बुधवार, अप्रैल 28, 2010

तमाशा मेरे आगे

अंधराष्ट्रवादी और पैपराजी चैनलों के दौर में सेलिब्रिटी शादी

कहते हैं कि आदतें मुश्किल से छूटती हैं. बुरी आदतें और भी मुश्किल से छूटती हैं. अपने समाचार चैनलों के साथ भी यह बात सौ फीसदी सही लगती है. मुश्किल यह भी है कि समाचार चैनलों में अच्छी आदतें तो बहुत कम हैं और बुरी आदतें लगातार बढ़ती जा रही हैं. इनकी सूची लंबी है. ऐसी ही एक बुरी आदत है, लोगों खासकर सेलेब्रिटी कहे जानेवाले लोगों के निजी जीवन में अनुचित तांक-झांक करना या नाक घुसेड़ना, उसे जरूरत से कई गुना ज्यादा उछालना, नमक-मिर्च लगाकर सनसनीखेज बनाना और सार्वजनिक जांच-पड़ताल और बहस का मुद्दा बनाकर पेश करना.

यह आदत अब एक लाइलाज बीमारी बनती जा रही है. इसका सबसे ताजा उदाहरण है – जानीमानी टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा और पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी शोएब मलिक की शादी की खबर जिसे लेकर समाचार चैनल बिलकुल बावले से हो गए हैं. माफ़ कीजियेगा, यह सिर्फ बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना वाली बात नहीं है. सच यह है कि यह बहुत योजनाबद्ध, शातिराना और कुछ मामलों में एक खास अंधराष्ट्रवादी एजेंडे के साथ किया जा रहा पागलपन है. इसमें चैनलों का संयम, विवेक, तर्क और अनुपातबोध सब जवाब दे गए हैं. सानिया-शोएब शादी की कवरेज देखकर ऐसा लगता है जैसे चैनलों ने निजता के अधिकार जैसी किसी चीज का कभी नाम ही नहीं सुना है और न ही यह उनकी कथित स्व-नियमन की किताब में है.

यही कारण है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश चैनलों पर सानिया-शोएब की निजता का खुलेआम मखौल उड़ाया गया. हालांकि सानिया और शोएब ने अपनी निजता का हवाला देकर चैनलों से उन्हें अकेला छोड़ने की अपील की लेकिन चैनलों पर कोई फर्क नहीं पड़ा. अधिकांश चैनलों ने सानिया के घर के ठीक सामने ओ.बी वैन और कैमरे के साथ अपने कई-कई रिपोर्टरों को तैनात कर दिया. यहां तक कि कई चैनलों ने दिल्ली से अपने खास संवाददाताओं को कवरेज के लिए भेजा जिसमें ‘सबसे तेज’ चैनल ने अपने सबसे तेजतर्रार क्राइम रिपोर्टर को भेजकर अपनी प्राथमिकता जाहिर कर दी. आश्चर्य नहीं कि अधिकांश चैनलों ने सानिया-शोएब की शादी की कवरेज में शोएब की ‘पहली पत्नी’ आयशा के बहाने प्रेम त्रिकोण, अपराध, साजिश और धोखा को सबसे ज्यादा अहमियत दी.

चैनलों की इस ‘कहानी’ में बिना किसी अपवाद के शोएब एक शातिर झूठा, दिलफरेब, धोखेबाज खलनायक, उसकी ‘बेवफाई की शिकार’ आयशा एक सताई औरत और उसके ‘जाल में फंसती’ दिख रही सानिया एक मासूम टेनिस स्टार के रूप में पेश की गई. टेबलॉयड पत्रकारिता का सिरमौर एक हिंदी चैनल यहीं नहीं रूका, उसने बाकायदा स्टूडियो में कचहरी (या कंगारू कोर्ट) लगाकर शोएब पर मुक़दमा चलाया और सजा भी सुना दी. लेकिन जैसे इतना ही काफी नहीं था, उसने सानिया-शोएब की कुंडली में काल सर्प भी खोज निकला. कल्पनाओं की उड़ान भरने में बाकी चैनल भी बहुत पीछे नहीं रहे. फिर उनके बीच ऐसी होड़ शुरू हुई कि कोई बंधन नहीं रहा.

लेकिन इस पूरे प्रकरण में सबसे अधिक खतरनाक और चिंताजनक दो प्रवृत्तियां ऐसी दिखीं जिनपर चैनलों के संपादकों और उनके संगठन- एन.बी.ए को जरूर गंभीरता से आत्ममंथन करना चाहिए. पहली बात, कुछ चैनलों ने सानिया-शोएब की शादी की तैयारियों को दिखाने की होड़ में अपनी सीमा का इस हद तक अतिक्रमण किया कि सानिया के घर के झरोखों और दरवाजों के खुलने-बंद होने के बीच दिखनेवाले दृश्यों को दिखाने से भी परहेज नहीं किया. जाहिर है, इसके लिए उन्होंने न सिर्फ सानिया के घर के बाहर बल्कि सामने के उंचे घरों की बालकोनियों आदि पर भी खुले और छुपे कैमरे तैनात किए ताकि किसी भी तरह से सानिया-शोएब की बातें करते ,डांस करते और आते-जाते ‘एक्सक्लूसिव’ तस्वीरें मिल जाएं और वे उसे ‘सबसे आगे’ दिखा सकें.

पर वे भूल गए कि यह सानिया-शोएब की निजता में खुली घुसपैठ है. याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि यह टैबलॉयड पत्रकारिता की सबसे छिछली और पर-रतिसुख (वोयरिज्म) प्रवृत्ति- पपराजी पत्रकारिता की सबसे खास पहचान है. पश्चिम देशों में, सेलेब्रिटीज के आगे-पीछे यहां तक कि उनके सबसे निजी क्षणों को भी कैमरे में कैद करने के लिए खुले-छिपे फोटोग्राफरों/पत्रकारों की भीड़ चौबीसों घंटे उनके पीछे भागती रहती है. इन ‘एक्सक्लूसिव’ तस्वीरों के लिए टेबलॉयड चैनलों और अखबारों से पैपराजी पत्रकारों को लाखों-करोड़ों डालर मिलते हैं. कहते हैं कि ब्रिटिश राजकुमारी डायना ऐसे ही पैपराजी फोटोग्राफरों/पत्रकारों से बचने के लिए भागते हुए कार दुर्घटना में मारी गईं थीं. अगर देश में इस प्रवृत्ति को इसी तरह अनदेखा किया गया तो भारत में भी पैपराजी संस्कृति को फलने-फूलने से नहीं रोका जा सकेगा.

दूसरी खतरनाक प्रवृत्ति यह दिखी कि कुछ अपवादों को छोड़कर सबने सानिया-शोएब के प्रेम और शादी के फैसले को एक सांप्रदायिक और अंधराष्ट्रवादी एंगल से भी पेश किया. कुछ चैनलों में तो यही भाव सबसे प्रमुख था. शोएब के खलनायकीकरण के पीछे उसकी गलतियों से अधिक उसका पाकिस्तानी नागरिक होना शायद सबसे बड़ा कारण था. चैनलों में एक खास तरह की अंधराष्ट्रवादी इर्ष्या का भाव साफ दिख रहा था कि एक भारतीय स्टार को एक पाकिस्तानी दुल्हन बनाकर कैसे ले जा सकता है? नतीजा, एक तरह से शोएब के साथ सानिया की भी ‘आनर किलिंग’ करने की भरपूर कोशिश की गई जिसका मकसद उनकी शादी को किसी भी तरह से तोड़ना या रोकना था.

इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कैसे मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अंध पाकिस्तान विरोधी हो गया है और दोनों देशों के बीच दीवार बनकर खड़ा हो गया है. यहां तक कि वह दोनों देशों के बीच लोगों के स्तर पर भी संपर्कों और रिश्तों का विरोधी होता जा रहा है. यह चिंता की बात इसलिए है कि एक सांप्रदायिक और अंधराष्ट्रवादी मीडिया सिर्फ सानिया और शोएब के लिए ही नहीं बल्कि पूरे उपमहाद्वीप की शांति, दोस्ती और स्थिरता के लिए खतरा है. क्योंकि दांव पर सिर्फ सानिया-शोएब की शादी ही नहीं दो देशों की दोस्ती भी लगी हुई है.
(तहलका, अप्रैल)

मंगलवार, अप्रैल 27, 2010

भूख और सुर्खी

भूख पहली सुर्खी क्यों नहीं है?

