सत्ता में पहुंचे राष्ट्रपति बराक ओबामा भी वाल स्ट्रीट की मिजाजपुर्सी में किसी से पीछे नहीं हैं.

इसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. लोगों को लगने लगा है कि इस व्यवस्था में बुनियादी तौर पर खोट है. इस मायने में ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा’ आंदोलन ने न सिर्फ अमेरिका के अंदर बल्कि पूरी दुनिया में आवारा वित्तीय पूंजी के वर्चस्व पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.

यही कारण है कि इस आंदोलन के प्रति पूरी दुनिया में एक सहानुभूति और समर्थन का भाव दिखाई पड़ रहा है. साफ है कि अभी ‘इतिहास का अंत’ नहीं हुआ है. एक फीसदी सुपर अमीरों के मुकाबले खड़े ९९ फीसदी लोग इस इतिहास को आगे बढ़ा रहे हैं. ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा’ आंदोलन इस बढ़ते इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. कोई शक?

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की आखिरी किस्त) 

शनिवार, अक्तूबर 29, 2011

एक फीसदी बनाम ९९ फीसदी


'ग्रीड इज गुड' पर खड़े आवारा वित्तीय पूंजीवाद को चुनौती है 'आक्युपाई वाल स्ट्रीट' आन्दोलन

पहली किस्त


कोई दो दशक पहले सोवियत संघ के ध्वंस को पूंजीवाद की अंतिम विजय बताते हुए फ्रांसिस फुकुयामा ने ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा कर दी थी. इस बीच, मिसिसिपी से लेकर टेम्स में बहुत पानी बह चुका है और इतिहास अमेरिका के पिछवाड़े में नहीं बल्कि खुद पूंजीवाद के दुर्ग अमेरिका और यूरोप में करवट लेता हुआ दिखाई दे रहा है.

अगर इतिहास सड़कों पर बनता है तो हजारों-लाखों लोग बड़ी कारपोरेट पूंजी के लगातार बढ़ते वर्चस्व को चुनौती देते हुए सिएटल से सिडनी तक और न्यूयार्क से लन्दन तक सड़कों पर इतिहास बना रहे हैं. स्वाभाविक तौर पर इससे पूंजीवाद के अग्रगामी किलों में उथल-पुथल और घबराहट का माहौल है.

हालांकि यह कहना मुश्किल है कि ‘एक फीसदी बनाम ९९ फीसदी’ की इस जोर-आजमाइश में फिलहाल, इतिहास किस करवट बैठेगा लेकिन इतना साफ़ है कि शीघ्र मृत्यु की घोषणाओं के बावजूद ‘वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा’ आंदोलन न सिर्फ टिका हुआ है बल्कि लगातार फ़ैल रहा है.

निश्चय ही, यह अपने-आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है कि अमेरिका में बढ़ती गैर बराबरी, बेरोजगारी, आम लोगों के लगातार गिरते जीवन स्तर और इस सबके लिए कारपोरेट लालच और लूट को जिम्मेदार मानते हुए राजनीतिक सत्ता पर बड़ी कारपोरेट पूंजी के आक्टोपसी कब्जे के खिलाफ ‘वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा’ (आकुपाई वाल स्ट्रीट) आंदोलन को शुरू हुए डेढ़ महीने से अधिक हो गए.

इस बीच, यह आंदोलन न्यूयार्क में आवारा पूंजी के गढ़ वाल स्ट्रीट से निकलकर न सिर्फ पूरे अमेरिका में फ़ैल गया है बल्कि अक्टूबर के मध्य में दुनिया भर के ९०० से ज्यादा शहरों खासकर यूरोप में जबरदस्त प्रदर्शन हुए हैं.

यही नहीं, कई शहरों में ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा’ आंदोलन की तर्ज पर आवारा वित्तीय पूंजी के स्थानीय केन्द्रों पर कब्जे के लिए धरना-प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मौजूदा आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ लोगों में कितना गुस्सा भरा हुआ है.

आश्चर्य नहीं कि शुरू में जिस आंदोलन को यह कहकर अनदेखा करने की कोशिश की गई कि यह आर्थिक मंदी और उससे निपटने के लिए सरकारी खर्चों में कटौती के खिलाफ तात्कालिक गुस्से-भड़ास का प्रदर्शन है और इस अराजक-दिशाहीन भीड़ के गुबार को बैठने में देर नहीं लगेगी, उसने कई कमजोरियों के बावजूद देखते-देखते आम जनमानस को इस तरह छू लिया है कि उसे अब और फैलने से रोकने में सरकारों के पसीने छूट रहे हैं.

यही कारण है कि न्यूयार्क में वाल स्ट्रीट के पास लिबर्टी पार्क में जो लोग डेरा-डंडा डाले बैठे हैं, उनकी संख्या भले कम हो लेकिन उनके उठाए सवालों और मुद्दों का अमेरिका में ही नहीं, पूरी दुनिया में असर साफ दिखाई पड़ने लगा है.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में पिछले कुछ दिनों में मीडिया समूहों द्वारा कराये गए विभिन्न जनमत सर्वेक्षणों में कोई ४३ फीसदी से ५५ फीसदी नागरिकों ने ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा’ आंदोलन की ओर से उठाए गए मुद्दों का समर्थन किया है. यही नहीं, सी.बी.एस न्यूज-न्यूयार्क टाइम्स सर्वेक्षण के मुताबिक, कोई ६६ फीसदी अमरीकी नागरिकों को लगता है कि देश में सम्पदा का बंटवारा असमान है.

साफ़ है कि इस आंदोलन ने जो सवाल और मुद्दे उठाए हैं, उन्हें लोगों का समर्थन मिल रहा है. इसके कारण राजनीतिक नेतृत्व से लेकर कारपोरेट मीडिया तक को इसका नोटिस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

यह सही है कि इस आंदोलन में वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर कई अंतर्विरोध, कमजोरियां और समस्याएं हैं. इसकी एक बड़ी कमजोरी यह है कि इसका कोई नेता नहीं है और न ही इसका कोई मांगपत्र है. यह भी कि इस आंदोलन के प्रति मौखिक समर्थन के बावजूद संगठित राजनीतिक-सामाजिक समूह जैसे ट्रेड यूनियनें अभी दूरी बनाए हुए हैं.

लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति सवाल उठाने के बावजूद उसे पूरी तरह से चुनौती देने खासकर उसका ठोस राजनीतिक विकल्प पेश करने से बच रहा है. इस कारण इस आंदोलन के मौजूदा व्यवस्था और खासकर अगले राष्ट्रपति चुनावों में डेमोक्रेटिक पार्टी द्वारा इस्तेमाल कर लिए जाने की आशंका भी बनी हुई है.

लेकिन इस आंदोलन में संभावनाएं भी बहुत हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस आंदोलन ने एक फीसदी बनाम ९९ फीसदी की बहस शुरू कर दी है. सवाल उठ रहा है कि एक ओर एक फीसदी सुपर अमीरों की धन-सम्पदा में रिकार्डतोड़ बढोत्तरी हो रही है लेकिन दूसरी ओर, बाकी ९९ फीसदी लोगों की आर्थिक-सामाजिक हालत बद से बदतर होती जा रही है.

जाने-माने अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ के मुताबिक, ‘अमेरिका में सबसे अधिक अमीर एक फीसदी इलीट देश की कुल सम्पदा का ४० फीसदी नियंत्रित करते हैं.’ उनके अनुसार, इसके कारण अमेरिकी राजनीतिक-आर्थिक तंत्र ‘एक फीसदी की, एक फीसदी द्वारा और एक फीसदी के लिए’ की व्यवस्था बन गया है.

आश्चर्य नहीं कि अमेरिका में अमीर और गरीब के बीच की खाई और चौड़ी और गहरी हुई है. इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश की कुल आय में से एक चौथाई आय सुपर अमीर हड़प लेते हैं और सबसे सर्वाधिक अमीर दस फीसदी इलीट कुल राष्ट्रीय आय के ५० फीसदी पर कब्ज़ा कर लेते हैं.

नतीजा यह कि एक फीसदी सुपर अमीरों की कुल वित्तीय संपत्ति देश के ८० फीसदी आम अमेरिकियों की कुल वित्तीय संपत्ति के चार गुने से अधिक है. यही नहीं, फ़ोर्ब्स की सूची में शामिल सबसे अमीर ४०० अमेरिकियों की कुल संपत्ति देश के ५० फीसदी आम लोगों की कुल संपत्ति के बराबर है.

लेकिन मुद्दा सिर्फ यह नहीं है कि एक फीसदी अमीर और अमीर हो रहे हैं बल्कि लोगों के गुस्से का बड़ा कारण यह है कि यह उनकी कीमत पर हो रहा है. उदाहरण के लिए, जहाँ एक फीसदी सुपर अमीरों का देश की कुल ४० फीसदी सम्पदा पर कब्ज़ा है, वहीँ ९० फीसदी लोगों पर कुल कर्ज के ७३ फीसदी का बोझ है.

आश्चर्य नहीं कि २००७-०८ में हाऊसिंग बूम के बुलबुले के फूटने के बाद लाखों अमेरिकी नागरिकों को अपने गिरवी पर रखे घर गंवाने पड़े हैं. वित्तीय संकट और मंदी के कारण लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं, बेरोजगारी असहनीय हो गई है और भारी कर्ज लेकर उच्च शिक्षा हासिल करनेवाले लाखों नौजवानों के सामने अनिश्चित भविष्य है.

हालत यह है कि देश में पिछले दो-ढाई दशकों में जब अमीरों की संपत्ति दिन दुनी रात चौगुनी बढ़ रही थी, उस दौरान आम लोगों की वास्तविक आय में कोई वृद्धि नहीं हुई है. तथ्य यह है कि अमेरिका में १९५० से १९७० के बीच आय के मामले में निचले ९० फीसदी लोगों की हर डालर की कमाई पर सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के सौंवें हिस्से ने १६८ डालर की कमाई की लेकिन १९९० से २००२ के बीच यह निचले ९० प्रतिशत की प्रति डालर की कमाई पर बढ़कर १८००० डालर हो गया.

