आनंद प्रधान
वैश्विक मंदी के प्रभाव में सुस्त हो गई भारतीय अर्थव्यवस्था के एक बार फिर पटरी पर लौटने की चर्चाएं तेज हो गई हैं. यू.पी.ए सरकार के अफसर और मंत्री और दूसरी ओर, बाज़ार के जानकार जोरशोर से दावे कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में तेजी से सुधार हो रहा है. बतौर सबूत शेयर बाज़ार से लेकर औद्योगिक विकास के आंकड़े पेश किये जा रहे हैं. गुलाबी अखबारों में कंपनियों के मुनाफे के आंकड़े भी बहुत आकर्षक हैं. यही नहीं, दुनिया के अरबपतियों की सूची में भी भारतीयों की उपस्थिति लगभग ज्यों की त्यों बनी हुई है.
लेकिन क्या अर्थव्यवस्था में जारी इस सुधार का कोई फायदा आम आदमी तक भी पहुंच रहा है? यह सवाल इस लिए भी जरूरी है कि मंदी से निपटने के लिए कार्पोरेट जगत और कंपनियों को सरकार ने कई प्रोत्साहन पैकेज (स्टीमुलस पैकेज) भी दिए थे. इन पैकेजों में टैक्सों में छूट से लेकर अन्य कई प्रोत्साहन भी शामिल थे. सरकारी खजाने से दिए गए इन हजारों करोड़ों रूपये के पैकेजों का मुख्य उद्देश्य और तर्क यह था कि कम्पनियां लोगों को इसका फायदा देंगीं. इससे उत्पादों और सेवाओं की कीमतें कम होंगी. उम्मीद थी कि कम्पनियां खासकर संगठित क्षेत्र में अपने कार्मिकों/वर्करों के रोजगार की सुरक्षा करेंगी और छंटनी-ले आफ-नई भर्तियों पर रोक आदि से बचेंगी.
लेकिन व्यवहार में ठीक इसका उल्टा हो रहा है. पिछले एक साल में जब से वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी की शुरुआत हुई है, यह कंपनियों के लिए छंटनी और ले आफ आदि का एक बहाना बन गया है. आश्चर्य की बात यह है कि पिछले एक साल में अकेले संगठित क्षेत्र से लाखों कार्मिकों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. खुद सरकार आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल सितम्बर से इस साल मार्च के बीच संगठित क्षेत्र में करीब 15-20 लाख कार्मिकों को मंदी के नाम पर अपनी रोजी-रोटी गंवानी पड़ी. उस समय कहा गया कि कंपनियों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है. हालांकि मंदी के बावजूद उन कंपनियों के मुनाफे पर कोई खास असर नहीं पड़ा. सबसे अफ़सोस की बात यह है कि खुद वित्त मंत्री ने छंटनी को लेकर कोई कड़ा रूख दिखने के बजाय कार्पोरेट क्षेत्र को इस मामले में सहानुभूति से विचार करने को कहा था.
लेकिन अब जब फिर से अर्थव्यवस्था में बूम के दावे किये जा रहे हैं, रोजगार के मामले में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. कुछ क्षेत्रों को छोड़कर जहां मामूली भर्तियाँ होनी शुरू हुई हैं, अधिकांश क्षेत्रों में अभी भी स्थिति ज्यों कि त्यों बनी हुई है. तथ्य यह है कि अर्थव्यवस्था में सुधार के बावजूद यह एक "रोजगारविहीन विकास" (जाबलेस ग्रोथ) है जिसमे कंपनियों का मुनाफा तो तेजी से बढ़ रहा है लेकिन रोजगार में कोई खास वृद्धि नहीं हो रही है. खुद केंद्र सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही(अप्रैल से जून'09) में संगठित क्षेत्र में 1 .71 लाख कार्मिकों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है. इसमे सबसे ज्यादा नौकरियां कपड़ा क्षेत्र में गई हैं जहां 1.54 लाख कार्मिकों की नौकरी गई है. इसी तरह, आई.टी क्षेत्र में भी करीब 34000 लोगों की नौकरी चली गई है.