ऐसा अब बहुत कम दिखता है लेकिन प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने देश में भूख के व्यापक साम्राज्य पर केंद्रित खबर को 24 मार्च को अपनी पहली लीड के बतौर पर छापा. उसके बाद उसने धारावाहिक रूप से देश के अलग-अलग इलाकों से भूख और कुपोषण की रिपोर्टें नियमित रूप से छापी हैं. इनमें से कई खबरें पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपी हैं.

इसके साथ ही, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ने भूख के खिलाफ एक अभियान के रूप में ‘हंगर प्रोजेक्ट’ शुरू किया है जिसके तहत एच.टी मीडिया समूह के बिजनेस अखबार ‘मिंट’ और ‘दैनिक हिंदुस्तान’ ने भी इन खबरों को नियमित रूप से प्रकाशित किया है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि ये ख़बरें उस समय छपी हैं जब यू.पी.ए सरकार भोजन का अधिकार देने के लिए खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की तैयारी कर रही है.


लेकिन ऐसी खबरें आमतौर पर हिंदी के अखबारों/चैनलों में सुर्खी या पहली लीड क्यों नहीं बनती है? यहां तक कि एच.टी के हंगर प्रोजेक्ट में शामिल ‘दैनिक हिंदुस्तान’ ने भी इन खबरों और रिपोर्टों को वह प्रमुखता और सुर्खी नहीं दी जो उससे अपेक्षित थी. आखिर भूख और कुपोषण हिंदी पट्टी या बीमारू प्रदेशों की सबसे बड़ी समस्या है जहां से यह अखबार निकलता है. उसके पास ऐसे संवाददाताओं और संवेदनशील संपादकों की टीम भी है जो इन इलाकों में भूख, कुपोषण और दरिद्रता की हृदयविदारक कहानियों को देश के सामने ला सकते हैं.

फिर भी ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में इन खबरों और इस अभियान को लेकर वह उत्साह देखने को नहीं मिला. हिंदी के अन्य अखबारों/चैनलों की तो बात करना ही बेकार है जिन्हें भूख तब तक कोई खबर नहीं दिखती है जब तक कि भूख से कोई मौत नहीं हो जाए. आखिर उनके मुताबिक खबर की परिभाषा किसी चीज के असामान्य होने में है न कि सामान्य होने में? हिंदी अख़बारों/चैनलों के संपादक पूछ सकते हैं कि भूख, कुपोषण और दरिद्रता में असामान्य क्या है?

लेकिन क्या भूख सचमुच तब तक खबर नहीं है जब तक कि उससे कोई मौत नहीं हो जाए? क्या स्थाई और नियमित भूख से तिल-तिलकर मर रहे और कुपोषण के शिकार बच्चे, महिलाएं और पुरुष ‘खबर’ नहीं हैं? यह सवाल महत्वपूर्ण और प्रासंगिक इसलिए है क्योंकि लोकतंत्र में समाचार मीडिया यानी अखबार और न्यूज चैनलों की भूमिका सिर्फ सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन करना भर ही नहीं है बल्कि उनकी एक जरूरी भूमिका एजेंडा निर्माण की भी है.

मीडिया विमर्श में एजेंडा निर्माण एक महत्वपूर्ण सैद्धांतिकी मानी जाती है जिसके मुताबिक समाचार मीडिया जिन मुद्दों और विषयों को ज्यादा और प्रमुखता से कवरेज देता है वे राष्ट्रीय विमर्श के एजेंडे पर आ जाते हैं. इससे एक जनमत बनता है. नतीजे में, राजनीतिक दलों-सामाजिक संगठनों और सरकार को उसपर प्रतिक्रिया देने और जरूरी कदम के लिए मजबूर होना पडता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि लोकतंत्र के चौथे खम्भे के बतौर मीडिया अपने आसपास के मुद्दों और हलचलों से कतई निरपेक्ष नहीं रह सकता. भारतीय खासकर भाषाई पत्रकारिता का जन्म और विकास इसी मान्यता के बीच हुआ है. हिंदी पत्रकारिता की विरासत और परंपरा का निर्माण भी एजेंडा निर्माण के बीच ही हुआ है. यही भाषाई पत्रकारिता की सबसे बड़ी ताकत रही है.

लेकिन सवाल यह है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में ऐसा क्या हुआ कि हिंदी के अखबारों में गाहेबगाहे भी ऐसी सुर्खी नहीं दीखती? ऐसा क्यों होता है कि हिंदी में कोई पी. साईंनाथ और ‘हिंदू’ जैसा अखबार नहीं दिखता जिन्होंने अकेले दम पर किसानों की आत्महत्याओं को राष्ट्रीय एजेंडे पर स्थापित कर दिया? हालांकि ‘प्रभात खबर’ जैसे कुछ अपवाद अभी भी हैं जो एजेंडा निर्माण की दृष्टि से अपने इलाके के महत्वपूर्ण मुद्दों पर खबरें, रिपोर्टें और अभियान चलते रहते हैं. हिंदी के कुछ और अखबार भी गाहे-बगाहे ऐसी आफबीट खबरों को अंदर के पन्नों पर छापकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करते रहे हैं.

लेकिन कुल-मिलाकर स्थिति निराशाजनक ही है. क्या यह हिंदी अखबारों/चैनलों की हीन भावना का नतीजा है? कुछ मीडिया विश्लेषकों का मानना है कि हिंदी समाचार मीडिया में ऐसी खबरों को लेकर एक खास तरह का हीनताबोध है कि अगर वे ऐसी खबरों को सुर्खी बनाएंगे तो उन्हें भूखे-नंगे लोगों का अखबार मान लिया जायेगा क्योंकि उनके बारे में पहले से ही यह धारणा बनी हुई है कि हिंदीवाले गरीब-फटेहाल और भूखे लोग हैं. जबकि ऐसी सुर्ख़ियों के बावजूद अंग्रेजी अखबारों के बारे में कोई ऐसी धारणा नहीं बना सकता है.


हिंदी अखबारों के इस हीनताबोध की ठोस व्यावसायिक वजहें हैं. उन्हें यह डर सताता है कि अगर उनकी गरीबों-भूखों-नंगों के अखबार की छवि बन गई तो उन्हें विज्ञापनदाता नहीं मिलेंगे. आखिर ऐसे अखबार को कोई विज्ञापनदाता, विज्ञापन क्यों देगा जिसके पाठकों के पास क्रयशक्ति नहीं है? इसी तरह, आमतौर पर विज्ञापनदाता यह पसंद नहीं करते हैं कि अखबार/चैनल ऐसी खबरें छापें या दिखाएं जिससे पाठक/दर्शक डिप्रेस्ड महसूस करें और नया डियोडरेंट/परफ्यूम/पावडर खरीदने की जरूरत न समझें.


यही कारण है कि पिछले दो दशकों में जबसे नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और उपभोक्तावाद की हवा चली है, अखबारों/चैनलों में फीलगुड खबरों की अहमियत बढ़ गई है और गरीबी-भूख-कुपोषण-विषमता की खबरें फैशन से बाहर हो गई हैं. लेकिन यही तर्क अंग्रेजी अखबारों पर भी लागू होते हैं. यह भी सही है कि वे भी मीडिया उद्योग के इन नियमों से बाहर नहीं हैं. वे भी अप-मार्केट और फीलगुड खबरों की दुनिया में ही सांसे लेते हैं. इसके बावजूद उनके यहां अपवादस्वरूप ही सही ऐसी खबरें न सिर्फ छपती हैं बल्कि सुर्खी भी बनती हैं.


फिर हिंदी अखबारों/चैनलों में इसके लिए कोई जगह क्यों नहीं है? ऐसा लगता है कि हिंदी अखबारों/चैनलों में विचारों और परिश्रम दोनों ही स्तरों पर एक सुस्ती और यथास्थितिवाद हावी हो गए हैं जिसके कारण वह संपादकीय साहस सिरे से गायब हो गया है जो 70 के दशक के उत्तरार्ध से लेकर 90 के दशक के शुरुआती वर्षों तक हिंदी के अखबारों-पत्रिकाओं की पहचान बन गया था.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि वह पहचान खोकर हिंदी समाचार मीडिया एजेंडा निर्माण की क्षमता भी गंवाता जा रहा है. लोकतांत्रिक ढांचे में यह हिंदी अखबारों और उनके पाठकों- दोनों के लिए चिंता और विचार का विषय है. आखिर बिना आवाज़ के अखबार किसका भला करेंगे?