लेकिन यह किसी दैवीय संयोग से नहीं हुआ है. इसकी वजह वे नव उदारवादी आर्थिक नीतियां हैं जो ७० के दशक के आखिरी वर्षों में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की अगुवाई में बेरहमी से लागू की गईं.

यह दौर निजीकरण और वि-नियमन (डी-रेगुलेशन) का था जिसमें एक तरह से अर्थव्यवस्था पूरी तरह से आवारा वित्तीय पूंजी और उसके वाल स्ट्रीट में बैठे नियंताओं के हाथों में सौंप दी गई. राज्य और राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान की भूमिका इस पूंजी की सेवा और चाकरी तक सीमित रह गई. लेकिन इस आवारा वित्तीय पूंजी को सिर्फ और सिर्फ मुनाफे, और अधिक मुनाफे, उससे अधिक मुनाफे की चिंता थी.

इस दौर में वाल स्ट्रीट का नारा और ध्येय वाक्य ‘लालच अच्छी चीज है’ (ग्रीड इज गुड) बन गया. नतीजा, वाल स्ट्रीट में मुनाफे की हवस ऐसी बढ़ती चली गई कि पैसा से पैसा बनाने की होड़ शुरू हो गई. वास्तविक उत्पादन और अर्थतंत्र पीछे चला गया और आवारा वित्तीय पूंजी की अगुवाई में सट्टेबाजी सबसे प्रमुख आर्थिक गतिविधि हो गई.

..कल भी जारी...

('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर  29 अक्तूबर पर प्रकाशित आलेख की पहली किस्त)

सोमवार, अक्तूबर 24, 2011

गद्दाफी के साथ लीबिया में एक युग का अंत

लेकिन पश्चिमी देशों की वहां लोकतंत्र की स्थापना में नहीं बल्कि तेल की बंदरबांट में दिलचस्पी है


एक पूर्व निश्चित पटकथा के मुताबिक, नाटो समर्थित विद्रोहियों के हाथों कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के मारे जाने के साथ ही लीबिया में न सिर्फ गद्दाफी की ४२ वर्षों पुरानी हुकूमत बल्कि उसके साथ ही एक युग का अंत हो गया. आप चाहें तो कह सकते हैं कि अरब वसंत के साथ उठी जनविद्रोह की आंधी ने एक और तानाशाह और जनविरोधी हुकूमत की बलि ले ली.

लेकिन पूरा सच यह है कि लीबिया में जो कुछ हुआ और हो रहा है, उससे यह तय हो गया है कि अरब वसंत का नेतृत्व एक बार फिर अरब जनता के हाथ से निकलकर पश्चिमी आकाओं के हाथ में पहुँच चुका है.

आश्चर्य नहीं कि पश्चिमी देशों में इस कामयाबी पर खुशी के साथ-साथ निश्चिन्तता का भाव है. इसकी वजह साफ है. असल में, लीबिया में गद्दाफी हुकूमत के खिलाफ भडके स्वाभाविक जन उभार की वास्तविक कमान राष्ट्रीय अंतरिम परिषद के हाथों में नहीं बल्कि अमेरिका और नाटो देशों के हाथों में है.

सच पूछिए तो लगभग सभी व्यवहारिक अर्थों में नाटो ने इस विद्रोह को हड़प लिया है और लीबिया में इस तख्ता पलट की पटकथा वाशिंगटन-पेरिस और लन्दन में लिखी गई है. स्वाभाविक है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने गद्दाफी हुकूमत के अंत में ब्रिटेन की भूमिका पर खुशी और संतोष जाहिर किया है.

यह एक त्रासदी ही है कि जो अरब वसंत अरब जगत में पश्चिम के कठपुतली हुकूमतों और उनके लूट, अन्याय और दमन के खिलाफ शुरू हुआ था, वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका और उन्हीं पश्चिमी देशों की गोद में जा बैठा है जिनका अतीत बहुत आश्वस्त नहीं करता है. इसमें कोई शक नहीं है कि इसके लिए काफी हद तक खुद गद्दाफी भी जिम्मेदार थे.

अगर उन्होंने अरब वसंत के साथ उठी बदलाव की आंधी के बीच दीवार पर लिखे साफ़ सन्देश को पढ़ा होता और लीबियाई जनता की भावनाओं और इच्छाओं का आदर किया होता तो शायद पश्चिमी देशों को इस तरह से नाक घुसाने की जगह नहीं मिलती.

इस मायने में गद्दाफी को अपनी राजनीतिक गलतियों और अति-आत्मविश्वास का खामियाजा भुगतना पड़ा है. वे यह समझ नहीं पाए कि न सिर्फ अरब जगत बल्कि लीबिया में भी समय बदल चुका है. यह जानते हुए भी कि लोग बदलाव चाहते हैं, गद्दाफी ने बदलाव को स्वीकार करने के बजाय ताकत के बल पर रोकने की कोशिश की और इसका फायदा उठाने में पश्चिमी देशों ने देरी नहीं की.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गद्दाफी को बदलाव को रोकने की कीमत चुकानी पड़ी है. यह एक भ्रम है कि वे लीबिया में पश्चिमी देशों के साम्राज्यवादी घुसपैठ के खिलाफ लड़ रहे थे. खुद गद्दाफी ने इस लड़ाई को इसी रूप में पेश करने की कोशिश की लेकिन साफ है कि लीबियाई जनता के एक बड़े हिस्से ने इसे स्वीकार नहीं किया.

सच यह है कि वे अपनी तानाशाही को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे. लोगों के सामने यह सच्चाई उजागर हो चुकी थी. तथ्य यह है कि पिछले डेढ़-दो दशकों खासकर २००३ के बाद खुद गद्दाफी बहुत बदल चुके थे. पिछले साथ-आठ सालों में उनके पश्चिम विरोधी दिखावटी बडबोले बयानों को छोड़ दिया जाए तो व्यवहार में गद्दाफी ने पश्चिमी देशों के नजदीक आने की बहुत कोशिश की. इसके लिए उन्होंने न सिर्फ पश्चिमी देशों की बड़ी कंपनियों को लीबिया में निवेश और कारोबार का मौका दिया बल्कि आर्थिक सुधारों के नाम पर सरकारी कंपनियों के निजीकरण का अभियान चलाया.

हैरानी की बात नहीं है कि इस दौर में गद्दाफी की टोनी ब्लेयर, कोंडोलिजा राइस, गार्डन ब्राउन से लेकर बराक ओबामा, सिल्वियो बर्लुस्कोनी और जी-८ देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ मुस्कुराते हुए तस्वीरें दिखाई दीं. साफ़ था कि वे अरब जगत में पश्चिमी देशों की साम्राज्यवादी घुसपैठ और राष्ट्रीय संसाधनों पर कब्जे के खिलाफ आवाज़ उठानेवाले नेता के बजाय उनके साथ जोड़तोड़ और लेनदेन करनेवाले एक तानाशाह भर रह गए थे. सच पूछिए तो इस दौर में पश्चिमी देशों को भी उनसे कोई खास शिकायत नहीं रह गई थी.

आश्चर्य नहीं कि सिर्फ जनता की खपत के लिए गद्दाफी पर मानवाधिकार हनन के आरोप लगानेवाले पश्चिमी देशों को इस दौर में लीबिया को हथियार बेचने में कोई हिचक नहीं हुई. उदाहरण के लिए, पिछले साल ब्रिटेन ने लीबिया को ५.५ करोड़ डालर के हथियार बेचे थे. इसी तरह, बुश प्रशासन ने २००८ में लीबिया को ४.६ करोड़ डालर के हथियारों के निर्यात की इजाजत दी थी. बदले में, गद्दाफी ने भी बहुराष्ट्रीय पश्चिमी तेल कंपनियों- शेल और एक्सान को लीबिया में तेल निकलने के आकर्षक ठेके दिए. बुश प्रशासन को खुश करने के लिए अपने परमाणु कार्यक्रम को बंद करने का एलान कर दिया.

असल में, १९६९ में सत्ता में आने के बाद गद्दाफी के पहले पन्द्रह वर्ष एक हद तक अरब राष्ट्रवाद से प्रेरित और कुछ हद तक प्रगतिशील कार्यक्रमों को आगे बढ़ानेवाले थे. इस दौर में गद्दाफी ने पेट्रोलियम उद्योग के राष्ट्रीयकरण से होनेवाली आय की मदद से देश में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के साथ नागरिकों के सामाजिक सुरक्षा के इंतजाम किये. इससे लीबियाई जनता के जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार आया. हैरानी की बात नहीं है कि मानवीय विकास के सूचकांक में आज लीबिया न सिर्फ समूचे अफ्रीका में पहले स्थान पर है बल्कि १७२ देशों की सूची में ५५वें स्थान पर है.

लेकिन १९८८ के बाद के गद्दाफी की सारी कोशिश किसी तरह सत्ता से चिपके रहने की हो गई. इसके लिए गद्दाफी ने एक ओर कट्टर इस्लाम समर्थक और पश्चिम विरोधी रेटार्रिक का सहारा लिया और दूसरी ओर, देश के अंदर विरोध की सभी आवाजों को निर्ममता से कुचल दिया. ऐसा नहीं है कि लीबियाई जनता ने गद्दाफी को मौके नहीं दिए. लेकिन गद्दाफी ने उन सभी मौकों को गवां दिया. असल में, गद्दाफी की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल और ग़लतफ़हमी यह थी कि उन्हें लगने लगा था कि पश्चिमी देशों ने उन्हें स्वीकार कर लिया है.