अभी दूसरी तिमाही के आंकड़े नहीं आये हैं लेकिन संकेत अच्छे नहीं हैं. कर्मचारी भविष्यनिधि संगठन(ई.पी.एफ.ओ) के मुताबिक इस साल अप्रैल से जून के बीच सिर्फ तीन महीने में भविष्यनिधि से पैसा निकालनेवाले कार्मिकों की संख्या 35.51 लाख तक पहुंच गई है जो इस बात का संकेत है कि छंटनी और ले आफ अभी न सिर्फ जारी है बल्कि बड़े पैमाने पर नौकरियां जा रही हैं. यह आंकड़े इसलिए भी हैरान करनेवाले हैं क्योंकि 2006-07 में पूरे साल में इतने लोगों ने ई.पी.ऍफ़. से पैसा निकला था जबकि इस साल की पहली तिमाही में ही 35 लाख से अधिक कार्मिकों का पैसा निकालना यह बताता है कि रोजगार के मामले में स्थिति कितनी नाजुक है. याद रहे कि पिछले साल 2008 -09 में कुल 98 लाख से अधिक कार्मिकों ने भविष्यनिधि से पैसा इकला था जो कि एक रिकार्ड है.
साफ है कि अर्थव्यवस्था में सुधार आदि की बातें उन कार्मिकों के लिए बेकार और दिल को बहलानेवाली हैं जो अभी भी छंटनी- ले आफ का सामना कर रहे हैं. लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि इसकी कोई चर्चा नहीं हो रही है. अर्थव्यवस्था में सुधार का मतलब सिर्फ कंपनियों को अधिक से अधिक मुनाफा हो गया है और इसका कोई फायदा कार्मिकों को नहीं मिल रहा है. ये कम्पनियां सरकार पर लगातार दबाव बनाये हुए हैं कि प्रोत्साहन पैकेज अभी जारी रखे जाएँ लेकिन वे कार्मिकों के रोजगार की गारंटी करने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसे में, यह जरूरी हो गया है कि यू.पी.ए सरकार इस मामले में सभी कंपनियों को यह साफ निर्देश दे कि अगर उन्होंने अपने यहां छंटनी-ले आफ किया तो उन्हें प्रोत्साहन पैकेज का लाभ नहीं मिलेगा.
यह सख्ती इसलिए भी जरूरी है कि बहुत सी कंपनियों ने मंदी को एक बहाने की तरह इस्तेमाल करना और उसे मनमाने तरीके से छंटनी और ले ऑफ़ का लाईसेंस बना दिया है. ऐसा मानने की वजह यह है कि कई क्षेत्रों में स्थाई कार्मिकों को निकलकर अस्थाई अनुबंध पर कर्मचारियों की भर्ती भी की जा रही है. उदाहरण के लिए, इस साल की पहली तिमाही में अनुबंध पर करीब 40 हज़ार कार्मिकों की भर्ती हुई है जबकि उसी अवधि में 1.71 लाख स्थाई नौकरियां चली गई हैं. साफ है कि कार्पोरेट क्षेत्र मंदी को बहाना बनाकर अपने स्थाई कार्मिकों से पीछा छुड़ा रहा है. असल में, कार्पोरेट क्षेत्र लम्बे समय से श्रम कानूनों में बदलाव की मांग करता रहा है जो कि राजनीतिक कारणों से संभव नहीं हो पाया लेकिन अब मंदी के बहाने कम्पनियां वही कर रही हैं जो वे श्रम कानूनों में सुधार के जरिये करना चाहती थीं.
3 टिप्पणियां:
अर्थव्यस्था सुधार से क्रमिकों कोई लेना देना है उनके पास अर्थ है ही कहाँ जो उनकी व्यवस्था हो सके !!!
Kitni sharm ki baat hai.ek taraf mandi ka drama banaakar ye bade business gharane kaamgaaron ko betahaasha nikaal rahe hain,vahin humaare desh se zyada se zyzda sethh log Forbes ki soochi mein shamil kiya ja rahe hain. mandi ka draama banaakar betaasha logon ko nikaala jaana aam baat hai yahaan.kya madi vakain hai ya sirf mehanatkashon ke liye hai?
हम कैसे मान लें कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है। हमें तो कहीं से भी यह खबर पढ़ने को भी नहीं मिल रही कि कुपोषण और गरीबी जैसी लाइलाज बना दी गई बीमारियां ठीक हुई हैं। जिस हाथ को आम आदमी के साथ रखने का दावा कांग्रेस कर रही थी वह हाथ तो पूरी तरह से बाज़ार के साथ दिख रहा है। क्या अर्थव्यवस्था सिर्फ बाज़ार तक ही सीमित हो गई है?
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