मंगलवार, अप्रैल 20, 2010

संकट में है अराजक सैन्य माओवादी राजनीति

बंदूक की पिछलग्गू माओवादी राजनीति से जनसंघर्षों को सबसे अधिक नुकसान हो रहा है

  

 

रैडिकल और क्रांतिकारी बदलाव का दावा करनेवाली राजनीति में बंदूक का आकर्षण नया नहीं है लेकिन जब बंदूक उस राजनीति पर हावी हो जाए तो क्या होता है? बंदूक, राजनीति को निर्देशित करने लगती है और राजनीति धीरे-धीरे पृष्ठभूमि में चली जाती है. बंदूक पर निर्भरता बढ़ने लगती है और अंततः बंदूक ही उस राजनीति को परिभाषित करने लगती है. धीरे-धीरे वह राजनीति सैन्य अराजकतावाद के एक ऐसे दुष्चक्र में फंस जाती है जहां तर्क, विचार और राजनीति के लिए जगह नहीं रह जाती है. निश्चय ही, रैडिकल बदलाव की राजनीति के लिए इससे बड़ी त्रासदी और कुछ नहीं हो सकती है.

 

लेकिन यह एक ऐसी दुखद त्रासदी है जिसके उदाहरणों से दुनिया और खुद भारत का इतिहास भरा पड़ा है. ऐसा लगता है कि भारत में रैडिकल बदलाव की राजनीति की सबसे बड़ी चैम्पियन होने का दावा करनेवाली सी.पी.आई (माओवादी) भी इसी त्रासदी का शिकार हो गई है. वह खुद स्वीकार करे या न करे लेकिन दंतेवाड़ा में सी.आर.पी.एफ के 76 जवानों की घात लगाकर की गई हत्या से लेकर ऐसे ही अन्य दुस्साहसिक सैन्य हमलों को अपनी सफलता के बतौर पेश करनेवाली माओवादी राजनीति किस दुष्चक्र में फंस गई है, यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है. सच यह है कि ये दुस्साहसिक सैन्य हमले माओवादी राजनीति की 'सफलता' या 'जीत' के नहीं बल्कि उसकी निराशा और हताशा के प्रतीक हैं. खुद लेनिन ने लिखा था- 'अराजकतावाद हताशा की पैदाइश है.'

 

दरअसल, सी.पी.आई (माओवादी) भी जिस सैन्य अराजकतावाद की राजनीति का शिकार हो गई है, उसमें वह भारतीय राज्य और शासक वर्गों के साथ घिसाव-थकाव के एक ऐसे असमान सैन्य युद्ध में फंस गई है जिसमें दंतेवाड़ा-सिल्दा-कोरापुट जैसी कथित 'सैन्य सफलताओं' के बावजूद रैडिकल बदलाव की राजनीति को आगे बढ़ाने की संभावनाएं दिन पर दिन क्षीण होती जा रही हैं. यह इसलिए कि राज्य और उसकी असीमित सैन्य शक्ति का मुकाबला राजनीति को पीछे रखकर मुट्ठी भर 'सैन्य दलम' (सशस्त्र स्क्वैड) के जरिये कर पाना लगभग असंभव है. सच पूछिए तो माओवादी राजनीति राज्य के ट्रैप में फंस गई है क्योंकि एक सामंती-पूंजीवादी राज्य के लिए बदलाव और जनसंघर्षों की राजनीति की तुलना में सैन्य अराजकतावाद को कुचलना ज्यादा आसान है.

 

लेकिन अफसोस की बात यह है कि क्रांतिकारी आन्दोलनों के इतिहास से सबक लेने के बजाय माओवादी ऐसी मतान्धता का शिकार हो गए हैं कि 21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में यांत्रिक तरीके से 20वीं शताब्दी के चीन को दोहराने की जिद पर अड़े हुए हैं. हैरानी की बात यह है कि चीनी क्रांति और उससे अधिक खुद भारत में पिछले चालीस वर्षों के अपने अनुभव से सबक लेने के बजाय वे अब भी 'सत्ता बंदूक की नली से निकलती है' की यांत्रिक समझ के साथ पहले पहाड़ी-जंगली क्षेत्रों में 'गुर्रिल्ला जोन' और फिर उसे 'बेस एरिया' बनाकर गांवों से शहरों को घेरने की सैन्य रणनीति से चिपके बैठे हैं. जाहिर है कि इस माओवादी राजनीति में अन्तर्निहित रूप से वैचारिक तौर पर बंदूक की सर्वोच्चता के आगे जनसंघर्षों की राजनीति की कोई अहमियत नहीं है.

 

आश्चर्य नहीं कि माओवादी राजनीति में बंदूक के दबदबे के आगे वास्तव में बदलाव की वाहक गरीब जनता और उसके जनसंघर्षों की भूमिका नहीं के बराबर रह गई है. वह या तो मूकदर्शक छोड़ दी गई है या फिर राज्य की सैन्य शक्ति का कहर झेलने के लिए मजबूर है. यही नहीं, माओवादी राजनीति में जनसंघर्षों की उपेक्षा के कारण आम गरीबों, आदिवासियों और मजदूरों की पहलकदमी भी खुल नहीं पाती है और वे भी राज्य दमन और शोषण के खिलाफ लड़ने के बजाय सैन्य दस्तों का इंतज़ार करने लगते हैं. इस तरह, राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा न होने के कारण गरीब जनता का राजनीतिक प्रशिक्षण भी नहीं हो पाता है जबकि रैडिकल बदलाव के किसी भी आंदोलन में आम गरीब जनता की भूमिका सबसे अगुवा की होनी चाहिए.

 

लेकिन माओवादी राजनीति में गरीब जनता पीछे है और बंदूक आगे. असल में, आम गरीब जनता और उसके जनसंघर्षों को पीछे रखने का मतलब राजनीति को पीछे रखना है. यह माओवादी राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि देश में जंगल, जमीन, पानी, खनिजों और श्रम की कारपोरेट लूट के खिलाफ   गरीब जनता, किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों और नौजवानों के जनसंघर्षों को भी माओवादी राजनीति के कारण नुकसान उठाना पड़ रहा है. इसका सबसे ताजा उदाहरण लालगढ़ है जहां गरीब आदिवासियों और भूमिहीन मजदूरों के स्वतःस्फूर्त आंदोलन में माओवादी हथियारबंद दस्तों की घुसपैठ और उनकी बेमतलब सैन्य कार्रवाइयों ने इस आंदोलन की संभावनाओं की भ्रूण हत्या कर दी. जबकि इसके उलट नंदीग्राम और सिंगुर में किसानों के लोकप्रिय आंदोलन ने आम गरीबों की ताकत और जनसंघर्षों के बल पर राज्य और बड़ी पूंजी के प्रतिनिधियों को पीछे हटने को मजबूर कर दिया.

 

लेकिन इस सबसे सबक सीखने के बजाय सी.पी.आई (माओवादी) की ओर से अराजक सैन्य कार्रवाइयां बढ़ती ही जा रही हैं. इसकी माओवादियों से अधिक कीमत वास्तव में गरीब आदिवासी जनता और उसके जनसंघर्षों को चुकानी पड़ रही है. तथ्य यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों की देशी-विदेशी कारपोरेटपरस्त नीतियों और जंगल, जमीन, जल, खनिजों की लूट और सेज जैसी योजनाओं से विस्थापन के खिलाफ अपने हक के लिए देश भर में जुझारू जनसंघर्षों की एक बाढ़ सी दिख रही है. इन जनसंघर्षों के कारण सरकार और कारपोरेट क्षेत्र को कई जगहों पर पीछे हटना पड़ा है और कई जगहों पर यह लड़ाई अब भी जारी है लेकिन माओवादी सैन्य अराजक राजनीति के कारण केंद्र-राज्य सरकारों के लिए इन सभी आन्दोलनों को माओवादी बताकर कुचलना आसान होता जा रहा है.

 

इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि देश के कई हिस्सों में जहां माओवादी आंदोलन का कोई असर नहीं है, वहां भी केंद्र-राज्य सरकारें गरीबों के जुझारू संघर्षों को माओवादी बताकर कुचलने और उनके नेताओं को गिरफ्तार करने से हिचकिचा नहीं रही है. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, उडीशा, आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ऐसी गिरफ्तारियां और दमन आम होता जा रहा है. असल में, देश में माओवाद के कथित खतरे को केंद्र और राज्य सरकारें जिस तरह से बढ़ा-चढाकर दिखा/बता रही हैं, उसके पीछे भी वजह यही है कि गरीब जनता के हर संघर्ष खासकर जुझारू जनसंघर्षों को माओवादी बताकर कुचला जा सके. अफसोस की बात यह है कि अराजक सैन्य कार्रवाइयों खासकर दंतेवाड़ा जैसे हमलों के जरिये माओवादी केंद्र और राज्य सरकारों को सभी जनांदोलनों को कुचलने के लिए राजनीतिक माहौल बनाने का मौका दे रहे हैं.