लेकिन वे भूल गए कि जब तानाशाहों के दिन पूरे हो जाते हैं तो हवा का रुख देखकर पश्चिम को उन्हें कूड़े में फेंकने और नए घोड़ों पर दाँव लगाने में देर नहीं लगती है. मुबारक से लेकर गद्दाफी तक पश्चिमी देशों के दोहरे चरित्र की नई मिसालें हैं. भ्रम में मत रहिए, नाटो लीबिया में लोकतंत्र की स्थापना के लिए नहीं बल्कि गद्दाफी के बाद के लीबिया में अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ रहा है.

फ्रेंच फाइटर जेट लीबिया में जनता की रक्षा के लिए नहीं बल्कि विद्रोही राष्ट्रीय अंतरिम परिषद के इस प्रस्ताव के बाद उड़ान भरने के लिए तैयार हुए थे कि गद्दाफी की विदाई के बाद देश के कुल तेल उत्पादन में से ३५ फीसदी फ़्रांस को मिलेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि लीबिया के राष्ट्रीय संसाधनों खासकर तेल की बंदरबांट की यह शुरुआत भर है.

('नया इंडिया' में २४ अक्तूबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित) 

रविवार, अक्तूबर 23, 2011

इतिहास के पहिये को पीछे ले जाने की कोशिश

जरूरत आर.टी.आई कानून को और मजबूत बनाने की है




सूचना के अधिकार कानून से यू.पी.ए सरकार की नाराजगी किसी से छुपी नहीं है. उसकी नाराजगी की वजह भी किसी से छुपी नहीं है. उसे लगता है कि उसकी मौजूदा राजनीतिक मुश्किलों खासकर भ्रष्टाचार और घोटालों के गंभीर आरोपों की जड़ में यह कानून भी है जिसके कारण कई ऐसे खुलासे हुए हैं जिनसे सरकार की साख को धक्का लगा है.

नतीजा, खुद प्रधानमंत्री भी इस कानून के लागू होने के बाद से पिछले छह वर्षों के अनुभव के आधार पर इसकी समीक्षा की बात कर रहे हैं. उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि इसके कारण सरकार का कामकाज खासकर अंदरूनी चर्चाएँ प्रभावित हो रही हैं, नौकरशाह और मंत्री ईमानदार और बेबाक राय देने से बच रहे हैं.

ऐसी शिकायत करनेवाले वे अकेले नहीं हैं. उनसे पहले यू.पी.ए सरकार के तीन वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री- वीरप्पा मोइली, सलमान खुर्शीद और अम्बिका सोनी भी इस कानून के कारण सरकार चलाने में आ रही परेशानियों का हवाला देकर उसमें संशोधन की वकालत कर चुके हैं.

इन सभी को लगता है कि सूचना का अधिकार सरकारी कामकाज को प्रभावित कर रहा है. इसके कारण न सिर्फ निहित स्वार्थी तत्व फर्जी आर.टी.आई के जरिये अधिकारियों को परेशान कर रहे हैं, उनका सारा समय आर.टी.आई के जवाब देने में निकल जा रहा है बल्कि वे उन सूचनाओं का दुरूपयोग भी कर रहे हैं.

मजे की बात यह है कि प्रधानमंत्री और सूचना के अधिकार कानून में संशोधन की जरूरत बताने वाले सभी कैबिनेट मंत्री एक ओर इस कानून को क्रांतिकारी भी बताते हैं और दूसरी ओर, इस क्रान्ति से डरे हुए भी हैं. यही नहीं, एक ओर वे इस कानून को बनाने का श्रेय भी लेना चाहते हैं और दूसरी ओर, उसे सरकारी कामकाज में बाधा डालने के लिए दोषी भी ठहरा रहे हैं.

असल में, सूचना के अधिकार के आन्दोलनों के दबाव में और अपनी प्रगतिशील छवि बनाने के लिए यू.पी.ए सरकार ने इस कानून को पास और लागू तो कर दिया लेकिन इस कानून के साथ उसकी असहजता और असुविधा शुरू में ही दिखने लगी थी.

आश्चर्य नहीं कि कोई ढाई-तीन साल पहले भी यू.पी.ए सरकार ने इस कानून में संशोधन करने खासकर कथित फर्जी आवेदनों को ख़ारिज करने, सवालों की संख्या सीमित करने से लेकर फ़ाइल नोटिंग को इस कानून के दायरे से बाहर करने की कोशिश की थी. लेकिन उस समय इसका जबरदस्त विरोध हुआ जिसके कारण सरकार को पीछे हटना पड़ा.

यही नहीं, सरकार को मानना पड़ा कि फ़ाइल नोटिंग आर.टी.आई के दायरे में है. इसके बावजूद अंदर-अंदर नौकरशाहों और मंत्रियों का विरोध बना रहा. यही कारण है कि एक ओर वे इस कानून को कामकाज में बाधा की तरह पेश करते रहे और दूसरी ओर, देश भर में आर.टी.आई को लोकप्रिय बनानेवाले और उसके जरिये सरकार और उसके विभिन्न विभागों में चल रही गडबडियों का भंडाफोड करनेवाले कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया. दर्जनों आर.टी.आई एक्टिविस्टों की हत्या कर दी गई.

विडम्बना देखिए कि जो सरकार इस कानून को बनाने का श्रेय लेने में सबसे आगे रहती है, वह आर.टी.आई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा का इंतजाम करने के बजाय इस कानून की हत्या करने पर आमादा हो गई है. यह सही है कि इस कानून के कारण हाल के महीनों में सरकार की खूब किरकिरी हुई है.

खासकर २ जी मामले में मौजूदा वित्त मंत्री के नोट के सामने आने के बाद पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम भी कटघरे में खड़े हो गए हैं बल्कि प्रणब-चिदंबरम युद्ध में पूरी सरकार की खासी फजीहत हुई है. इसके अलावा भी कई मामलों खासकर २ जी, कामनवेल्थ आदि घोटालों में आर.टी.आई के कारण ऐसी कई जानकारियां सामने आईं हैं जिससे सरकार की मुश्किलें बढ़ी हैं.

लेकिन सवाल है कि क्या अपनी कमियों और गडबडियों के लिए उसे सामने लाने वाले कानून को दोषी ठहराया जा सकता है? क्या सरकार को अपने अपराधों को छुपाने के लिए आर.टी.आई कानून को खत्म करने की इजाजत दी जा सकती है? ये सवाल आज और भी मौजूं हो उठे हैं. एक ऐसे समय में जब पूरे देश में भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ लोगों का आक्रोश सड़कों पर आ चुका है और सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की मांग जोर पकड़ रही है, उस समय इतिहास के पहिये को पीछे लौटाने की यह कोशिश यू.पी.सरकार की रही-सही साख को भी खत्म कर देगी.

मनमोहन सिंह सरकार को जनता का मूड समझना चाहिए. सच पूछिए तो इस समय जरूरत इस कानून को और मजबूत बनाने और सरकारी कामकाज में और अधिक जवाबदेही लाने के लिए उसे पूरी तरह से पारदर्शी बनाने की है. सरकारी कामकाज में सम्पूर्ण पारदर्शिता एक नियम होनी चाहिए और गोपनीयता एक अपवाद.

असल में, आर.टी.आई कानून की असली भावना यही है कि अधिक से अधिक सूचनाओं को बिना मांगे सार्वजनिक किया जाना चाहिए. उलटे हो यह रहा है कि सरकार और उसके महकमे सूचनाएं दबाने और छुपाने में लगे रहते हैं. औपनिवेशिक विरासत के बतौर सरकारी कामकाज में गोपनीयता अभी भी नियम बना हुआ है.

इसे किसी तरह से स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. जरूरत तो यह है कि सरकार केन्द्रीय और राज्य स्तरीय सूचना आयोगों को और मजबूत बनाए. इस सिलसिले में मौजूदा मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानन्द मिश्र की मांग पर जरूर विचार किया जाना चाहिए कि सूचना आयोगों को संवैधानिक दर्जा दिया जाए, उन्हें स्वायत्तता दी जाए और सरकार पर उनकी निर्भरता कम की जाए.

यही नहीं, सरकार को फ़ाइल नोटिंग को आर.टी.आई के दायरे से बाहर करने की कोशिशें छोड़ देनी चाहिए क्योंकि फ़ाइल नोटिंग मांगने का अधिकार इस कानून की आत्मा है. उसके बिना यह कानून निर्जीव और बेमानी हो जाएगा.

इसके अलावा सरकार को आर.टी.आई कार्यकर्ताओं को सुरक्षा देने के लिए व्हिसलब्लोवर विधेयक तुरंत लाना चाहिए. इससे लोगों में इस कानून के प्रति विश्वास पैदा होगा और भ्रष्ट नौकरशाहों-राजनेताओं को सन्देश जाएगा कि वे गोपनीयता की आड़ में अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २२ अक्तूबर को प्रकाशित लेख)

बुधवार, अक्तूबर 19, 2011

चैनलों की चर्चाओं में आग कम और शोर ज्यादा है

चैनलों का ‘दरिद्र’ लोकतंत्र




न्यूज चैनलों की चर्चाओं और बहसों में दिलचस्पी जगजाहिर है. आश्चर्य नहीं कि अंग्रेजी और हिंदी के अधिकांश न्यूज चैनलों पर चर्चाओं और बहसों के नियमित दैनिक कार्यक्रम हैं. इन कार्यक्रमों के महत्व को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि अधिकांश चैनलों पर रात को प्राइम टाइम पर ये चर्चाएँ और बहसें होती हैं.

एक हिंदी न्यूज चैनल को को सिर्फ बहस से संतोष नहीं हुआ तो उसने हर दिन शाम को महाबहस की शुरुआत कर दी है. लेकिन कार्यक्रम के नाम पर मत जाइए, महाबहस में भी ‘बहस’ उतनी और वैसी ही होती है जितनी किसी भी और चैनल के बहस में होती है.

