धर्मनिपेक्षता की लड़ाई को रोजी-रोटी और व्यापक बदलाव की लड़ाई से जोड़े बिना संघ परिवार को अलग-थलग करना मुश्किल है
तीसरी किस्त
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल आंदोलन से मुस्लिम समुदाय की दूरी साफ दिखाई दी. रामलीला मैदान से लेकर फेसबुक पर इस दूरी को महसूस किया जा सकता है. मुझे कुछ निजी मित्रों और फेसबुक के मुस्लिम साथियों से भी इस आंदोलन को लेकर कई शिकायतें सुनने को मिलीं. कुछ अपवादों को छोडकर सबको लग रहा है कि इस आंदोलन के पीछे आर.एस.एस/बी.जे.पी है. कुछ मित्रों का यह भी कहना है कि इसके पीछे आर.एस.एस/बी.जे.पी न भी हों तो कांग्रेस के खिलाफ अन्ना हजारे की इस मुहिम का फायदा अंततः बी.जे.पी को ही मिलेगा.
भ्रष्टाचार के खिलाफ और व्यापक बदलाव के जनांदोलनों को मुस्लिम समुदाय में मौजूद इन आशंकाओं और चिंताओं को समझना पड़ेगा. इनमें से कई आशंकाएं और चिंताएं वास्तविक हैं, कुछ आंशिक रूप से सही हैं और गंभीर बहस और संवाद की मांग करती हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस आंदोलन की पहचान से बन गए कई प्रतीकों खासकर “वंदे मातरम और भारत माता की जय” जैसे नारे, पिछली बार मंच पर लगी भारत माता की तस्वीर, मंच पर भांति-भांति के साधुओं-धर्मगुरुओं और बाबाओं की मौजूदगी, रामधुन और फ़िल्मी देशभक्ति के गानों के बीच लहराते तिरंगों के अलावा खुद अन्ना हजारे के अतीत में दिए नरेंद्र मोदी और राज ठाकरे समर्थक बयानों से मुस्लिम समुदाय में शक, डर और आशंकाएं बढ़ी हैं.
इसकी वजह यह है कि इनमें से कई प्रतीक संघ परिवार की पहचान से बहुत गहराई से जुड़े रहे हैं. यह ठीक है कि इन प्रतीकों खासकर नारों का एक लंबा इतिहास है और वे आज़ादी की लड़ाई के अभिन्न हिस्से रहे हैं. इस कारण गांधीवादी अन्ना हजारे में उन नारों, तस्वीरों और गीतों के प्रति अतिरिक्त आकर्षण हो सकता है. इसके साथ ही, यह भी सच है कि आंदोलन के दौरान मंच से और लोगों के बीच ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ जैसा नारा भी खूब लगा. पिछली बार मंच पर भगत सिंह की तस्वीर भी थी. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि आज़ादी की लड़ाई के दौर में भी कुछ नारों, प्रतीकों को लेकर विवाद और बहस रहा है.
यही नहीं, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आज़ादी के बाद पिछले कुछ दशकों में ये नारे संघ परिवारी संगठनों के ट्रेड मार्क से बन गए हैं. हालांकि सिर्फ इस कारण कुछ नारों-प्रतीकों को सांप्रदायिक मान लेना और उन्हें संघ परिवार के हवाले कर देना उचित नहीं है लेकिन अफसोस की बात यह है कि ऐसा हो गया है. अच्छा होता कि इनसे बचा जाता. इससे न सिर्फ आंदोलन का दायरा बढ़ता बल्कि ऐसे आरोप लगानेवालों खासकर लोगों को बांटकर अपना उल्लू सीधा करनेवाली कांग्रेस जैसी कथित सेक्युलर पार्टियों को अपना खेल खेलने का मौका नहीं मिलता.