 

दंतेवाड़ा और राजधानी एक्सप्रेस जैसे अराजक और दुस्साहसी हमलों के जरिये माओवादी उन मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकताओं, अन्य जुझारू आन्दोलनों और राजनीतिक दलों को भी एक तरह के नैतिक संकट और सरकारी दमन और कारपोरेट शोषण के खिलाफ उठनेवाली जनसंघर्षों की आवाजों को रक्षात्मक स्थिति में डाल देते हैं. एक ऐसे समय में जब रैडिकल बदलाव की राजनीति चौतरफा हमलों का सामना कर रही हो, वह अपने प्रति सहानुभूति रखनेवाले मध्यमवर्गीय तबकों और उदार-लोकतान्त्रिक बुद्धिजीवियों का समर्थन खोने का जोखिम नहीं उठा सकती है. लेकिन माओवादी अपनी अराजक सैन्य    कार्रवाइयों के जरिये यही कर रही है.

 

दरअसल, अराजक माओवादी राजनीति की यह भी एक खास पहचान है. अपनी संकीर्णतावादी, अराजक सैन्य राजनीति के कारण उनमें जो अधिनायकवादी प्रवृत्तियां पनपने लगती हैं, उसके कारण वे अपने प्रभाव वाले इलाकों और उससे बाहर भी किसी और वैकल्पिक राजनीति और आंदोलन को सहन नहीं करते और न ही किसी बहस की इजाजत देते हैं. नतीजा यह कि बिहार और झारखण्ड के कई इलाकों में उन्होंने एम.एल के नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्या करने से भी परहेज नहीं किया है. खासकर झारखण्ड के बगोदर में एम.एल के लोकप्रिय विधायक महेंद्र सिंह की हत्या में उनकी भूमिका किसी से छुपी नहीं है. एम.एल की छोडिये, उन्होंने नेपाल में अपनी बिरादराना पार्टी सी.पी.एन(माओवादी) को भी पथभ्रष्ट बताने से संकोच नहीं किया.

 

यही नहीं, यह भ्रम भी दूर हो जाना चाहिए कि माओवादी जन, जंगल. जमीन और खनिजों की लूट के खिलाफ गरीब जनता खासकर आदिवासियों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं. सच यह है कि अपने प्रभाव के इलाकों में माओवादियों ने जिस तरह से ठेकेदारों, कंपनियों, सामंतों, इंजीनियरों आदि से वसूली और लेवी का पूरा तंत्र खड़ा किया है, उसका मकसद लूट और भ्रष्टाचार का विरोध नहीं बल्कि उसे चलते रहने देकर उससे "बदलाव की रैडिकल राजनीति के लिए" संसाधन इकठ्ठा करना है. यह और बात है कि माओ ने बड़ी पूंजी पर आश्रित होने के बजाय जनता पर निर्भर रहने की सलाह दी थी. दूसरी बात यह कि कारपोरेट लूट के खिलाफ यह कैसी लड़ाई है कि उससे लेवी वसूल कर उसकी लूट को जारी रहने का लाइसेंस दिया जा रहा है? यही तो भारतीय राज्य भी कर रहा है. क्या माओवादी ऐसे ही बदलाव के लिए लड़ रहे हैं?

 

कहने की जरूरत नहीं है कि माओवादी खुले जनसंघर्षों की उपेक्षा और मुख्यधारा की राजनीति में हस्तक्षेप की जरूरत को अनदेखा करने की अपनी अराजक सैन्य राजनीति के कारण एक गहरे वैचारिक और राजनीतिक संकट में फंस गए हैं. दंतेवाड़ा जैसे हमले उसी संकट की हताशा से निकल रहे हैं. माओवादी पार्टी किस गंभीर संकट का सामना कर रही है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ महीनों में उसके १४ सदस्यी पोलित ब्यूरो के लगभग आधे सदस्य गिरफ्तार किये जा चुके हैं. कहना मुश्किल है कि आनेवाले महीनों में जब राज्य का आक्रमण और तेज होगा, अपनी अराजक राजनीति के कारण राजनीतिक रूप से लगातार अलग-थलग पड़ते जा रहे माओवादी तब किस हद तक उसका मुकाबला करने की स्थिति में होंगे? यह निश्चय ही, एक त्रासदी होगी लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है?                                           

शनिवार, अप्रैल 17, 2010

मीडिया में आदिवासी कहां हैं?

दंतेवाड़ा की घटना के बाद माओवाद को लेकर मुख्यधारा के समाचार मीडिया में जारी पूरी बहस में लगभग एक सुर से उसे कुचल देने की वकालत की जा रही है. अखबारों और चैनलों में बिना किसी लाग-लपेट के कहा जा रहा है कि ‘बहुत हुआ, अब और बर्दाश्त नहीं किया जा सकता’(एनफ इस एनफ). सरकार को सलाह दी जा रही है कि माओवादियों को कुचलने के लिए खुला युद्ध छेड दिया जाना चाहिए जिसमें सेना और खासकर वायु सेना के इस्तेमाल से भी परहेज करने की जरूरत नहीं
है. हल्लाबोल वाले अंदाज़ में कहा जा रहा है कि माओवादियों/नक्सलियों के प्रभाव वाले इलाके भारत के हिस्से हैं और उनपर फिर से अपना ‘दबदबा बनाने’ के लिए सरकार को सैन्य ताकत का इस्तेमाल करने से हिचकिचाना नहीं चाहिए.

हालांकि मीडिया दबे स्वर में इन इलाकों में आदिवासियों और गरीबों की दशकों से जारी शोषण और उपेक्षा के तथ्य को स्वीकार कर रहा है लेकिन तर्क यह दिया जा रहा है कि माओवादी आदिवासियों का इस्तेमाल कर रहे हैं और शोषण और उपेक्षा का जवाब हिंसा नहीं हो सकती है. इस बहस में सबसे अधिक गौर करनेवाली बात यह है कि मुख्यधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा अत्यंत आक्रामक शैली में ‘वे’ यानि माओवादी/नक्सली और ‘हम’ यानि बाकी देश की भाषा में बात कर रहा है. साफ है कि माओवाद को लेकर मीडिया के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है बल्कि सिलदा, कोरापुट और अब दंतेवाड़ा की घटनाओं के बाद यह रूख और सख्त और आक्रामक हो गया है.

लेकिन सवाल है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में वायुसेना के इस्तेमाल की वकालत करनेवाले मीडिया में अगर आदिवासी पत्रकार/संपादक भी काम कर रहे होते तो क्या उनकी भाषा इतनी ही आक्रामक और एकतरफा होती? क्या तब भी मीडिया ‘वे’ और ‘हम’ के अंदाज में बात करता? क्या तब मीडिया में यह तर्क दिया जाता कि आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर अंतहीन विस्थापन, भ्रष्टाचार, शोषण और लूट के बावजूद ‘हिंसा’ कोई विकल्प नहीं है? ये सवाल कुछ लोगों अटपटे और बेमानी लग सकते हैं लेकिन कई कारणों से बहुत महत्वपूर्ण हैं.

असल में, देश में आदिवासी समुदाय की बदतर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति और उन्हें हाशिए से भी बाहर धकेल दिए जाने का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि मुख्यधारा के समाचार मीडिया में आदिवासियों की मौजूदगी न के बराबर है. जितनी मुझे जानकारी है, उसके मुताबिक देश के किसी भी अखबार/चैनल में संपादक या उससे निचले निर्णायक संपादकीय पदों पर आदिवासी खासकर पूर्वी और मध्य भारत के आदिवासी पत्रकार नहीं हैं. क्या यह हैरान करनेवाली बात नहीं है कि देश की आबादी में लगभग आठ फीसदी होने के बावजूद समाचार माध्यमों में आदिवासी समुदाय के पत्रकार एक फीसदी भी नहीं हैं? उससे भी अधिक हैरान करनेवाली बात यह है कि आदिवासी बहुल इलाकों और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों जैसे रायपुर, रांची, भुवनेश्वर, जमशेदपुर और कोलकाता से प्रकाशित हिंदी-अंग्रेजी-उड़िया-बांग्ला अख़बारों में भी आदिवासी पत्रकारों की संख्या उँगलियों पर गिनी जाने लायक भी नहीं है और वरिष्ठ पदों पर तो बिलकुल शून्य ही है.