कहने को इन दैनिक चर्चाओं में उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण खबर/घटनाक्रम पर चर्चा होती है. लेकिन आमतौर पर यह चैनल की पसंद होती है कि वह किस विषय पर प्राइम टाइम चर्चा करना चाहता है. हालांकि इन चर्चाओं/बहसों में ज्यादातर मौकों पर ‘तू-तू, मैं-मैं’ या शोर-शराबा ही होता है और भले ही अक्सर उनसे कुछ खास निकलता नहीं दिखता है.

लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र में ये चर्चाएँ कई कारणों से महत्वपूर्ण होती हैं. ये चर्चाएँ न सिर्फ दर्शकों को घटनाओं/मुद्दों के बारे में जागरूक करती हैं और जनमत तैयार करती हैं बल्कि लोकतंत्र में वाद-संवाद और विचार-विमर्श के लिए मंच मुहैया कराती हैं.

लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही बड़ा सच है कि लोकतांत्रिक समाजों में मीडिया खासकर न्यूज मीडिया इन चर्चाओं और बहसों के जरिये ही कुछ घटनाओं और मुद्दों को आगे बढ़ाते हैं और उन्हें राष्ट्रीय/क्षेत्रीय एजेंडे पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं.

मीडिया का एजेंडा सेटिंग सिद्धांत यह कहता है कि समाचार मीडिया कुछ घटनाओं/मुद्दों को अधिक और कुछ को कम कवरेज देकर लोकतान्त्रिक समाजों में राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक बहसों/चर्चाओं का एजेंडा तय करता है. इस तरह वह देश-समाज की राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक प्राथमिकताओं का भी एजेंडा तय कर देता है.

निश्चय ही, न्यूज मीडिया के इस एजेंडा सेटिंग एजेंडे को अपने देश में न्यूज चैनल कुछ हद तक अपनी कवरेज और कुछ हद तक प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों के जरिये आगे बढ़ा रहे हैं. जाहिर है कि इस कारण इन चर्चाओं का राजनीतिक महत्व बहुत बढ़ जाता है.

इन चर्चाओं का महत्व इसलिए भी और बढ़ता जा रहा है क्योंकि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों के विस्तार और बढ़ती पहुँच के साथ राजनीति ज्यादा से ज्यादा माध्यमीकृत (मेडीएटेड) होती जा रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूज मीडिया खासकर चैनल प्रदर्शन के एक ऐसे मंच के रूप में उभर रहे हैं जहाँ सुबह-दोपहर और खासकर शाम और रात में प्रदर्शनात्मक राजनीति को खुलकर अपना जलवा दिखाने का मौका मिलता है.

इस सच्चाई को सरकार, बड़े राजनीतिक दल और कारपोरेट समूह अच्छी तरह समझते हैं. यही कारण है कि वे न सिर्फ इन चर्चाओं को गंभीरता से लेते हैं बल्कि इन चर्चाओं को अपने अनुकूल मोड़ने और प्रतिकूल परिस्थितियों की भी अपने मुताबिक व्याख्या करने के लिए तेजतर्रार प्रवक्ताओं को उतारते हैं जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे सरकार/पार्टी/कारपोरेट समूह के पक्ष में जनमत बनाने के लिए तथ्यों/तर्कों/विचारों की ‘स्पिन’ कराने में माहिर होते हैं.

पी.आर के विशेषज्ञ इन प्रवक्ताओं को उनकी इस खूबी के कारण स्पिन डाक्टर भी कहा जाता है. आजकल राजनीति, सरकार और कारपोरेट जगत में ऐसे स्पिन डाक्टर्स की खूब मांग है.

तथ्य यह है कि न्यूज चैनलों के कारण सरकार/ विभिन्न राजनीतिक दलों/कारपोरेट समूहों में ऐसे माहिर, घाघ, बातों के जादूगर स्पिन डाक्टर्स की एक ऐसी जमात पैदा हो गई है जिनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे चैनलों की चर्चाओं में चर्चा को घुमाने के उस्ताद हैं.

खासकर राजनीतिक दलों में ऐसे बहुतेरे नेता पैदा हो गए हैं जिनकी अपनी कोई राजनीतिक जमीन नहीं है या जिन्होंने जमीन पर कोई राजनीति नहीं की है लेकिन दैनिक प्रेस ब्रीफिंग और टी.वी चर्चाओं/बहसों में हिस्सा लेकर अपनी-अपनी पार्टियों में बड़े नेता बन गए हैं.

लेकिन ऐसा लगता है कि खुद चैनल अपनी बहसों/चर्चाओं के कार्यक्रमों को बहुत महत्व नहीं देते हैं, सिवाय इस बात के कि ये कार्यक्रम चैनल के सबसे कम खर्च में तैयार होनेवाले कार्यक्रम होते हैं और उसका अच्छा-ख़ासा एयर टाइम भर देते हैं. एक तो अधिकांश चैनलों में इन बहसों/चर्चाओं के एंकर तैयारी करके नहीं आते हैं.

सवालों और टिप्पणियों में समझ तो दूर की बात है कि सामान्य जानकारी का भी अभाव दिखाई देता है. अक्सर सवाल अटपटे और चलताऊ किस्म के होते हैं. लगता है कि जैसे किसी तरह से टाइम पास किया जा रहा है. यही नहीं, इन चर्चाओं/बहसों में अतिथि भी जाने-पहचाने और उनके उत्तर/टिप्पणियां भी पूर्व निश्चित होते हैं.

इन कारणों से ये चर्चाएँ धीरे-धीरे एक दैनिक रुटीन में बदल गई हैं. इनसे इनमें बोरियत भी बढ़ती जा रही है. हालांकि कई बार इन चर्चाओं की बोरियत को खत्म करने के लिए सुनियोजित तरीके से गर्मी पैदा करने की भी कोशिश होती है लेकिन वह गर्मी वैचारिक रूप से बिना किसी उत्तेजक अंतर्वस्तु के वास्तव में, एक पूर्वनिश्चित नाटक में बदल जाती है.

इसकी वजह यह है कि इन चर्चाओं/बहसों का वैचारिक दायरा इतना सीमित और संकीर्ण होता है कि उसमें देश में सक्रिय राजनीतिक-वैचारिक धाराओं की विविधता और बहुलता नहीं दिखाई पड़ती है. यही नहीं, बिना किसी अपवाद के इन चर्चाओं के पैनलों में दक्षिण, मध्य-दक्षिण और अनुदारवादियों का दबदबा होता है.

आश्चर्य नहीं कि महत्वपूर्ण राजनीतिक चर्चाओं में कांग्रेस और भाजपा और बहुत हुआ तो कभी-कभार सरकारी लेफ्ट को पैनल में बुला लिया जाता है. आतंकवाद और सुरक्षा मामलों पर होनेवाली चर्चाओं में आक्रामक सैन्य जनरलों की तूती बोलती है.

इसी तरह, आर्थिक मुद्दों पर चर्चा में नव उदारवादी विशेषज्ञों की भरमार होती है. इससे काफी हद तक चैनलों के राजनीतिक-वैचारिक झुकाव का पता चलता है. लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि चैनलों का लोकतंत्र कितना सीमित, संकीर्ण और दरिद्र है.

('तहलका' के ३१ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित)

सोमवार, अक्तूबर 17, 2011

क्यों नाराज़ है सरकार सूचना के अधिकार से?


फ़ाइल नोटिंग के बिना सूचना का अधिकार बेमानी है  



कहते हैं कि क्रांतियां अपने संतानों को खा जाती हैं. ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. कम से कम सरकार खुद ऐसा ही सोचती है. आश्चर्य नहीं कि कल तक सूचना के अधिकार के कानून को क्रांति बतानेवाली मनमोहन सिंह सरकार खुद इस कानून से डरने लगी है.

उसे लगता है कि उसकी मौजूदा राजनीतिक मुश्किलों खासकर भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों के खुलासे के लिए काफी हद तक यह कानून जिम्मेदार है. इस कानून के कारण भ्रष्टाचार के विभिन्न मामलों में ऐसी कई सूचनाएं आईं हैं जिनके कारण सरकार डावांडोल होती दिखाई दे रही है.

उदाहरण के लिए, कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचना के अधिकार कानून के जरिये हासिल किये गए वित्त मंत्रालय के नोट को लीजिए. इसके कारण न सिर्फ वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और गृह मंत्री पी. चिदंबरम के बीच जारी शीत युद्ध खुलकर सामने आ गया बल्कि २ जी घोटाले को रोकने में तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम की विफलता भी सवालों के घेरे में आ गई.

इससे पहले २ जी घोटाले में प्रधानमंत्री और तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा के पत्राचार से लेकर और कई महत्वपूर्ण जानकारियां सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके ही हासिल की गईं. इसके अलावा कामनवेल्थ घोटाले से लेकर आदर्श हाउसिंग घोटाले तक में सरकार की किरकिरी करानेवाली कई जानकारियां इस कानून के जरिये ही सामने आईं.

इस कारण यू.पी.ए सरकार और खासकर कांग्रेस को यह लगने लगा है कि सूचना के अधिकार कानून की ‘क्रांति’ अपनी ही संतान यानि मनमोहन सिंह सरकार को खाने पर उतारू हो गई है. इसलिए सरकार की इस कानून को लेकर नाराजगी और असहजता बढ़ती जा रही है.

यही वजह है कि पिछले कुछ सप्ताहों में केन्द्र सरकार के तीन महत्वपूर्ण कैबिनेट मंत्रियों – वीरप्पा मोइली, सलमान खुर्शीद और अम्बिका सोनी ने सूचना के अधिकार कानून के कारण सरकार चलाने में आ रही परेशानियों का जिक्र करते हुए इस कानून में संशोधन की जरूरत बताई है. अब खुद प्रधानमंत्री मैदान में उतर आए हैं. उन्होंने पिछले कुछ वर्षों के अनुभव के आलोक में इस कानून की आलोचनात्मक समीक्षा की वकालत की है.

