केन्द्र सरकार अफ्स्पा को हटाने के फैसले पर टालमटोल करके कश्मीर में राजनीतिक समाधान का एक और मौका गँवा रही है
इससे स्थिति के फिर से बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया है. ऐसा लगता है कि वह कश्मीर के मामले में एक कदम आगे और दो कदम पीछे की रणनीति पर चल रही है. इसका नतीजा यह हुआ है कि कश्मीर मामले में यू.पी.ए सरकार की स्थिति नौ दिन चले अढाई कोस की है.
उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट यानी अफ्स्पा) को हटाने के मुद्दे को ही लीजिए. इस मुद्दे पर केन्द्र और राज्य सरकार के अंदर भ्रम और मतभेद की स्थिति यह है कि बाएं हाथ को पता नहीं है कि दायाँ हाथ क्या कर रहा है?
हैरत की बात नहीं है कि खुद केन्द्र सरकार और राज्य की उमर अब्दुल्ला सरकार के अंदर से इस मुद्दे पर जिस तरह से परस्पर विरोधी बयान आ रहे हैं और खुली राजनीति शुरू हो गई है, उससे लगता नहीं है कि इनमें से कोई भी वास्तव में अफ्स्पा को राज्य से हटाने के मुद्दे पर गंभीर है.
अफ्स्पा के मुद्दे पर कई मुंह से बोलती सरकार न सिर्फ अपना ही मजाक उड़ा रही है बल्कि घाटी में एक बड़ी राजनीतिक पहलकदमी लेने के लिए अनुकूल माहौल बनाने का मौका चूक रही है. इसका फायदा किसे होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है.
ऐसा नहीं है कि राज्य से अफ्स्पा हटा लेने से कश्मीर का मुद्दा रातों-रात सुलझ जाएगा या वहां पूरी तरह से अमन-चैन आ जाएगा या फिर वहां की सभी राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएँगी.
असल में, कश्मीर मुद्दे के स्थाई राजनीतिक समाधान के लिए सभी राजनीतिक दलों, संगठनों और समूहों से बातचीत का रास्ता साफ़ करने के लिए जरूरी है कि कश्मीर घाटी का पूरी तरह से वि-सैन्यीकरण किया जाए. इस वि-सैन्यीकरण की दिशा में पहला कदम अफ्स्पा को हटाना है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अफ्स्पा हटाने से कश्मीर घाटी में लोगों में भरोसा पैदा करने और अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने में मदद मिलेगी.
सच यह है कि अफ्स्पा का समय पूरा हो चुका है. इसकी वजह यह है कि न सिर्फ कश्मीर में बल्कि देश के अन्य हिस्सों खासकर मणिपुर में अफ्स्पा एक काले कानून के रूप में बदनाम हो चुका है.
दरअसल, यह आंतरिक अशांति और उग्रवाद से निपटने के नाम पर सेना को इतने व्यापक और असीमित अधिकार दे देता है कि वह बिना वारंट के किसी के भी घर में घुसकर तलाशी ले सकती है, शक के बिना पर गिरफ्तार कर सकती है, गोली चला और मार सकती है. इस कानून के तहत सैन्य अधिकारियों को इन फैसलों के लिए उन्मुक्ति मिली हुई है.
आश्चर्य नहीं कि इस कानून के बेजा इस्तेमाल और सेना पर मानवाधिकार हनन के अनेकों गंभीर आरोप लगते रहे हैं. इस कारण पिछले एक-डेढ़ दशक से इस कानून को खत्म करने की मांग रह-रहकर उठती रही है.
खासकर मणिपुर से अफ्स्पा को हटाने की मांग को लेकर पिछले एक दशक से अधिक समय से अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला के ऐतिहासिक प्रतिरोध ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. सच पूछिए तो किसी भी लोकतान्त्रिक मुल्क में अफ्स्पा जैसे कानून का होना न सिर्फ शर्मनाक है बल्कि उस लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है.
हैरानी की बात यह है कि इस कानून की समीक्षा के लिए खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में पांच सदस्यी समिति का गठन किया था जिसने जून’२००५ में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. इस समिति ने अफ्स्पा को खत्म करने की सिफारिश की थी.
कहने की जरूरत नहीं है कि उसके बाद से ही देश में अफ्स्पा की प्रासंगिकता और उसे रद्द करने के मुद्दे पर सरकार के अंदर और बाहर बहस और चर्चा चल रही है. लेकिन देश में जनवाद और इंसाफपसंद लोगों के बीच इस कानून को खत्म करने को लेकर आमराय होने के बावजूद केन्द्र सरकार कोई ठोस फैसला करने में हिचकिचा रही है.
यही नहीं, कश्मीर मामले के राजनीतिक समाधान की संभावनाओं का पता लगाने के लिए वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में अफ्स्पा को हटाने की सिफारिश की है. लेकिन ऐसा लगता है कि इस मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार का एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस और सैन्य प्रतिष्ठान से जुड़े आक्रामक तत्व तय कर रहे हैं.