साफ है कि मुख्यधारा के मीडिया के समाचार कक्षों में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व बिलकुल नहीं है. इससे मुख्यधारा के मीडिया के वर्गीय चरित्र का अंदाजा लगाया जा सकता है. निश्चय ही, यह मीडिया में मौजूद ‘लोकतान्त्रिक घाटे’ को प्रतिबिंबित करता है. यह उसकी बहुत बड़ी कमजोरी है. स्वाभाविक तौर पर इसका असर उनके कंटेंट और रूख पर दिखाई पडता है. आश्चर्य नहीं कि मीडिया में आदिवासी समुदाय की तकलीफों और भावनाओं की सच्ची स्टोरीज भी नहीं दिखती हैं. यही कारण है कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा युद्ध और हवाई हमलों में होनेवाले जान-माल के गंभीर नुकसान (कोलेटरल डैमेज) के बारे में बिना एक पल भी सोचे-विचारे खुला युद्ध छेड़ने की वकालत कर रहा है.

लेकिन क्या मुख्यधारा का मीडिया इस सवाल पर विचार करेगा कि वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से समाचार कक्षों में आदिवासी समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं है? क्या यह भी एक कारण नहीं है कि मीडिया की आवाज ‘उन’ आदिवासियों/इलाकों तक नहीं पहुंच पा रही है? सच पूछिए तो यह मीडिया के लिए खुद के अंदर झांकने का अवसर है. क्या मीडिया इसके लिए तैयार है?

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

देशी विश्वविद्यालयों की कब्र पर विदेशी विश्वविद्यालयों की ईमारत

विदेशी नहीं, देशी विश्वविद्यालयों से ज्ञान महाशक्ति बनने का ख्वाब होगा पूरा

पता नही, मनमोहन सिंह सरकार के कैबिनेट मंत्रियों ने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने परिसर खोलने की इजाजत देनेवाले विधेयक को मंजूरी देते समय बी.बी.सी की वह खबर पढ़ी थी या नहीं जिसके मुताबिक ब्रिटेन में विश्वविद्यालयों की ऊंची फ़ीस चुकाने के लिए विद्यार्थी देह व्यापार करने से लेकर पोर्न फिल्मों में काम करने को मजबूर हो रहे हैं. बी.बी.सी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन के किंग्स्टन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रान रोबर्ट्स के सर्वेक्षण में एक चौंकानेवाला तथ्य सामने आया है कि ब्रिटेन में उच्च शिक्षा के भारी खर्चों को उठाने के लिए लगभग 25 फीसदी विद्यार्थियों को देह व्यापार में उतरने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. दस वर्षों पहले तक ऐसे विद्यार्थियों की संख्या सिर्फ तीन प्रतिशत थी. साफ है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में ब्रिटेन में उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर जिस तरह से खुले बाजारीकरण को बढ़ावा दिया गया है, उसके कारण आम विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा का बढ़ता खर्च उठाना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है.


ब्रिटेन ही नहीं, अमेरिका में भी हालात कुछ खास बेहतर नहीं हैं. अमेरिकी कालेज बोर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका में स्नातक की डिग्री हासिल करनेवाले दो-तिहाई छात्रों पर औसतन 20 हजार डालर का शिक्षा कर्ज होता है जबकि उनमें से 10 फीसदी 40 हजार डालर से अधिक के कर्ज में डूबे होते हैं. याद रहे यह सिर्फ कालेज/विश्वविद्यालयों की ऊंची फीसों को चुकाने के लिए लिया गया कर्ज है. इसमें अन्य खर्चे शामिल नहीं हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि अमेरिका और ब्रिटेन ही नहीं, अधिकांश विकसित पूंजीवादी देशों में लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा आम विद्यार्थियों के बूते से बाहर होती जा रही है. यह भारत जैसे विकासशील देशों के लिए एक सबक है जहां सरकार और नीति-निर्माताओं को लगता है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सभी समस्याओं का हल अमेरिकी और पश्चिमी उच्च शिक्षा व्यवस्था की आंख मूंदकर नक़ल करना है.


जाहिर है कि यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है जिसे लग रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से देश में उच्च शिक्षा में क्रांति हो जाएगी. विदेशी शिक्षा प्रदाता विधेयक लाने के लिए दिन-रात एक करनेवाले मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को विश्वास है कि,"विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश में आने का दरवाजा खोलना टेलीकाम क्रांति से भी बड़ी क्रांति साबित होगी." विदेशी विश्वविद्यालयों के पक्ष में सिब्बल का सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतियोगिता को बढ़ावा मिलेगा और नतीजे में देशी विश्वविद्यालयों की गुणवत्ता में भी सुधार होगा. इससे उच्चस्तरीय शोध और शिक्षण का माहौल बनेगा. सिब्बल का यह भी तर्क है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के आने से उन विद्यार्थियों को फायदा होगा जो धन की कमी के कारण बेहतर और गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश नहीं जा पाते हैं. उन्हें विदेशी विश्वविद्यालयों की डिग्री विदेशों की तुलना में आधी या एक चौथाई फ़ीस में देश में ही मिल जाएगी.


लेकिन लगता है कि सिब्बल मुंगेरीलाल के हसीन सपनो में जी रहे हैं. पहली बात तो यह है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति देने के बावजूद इस बात की संभावना बहुत कम है कि दुनिया के बेहतरीन ५० विश्वविद्यालयों में से कोई विश्वविद्यालय भारत में अपना परिसर खोलने आएगा. इन विश्वविद्यालयों में से अधिकांश ने अपने देश में ही अपने दूसरे परिसर नहीं खोले हैं. असल में, विश्वविद्यालय खोलने और फैक्टरी खोलने में फर्क है. विश्वविद्यालय फैक्टरी नहीं हैं कि उन्हें कहीं से उठाया और कहीं शुरू कर दिया. भूलिए मत कि अधिकांश विश्वविद्यालय एक दिन में नहीं बल्कि अपनी खास ऐतिहासिक परिस्थितियों में बने और फले-फूले हैं. अच्छा होता अगर सिब्बल साहब ने इस बारे में यशपाल समिति की रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा होता. रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘यह बात याद रखी जानी चाहिए कि विश्वविद्यालय अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के साथ जीवंत संबंधों के बीच विकसित होते हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय को भी किसी और जगह प्रत्यारोपित करके उतना ही बेहतर प्रदर्शन करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है. किसी विश्वविद्यालय की खास पहचान उसके पाठ्यक्रमों से ही नहीं बल्कि उसकी भौतिक उपस्थिति से भी होती है.’


साफ है कि बेहतरीन से बेहतरीन विश्वविद्यालय के भी भारत में परिसर खोलने का अर्थ यह नहीं होगा कि रातोंरात देश में एक नया ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज या हार्वर्ड बन जायेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सच्चाई को बड़े और बेहतर विदेशी विश्वविद्यालय भी जानते हैं. वे हरगिज नहीं चाहेंगे कि दशकों में बना उनका ब्रांड दूसरे या तीसरे दर्जे के विदेशी परिसर के कारण खतरे में पड़ जाये. इसीलिए इनमें से अधिकांश भारत में परिसर खोलने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं. ऐसी स्थिति में खतरा यह है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर दूसरे और तीसरे दर्जे के संस्थान और विश्वविद्यालय शिक्षा का व्यापार करने के इरादे से देश में न आने लगें. हालांकि सरकार यह दावा कर रही है कि वह विदेशी विश्वविद्यालयों को मुनाफा कमाकर वापस अपने देश नहीं ले जाने देगी लेकिन दूसरी ओर, वह मुनाफा बाहर ले जाने का चोर दरवाजा भी खोल रही है. इन विश्वविद्यालयों को कंसल्टेंसी आदि के जरिये कमाई गई रकम वापस ले जाने की अनुमति होगी. भारत में विनियामक और नियंत्रक संस्थाओं/एजेंसियों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इस चोर दरवाजे कमाई निकल ले जाना कितना आसान होगा.