आखिर प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट मंत्रियों को यह जरूरत क्यों महसूस हो रही है? उन्हें इस कानून से क्या शिकायतें हैं? सूचना के अधिकार पर केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा पिछले शुक्रवार को आयोजित सम्मेलन में मुख्य रूप से प्रधानमंत्री की दो शिकायतें सामने आईं.

पहली, इस कानून का फायदा उठाकर बहुतेरे फर्जी और सतही आवेदन डाले जा रहे हैं जिनका जवाब देने में सरकारी महकमों और अधिकारियों की बहुत सारी उर्जा और समय जाया हो रहा है. इससे सरकार का कामकाज प्रभावित हो रहा है. दूसरे, इस कानून के कारण सरकार के अंदर खुली और बेबाक चर्चा और विचार-विमर्श पर भी असर पड़ रहा है. अधिकारी और मंत्री अपनी स्पष्ट और ईमानदार राय देने से बच रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री का इशारा फ़ाइल नोटिंग की ओर है जिसे सूचना के अधिकार के तहत माँगा जा सकता है. असल में, सरकार में सभी महत्वपूर्ण फैसले और नीतिगत निर्णय फाइलों पर लिए जाते हैं जिसमें विभिन्न विभागों के निचले अधिकारी से लेकर सर्वोच्च अधिकारियों और मंत्रियों की नोटिंग या टिप्पणियां होती हैं.

इन टिप्पणियों में उन आधारों/कारणों/नियमों/पूर्व निर्णयों का हवाला होता है जिसके आधार पर सक्षम अधिकारी अंतिम फैसला लेता है. इसी तरह, किसी फैसले पर पहुँचने से पहले बैठकों में हुई चर्चा भी मीटिंग के मिनट्स दर्ज की जाती है.

हालांकि नौकरशाही शुरू से इसकी विरोधी रही है और यू.पी.ए सरकार ने कोई ढाई साल पहले फ़ाइल नोटिंग को आर.टी.आई के दायरे से बाहर रखने के लिए कानून में संशोधन तक की कोशिश की. लेकिन भारी विरोध के कारण सरकार को पीछे हटना पड़ा और काफी हीला-हवाली और ना-नुकुर के बाद आखिरकार सरकार को मानना पड़ा कि सूचना के अधिकार कानून के तहत आवेदकों के मांगने पर सरकारी विभाग और मंत्रालय फ़ाइल नोटिंग्स/मिनट्स उपलब्ध कराएँगे.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि आर.टी.आई में इस प्रावधान के कारण सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ी है. नौकरशाहों और मंत्रियों को नोटिंग करते हुए अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ती है.

निश्चय ही, इसके कारण फैसलों और नीतिगत निर्णयों में अनियमितताओं, भ्रष्टाचार और तोड़-मरोड़ की गुंजाइश कम हुई है. याद रहे कि भ्रष्टाचार और अनियमितताएं हमेशा गोपनीयता के अंधेरों में फलती-फूलती हैं. यही नहीं, प्रधानमंत्री की चिंता के विपरीत इससे ईमानदार नौकरशाहों और मंत्रियों के लिए निर्भीक होकर काम करना और अपनी स्पष्ट और बेबाक राय देना ज्यादा आसान हुआ है.

इस प्रावधान के कारण उनपर मनमाने फैसले लेने का दबाव कम हुआ है. सच पूछिए तो ईमानदार अफसरों और मंत्रियों के लिए आर.टी.आई और खासकर उसका यह प्रावधान बहुत बड़ा संरक्षण और अनुचित दबावों के आगे खड़ा होने का आधार बना है.

इस कारण यह समझना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री समेत उनकी कैबिनेट के कई मंत्री इस प्रावधान को सरकार के कामकाज में बाधा क्यों मान रहे हैं? वे किस अनुभव के आधार पर ऐसा कह रहे हैं कि इस प्रावधान के कारण नौकरशाहों और मंत्रियों को निर्भीक, बेबाक और ईमानदार राय देने में संकोच हो रहा है?

क्या यह सच नहीं है कि हम वह राय देने में संकोच करते हैं जिसका बाद में सार्वजनिक तौर पर कानूनी और नैतिक रूप से बचाव करना मुश्किल हो? अगर हमें पता हो कि किसी बैठक में कही या फ़ाइल पर लिखी टिप्पणी कल को सार्वजनिक हो सकती है तो हम न सिर्फ जिम्मेदारी से और खूब सोच-समझकर टिप्पणी करेंगे बल्कि मनमानी और हडबडी से बचेंगे.

सच यह है कि यह प्रावधान आर.टी.आई कानून की आत्मा है क्योंकि सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए सिर्फ यह जानना काफी नहीं है कि सरकार का फैसला क्या है?

उससे कई गुना महत्वपूर्ण यह जानना है कि वह फैसला कैसे और किन आधारों पर हुआ और उनमें विभिन्न अधिकारियों/मंत्रियों की राय क्या थी? कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रावधान के बिना आर.टी.आई भी एक सजावटी कानून बनकर रह जाएगा.

लगता है कि आर.टी.आई के मामले में इतिहास को पलटने की कोशिश हो रही है. यहाँ क्रांति नहीं, संतान खुद क्रांति को खाने के लिए बेचैन दिख रही है. आर.टी.आई कानून में संशोधन की पेशकश इसी का सबूत है.

(दैनिक 'नया इंडिया' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १७ अक्तूबर को प्रकाशित आलेख)

शुक्रवार, अक्तूबर 14, 2011

गरीबी ही नहीं, बढ़ती गैर बराबरी भी बड़ा मुद्दा है

अमीरों और गरीबों के बीच खाई तेजी से बढ़ रही है


योजना आयोग की शहरों में ३२ रूपये और गाँवों में २६ रूपये प्रतिदिन की गरीबी रेखा ने राष्ट्रीय जनमानस को झकझोर कर रख दिया है. इसके खिलाफ पूरे देश में हैरानी, गुस्से और प्रतिवाद के तीखे सुर सामने आए हैं. यह स्वाभाविक भी है. सवाल उठ रहे हैं कि क्या इसमें दोनों जून भरपेट भोजन भी संभव है?

खासकर हाल के वर्षों में जिस तरह से खाद्य वस्तुओं और जिंसों के अलावा बुनियादी जरूरत की सभी चीजों और सेवाओं की महंगाई आसमान छू रही है, उसके कारण आम आदमी का जीना दूभर होता जा रहा है. यही कारण है है कि कई विश्लेषक इसे गरीबी नहीं, भूखमरी रेखा कह रहे हैं.

लेकिन इस हवाई गरीबी रेखा ने पूरे देश को इसलिए भी चौंकाया है क्योंकि गरीबी निरंतर असह्य होती जा रही है. इसकी वजह यह है कि देश के तेजी से बदलते आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में दिन पर दिन गरीबों का जीना मुहाल होता जा रहा है.

पिछले डेढ़-दो दशकों में देश में जिस तरह से अमीरों और गरीबों के बीच की खाई तेजी से बढ़ी और चौड़ी हुई है, उसके कारण गरीबी का दंश और गहरा और तीखा हुआ है. यह किसी से छुपा नहीं है कि देश में एक ओर अरबपतियों की संख्या और उनकी दौलत में दिन दूनी, रात चौगुनी बढोत्तरी हो रही है, वहीँ दूसरी ओर, गरीबों की हालत बाद से बदतर होती जा रही है.

असल में, पिछले कुछ दशकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के डेढ़ दशक में देश में जिस तरह से आर्थिक गैर बराबरी और विषमता बढ़ी है, उसके कारण गरीबी अधिक चुभने लगी है. ७० और कुछ हद तक ८० के दशक शुरूआती वर्षों तक देश में गरीबी और अमीरी के बीच इतना गहरा और तीखा फर्क नहीं दिखाई देता था, जितना आज दिखने लगा है.

इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में पारंपरिक अमीरों के अलावा नई आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर एक नया दौलतिया वर्ग पैदा हुआ है जिसकी अमीरी और उसके खुले प्रदर्शन ने गरीबों और निम्न मध्यम वर्गों में गहरी वंचना का अहसास भर दिया है.

इसकें कोई शक नहीं है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में तेजी आई है. वह दो से तीन फीसदी के हिंदू वृद्धि दर के दौर से बाहर निकलकर सात से नौ फीसदी रफ़्तार वाले हाई-वे पर पहुँच गई है. इस तेज वृद्धि दर के साथ देश में बड़े पैमाने पर सम्पदा और समृद्धि भी पैदा हुई है.

लेकिन इसके साथ ही, यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि यह समृद्धि कुछ ही हाथों में सिमटकर रह गई है. इसका समान और न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं हुआ है. इसका नतीजा यह हुआ है कि इस दौर में जहाँ अमीरों और उच्च मध्यवर्ग की संपत्ति और समृद्धि में तेजी से इजाफा हुआ है, वहीँ गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की स्थिति और खराब हुई है.

सच तो यह है कि पिछले एक दशक में अमीरी अश्लीलता की हद तक और गरीबी अमानवीयता की हद तक पहुँच गई है. इसे देखने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है. आप देश के बड़े महानगरों और शहरों के शापिंग माल्स में चले जाइए. वहां देश-दुनिया के बड़े-बड़े ब्रांडों के उपभोक्ता सामानों की मौजूदगी और उनकी चमक-दमक आँखें चौंधियाने के लिए काफी हैं.

यही नहीं, आज देश में दुनिया के सबसे बड़े लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद मौजूद हैं और अच्छा कारोबार कर रहे हैं. उनके कारण आज लन्दन-पेरिस-न्यूयार्क और दिल्ली-मुंबई-बेंगलुरु-हैदराबाद में कोई खास फर्क नहीं रह गया है.