प्रतीकों की राजनीति की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं
अगर इस आंदोलन को आगे जाना है और बड़ी लड़ाईयां लड़नी हैं तो उसे नए नारे और प्रतीक गढ़ने होंगे और संकीर्ण नारों-प्रतीकों के बजाय आज़ादी के आंदोलन के उन नारों-प्रतीकों को पकडना होगा जिनकी व्यापक अपील रही है. लेकिन यह कहने के बाद यह कहना भी उतना ही जरूरी है कि प्रतीकों की राजनीति की अपनी सीमाएं होती हैं और कई बार प्रतीकों की राजनीति को साधने के चक्कर में समझौते भी करने पड़ते हैं. जैसे इस आंदोलन में भी शुरू में बाबा रामदेव, श्री-श्री रविशंकर से लेकर मौलाना महमूद मदनी और फादर विन्सेंट तक का मजमा जुटाने की कोशिश की गई थी. लेकिन उसका नतीजा क्या हुआ, यह किसी से छुपा नहीं है.
लेकिन यहाँ स्पष्ट करना भी जरूरी है कि सिर्फ कुछ नारों-प्रतीकों और व्यक्तियों के आधार पर पूरे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को ख़ारिज कर देना और उसे संघ परिवार की साजिश मान लेना भी एक राजनीतिक भूल है. असल मुद्दा यह है कि ये नारे लगानेवाले क्या किसी सांप्रदायिक मुहिम के हिस्सा हैं? क्या वे किसी संप्रदाय या वर्ग के खिलाफ सडकों पर उतरे हैं? क्या अन्ना हजारे और उनके साथी प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी सांप्रदायिक जमात से जुड़े या संबंधित रहे हैं? क्या उनके मांगपत्र में कोई सांप्रदायिक मांग भी थी या है?
अगर इन सवालों के जवाब नहीं में हैं तो किस आधार पर इस आंदोलन को सांप्रदायिक आंदोलन बताया जा रहा है? इसके उलट सच यह भी है कि अगर इस आंदोलन के दौरान वंदे मातरम और भारत माता की जय के नारे लग रहे थे तो इंकलाब जिंदाबाद भी उतनी ही शिद्दत से गूंज रहा था. इसी तरह, इस बार मंच पर भारतमाता की तस्वीर नहीं थी. इसके अलावा इस आंदोलन के नेतृत्व में प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और अखिल गोगोई जैसे जनपक्षधर, धर्मनिरपेक्ष और जुझारू मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और किसान नेता शामिल थे. क्या इनकी धर्मनिरपेक्षता पर कोई सवाल उठाया जा सकता है?
इस सबके साथ यह भी याद रखना जरूरी है कि यह किसी वाम और रैडिकल संगठन का आंदोलन नहीं था. इसमें लिबरल, लोकतान्त्रिक और अराजनीतिक यानि हर तरह के लोग थे और जैसाकि बड़े जनांदोलनों के साथ होता है, इसमें भी समाज के विभिन्न वर्गों और उनके सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के लोग शामिल होते गए. यह बहुत संगठित आंदोलन नहीं था और इसमें स्वतः स्फूर्तता का योगदान बहुत था. इसके कारण स्वाभाविक तौर कई कमजोरियां दिखीं.
कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और आर.एस.एस का हव्वा
यह देखना भी जरूरी है कि इस आंदोलन को आर.एस.एस की साजिश कौन बता रहा है और उसके पीछे उसका क्या मकसद है? वाम और रैडिकल बुद्धिजीवियों की वाजिब शिकायतों को छोड़ दिया जाए तो यह आरोप मुख्यतः कांग्रेस की ओर से आ रहा है. उसका मकसद किसी से छुपा नहीं है. भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी कांग्रेस इस आंदोलन के निशाने पर है और उसकी बौखलाहट स्वाभाविक है. वह इस आंदोलन को तोड़ने और कमजोर करने के लिए ‘साम-दाम-दंड-भेद’ सभी हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है. इन्हीं हथकंडों में से एक हथकंडा इस आंदोलन को आर.एस.एस की साजिश बताना है.
लेकिन अगर यह आंदोलन आर.एस.एस की साजिश होता और उसके इशारे पर चल रहा होता तो बी.जे.पी शुरू से खुलकर इसके साथ होती. लेकिन सच यह है कि जन लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस और बी.जे.पी के स्टैंड में कोई खास फर्क नहीं था. खुद लाल कृष्ण आडवाणी और अरुण जेटली कई बार इस आंदोलन की मुख्य मांग से असहमति जता चुके थे. इसी तरह, इस आंदोलन के एक प्रमुख नेता जस्टिस संतोष हेगड़े की अवैध खनन पर रिपोर्ट के कारण कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को जाना पड़ा और भाजपा की खूब किरकिरी हुई. यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के तेज होने से कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के लिए भी मुंह दिखाना मुश्किल हो रहा था.
आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के गिरते राजनीतिक ग्राफ के बावजूद भाजपा अभी भी चढ़ नहीं पा रही है क्योंकि लोग उसकी भी असलियत समझ चुके हैं. इस आंदोलन को लेकर उसके बदलते रुख के और लगातार दायें-बाएं करने के कारण न सिर्फ उसकी भी फजीहत हुई बल्कि लोगों के गुस्से का निशाना बनना पड़ा. इसके बावजूद कांग्रेस भाजपा की पुनर्वापसी का डर दिखाकर अल्पसंख्यक समुदाय को इस आंदोलन से दूर और अपने पीछे खड़ा रखने का खेल, खेल रही है. ऐसा करते हुए कांग्रेस खुद को धर्मनिरपेक्षता और मुस्लिम समाज के सबसे बड़े खैरख्वाह के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही है. इस आंदोलन की अपनी कमियों-कमजोरियों के कारण वह कुछ हद तक कामयाब होती भी दिख रही है.
लेकिन कांग्रेस की ‘धर्मनिरपेक्षता’ के बारे में क्या कहा जाए? उसके पिछले इतिहास को एक मिनट के लिए भूल भी जाएं तो धर्मनिरपेक्षता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का आलम यह है कि मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक पिछडेपन को दूर करने के बारे में जस्टिस राजेंदर सच्चर और रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट पिछले कई सालों से ठन्डे बस्ते में पड़ी है लेकिन यू.पी.ए सरकार एक कदम उठाने के लिए तैयार नहीं है. इसी तरह, एन.ए.सी के आगे बढाने के बावजूद साम्प्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक संसद में पेश करने में सरकार के हाथ-पाँव काँप रहे हैं.
यही नहीं, इन दिनों कांग्रेस और भाजपा के बीच अंदरखाते ऐसी दांतकाटी दोस्ती चल रही है कि न सिर्फ दोनों एक-दूसरे के संकट में मदद के लिए खड़े हो जा रहे हैं जैसे जन लोकपाल के मुद्दे पर संसद में पेश प्रस्ताव कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने मिलकर तैयार किया. भाजपा की इस मदद के बदले में सरकार ने हिंदू आतंकवादी समूहों की जांच धीमी कर दी है.
एक और नमूना देखिए, सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार द्वारा गठित-पोषित सलवा जुडूम को अवैध घोषित कर दिया लेकिन उसकी मदद में यू.पी.ए सरकार सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डालने जा रही है. सच पूछिए तो कांग्रेस के लिए धर्मनिरपेक्षता का सवाल सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का नहीं बल्कि भाजपा का डर दिखाकर अल्पसंख्यक समुदाय को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने का रहा है.
इसके बावजूद ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिससे पता चलता है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच अंदरखाते अच्छी समझदारी और लेन-देन का खेल चल रहा है. असल में, इन दोनों की राजनीति यह है कि राष्ट्रीय राजनीतिक स्पेस को मिलजुलकर कब्जे में रखा जाए. इसके लिए दोनों एक-दूसरे की राजनीतिक मदद करने में भी पीछे नहीं रहते हैं. इस मामले में निस्संदेह, भाजपा की सबसे अच्छी दोस्त कांग्रेस है जो अपनी कारगुजारियों से उसकी वापसी की राजनीतिक जमीन तैयार करने में लगी है.
सच पूछिए तो भाजपा के राजनीतिक पुनरुज्जीवन के लिए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन नहीं बल्कि खुद कांग्रेस सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. भाजपा अगर आएगी तो इसलिए कि कांग्रेस उसे यह मौका दे रही है. अगर कांग्रेस भ्रष्टाचार से दूर रहती, महंगाई पर लगाम लगाती और गरीबों के हित में कदम उठा रही होती तो भाजपा के लिए मौका कहाँ आता? पिछले आम चुनावों के बाद भाजपा जिस मरणासन्न स्थिति में पहुँच गई थी, उसे फिर से खाद-पानी किसने दिया है? मुख्य विपक्षी दल होने और तीसरे मोर्चे की दुर्गति के कारण कांग्रेस की राजनीतिक गलतियों और अपराधों का फायदा स्वाभाविक तौर पर भाजपा को मिलेगा. मौजूदा राजनीतिक और चुनावी ढांचे में इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है.
