जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण की अध्यक्षता वाले वेतन आयोग की सिफारिशें बदलते हुए आर्थिक परिदृश्य और नवउदारवादी अर्थनीतियों के अनुकूल ही है. इस वेतन आयोग के जरिए सरकारी महकमों के कॉरपोरेटीकरण की प्रक्रिया को ही आगे बढ़ाया जा रहा है.
हालांकि वेतनमानों में बड़े कॉरपोरेट समूहों की तरह वृद्धि नहीं की गई है लेकिन उसकी दिशा और दर्शन उसी कॉरपोरेटीकरण के विचार से प्रभावित है.
आयोग का कहना है कि इन सिफारिशों को लागू करने से केंद्र सरकार पर वित्तीय वर्ष 2008-09 में लगभग 7,975 करोड़ रुपए का बोझ पड़ेगा और वर्ष 2006 से बकाए के भुगतान में कोई 18,060 करोड़ रुपए का व्यय होगा.
केंद्र सरकार के चालीस लाख कर्मचारियों के वेतनमानों में बढ़ोत्तरी के लिहाज से यह कोई बड़ा बोझ नहीं है लेकिन जिस तरह से गुलाबी अखबारों ने इसको लेकर हाय-तौबा मचाया है, वह कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता.
छठे वेतन आयोग ने वेतनमान तय करते हुए इस बात का ध्यान रखा है कि सरकारी कर्मचारियों की संख्या में कटौती और विभिन्न वेतनमानों को एक-दूसरे में मिलाकर उनकी संख्या कम करने के जरिए सरकारी महकमों की "अतिरिक्त चर्बी" घटाई जाए. इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि वेतन आयोग की सिफारिशों का कॉरपोरेट जगत ने खुलकर स्वागत किया है.
रिपोर्ट सौंपने के बाद जस्टिस श्रीकृष्ण ने कहा कि ये सिफारिशें पूरे देश के हित में हैं. संभव है कि ये सिफारिशें देश के हित में हों लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि देश के कुल श्रमिकों में से संगठित क्षेत्र के लगभग 8 फीसदी कर्मचारियों में आने वाले केंद्र सरकार के कर्मचारियों को इस आयोग से भले खुशी होगी लेकिन असंगठित क्षेत्र के करीब चालीस करोड़ कर्मचारियों में से 31.6 करोड़ मजदूर 20 रुपए प्रतिदिन से भी कम की आय पर गुजर-बसर कर रहे हैं.
साफ है कि एक ओर निजी कॉरपोरेट क्षेत्र और दूसरी ओर कॉरपोरेट रंग में रंगते सरकारी क्षेत्र को मिल रहे तोहफे मुठ्ठी भर कर्मचारियों और अफसरों तक सीमित रह जाएंगे. समय आ गया है कि यूपीए सरकार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के बारे में राष्ट्रीय आयोग की सिफारिशों पर भी अमल शुरू करे. अन्यथा यही माना जाएगा कि यूपीए सरकार के तोहफे उन्हीं संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों और अधिकारियों को मिल रहे हैं जिन्हें पहले से ही काफी लाभ दिया जाता रहा है.
यह सचमुच में बहुत अफसोस की बात है कि इस देश में प्रति व्यक्ति सालाना औसत आय जहां लगभग तीस हजार रुपए के आसपास है वहीं केंद्र सरकार के सबसे निचले कर्मचारी की आमदनी एक आम आदमी के औसत आय के तिगुने से भी अधिक होगी. भारत सरकार के सचिव की सालाना आय एक आम भारतीय की औसत आय से 32 गुना होगी. यानी एक आम भारतीय की सालाना औसत आय और सरकार के सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठे व्यक्ति के बीच 1:32 का फर्क होगा. क्या इसी तरह देश एक समतामूलक समाज की तरफ बढ़ेगा?
यह सब कहने का मकसद केंद्र सरकार के कर्मचारियों और अफसरों की खुशी में विघ्न डालना नहीं है बल्कि उस विसंगति की ओर ध्यान खींचना है जो एक समतामूलक समाज की स्थापना और गांधी जी के इस मंत्र के विपरीत है कि "जब भी सरकार में बैठे आला अधिकार और मंत्री कोई फैसला करें तो वह सबसे कमजोर और गरीब भारतीय के चेहरे को याद करें और सोचें कि उनके इस फैसले से उसे क्या मिलने जा रहा है."
कहने की जरूरत नहीं है कि इस फैसले से केंद्र सरकार के कर्मचारियों को बकाए के भुगतान और तनख्वाहों के जरिए जो भारी-भरकम रकम मिलने जा रही है, वह परोक्ष रूप से डगडमगाती अर्थव्यवस्था और लड़खड़ाते औद्योगिक विकास के लिए वित्तीय उद्दीपन साबित होगी. संभवतः यही कारण है कि बात-बात में नाक-भौं सिकोड़ने वाले और वित्तीय घाटे की दुहाई देने वाले कॉरपोरेट जगत को भी सरकारी कर्मचारियों के वेतनमानों में वृद्धि से कोई शिकायत नहीं है.
आम आदमी का नारा देकर सत्ता में आई कांग्रेस और यूपीए सरकार की सबसे ज्यादा मेहरबानी समाज के सबसे ताकतवर वर्गों पर बनी हुई है. वेतन आयोग की सिफारिशें उसका ताजा नमूना है. इससे पहले बजट में वित्तमंत्री पी चिदंबरम करदाताओं को चार हजार से चौवालीस हजार के बीच की छूट दे चुके हैं. इन सबके बीच आम आदमी को क्या मिला, यह सवाल चुनावों की तैयारी कर रही यूपीए और कांग्रेस से जरूर पूछा जाएगा.
यूपीए की प्राथमिकताएं...दूसरी और आखिरी किस्त बुधवार को
2 टिप्पणियां:
अजी हम तो अभी हरियाणा सरकार के बढाये न्यूनतम वेतन ( एक ही झटके मे १५०० बढे थे जी)को ही आत्मसात नही कर पाये है जी,अब देश की बारी है अपने कर्मचारियो की कामचोरी की कीमते बढाने की ..उसी प्रतिशत मे जी दस्तूरी भी बढा लीजीयेगा...;)
"समतामूलक समाज की स्थापना", गाँधी की मंत्र आदि ये क्या लिखे जा रहे हैं भाई साहब, ऐसा कहीं होता है अब ?
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