नतीजा, देश में अमीरों और उच्च मध्यवर्ग के उपभोग स्तर और दुनिया के अन्य मुल्कों के अमीरों के उपभोग स्तर में कोई खास फर्क नहीं रह गया है. आज देश में बड़े अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडों की लाखों-करोड़ों की घड़ियाँ, कारें, ज्वेलरी, सूट, फोन सहित भांति-भांति के इलेक्ट्रानिक साजों-सामान और यहाँ तक कि खाने-पीने की चीजें भी उपलब्ध हैं.

जाहिर है कि इनके उपभोगकर्ताओं की संख्या और उनके उपभोग की भूख दोनों बढ़ी है. सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब अब दबे-छिपे नहीं बल्कि खुलकर और सबको दिखाकर हो रहा है. देश के एक बड़े उद्योगपति का ४५०० करोड़ रूपये का आलीशान बंगला हो या दूसरे उद्योगपति का प्राइवेट जेट या तीसरे की निजी लक्जरी नौका या चौथे की पांच करोड़ की कार.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह सूची बहुत लंबी हो सकती है. लेकिन यहाँ इनके उल्लेख का अर्थ सिर्फ इतना है कि जिस देश में कोई ७८ फीसदी से अधिक लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर-बसर करने के लिए अभिशप्त हों, वहां अमीरी की यह तड़क-भड़क और उसका खुला प्रदर्शन सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता नहीं तो और क्या है?

देश में बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी और विषमता का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सबसे अमीर १० फीसदी लोग देश के कुल उपभोग व्यय का ३१ फीसदी गड़प कर जाते हैं, सबसे अमीर और उच्च मध्यवर्ग के २० फीसदी लोग कुल उपभोग व्यय के ४५ फीसदी चट कर जाते हैं जबकि सबसे गरीब १० फीसदी लोगों के हिस्से कुल उपभोग व्यय का मात्र ३.६ फीसदी हिस्सा आता है.

यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री को कुछ साल पहले उद्योगपतियों के सम्मेलन में कहना पड़ा कि इस तरह का ‘दिखावे का उपभोग’ समाज के लिए अच्छा नहीं है और इससे बचा जाना चाहिए. यह और बात है कि खुद प्रधानमंत्री ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया बल्कि उनकी सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण यह सामाजिक-आर्थिक अश्लीलता सफलता का पैमाना बनती जा रही है.

यही नहीं, इस दौर में आज़ादी के आंदोलन के दौर में बने सादगी, संतोष और मितव्ययिता जैसे सामाजिक-राजनीतिक मूल्य लगातार बेमानी होते चले गए हैं. नए मूल्य यह हैं - ‘ग्रीड इज गुड’ यानी लालच अच्छी बला है, मोक्ष का रास्ता उपभोग, और अधिक उपभोग है और कर्ज लेकर घी पीएं.

आश्चर्य नहीं कि पिछले डेढ़-दो दशकों में समावेशी विकास के नारों के बीच देश में गैर बराबरी बेतहाशा बढ़ी है. तथ्य यह है कि अगर आज इस देश में नरेगा के तहत मिलनेवाली न्यूनतम मजदूरी १०० रूपये प्रतिदिन (मासिक ३००० रूपये) और कारपोरेट क्षेत्र के अधिकांश सी.इ.ओ की १० लाख से एक करोड़ रूपये मासिक की तनख्वाह को आधार मानें तो देश में आय के स्तर पर गैर बराबरी बढ़ते-बढ़ते ३००:१, ५००:१ के अनुपात और यहाँ तक कि १०००:१ के असह्य स्तर से भी ऊपर पहुँच गई है. यहाँ तक कि भारत सरकार के सबसे आला अधिकारियों यानी सचिवों की मासिक तनख्वाह और नरेगा की मासिक मजदूरी के बीच ५००:१ का अनुपात बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी का एक और उदाहरण है.

याद रहे कि देश में योजना की शुरुआत में १०:१ के आर्थिक गैर बराबरी अनुपात को कुछ हद तक बर्दाश्त लायक माना गया था. इसी तरह, मैनजमेंट गुरु पीटर ड्रकर ने कारपोरेट क्षेत्र के लिए २०:१ का अनुपात सुझाया था लेकिन आय और उपभोग के स्तर पर मौजूदा गैर बराबरी को देखते लगता है कि यह किसी सतयुग की बात है.

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि इस दौर में तेज आर्थिक विकास के बावजूद न सिर्फ रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं बल्कि रोजगार की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है. देश में अभी भी कुल श्रम शक्ति का ९२ फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम करने और उससे गुजर चलने के लिए बाध्य है.

यही नहीं, सी.ई.ओ से लेकर सरकारी नौकरशाहों की तनख्वाहों में भारी इजाफा हुआ है लेकिन न्यूनतम मजदूरी गरीबी रेखा की तरह अतीत में अंटकी हुई है. निजी क्षेत्र का तेजी से विस्तार हुआ है लेकिन उसमें रोजगार के संविदाकरण और अस्थाईकरण के अलावा श्रम कानूनों का उल्लंघन बढ़ा है.

दूसरी ओर, कृषि क्षेत्र पर आबादी के साठ प्रतिशत की निर्भरता के बावजूद कुल जी.डी.पी में उसका हिस्सा घटता हुआ मात्र १४ फीसदी रह गया है. मतलब ६० फीसदी आबादी को देश की कुल आय में सिर्फ १४ फीसदी हिस्सा मिल रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सबके कारण गैर बराबरी बढ़ती और बर्दाश्त से बाहर होती जा रही है.

योजना आयोग की गरीबी (गल्प) रेखा इसलिए और चुभने और बेमानी लगने लगी है.

('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर १४ अक्तूबर को प्रकाशित लेख)

शुक्रवार, अक्तूबर 07, 2011

संकट में फंसती वैश्विक अर्थव्यवस्था

यू.पी.ए सरकार को अपनी निश्चिंतता और आत्मविश्वास से बाहर निकलना होगा    



वैश्विक अर्थव्यवस्था पर एक बार फिर से संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे हैं. दिन पर दिन यह आशंका जोर पकड़ती जा रही है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था दोबारा आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है. खुद विश्व बैंक के अध्यक्ष राबर्ट जोलिक और मुद्रा कोष की प्रमुख क्रिस्टिन लगार्ड ने भी स्वीकार किया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के फिर से लड़खड़ाने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं. इस मामले में दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं खासकर यूरोपीय और अमेरिकी अर्थव्यवस्था से आ रहे संकेत बहुत निराशाजनक हैं.


वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बढ़ते खतरे का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अभी पिछले सप्ताह अमेरिकी केन्द्रीय बैंक- फेडरल रिजर्व ने यह स्वीकार किया कि पिछली मंदी से उबरने की कोशिश कर रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की रफ़्तार न सिर्फ अपेक्षा से बहुत धीमी है बल्कि उसे पटरी पर आने में उम्मीद से कहीं अधिक यानी कई बरसों का समय लग सकता है.

हालांकि फेडरल रिजर्व ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए ४०० अरब डालर से अधिक के मौद्रिक उपायों की घोषणा की है लेकिन अधिकांश विश्लेषकों को लगता है कि इन उपायों से संकट नहीं दूर होनेवाला है.

वित्तीय बाजार को यह सच्चाई मालूम है. आश्चर्य नहीं कि फेडरल रिजर्व की इन घोषणाओं के तुरंत बाद अमेरिकी शेयर बाजारों से लेकर यूरोपीय और एशियाई शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई है. यहाँ तक कि भारतीय बाजार भी इससे अछूते नहीं रहे.

असल में, फेडरल रिजर्व के मौद्रिक उपायों की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं. मुश्किल यह है कि फेडरल रिजर्व के इन उपायों में नया कुछ नहीं है और वह इन्हें पिछले तीन-साढ़े तीन वर्षों में कई बार आजमा चुका है. इसका बहुत फायदा नहीं हुआ है.

एक बार हाथ जला चुके बैंक कर्ज देने में अतिरिक्त सतर्कता बरत रहे हैं जबकि पिछले संकट के दौरान घर गंवाने से लेकर भारी देनदारी की मार झेल चुके आम अमेरिकी भी कर्ज लेने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं.

इस कारण माना जा रहा है कि फेड के ताजा उपाय अँधेरे में तीर चलाने की तरह हैं. लेकिन उससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए फेड के तरकश में अब और कोई तीर नहीं बचा है.

असल में, मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट वर्ष २००७-०८ के वित्तीय संकट से कई मायनों में अलग और अधिक खतरनाक है. पहली बात यह है कि पिछली बार का संकट मूलतः अमेरिका और उसके निजी वित्तीय संस्थाओं/बैंकों के जोखिमपूर्ण उधारियों के कारण पैदा हुआ था. इससे पूरे वित्तीय ढांचे की स्थिरता पर खतरा मंडराने लगा था.

लेकिन इस बार संकट यूरोप के कई देशों खासकर ग्रीस, आयरलैंड, पुर्तगाल और कुछ हद तक स्पेन और इटली जैसे देशों के अपनी देनदारियों को चुकाने में नाकाम रहने के डर से पैदा हुआ है. इस आशंका मात्र से वित्तीय बाजार में खलबली मची हुई है.

खासकर यह डर बढ़ता जा रहा है कि अगले कुछ दिनों में यूरोपीय संघ ने ग्रीस की अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाने के लिए ठोस फैसला नहीं किया तो ग्रीस का अपनी देनदारियों पर डिफाल्ट करना तय है. यही नहीं, ग्रीस के बाद अगले कुछ सप्ताहों और महीनों में आयरलैंड और पुर्तगाल समेत कुछ और यूरोपीय देशों के सामने भी डिफाल्ट करने का खतरा होगा.

