गुरुवार, सितंबर 29, 2011

चैनलों की दाल में काला

रिलायंस के नाम से चैनलों की जुबान क्यों कांपने लगती है?





भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में न्यूज चैनलों का जज्बा और उत्साह देखते ही बनता है. पिछले कई महीनों से चैनलों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक युद्ध सा छेड रखा है. उनके जोश को देखकर लगता है कि वे भ्रष्टाचार को खत्म करके ही मानेंगे. इसमें कोई दो राय नहीं है कि चैनलों ने जिस तरह से एक के बाद एक कई बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है या उन्हें जोर-शोर से उछाला और मुद्दा बनाया है, उससे भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल और जनमत बना है.

इसके कारण कई बड़े घोटालेबाज जेल गए हैं, कई मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को कुर्सी गंवानी पड़ी है और देश भर में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन जोर पकड़ने लगा है.

लेकिन लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध में चैनल या तो थकने लगे हैं या फिर उनके आकाओं ने उनकी लगाम खींचनी शुरू कर दी है. उदाहरण के लिए, बीते पखवाड़े संसद में पेश रिपोर्ट में सी.ए.जी ने एयर इंडिया में अनियमितताओं और विमानों की खरीदी में गडबडियों पर ऊँगली उठाने के साथ कृष्णा-गोदावरी घाटी (के.जी. बेसिन) में गैस की खोज, उसकी कीमत तय करने और उत्पादन आदि में मुकेश अम्बानी की रिलायंस को अनुचित तरीके से फायदा पहुँचाने से लेकर कंपनी की धांधलियों और मनमानियों को आड़े हाथों लिया. लेकिन न्यूज चैनलों ने थके मन से एयर इंडिया की अनियमितताओं पर रस्मी हो-हल्ला किया और चुप मार गए.

लेकिन उससे भी हैरान करनेवाली बात यह है कि के.जी बेसिन-रिलायंस मामले पर सी.ए.जी की रिपोर्ट के बावजूद चैनलों ने न तो उसे प्राइम टाइम चर्चा लायक समझा और न ही उसे समग्रता में रिपोर्ट किया. इस खबर को करते हुए चैनलों में वह उत्साह भी नहीं दिखा जो हाल के महीनों में अन्य घोटालों को रिपोर्ट करते हुए दिखा था.

यह हैरान करनेवाला इसलिए भी था कि चैनलों को अपनी ओर से कुछ खास नहीं करना था क्योंकि सी.ए.जी की रिपोर्ट में सारा खुलासा मौजूद था. यह भी २ जी स्पेक्ट्रम की तरह गैस जैसे प्राकृतिक और कीमती सार्वजनिक संसाधन को राष्ट्रीय हितों की कीमत पर निजी लाभ के लिए दुरुपयोग का गंभीर मामला है.

यही नहीं, इसमें राजनीतिक एंगल भी मौजूद था. पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा को रिलायंस समर्थक माना जाता रहा है. पिछले कैबिनेट फेरबदल में हटाया गया था. उससे पहले अमेरिकी विरोध के कारण मणिशंकर अय्यर को पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाया गया था.

नीरा राडिया टेप्स में एक बातचीत में यह प्रसंग आ चुका है कि “कैसे अब कांग्रेस भी मुकेश अम्बानी की दूकान बन चुकी है.” इसके अलावा हाल में, रिलायंस और बहुराष्ट्रीय तेल कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम के बीच बड़ी डील हुई है. इस डील को लेकर भी कई सवाल उठे हैं.

इसके बावजूद अधिकांश न्यूज चैनलों पर इस मुद्दे पर रहस्यमयी चुप्पी छाई रही. ऐसा लगा कि जैसे कुछ हुआ नहीं है या सी.ए.जी की रिपोर्ट में कोई दम नहीं है. यहाँ तक कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस समय सबसे बड़े योद्धा अर्नब गोस्वामी और ‘टाइम्स नाऊ’ भी रस्म अदायगी से आगे नहीं बढ़े. ‘खबर हर कीमत पर’ का दावा करनेवाले चैनल की जुबान नहीं खुली.

यह स्वाभाविक भी था. आखिर खुद मुकेश अम्बानी और उनका रिलायंस उसी दिन चैनल पर प्रसारित हो रहे “रियल हीरोज” कार्यक्रम में प्रायोजक के बतौर एडिटर इन चीफ के साथ मंच पर मौजूद थे. कमोबेश यही हाल बाकी चैनलों का भी था.