यही कारण है कि वह कश्मीर मुद्दे पर बड़ी राजनीतिक पहलकदमी तो दूर घाटी से अफ्स्पा हटाने तक का फैसला नहीं कर पा रही है. मजे की बात यह है कि उमर सरकार का प्रस्ताव तो अफ्स्पा को शुरुआत में घाटी के सिर्फ दो जिलों से हटाने भर का है.
अगर यू.पी.ए सरकार कश्मीर जैसे जटिल और संवेदनशील मुद्दे के हल की दिशा में इतना मामूली सा राजनीतिक जोखिम उठाने का भी साहस नहीं दिखा सकती तो उसे समझ लेना चाहिए कि वह बड़े राजनीतिक संकट को दावत दे रही है. उसे याद रखना चाहिए कि ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं’ और समस्याओं को लटकाने की नीति से चीजें बेहतर नहीं होती बल्कि बिगड़ती हैं.
कश्मीर मसला इसका सबसे त्रासद उदाहरण है जहाँ आज़ादी के बाद से एक के बाद दूसरी केन्द्र और राज्य सरकारों ने पहले सत्ता के लिए राजनीतिक छल, जोड़तोड़ और मनमानी से हालात खराब किये और बाद में आतंकवाद से निपटने के नाम पर राजनीति, जनतंत्र और मानवाधिकारों को ताक पर रखकर कमान सेना को सौंप दी.
लेकिन ऐसा करते हुए वे इतिहास का सबसे बड़ा सबक भूल गईं. इतिहास गवाह है कि राजनीतिक मसलों का समाधान बंदूक से नहीं राजनीति से ही निकलता है. लेकिन ऐसी राजनीति साहस, विवेक, दूरदृष्टि और प्रतिबद्धता मांगती है. अफसोस की आज की राजनीति में ये सबसे दुर्लभ चीजें हैं. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है.
('नया इंडिया' के ३१ अक्तूबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)
यू.पी.ए सरकार का मौके गंवाने में कोई सानी नहीं है. कश्मीर समस्या इसकी एक और मिसाल है. यह सचमुच हैरानी की बात यह है कि कश्मीर में अनुकूल राजनीतिक हालात होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार साहसिक राजनीतिक पहलकदमी लेने से हिचकिचा रही है.
चिंता की बात यह है कि खुद गृह मंत्रालय का दावा है कि कश्मीर में हालात पहले से बेहतर हुए हैं. आतंकवादी घटनाओं में कमी आई है. लेकिन इसके बावजूद केन्द्र सरकार न सिर्फ मानसिक रूप से कोई साहसिक राजनीतिक पहलकदमी के लिए तैयार नहीं दिख रही है बल्कि लगातार परस्पर विरोधी संकेत दे रही है.
इससे स्थिति के फिर से बिगड़ने का खतरा पैदा हो गया है. ऐसा लगता है कि वह कश्मीर के मामले में एक कदम आगे और दो कदम पीछे की रणनीति पर चल रही है. इसका नतीजा यह हुआ है कि कश्मीर मामले में यू.पी.ए सरकार की स्थिति नौ दिन चले अढाई कोस की है.
उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट यानी अफ्स्पा) को हटाने के मुद्दे को ही लीजिए. इस मुद्दे पर केन्द्र और राज्य सरकार के अंदर भ्रम और मतभेद की स्थिति यह है कि बाएं हाथ को पता नहीं है कि दायाँ हाथ क्या कर रहा है?
हैरत की बात नहीं है कि खुद केन्द्र सरकार और राज्य की उमर अब्दुल्ला सरकार के अंदर से इस मुद्दे पर जिस तरह से परस्पर विरोधी बयान आ रहे हैं और खुली राजनीति शुरू हो गई है, उससे लगता नहीं है कि इनमें से कोई भी वास्तव में अफ्स्पा को राज्य से हटाने के मुद्दे पर गंभीर है.
अफ्स्पा के मुद्दे पर कई मुंह से बोलती सरकार न सिर्फ अपना ही मजाक उड़ा रही है बल्कि घाटी में एक बड़ी राजनीतिक पहलकदमी लेने के लिए अनुकूल माहौल बनाने का मौका चूक रही है. इसका फायदा किसे होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है.
ऐसा नहीं है कि राज्य से अफ्स्पा हटा लेने से कश्मीर का मुद्दा रातों-रात सुलझ जाएगा या वहां पूरी तरह से अमन-चैन आ जाएगा या फिर वहां की सभी राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक समस्याएं खत्म हो जाएँगी.
असल में, कश्मीर मुद्दे के स्थाई राजनीतिक समाधान के लिए सभी राजनीतिक दलों, संगठनों और समूहों से बातचीत का रास्ता साफ़ करने के लिए जरूरी है कि कश्मीर घाटी का पूरी तरह से वि-सैन्यीकरण किया जाए. इस वि-सैन्यीकरण की दिशा में पहला कदम अफ्स्पा को हटाना है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि अफ्स्पा हटाने से कश्मीर घाटी में लोगों में भरोसा पैदा करने और अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाने में मदद मिलेगी.