लेकिन यूरोपीय देशों का राजनीतिक नेतृत्व संकट से निपटने के लिए वित्तीय घाटे को कम करने और सरकारी खर्चों में भारी कटौती करने की रणनीति पर चल रहा है जिससे समस्या और गंभीर होती जा रही है.

इस रणनीति का असर यह हुआ है कि इन अर्थव्यवस्थाओं की गति और धीमी हुई है और दूसरी ओर, लोगों का गुस्सा सड़कों पर निकल रहा है. आर्थिक अस्थिरता के साथ-साथ राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ रही है.

दूसरी ओर, विश्व अर्थव्यवस्था की इंजन माने जानेवाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार से यह उम्मीद भी खत्म होने लगी है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार का सकारात्मक असर यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. रही-सही कसर चीन और भारत जैसे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं की सुस्त पड़ती रफ़्तार के साथ पूरी हो गई है.

सन्देश साफ है कि संकट आ चुका है और उससे भारत भी अछूता नहीं रहेगा. इसके संकेत मिलने लगे हैं. आर्थिक वृद्धि की दर धीमी पड़ रही है. खासकर मैन्युफक्चरिंग और बुनियादी उद्योग क्षेत्र की वृद्धि की गति में काफी गिरावट दर्ज की गई है. शेयर बाज़ार में अस्थिरता बढ़ती जा रही है. रूपये की कीमत में तेज गिरावट के कारण आयात खासकर पेट्रोलियम का आयात मंहगा हो रहा है.

अभी तक निर्यात में भारी वृद्धि दिखाई दे रही थी लेकिन वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच उसका धीमा पड़ना तय मना जा रहा है. दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर रिजर्व बैंक के तमाम मौद्रिक उपायों के बावजूद अभी भी काफी ऊंचाई पर बनी हुई है.

इससे भारत के सामने दोहरी समस्या खड़ी हो गई है. चुनौती यह है कि किस तरह मुद्रास्फीति पर काबू पाते हुए विकास की रफ़्तार को बनाए रखा जाए? कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार को दोनों मोर्चों पर एक साथ पहल करनी होगी.

पहला यह कि घरेलू मांग को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में बढ़ाना होगा ताकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, लोगों की आय बढ़े और घरेलू मांग बनी रहे. इस कारण उसे वित्तीय घाटे की चिंता फिलहाल भूल जानी चाहिए.

दूसरे, सरकार को मुद्रास्फीति से निपटने के लिए केवल मौद्रिक नीतियों पर निर्भर रहने के बजाय आपूर्ति पक्ष खासकर खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति पर अधिक जोर देना चाहिए. अच्छी खबर यह है कि इस साल मानसून अच्छा रहा है और रबी की फसल अच्छी रहने की उम्मीद है.

लेकिन मुश्किल यह है कि घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार नीतिगत पक्षाघात की शिकार हो गई है और कोई फैसला नहीं कर पा रही है. सरकार का पूरा जोर अपने राजनीतिक बचाव और मंत्रियों के झगडे में जाया हो रहा है. उसके मौजूदा रवैये से लगता नहीं है कि वैश्विक आर्थिक संकट के मद्देनजर भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट का मुद्दा उसकी प्राथमिकताओं में कहीं है.

अगर यही हाल जारी रहा तो भारतीय अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने से बचाना संभव नहीं होगा. चिंता की बात यह है कि इसके संकेत मिलने लगे हैं.


('सरिता' में १५ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित आलेख)


गुरुवार, अक्तूबर 06, 2011

क्या अमीरों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए?


यूरोप और अमेरिका की तरह भारतीय अमीरों को भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझनी होगी




वैश्विक आर्थिक संकट के गहराते बादलों के बीच अमेरिका और यूरोप में अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने को लेकर एक दिलचस्प बहस शुरू हो गई है. अमेरिकी अरबपति वारेन बफे ने अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने की वकालत की है. बफे ने अपने घरेलू टैक्स ढांचे की इस बात के लिए तीखी आलोचना की है कि अरबपति होने के बावजूद उनपर लगनेवाली प्रभावी टैक्स दर उनकी निजी सचिव की आय पर लगनेवाली टैक्स दर से कम है.

बफे की तर्ज पर ही फ़्रांस के १६ सबसे अमीरों और जर्मनी के ५० सुपर अमीरों ने सार्वजनिक रूप से अपनी सरकारों से अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग की है.

यही नहीं, इटली में फेरारी कार बनानेवाली कम्पनी के मालिक लुका मोंटज़मेलो ने भी अमीरों को अधिक कर देने का समर्थन किया है. इससे न सिर्फ अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग ने जोर पकड़ा है बल्कि अमेरिका के अलावा यूरोप में इटली और फ़्रांस की सरकारों ने इस दिशा में कदम भी बढ़ा दिया है.

माना जा रहा है कि भारी कर्ज, घाटे के साथ अपनी देनदारियों पर डिफाल्ट की आशंकाओं के बीच फंसी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं ने स्थिति को सँभालने के लिए जिस तरह से अपने खर्चों में बड़े पैमाने पर कटौतियां की हैं, उसका सीधा असर सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर पड़ा है जिसके कारण आम लोगों का रहन-सहन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है.
आम लोग खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं. उन्हें लगने लगा है कि वित्तीय-आर्थिक संकट का सारा बोझ उनपर थोप दिया गया है जबकि अमीरों को पहले की तरह कम टैक्स देना पड़ रहा है. उनकी आय उसी तेजी से बढ़ रही है. बड़ी कंपनियों के मालिकों और उनके टॉप मैनेजरों की तनख्वाहों, बोनस और लाभांशों से होनेवाली आय में कोई कटौती नहीं हुई है. यही नहीं, सरकारी खजाने की कीमत पर दिए गए बेल आउट पैकेज का सारा लाभ भी बड़े कार्पोरेट्स और अमीर उठा रहे हैं.

जाहिर है कि इससे अमेरिका खासकर यूरोप में सामाजिक-राजनीतिक असंतोष बढ़ रहा है. लोगों का गुस्सा सड़कों पर फूट रहा है. यहाँ तक कि अमेरिका में कारपोरेट ताकत के प्रतीक वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने का अभियान जोर पकड़ रहा है. इस तरह एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा की तर्ज पर आर्थिक संकट तेजी से राजनीतिक अस्थिरता और संकट की ओर बढ़ने लगा है. आर्थिक संकट और फिर से वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच राजनीतिक अस्थिरता से बुरी खबर और कोई नहीं हो सकती है.

इसे वारेन बफे जैसे अरबपति अमीरों से ज्यादा बेहतर और कौन जानता है? उन्हें अच्छी तरह से पता है कि जन भावनाएं किधर जा रही हैं. आश्चर्य नहीं कि अमेरिका में दो तिहाई से ज्यादा लोग अमीरों पर टैक्स बढ़ाने के पक्ष में हैं. यही हाल यूरोप का भी है. इस मांग के पक्ष में बहुत ठोस तथ्य और तर्क भी हैं.

तथ्य यह है कि पिछले ३० वर्षों में अमेरिका और यूरोप समेत भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में न सिर्फ अमीरों और कार्पोरेट्स की आय पर लगनेवाले टैक्स की दरों में काफी कमी आई है बल्कि करों में छूटों और रियायतों के कारण प्रभावी टैक्स दरें और कम हो गई हैं.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल से शुरू हुई टैक्स दरों में कटौती के कारण अधिकतम टैक्स दर ७० प्रतिशत से घटकर २८ प्रतिशत तक आ गई जबकि ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर के कार्यकाल में १९७९ से १९८८ के बीच अधिकतम टैक्स दर ८३ फीसदी से घटकर ४० फीसदी रह गई.

यही नहीं, वर्ष २००७ में अधिकांश अमीर देशों में कारपोरेट टैक्स दर औसतन २८ फीसदी थी जो कि ८० के दशक में औसतन ४० फीसदी के आसपास थी. आश्चर्य नहीं कि इस बीच अमीरों की आय में तेजी से वृद्धि हुई है. अकेले अमेरिका में एक फीसदी सर्वाधिक अमीर देश के वास्तविक जी.डी.पी के ५८ फीसदी को गड़प कर जा रहे हैं.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि ऐसे अनेकों महत्वपूर्ण तथ्यों और तर्कों ने विकसित देशों में मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने के पक्ष में मजबूत जनमत तैयार कर दिया है.

लेकिन अब यह बहस भारत भी पहुँच गई है. पूर्व वित्त मंत्री और मौजूदा गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने आल इंडिया मैनेजमेंट एसोसियेशन के सम्मेलन में अमीरों को और अधिक टैक्स देने के लिए तैयार रहने को कहा है. ये वही चिदंबरम हैं जिन्होंने ९७-९८ में संयुक्त मोर्चा सरकार और बाद में यू.पी.ए सरकार के वित्त मंत्री के बतौर आयकर और कारपोरेट टैक्स की दरों में भारी कटौती की थी. उनके कुछ बजटों को कारपोरेट क्षेत्र आज भी ड्रीम बजट के रूप में याद करता है.

लेकिन यूरोप और अमेरिका के उलट अभी देश को किसी भारतीय वारेन बफे का इंतज़ार है जो आगे बढ़कर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने की वकालत करे. सच यह है कि चिदंबरम के प्रस्ताव पर भारतीय अमीरों और कार्पोरेट्स की प्रतिक्रिया बहुत ठंडी है.

यही नहीं, भारतीय अमीरों और कार्पोरेट्स की लंबे समय से यह शिकायत है कि उनपर टैक्स का बहुत ज्यादा बोझ है. हर बजट से पहले उद्योग जगत टैक्स दरों में कटौती के लिए लाबीइंग करता हुआ दिखाई पड़ता है. इसलिए यह तय है कि भारत में अमीरों और कार्पोरेट्स पर टैक्स बढ़ाने का इन वर्गों की ओर से विरोध होगा.