तथ्य यह है कि अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के शुरू होने तक भाजपा ने ही कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक मोर्चा खोल रखा था. वह भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से राजनीतिक कमाई करने के लिए खूब जोर लगाये हुए थी लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में खुद उसकी गन्दी कमीज किसी से छुपी नहीं थी. इसलिए उसकी मुहिम को कोई खास सफलता नहीं मिल रही थी.
अलबत्ता, तमिलनाडु चुनावों में जयललिता बाजी मार गईं जबकि केरल में वाम मोर्चे के हाथ बाजी आते-आते रह गई. इससे साफ था कि कांग्रेस का राजनीतिक ग्राफ नीचे गिर रहा है. कांग्रेस की राजनीतिक ढलान की अन्य वजहों में आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और जगन मोहन रेड्डी के मुद्दे पर आगे कुआं, पीछे खाई में फंस जाना और महाराष्ट्र जैसे राज्य में शासन पर पकड़ ढीली पड़ते जाना भी है.
साफ है कि कांग्रेस अपने ही भूलों, कमजोरियों और गलतियों के कारण लड़खड़ा रही है. लेकिन लगता नहीं कि कांग्रेस ने इनसे कुछ सीखा है. उलटे भ्रष्टाचार और लोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस के टालमटोल के रवैये से लोगों का गुस्सा फूट कर सड़कों पर आ गया. भाजपा इसका फायदा जरूर उठाने की कोशिश करेगी लेकिन यह उतना आसान नहीं होगा.
जन लोकपाल के मुद्दे पर हुए आंदोलन ने भाजपा को भी एक्सपोज कर दिया है. इस आंदोलन का सबसे बड़ा राजनीतिक योगदान यह है कि इसने कांग्रेस के विकल्प के रूप में खुद को पेश कर रही भाजपा के दावे पर सवालिया निशान खड़ा कर दिया है. इससे कांग्रेस और भाजपा से इतर एक नए विकल्प की सम्भावना बनी है.
असल में, साम्प्रदायिकता विरोधी लड़ाई का सबसे बड़ा सबक यह है कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने और राजनीति में अलग-थलग करने के लिए कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प की खोज जरूरी है. इसके बिना भाजपा को रोकना मुश्किल है. यही नहीं, जो लोग भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस पर दाँव लगा रहे हैं, वे बड़ी भूल कर रहे हैं. इस अर्थ में , कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष विकल्प की खोज किसी पिटे-पिटाए और अविश्वसनीय तीसरे मोर्चे पर दाँव लगाने के बजाय किसी व्यापक जन आंदोलन से निकलनेवाले विकल्प की ओर ले जाती है.
कहने की जरूरत नहीं है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में ये सम्भावना है. इस आंदोलन के दायरे के बढ़ने और उसमें देश भर में चल रहे जनांदोलनों के जुड़ने से इस सम्भावना के हकीकत बनने की उम्मीद की जा सकती है. लेकिन अगर मुस्लिम समुदाय इस जनतांत्रिक आंदोलन से दूर रहता है तो वह जाने-अनजाने भाजपा की मदद करेगा.
जाहिर है कि इससे बड़ी कोई त्रासदी नहीं हो सकती है. इस सिलसिले में अंतिम बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता की कोई भी लड़ाई जनविरोधी नीतियों को लागू कर रही कांग्रेस के साथ नहीं बल्कि उसके खिलाफ खड़े होकर और उसे रोजी-रोटी और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों से जोड़कर ही आगे बढ़ाई जा सकती है.
जारी...आगे बात करेंगे संसद और संविधान के साथ आन्दोलनों के संबंधों की...अपनी प्रतिक्रियाएं भेजते रहिये...