इसीलिए इस आशंका को बल मिल रहा है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर भारतीयों के एक हिस्से में विदेशी डिग्री के प्रति विशेष मोह को भुनाने के लिए दूसरे और तीसरे दर्जे के विदेशी संस्थान या विश्वविद्यालय शिक्षा की दुकानें खोलने और मुनाफा कमाने उतर पड़ेंगे. खासकर रोजगार दिलाने का वायदा करनेवाले कथित व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की बाढ़ सी आ जायेगी जिनमें मनमानी फ़ीस वसूलने के बावजूद गुणवत्ता की कोई गारंटी नहीं होगी. इस मामले में, भारत और दुनिया के अन्य देशों के अभी तक के अनुभवों से भी स्पष्ट है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के नाम पर अधिकतर तीसरे दर्जे के विश्वविद्यालय ही मुनाफा कमाने के इरादे से परिसर खोलने आते हैं. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ने विदेशी विश्वविद्यालय विधेयक में इन विश्वविद्यालयों को उन राष्ट्रीय कानूनों और सामाजिक दायित्व की जिम्मेदारियों से भी बाहर रखा है जो देशी विश्वविद्यालयों पर लागू होते हैं. उन्हें अपनी फ़ीस तय करने से लेकर पाठ्यक्रम/शिक्षक/छात्र आदि चुनने और उनकी सेवा शर्तों को निश्चित करने का अधिकार होगा.

आखिर क्यों? क्या विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करना इतना जरूरी हो गया है कि उनके लिए देशी कानूनों को भी परे रख दिया जाए? क्या विदेशी विश्वविद्यालयों के बिना उच्च शिक्षा की समस्याएं हल नहीं होंगी? सच यह है कि सरकार की उच्च शिक्षा की समस्याएं हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है. वह न सिर्फ अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है बल्कि उच्च शिक्षा को देशी-विदेशी निजी संस्थानों के हवाले करने की पेशकश कर रही है. अगर सरकार की उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने में सचमुच दिलचस्पी होती तो वह विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए उनकी शर्तों पर देश के दरवाजे खोलने के बजाय देशी विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बनाने के लिए ईमानदारी से प्रयास करती. देश के सैकड़ों विश्वविद्यालय सरकारी उपेक्षा और लापरवाही के कारण बर्बाद हो रहे हैं. क्या सरकार देशी विश्वविद्यालयों की कब्र पर विदेशी विश्वविद्यालयों की इमारतें खड़ी करने की तयारी कर रही है?


यहाँ चीन का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा जिसका आजकल हर बात में उदाहरण दिया जाता है. चीन ने विदेशी विश्वविद्यालयों को बुलाने के बजाय अपने देशी विश्वविद्यालयों को वैश्विक स्तर का बनाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में योजनाबद्ध प्रयास किया है. उसने अपने विश्वविद्यालयों को अरबों डालर के संसाधन मुहैया कराए हैं और उसी का नतीजा है कि चीन में आज एक दर्जन से भी अधिक ऐसे विश्वविद्यालय हैं जो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल हैं और अनेकों विश्वविद्यालय उस दिशा में बढ़ रहे हैं. याद रखिये, उधार के ज्ञान की सीमा होती है. उधार के ज्ञान पर दुनिया का कोई देश विश्व की महाशक्ति नहीं बना है. अगर देश सचमुच ज्ञान महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे बाहर नहीं, देश के अंदर पटना, इलाहबाद, लखनऊ और गोरखपुर जैसे देशी विश्वविद्यालयों की सुध लेनी पड़ेगी.

मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

सिर्फ टैम नहीं, रेटिंग की तानाशाही का विकल्प खोजिए

टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था को लेकर जारी विवादों और बहस के बीच खबर है कि टेलीविजन प्रसारकों की संस्था- आई.बी.एफ और सरकार के बीच एक वैकल्पिक टी.वी रेटिंग प्रणाली शुरू करने पर सहमति हो गई है. इसके लिए टी.वी प्रसारणकर्ताओं ने खुद की कंपनी- ब्राडकास्ट आडिएंस रिसर्च काउन्सिल(बार्क) के जरिये टी.वी दर्शक रेटिंग का आकलन करने का इरादा जताया है. अभी तक टेलीविजन रेटिंग के धंधे पर बहुराष्ट्रीय कंपनी- ए.सी निएल्सन-आई.एम.आर.बी के संयुक्त उपक्रम टी.ए.एम मीडिया रिसर्च लिमिटेड (टैम) का दबदबा है. हालांकि बाजार में ए-मैप नाम की एक कंपनी भी टी.वी रेटिंग के आंकड़े जारी करती है लेकिन सच्चाई यह है कि टैम के आगे वह कुछ भी नहीं है.

सच पूछिए तो रेटिंग के धंधे पर टैम का एकाधिकार सा हो गया है. इस कारण जैसे हर एकाधिकार(मोनोपॉली) के खतरे होते हैं, वैसे ही रेटिंग के धंधे पर टैम की मोनोपॉली का नतीजा भी कई विकृतियों और गडबडियों के रूप में सामने आ रहा है. टेम की मौजूदा रेटिंग प्रणाली के बारे में प्रसारकों, कार्यक्रम निर्माताओं, संपादकों से लेकर मीडिया विश्लेषकों तक को कई गंभीर शिकायतें रही हैं. इनमें सबसे गंभीर शिकायत यह रही है कि देश भर के दर्शकों की रूचि और पसंद-नापसंद का फैसला करनेवाली इस रेटिंग प्रणाली में देश का सही प्रतिनिधित्व नहीं होता है क्योंकि करोड़ों दर्शकों की पसंद सिर्फ सात हजार पीपुलमीटर (एजेंसी के मुताबिक आठ हजार) के आधार पर कैसे तय की जा सकती है? यही नहीं, इस रेटिंग प्रणाली में महानगरों और शहरों के अलावा अमीर राज्यों के प्रति एक स्पष्ट झुकाव शामिल है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों के अलावा देश के कई राज्यों में एक भी पीपुलमीटर नहीं लगा है.

इस तरह, इस रेटिंग प्रणाली पर अवैज्ञानिक, पूर्वाग्रहग्रस्त और बाजारोन्मुख होने के अलावा रेटिंग में तोड़-मरोड़ के आरोप भी लगते रहे हैं. इसके बावजूद इसका जलवा कभी कम नहीं हुआ तो इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि विज्ञापनदाता किसी और विश्वसनीय टी.वी रेटिंग एजेंसी के अभाव में इसे ही आँख मूंदकर स्वीकार करते रहे हैं. इस रेटिंग के आधार पर ही कोई ग्यारह हजार करोड़ रूपये के विज्ञापन किन-किन चैनलों और उनके किन-किन कार्यक्रमों को मिलेंगे, इसका फैसला होता है. चूँकि अधिकांश चैनल अभी भी विज्ञापन आय पर ही निर्भर हैं, इसलिए उनके लिए रेटिंग जीवन-मरण का सवाल बन जाती है. जाहिर है कि रेटिंग के व्यवसाय पर दांव बहुत उंचे हैं.

यही कारण है कि मनोरंजन चैनलों से लेकर समाचार चैनलों तक कार्यक्रमों की गुणवत्ता का एकमात्र पैमाना रेटिंग बन गया है. उसके आतंक के आगे टी.वी उद्योग बिलकुल लाचार सा दिखता है. चैनल क्या दिखायेंगे, यह रेटिंग से तय हो रहा है. रेटिंग के आधार पर चैनलों की प्राथमिकताएं तय हो रही हैं. चूंकि टैम की रेटिंग हर सप्ताह आती है, इसलिए चैनलों में उसके अनुसार कार्यक्रम बन रहे हैं. लेकिन इन तमाम आलोचनाओं और विकृतियों के बावजूद अभी भी टैम की रेटिंग का खोटा सिक्का बाजार में धडल्ले से चल रहा है तो उसकी भी बड़ी वजह यही है कि टी.वी उद्योग और विज्ञापनदाताओं में इसके विकल्प को लेकर मतभेद हैं. रेटिंग में आगे कई चैनलों को लगता है कि यह शिकायत रेटिंग की दौड में पीछे रह जानेवालों की है. इसी तरह, टैम की रेटिंग के आलोचकों के पास उससे बेहतर कोई वैकल्पिक माडल भी नहीं है.