लेकिन इस सच्चाई से शायद ही कोई इनकार कर सके कि भारत में भी बढ़ते राजकोषीय घाटे और सामाजिक क्षेत्र की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी राजस्व को बढ़ाना बहुत जरूरी हो गया है. यह इसलिए भी जरूरी है कि भारत में आय कर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दरें अधिकांश विकसित देशों और विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हैं. यही नहीं, भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात भी दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत कम है.

इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आयकर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दर ३३ फीसदी होने के बावजूद विभिन्न छूटों और रियायतों के कारण भारत में अमीरों खासकर कारपोरेट क्षेत्र पर लगनेवाली प्रभावी टैक्स दर सिर्फ २३ फीसदी रह जाती है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में अनेक छूटों और रियायतों के कारण केन्द्र सरकार ने वर्ष २००९-१० में कोई पांच लाख करोड़ रूपये से अधिक का राजस्व गँवा दिया.

जाहिर है कि यह स्थिति न सिर्फ अस्वीकार्य है बल्कि लंबे समय तक नहीं चल सकती है. भारत के सुपर अमीरों को भी त्याग करने के लिए आगे आना होगा. आखिर उनकी समृद्धि देश की तरक्की और समृद्धि पर टिकी है. अमेरिका और यूरोप के अरबपतियों को यह अहसास हो चुका है. भारतीय अमीर इससे कब तक आँख चुराएंगे?

('राजस्थान पत्रिका' में ५ अक्तूबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित मुख्य लेख)

बुधवार, अक्तूबर 05, 2011

मोदी पर मोहित चैनल


चैनल जाने-अनजाने इवेंट मैनेजमेंट उद्योग के हिस्सा बनते जा रहे हैं



न्यूज चैनलों की कई कमजोरियों में से एक बड़ी कमजोरी यह है कि उन्हें पूर्वनियोजित घटनाएँ यानी इवेंट बहुत आकर्षित करते हैं. खासकर अगर उस इवेंट से कोई बड़ी शख्सियत जुड़ी हो, उसमें ड्रामा और रंग हो, कुछ विवाद और टकराव हो और उसमें चैनलों के लिए ‘खेलने और तानने’ की गुंजाइश हो तो चैनल उसे हाथों-हाथ लेते हैं.

चैनलों की इस कमजोरी की कई वजहें हैं. पहली बात तो यह है कि दृश्य-श्रव्य मध्यम होने के नाते विजुअल उनकी सबसे बड़ी कमजोरी हैं. वे हमेशा विजुअल की खोज में रहते हैं. इवेंट्स में उन्हें बहुत आसानी से विजुअल मिल जाते हैं. उन्हें इसके लिए अपने दिमाग पर बहुत जोर नहीं लगाना पड़ता है क्योंकि इवेंट्स में उन्हें सब कुछ बना-बनाया मिल जाता है.

दूसरे, इवेंट्स को कवर करने के लिए उन्हें कोई खास खर्च नहीं करना पड़ता है. यही नहीं, ऐसे इवेंट्स कई बार प्रायोजित भी होते हैं जिन्हें कवर करने के बदले चैनलों को मोटी रकम मिलती है. तीसरे, इवेंट्स के लाइव कवरेज और उसपर स्टूडियो चर्चाओं में चैनलों को अपनी ओर से भी ड्रामा, विवाद और सस्पेंस रचने का मौका मिल जाता है. इससे उन्हें अधिक से अधिक दर्शक खींचने में भी मदद मिलती है.

चैनलों की इस कमजोरी से राजनेता से लेकर कारपोरेट जगत तक और अभिनेता-खिलाड़ी से लेकर धर्म गुरुओं तक सभी वाकिफ हैं. वे इसका खूब इस्तेमाल भी करते हैं. वे मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में प्रचार पाने और सुर्ख़ियों में बने रहने के लिए जमकर मीडिया इवेंट आयोजित करते हैं. आखिर उनका काफी हद तक धंधा सुर्ख़ियों में बने रहने से टिका है.

आश्चर्य नहीं कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को भुनाने और अपने क्लाइंट्स को अधिक से अधिक प्रचार देने और सुर्ख़ियों में बनाए रखने के लिए इवेंट मैनजमेंट का एक विशाल उद्योग खड़ा हो गया है. इसके अलावा पी.आर एजेंसियां इस धंधे में पहले से हैं.

इवेंट्स या पी.आर मैनेजरों का एक बड़ा काम यह है कि वे अपने क्लाइंट्स (राजनेताओं, कारपोरेट प्रमुखों, अभिनेताओं, खिलाडियों आदि) के लिए ऐसे इवेंट्स आयोजित करें जो न सिर्फ मीडिया को ललचाए बल्कि उनके क्लाइंट और उसके सन्देश को सकारात्मक कवरेज दिलवाने में मदद करे.

कई ‘मीडिया सुजान’ नेताओं की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को अच्छी तरह जानते हैं. वे यह भी जानते हैं कि सुर्खियाँ कैसे बनाई जाती हैं और सुर्ख़ियों में कैसे रहा जाता है? इसलिए जब उन्हें लगा कि मौजूदा राजनीतिक उथलपुथल के बीच २०१४ के आम चुनावों के मद्देनजर अब राष्ट्रीय राजनीति और खासकर भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद के लिए दावा ठोंकने का समय आ गया है तो उन्होंने एक मीडिया इवेंट आयोजित करने में देर नहीं लगाई. मोदी और उनकी टीम को इस राजनीतिक मीडिया इवेंट का स्वरुप तय करने में ज्यादा दिमाग नहीं खर्च करना पड़ा. अन्ना हजारे और उनके अनशन इवेंट की शानदार सफलता उनके सामने थी.

आश्चर्य नहीं कि बगैर देर किये मोदी ने गुजरात में सद्भावना के लिए तीन दिनों का अनशन करने का एलान कर दिया. मोदी के तीन दिनों के अनशन के लिए गुजरात विश्वविद्यालय के विशाल एयरकंडीशन हाल में मंच सजाया गया, उसे सद्भावना मिशन का नाम दिया गया, लोग खासकर टोपियां पहने मुसलमान इक्कट्ठा किये गए, भाजपा और एन.डी.ए के बड़े नेताओं को बुलाया गया और करोड़ों रूपये खर्च करके देश भर के अखबारों में विज्ञापन दिया गया. न्यूज चैनलों के लाइव कवरेज के लिए विशेष इंतजाम किये गए, रिपोर्टरों और खासकर दिल्ली से बुलाए स्टार रिपोर्टरों/एंकरों की पूरी आवभगत की गई.

उसके बाद क्या हुआ, वह इतिहास है. कल तक अन्ना हजारे की सेवा में लगा ‘डिब्बा’ मोदी सेवा में भी पीछे नहीं रहा. तीन दिनों तक मोदी चैनलों के परदे पर छाए रहे और हर दिन उनकी छवि और बड़ी होती गई. मोदी के अलावा दूसरे भाजपा और एन.डी.ए नेताओं के भाषण लाइव दिखाए गए जिसमें मोदी के गुणगान और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में आने और बड़ी भूमिका निभाने की अपीलें की गईं. चैनलों ने थोक के भाव में मोदी के ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाए. प्राइम टाइम चर्चाओं में मोदी बनाम राहुल गाँधी से लेकर मोदी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता पर घंटों चर्चा हुई. मोदी को बिना किसी गहरी जांच-पड़ताल के विकास पुरुष और सुशासन के प्रतीक के रूप में पेश किया गया.

हालांकि इन रिपोर्टों, साक्षात्कारों और चर्चाओं में गुजरात के २००२ के दंगों और उसमें मोदी की भूमिका की भी खूब चर्चा हुई और सवाल भी पूछे गए लेकिन कुल-मिलाकर उसे एक ‘विचलन’ (एबेरेशन) की तरह पेश करने की कोशिश की गई. २००२ को १९८४ के सिख नरसंहार और अन्य दंगों के बराबर ठहराने के प्रयास हुए.

यही नहीं, २००२ को भूलने और आगे देखने की सलाहें दी गई. इसके लिए गुजरात के कथित विकास का मिथ गढा जा रहा है. बहुत सफाई और बारीकी से कहा जा रहा है कि मोदी ने गुजरात में विकास की गंगा बहा दी है. राज्य बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है. राज्य में सुशासन है.

साफ है कि यह मोदी ब्रांड की नई मार्केटिंग रणनीति है जिसमें मोदी पर लगे दागों को ‘विकास की चमक’ में छुपाने की कोशिश की जा रही है. यही नहीं, चैनलों में मोदी भक्तों की कभी कमी नहीं रही है लेकिन अब वे खुलकर सामने आने लगे हैं.

‘आपको आगे रखनेवाले’ चैनल के एक ऐसे ही स्टार एंकर/रिपोर्टर तो मोदी से इतने प्रभावित दिखे कि एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में अपनी पक्षधरता छुपाये बिना नहीं रह सके. सवाल पूछते हुए कहा कि ‘मैं निजी तौर पर मानता हूँ कि देश की जनता आपको प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहती है.’ क्या बात है? इस महान रिपोर्टर को यह इलहाम कहाँ से हुआ? क्या आजकल उनका जनता जनार्दन से कोई दैवीय संवाद हो रहा है?

सचमुच, चैनलों की महिमा अपरम्पार है! मानना पड़ेगा कि मोदी मोह में उन्होंने सच की ओर से आँखें बंद कर ली हैं.

 
('तहलका' के १५ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ: आप अपनी प्रतिक्रियाएं उसकी वेबसाईट पर भी जाकर दे सकते हैं: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/982.html )