सच यह है कि अफ्स्पा का समय पूरा हो चुका है. इसकी वजह यह है कि न सिर्फ कश्मीर में बल्कि देश के अन्य हिस्सों खासकर मणिपुर में अफ्स्पा एक काले कानून के रूप में बदनाम हो चुका है.
दरअसल, यह आंतरिक अशांति और उग्रवाद से निपटने के नाम पर सेना को इतने व्यापक और असीमित अधिकार दे देता है कि वह बिना वारंट के किसी के भी घर में घुसकर तलाशी ले सकती है, शक के बिना पर गिरफ्तार कर सकती है, गोली चला और मार सकती है. इस कानून के तहत सैन्य अधिकारियों को इन फैसलों के लिए उन्मुक्ति मिली हुई है.
आश्चर्य नहीं कि इस कानून के बेजा इस्तेमाल और सेना पर मानवाधिकार हनन के अनेकों गंभीर आरोप लगते रहे हैं. इस कारण पिछले एक-डेढ़ दशक से इस कानून को खत्म करने की मांग रह-रहकर उठती रही है.
खासकर मणिपुर से अफ्स्पा को हटाने की मांग को लेकर पिछले एक दशक से अधिक समय से अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला के ऐतिहासिक प्रतिरोध ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया है. सच पूछिए तो किसी भी लोकतान्त्रिक मुल्क में अफ्स्पा जैसे कानून का होना न सिर्फ शर्मनाक है बल्कि उस लोकतंत्र पर गंभीर सवाल खड़े करता है.
हैरानी की बात यह है कि इस कानून की समीक्षा के लिए खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी.पी. जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में पांच सदस्यी समिति का गठन किया था जिसने जून’२००५ में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी. इस समिति ने अफ्स्पा को खत्म करने की सिफारिश की थी.
कहने की जरूरत नहीं है कि उसके बाद से ही देश में अफ्स्पा की प्रासंगिकता और उसे रद्द करने के मुद्दे पर सरकार के अंदर और बाहर बहस और चर्चा चल रही है. लेकिन देश में जनवाद और इंसाफपसंद लोगों के बीच इस कानून को खत्म करने को लेकर आमराय होने के बावजूद केन्द्र सरकार कोई ठोस फैसला करने में हिचकिचा रही है.
यही नहीं, कश्मीर मामले के राजनीतिक समाधान की संभावनाओं का पता लगाने के लिए वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर के नेतृत्व में गठित तीन सदस्यी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में अफ्स्पा को हटाने की सिफारिश की है. लेकिन ऐसा लगता है कि इस मुद्दे पर मनमोहन सिंह सरकार का एजेंडा भाजपा-आर.एस.एस और सैन्य प्रतिष्ठान से जुड़े आक्रामक तत्व तय कर रहे हैं.
यही कारण है कि वह कश्मीर मुद्दे पर बड़ी राजनीतिक पहलकदमी तो दूर घाटी से अफ्स्पा हटाने तक का फैसला नहीं कर पा रही है. मजे की बात यह है कि उमर सरकार का प्रस्ताव तो अफ्स्पा को शुरुआत में घाटी के सिर्फ दो जिलों से हटाने भर का है.
अगर यू.पी.ए सरकार कश्मीर जैसे जटिल और संवेदनशील मुद्दे के हल की दिशा में इतना मामूली सा राजनीतिक जोखिम उठाने का भी साहस नहीं दिखा सकती तो उसे समझ लेना चाहिए कि वह बड़े राजनीतिक संकट को दावत दे रही है. उसे याद रखना चाहिए कि ‘मुदहूँ आँख, कतहूँ कछु नाहिं’ और समस्याओं को लटकाने की नीति से चीजें बेहतर नहीं होती बल्कि बिगड़ती हैं.
कश्मीर मसला इसका सबसे त्रासद उदाहरण है जहाँ आज़ादी के बाद से एक के बाद दूसरी केन्द्र और राज्य सरकारों ने पहले सत्ता के लिए राजनीतिक छल, जोड़तोड़ और मनमानी से हालात खराब किये और बाद में आतंकवाद से निपटने के नाम पर राजनीति, जनतंत्र और मानवाधिकारों को ताक पर रखकर कमान सेना को सौंप दी.
लेकिन ऐसा करते हुए वे इतिहास का सबसे बड़ा सबक भूल गईं. इतिहास गवाह है कि राजनीतिक मसलों का समाधान बंदूक से नहीं राजनीति से ही निकलता है. लेकिन ऐसी राजनीति साहस, विवेक, दूरदृष्टि और प्रतिबद्धता मांगती है. अफसोस की आज की राजनीति में ये सबसे दुर्लभ चीजें हैं. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है.
('नया इंडिया' के ३१ अक्तूबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)