क्या यह नीरा राडिया प्रभाव है? याद रहे, नीरा राडिया रिलायंस के मीडिया मैनेजमेंट का काम देखती हैं. उनपर आरोप है कि वे रिलायंस और अपने दूसरे कारपोरेट क्लाइंट टाटा के पक्ष में सकारात्मक जनमत बनाने के लिए अनुकूल समाचारों को आगे बढ़ाने और प्रतिकूल समाचारों को दबाने में समाचार माध्यमों और संपादकों/पत्रकारों को इस्तेमाल करती रही हैं.

यहाँ तक कि कई संपादक उनके लिए लाबीइंग करते हुए भी पाए गए. इस बार भी जिस तरह से के.जी. बेसिन की खबर को चैनलों ने ‘अंडरप्ले’ किया है, उससे लगता है कि कोई न कोई ‘अदृश्य शक्ति’ है जो चैनलों के मुंह पर पट्टी बांधने में कामयाब हुई है.

क्या वह ‘अदृश्य शक्ति’ रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों की विज्ञापन देने की वह शक्ति है जिसे कोई निजी चैनल अनदेखा नहीं कर सकता है? आखिर रिलायंस जैसे बड़े विज्ञापनदाता और प्रायोजक को नाराज करने का जोखिम कितने चैनल उठा सकते हैं? इसके उलट लगभग सभी चैनलों पर एयर इंडिया में अनियमितताओं पर सी.ए.जी की रिपोर्ट को न सिर्फ पर्याप्त कवरेज मिली बल्कि सबने प्राइम टाइम चर्चाएँ भी कीं.

मजे की बात यह है कि इन सभी चर्चाओं में अनियमितताओं के दोषी अधिकारियों/मंत्रियों को पहचानने और उन्हें निशाना बनाने के बजाय चैनलों का सबसे अधिक जोर इस बात पर था कि एयर इंडिया को बचाने के लिए उसका निजीकरण क्यों जरूरी है.

गोया निजीकरण हर मर्ज का इलाज हो. अगर ऐसा ही है तो टेलीकाम क्षेत्र में २ जी की लूटपाट में कौन शामिल थे? असल में, न्यूज चैनलों के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की यही सीमा है. उनके लिए भ्रष्टाचार और घोटाला सिर्फ एक घटना या प्रकरण है जो कि कुछ व्यक्तियों खासकर नेताओं और अफसरों तक सीमित है.

सच यह है कि यह भ्रष्टाचार का मांग पक्ष है. लेकिन भ्रष्टाचार का आपूर्ति पक्ष भी उतना ही महत्वपूर्ण है. वे छोटी-बड़ी कम्पनियाँ जो अपने मुनाफे के लिए नेताओं और अफसरों को घूस खिलाकर तमाम नियम-कानूनों को तोड़ती-मरोड़ती हैं, संगठित लाबीइंग के जरिये अपने अनुकूल नियम-कानून बनवाती हैं, उनके अपराधों की कोई चर्चा नहीं होती है या बहुत कम होती है.

इसके उलट चैनलों को देखने और सुनने से ऐसा लगता है जैसे निजी यानि कारपोरेट क्षेत्र में रामराज्य है जबकि यह किसी से छुपा नहीं है कि वह भ्रष्टाचार की जड़ में है. फिर क्यों न माना जाए कि भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के पीछे चैनलों का अघोषित एजेंडा सार्वजनिक क्षेत्र को बदनाम करने और उसके निजीकरण का रास्ता साफ़ करने का है?

अगर ऐसा नहीं है तो चैनलों पर कारपोरेट भ्रष्टाचार निशाने पर क्यों नहीं है? उसकी वैसी चर्चा क्यों नहीं है, जैसी प्रशासनिक/राजनीतिक भ्रष्टाचार की है? चैनलों की दाल में जरूर कुछ काला है.

('तहलका' के ३० सितम्बर अंक में प्रकाशित)

2 टिप्‍पणियां:

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

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khabar ने कहा…

ये तो कुछ भी नहीं सर...सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करने वाले चैनलों में तो बाकायदा गाइडलाइंस होती हैं कि इस खबर को चलाने की कोई हिमाकत न करे..और अगर उसने अगर अपने पत्रकारीय कौशल को दिखाने की कोशिश की तो नौकरी छोड़नी पड़ेगी..

लगता है कि पत्रकारिता सेठ की नौकरी हमेशा ही रहेगी..