इस पूरी बहस की सबसे बड़ी त्रासदी यही है. दरअसल, उसे टी.वी रेटिंग की व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं है. उसे सिर्फ टैम की रेटिंग प्रणाली की कमियों-खामियों से शिकायत है. लेकिन समस्या सिर्फ टैम की रेटिंग तक सीमित नहीं है बल्कि इस तरह की किसी भी रेटिंग व्यवस्था की यह अन्तर्निहित विकृति है जिसका उद्देश्य विज्ञापनदाताओं के लिए टार्गेट आडिएंस खोजना है. याद रहे, इस रेटिंग व्यवस्था का मूल मकसद विज्ञापनदाता के लिए उन दर्शकों की तलाश है जिनके पास उसके उत्पादों/सेवाओं को खरीदने की सामर्थ्य है. जाहिर है कि जब तक समृद्ध और उपभोक्ता दर्शकों की पसंद-नापसंद को ध्यान में रखकर रेटिंग होगी और उसे आकर्षित करने के लिए कार्यक्रम बनाये जायेंगे, रेटिंग के दलदल से बाहर निकलना संभव नहीं है. चाहे टैम हो या बार्क- समस्या हल होनेवाली नहीं है. असल में, मूल मुद्दा टैम का नहीं, टी.वी रेटिंग का विकल्प खोजने का है या कहें कि विज्ञापन आय पर निर्भर टी.वी को विज्ञापनों की जकडबंदी से बाहर निकालने का है.
(प्रभात खबर, 3 अप्रैल'10)

गुरुवार, अप्रैल 08, 2010

माओवाद, मीडिया और सत्य की शक्ति

देश के पूर्वी राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में केंद्र और राज्य सरकारों ने माओवाद/नक्सलवाद के सफाए के लिए आपरेशन ग्रीन हंट शुरू कर रखा है. यू.पी.ए सरकार मानती है कि माओवाद देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा है. लेकिन कई मानवाधिकारवादी संगठन और जाने-माने बुद्धिजीवी आपरेशन ग्रीन हंट से सहमत नहीं हैं और उनका मानना है कि सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच युद्ध जैसी स्थिति में सबसे अधिक नुकसान आम आदिवासियों का हो रहा है. उनकी मांग है कि सरकार और माओवादियों को बातचीत करनी चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि खून-खराबा तत्काल रोका जाए.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि दोनों पक्षों में से कोई भी तर्क और विवेक की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है. सवाल है कि ऐसी आंतरिक कनफ्लिक्ट की स्थिति में समाचार मीडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए? क्या मीडिया को किसी एक पक्ष के साथ खड़ा हो जाना चाहिए या मध्यस्थता की कोशिश करनी चाहिए? या फिर इससे अलग पूरी निष्पक्षता के साथ सच्चाई और तथ्यों पर आधारित रिपोर्टिंग और इस मुद्दे पर विभिन्न विचारों को जगह देकर देश और समाज को इस प्रश्न पर एक आम राय बनाने में मदद करनी चाहिए. दुनिया भर के अनुभवों से यह स्पष्ट है कि समाचार मीडिया की भूमिका ऐसे मामलों में निष्पक्ष और तथ्यपूर्ण रिपोर्टिंग और दोनों पक्षों पर लोकतान्त्रिक तरीके से विवादों को सुलझाने के लिए उपयुक्त माहौल और दबाव बनाने की ही होनी चाहिए.


लेकिन अफसोस और चिंता की बात यह है कि समाचार मीडिया का एक बड़ा हिस्सा संघर्ष में पार्टी बन गया है. वह न सिर्फ खुलकर आपरेशन ग्रीन हंट का समर्थन कर रहा है बल्कि उसका वश चले तो माओवाद के सफाए के लिए वह उन इलाकों में सेना, टैंक और लड़ाकू विमान उतार दे. जाहिर है कि वह इस पूरे मसले के सैन्य समाधान का पक्षधर है. लोकतंत्र में सभी को अपनी राय रखने की आज़ादी है. अगर मीडिया का एक हिस्सा ऐसी राय रखता है तो यह उसकी आज़ादी है. जैसे ग्रीन हंट की आलोचना और उसे तुरंत रोकने की मांग करनेवालों को भी अपनी बात रखने की पूरी आज़ादी है. लेकिन समस्या तब हो जाती है जब इस पूरे मामले के सैन्य समाधान की राय रखनेवाले अखबार/चैनल खबरों को भी तोड़-मरोड़ कर पेश करने लगते हैं.


यही नहीं, इस आपरेशन के बारे में पुलिस और सुरक्षा बलों की ओर से उपलब्ध कराई गई सूचनाओं पर आधारित एकतरफा खबरें लिखी जाने लगती हैं. उससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि आपरेशन ग्रीन हंट के इलाकों में वास्तव में क्या हो रहा है, इसकी कोई तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ जमीनी रिपोर्ट नहीं आ रही है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर अधिकांश अखबारों/चैनलों ने इसकी रिपोर्टिंग के लिए वरिष्ठ और अनुभवी संवाददाताओं को ग्राउंड जीरो पर भेजने जहमत नहीं उठाई है. जबकि इस समय इस तरह की जमीनी रिपोर्टिंग की बहुत जरूरत है. इस तरह की जमीनी रिपोर्टिंग से वह सच्चाई सामने आ सकती है जो सरकार और माओवादियों दोनों को अपने-अपने स्टैंड पर दुबारा सोचने के लिए मजबूर कर सकती है.

ऐसा न होने का नुकसान यह होता है कि देश और समाज दोनों वास्तविकता से अनजान होते हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि यह किसी भी देश और समाज के लिए बहुत घातक हो सकता है. असल में, कई बार तात्कालिक कारणों और जरूरतों को ध्यान में रखकर जब सूचनाओं का मुक्त और खुला प्रवाह रोका जाता है तो दीर्घकाल में उसके नतीजे सबके लिए नुकसानदेह साबित होते हैं. कहते हैं कि अगर इराक पर हमले के पहले अमेरिकी मीडिया ने देशवासियों को सच्चाई बताई होती तो शायद इराक युद्ध नहीं होता और उसके कारण खुद अमेरिका को इतना नुकसान नहीं उठाना पडता. यही नहीं, वियतनाम युद्ध के शुरूआती दिनों में अगर अमेरिकी मीडिया ने जमीनी हालात का सही जानकारी दी होती तो युद्ध में अमेरिका को इतना नुकसान नहीं उठाना पडता और युद्ध बहुत पहले खतम हो जाता.

यह सवाल इसलिए अहम है क्योंकि समाज और देश की राय बदलती रहती है. संभव है कि कल कोई सरकार माओवादियों से बात करने को तैयार हो जाए और माओवादी भी अपना स्टैंड बदलकर बातचीत के लिए आगे आ जाएं. नेपाल में यह हो चुका है. भारत में यह क्यों नहीं हो सकता है? जरूरत सिर्फ इस बात की है कि मीडिया इसके लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करे और इसकी शुरुआत निश्चय ही, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष जमीनी रिपोर्टिंग से हो सकती है. आखिर सत्य में बहुत शक्ति होती है.

(दैनिक हिंदुस्तान, २८ मार्च)

बुधवार, अप्रैल 07, 2010

खाद्य सुरक्षा


यह खाद्य सुरक्षा का कानून है या खाद्य असुरक्षा बढ़ाने का?  


काफी बहस-मुबाहिसे और जद्दोजहद के बाद आखिरकार केन्द्रीय मंत्रियों के अधिकारप्राप्त समूह ने पिछले सप्ताह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को मंजूरी दे दी है. खबरों से साफ है कि जल्दी ही इसे कैबिनेट की भी मंजूरी मिल जायेगी और इसके बाद, यू.पी.ए सरकार इस बहुप्रतीक्षित विधेयक को संसद में पेश करके आम आदमी को भोजन का अधिकार देने की "ऐतिहासिक उपलब्धि" पर अपनी पीठ ठोंकती नजर आएगी. लेकिन प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे के बारे में सरकार से छन-छनकर आ रही खबरों से, भूख के खिलाफ भोजन के संवैधानिक अधिकार के लिए लड़ रहे जन संगठनों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में गहरी निराशा का माहौल है क्योंकि यह विधेयक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय भूख के साम्राज्य को और मजबूत करता दिखता है. यह विधेयक न सिर्फ आधा-अधूरा, सीमित और निकट-दृष्टि दोष का शिकार है बल्कि मौजूदा लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस) से भी एक कदम पीछे हटता दिखता है.

सूचनाओं के मुताबिक, प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में सरकार गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल) गुजर-बसर करनेवाले हर परिवार  को तीन रूपये प्रति किलोग्राम की दर से हर महीने 25 किलोग्राम गेहूं या चावल देगी. ध्यान रहे कि यह कांग्रेस का चुनावी वायदा भी था और यू.पी.ए सरकार चाहे तो इस प्रस्तावित कानून के जरिये उस वायदे को पूरा करने के लिए अपनी पीठ ठोंक सकती है. लेकिन तथ्य यह है कि इस विधेयक के कानून बनने के बाद गरीबों और भूखमरी के शिकार लोगों को दो तरह से नुकसान होगा. पहला, अभी लगभग 6.52 करोड़ बी.पी.एल परिवारों को हर महीने 35 किलो गेहूं या चावल मिलता है जिसमें 4.10 रूपये प्रति किलो की दर से गेहूं और 6.65 रूपये किलो की दर से चावल मिलता है. नए कानून के आधार पर इन परिवारों को गेहूं या चावल तो पहले की तुलना में सस्ते मिलेंगे लेकिन उसकी मात्रा में दस किलो की कटौती हो जायेगी.

दूसरे, इन बी.पी.एल परिवारों में जो "गरीबों में भी गरीब" परिवार हैं, उन्हें अभी अंत्योदय अन्न योजना के तहत हर महीने दो रूपये किलो की दर से 35 किलोग्राम गेहूं या चावल मिलता है. लेकिन नए खाद्य सुरक्षा कानून के बनने के बाद उन्हें न सिर्फ पहले की तुलना में अनाजों की अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि "गरीबों में भी गरीब" माने-जानेवाले इन परिवारों को भी दस किलो कम अनाज मिलेगा. यह सचमुच हैरान करनेवाला तथ्य है कि नए कानून की सबसे अधिक गाज दरिद्रनारायण पर गिरनेवाली है. यही नहीं, सभी बी.पी.एल परिवारों के मासिक अनाज कोटे में दस किलो की कटौती का नतीजा यह होगा कि ये परिवार या तो आधा पेट खाने और भूखे रहने के लिए मजबूर होंगे या फिर अनाज की अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बाज़ार के भरोसे रहेंगे. सवाल यह है कि यह खाद्य सुरक्षा का अधिकार देनेवाला कानून है या खाद्य असुरक्षा बढ़ानेवाला कानून?

यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरुप में खाद्य असुरक्षा खत्म करने के बजाय बढाता दिखता है. इसकी सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह उस नवउदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता है जिसकी बुनियाद में ही यह सोच मौजूद है कि "यहाँ कुछ भी मुफ्त नहीं है (देअर इज नो फ्री लंच)." कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार भी इस सैद्धांतिकी की बड़ी मुरीद रही है और सरकार में सर्वोच्च पदों पर बैठे कई मंत्री और अफसर इसके मुखर पैरोकार रहे हैं. लेकिन चुनावी राजनीति की मजबूरियों और इससे पहले वामपंथी पार्टियों के दबाव के कारण यू.पी.ए सरकार ने गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को राहत पहुंचानेवाली नरेगा, किसानों को कर्ज माफ़ी जैसी कुछ योजनाएं शुरू की थीं.

लेकिन यू.पी.ए-दो सरकार के ताजा आम बजट और अब प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक से यह संकेत साफ है कि मनमोहन सिंह सरकार एक बार फिर खुलकर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने की दिशा में बढ़ चली है. यही कारण है कि वह भोजन का अधिकार पूरी ईमानदारी और उसकी वास्तविक भावना से देने के बजाय खाद्य सब्सिडी में कमी करने को लेकर ज्यादा चिंतित दिखाई देती है. जाहिर है कि उसका सबसे अधिक जोर वित्तीय घाटे को कम करने पर है जोकि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की सबसे बड़ी पहचान है. खाद्य सुरक्षा विधेयक पर भी इसकी छाप को साफ देखा जा सकता है. आश्चर्य नहीं कि विधेयक में सबसे अधिक जोर इसके लाभार्थियों की संख्या को कम करने पर है.

यही कारण है कि भोजन के संवैधानिक अधिकार को सार्वभौम और हर भारतीय नागरिक का अधिकार बनाने के बजाय इसे सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे(बी.पी.एल) परिवारों तक सीमित कर दिया गया है. सबसे अधिक परेशान करनेवाली बात यह है कि गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों की संख्या के निर्धारण का अधिकार योजना आयोग के पास होगा. जबकि गरीबी रेखा और उसके नीचे रहनेवाले परिवारों की संख्या के बारे में योजना आयोग के अनुमानों को लेकर काफी गंभीर और तीखे विवाद रहे हैं. हाल ही में, खुद योजना आयोग की प्रो. सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने आयोग के बी.पी.एल अनुमानों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यह कहा है कि देश में गरीबी रेखा के नीचे 27 प्रतिशत के सरकारी दावों के विपरीत 37 प्रतिशत लोग गुजर-बसर कर रहे हैं.

लेकिन योजना आयोग ने इस रिपोर्ट के मद्देनजर अभी भी बी.पी.एल लाभार्थियों की संख्या में कोई फेरबदल नहीं किया है और खाद्य सुरक्षा के प्रस्तावित विधेयक में उन्हीं 27 प्रतिशत लोगों को इसका सीमित लाभ देने पर अड़ा हुआ है जिनकी संख्या लगभग 6.52 करोड़ है. लेकिन दूसरी ओर, कई राज्य सरकारों ने इस संख्या को खुली चुनौती दी है. उदाहरण के लिए, बिहार सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार राज्य में सिर्फ 65.23 लाख बी.पी.एल परिवारों का अस्तित्व स्वीकार करती है और उन्हें खाद्य सुरक्षा का लाभ देने के लिए तैयार है जबकि राज्य सरकार के मुताबिक बी.पी.एल परिवारों की संख्या लगभग 1.40 करोड़ है. इसका अर्थ यह हुआ कि नए खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के बाद बिहार में कोई 75 लाख बी.पी.एल परिवार खाद्य असुरक्षा के शिकार बने रहेंगे. इस तरह बिहार में जितने गरीबों को इसका लाभ मिलेगा, उससे अधिक को भूख और कुपोषण के साथ अपने हाल पर छोड़ दिया जायेगा.

जाहिर है कि बिहार ऐसा अकेला राज्य नहीं है. लेकिन प्रस्तावित विधेयक में साफ कहा गया है कि जो राज्य केद्र द्वारा निर्धारित संख्या से अधिक परिवारों को खाद्य सुरक्षा का लाभ देना चाहते हैं, उन्हें इसका खर्च खुद उठाना पड़ेगा. अधिकांश राज्य सरकारों की मौजूदा वित्तीय स्थिति को देखते हुए इसकी उम्मीद बहुत कम है कि वे यह खर्च उठाने के लिए तैयार होंगी. राज्य सरकारों की मुश्किल यहीं खत्म नहीं होती. प्रस्तावित विधेयक में राज्य सरकारों को खाद्यान्नों के वितरण के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है जबकि केंद्र सरकार की जवाबदेही अनाजों को सिर्फ राज्य सरकार के डिपो तक पहुँचाने की होगी. यही नहीं, निर्धारित मात्रा और समय पर अनाज न मिल पाने पर इसके लाभार्थी राज्य सरकार से भोजन भत्ते के हक़दार होंगे. इसका अर्थ यह हुआ कि भोजन के अधिकार के उल्लंघन से सम्बंधित मुकदमे भी राज्य सरकारों को झेलने होंगे. 


इस कारण अधिकांश राज्य सरकारें न सिर्फ चिंतित हैं बल्कि उन्हें लग रहा है कि केद्र सरकार यह आधा-अधूरा और सीमित कानून बनाकर भी भोजन का अधिकार देने का पूरा राजनीतिक श्रेय तो खुद लूट ले जायेगी लेकिन लोगों का सारा गुस्सा उन्हें झेलना होगा. यही नहीं, इस कानून को लेकर लोगों में जगी  उम्मीदों और उसे पूरा करने में नाकामी का सारा ठीकरा राज्य सरकारों के माथे फोड़ा जायेगा और केद्र सरकार बड़ी सफाई से बच निकलेगी. अफसोस की बात यह है कि मंत्रियों की अधिकार प्राप्त समिति ने इस विधेयक के मसौदे पर मुहर लगाते हुए ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों की एक व्यापक और सार्वभौम अधिकार देनेवाले कानून की तो छोडिये, यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी की सिफारिशों का भी ध्यान नहीं रखा जिन्होंने बी.पी.एल के अलावा कई और वंचित समूहों को इस कानून के दायरे में लाने की वकालत की थी.
(नई दुनिया, २३ मार्च २०१०)