शुक्रवार, अक्टूबर 07, 2011

संकट में फंसती वैश्विक अर्थव्यवस्था

यू.पी.ए सरकार को अपनी निश्चिंतता और आत्मविश्वास से बाहर निकलना होगा    



वैश्विक अर्थव्यवस्था पर एक बार फिर से संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे हैं. दिन पर दिन यह आशंका जोर पकड़ती जा रही है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था दोबारा आर्थिक मंदी की चपेट में आ सकती है. खुद विश्व बैंक के अध्यक्ष राबर्ट जोलिक और मुद्रा कोष की प्रमुख क्रिस्टिन लगार्ड ने भी स्वीकार किया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के फिर से लड़खड़ाने के खतरे बढ़ते जा रहे हैं. इस मामले में दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं खासकर यूरोपीय और अमेरिकी अर्थव्यवस्था से आ रहे संकेत बहुत निराशाजनक हैं.


वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बढ़ते खतरे का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अभी पिछले सप्ताह अमेरिकी केन्द्रीय बैंक- फेडरल रिजर्व ने यह स्वीकार किया कि पिछली मंदी से उबरने की कोशिश कर रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की रफ़्तार न सिर्फ अपेक्षा से बहुत धीमी है बल्कि उसे पटरी पर आने में उम्मीद से कहीं अधिक यानी कई बरसों का समय लग सकता है.

हालांकि फेडरल रिजर्व ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए ४०० अरब डालर से अधिक के मौद्रिक उपायों की घोषणा की है लेकिन अधिकांश विश्लेषकों को लगता है कि इन उपायों से संकट नहीं दूर होनेवाला है.

वित्तीय बाजार को यह सच्चाई मालूम है. आश्चर्य नहीं कि फेडरल रिजर्व की इन घोषणाओं के तुरंत बाद अमेरिकी शेयर बाजारों से लेकर यूरोपीय और एशियाई शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गई है. यहाँ तक कि भारतीय बाजार भी इससे अछूते नहीं रहे.

असल में, फेडरल रिजर्व के मौद्रिक उपायों की सीमाएं उजागर हो चुकी हैं. मुश्किल यह है कि फेडरल रिजर्व के इन उपायों में नया कुछ नहीं है और वह इन्हें पिछले तीन-साढ़े तीन वर्षों में कई बार आजमा चुका है. इसका बहुत फायदा नहीं हुआ है.

एक बार हाथ जला चुके बैंक कर्ज देने में अतिरिक्त सतर्कता बरत रहे हैं जबकि पिछले संकट के दौरान घर गंवाने से लेकर भारी देनदारी की मार झेल चुके आम अमेरिकी भी कर्ज लेने को लेकर बहुत उत्साहित नहीं हैं.

इस कारण माना जा रहा है कि फेड के ताजा उपाय अँधेरे में तीर चलाने की तरह हैं. लेकिन उससे भी बड़ी मुश्किल यह है कि मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए फेड के तरकश में अब और कोई तीर नहीं बचा है.

असल में, मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट वर्ष २००७-०८ के वित्तीय संकट से कई मायनों में अलग और अधिक खतरनाक है. पहली बात यह है कि पिछली बार का संकट मूलतः अमेरिका और उसके निजी वित्तीय संस्थाओं/बैंकों के जोखिमपूर्ण उधारियों के कारण पैदा हुआ था. इससे पूरे वित्तीय ढांचे की स्थिरता पर खतरा मंडराने लगा था.

लेकिन इस बार संकट यूरोप के कई देशों खासकर ग्रीस, आयरलैंड, पुर्तगाल और कुछ हद तक स्पेन और इटली जैसे देशों के अपनी देनदारियों को चुकाने में नाकाम रहने के डर से पैदा हुआ है. इस आशंका मात्र से वित्तीय बाजार में खलबली मची हुई है.

खासकर यह डर बढ़ता जा रहा है कि अगले कुछ दिनों में यूरोपीय संघ ने ग्रीस की अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाने के लिए ठोस फैसला नहीं किया तो ग्रीस का अपनी देनदारियों पर डिफाल्ट करना तय है. यही नहीं, ग्रीस के बाद अगले कुछ सप्ताहों और महीनों में आयरलैंड और पुर्तगाल समेत कुछ और यूरोपीय देशों के सामने भी डिफाल्ट करने का खतरा होगा.

लेकिन यूरोपीय देशों का राजनीतिक नेतृत्व संकट से निपटने के लिए वित्तीय घाटे को कम करने और सरकारी खर्चों में भारी कटौती करने की रणनीति पर चल रहा है जिससे समस्या और गंभीर होती जा रही है.

इस रणनीति का असर यह हुआ है कि इन अर्थव्यवस्थाओं की गति और धीमी हुई है और दूसरी ओर, लोगों का गुस्सा सड़कों पर निकल रहा है. आर्थिक अस्थिरता के साथ-साथ राजनीतिक अस्थिरता भी बढ़ रही है.

दूसरी ओर, विश्व अर्थव्यवस्था की इंजन माने जानेवाली अमेरिकी अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार से यह उम्मीद भी खत्म होने लगी है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार का सकारात्मक असर यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा. रही-सही कसर चीन और भारत जैसे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं की सुस्त पड़ती रफ़्तार के साथ पूरी हो गई है.

सन्देश साफ है कि संकट आ चुका है और उससे भारत भी अछूता नहीं रहेगा. इसके संकेत मिलने लगे हैं. आर्थिक वृद्धि की दर धीमी पड़ रही है. खासकर मैन्युफक्चरिंग और बुनियादी उद्योग क्षेत्र की वृद्धि की गति में काफी गिरावट दर्ज की गई है. शेयर बाज़ार में अस्थिरता बढ़ती जा रही है. रूपये की कीमत में तेज गिरावट के कारण आयात खासकर पेट्रोलियम का आयात मंहगा हो रहा है.

अभी तक निर्यात में भारी वृद्धि दिखाई दे रही थी लेकिन वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच उसका धीमा पड़ना तय मना जा रहा है. दूसरी ओर, मुद्रास्फीति की दर रिजर्व बैंक के तमाम मौद्रिक उपायों के बावजूद अभी भी काफी ऊंचाई पर बनी हुई है.

इससे भारत के सामने दोहरी समस्या खड़ी हो गई है. चुनौती यह है कि किस तरह मुद्रास्फीति पर काबू पाते हुए विकास की रफ़्तार को बनाए रखा जाए? कहने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार को दोनों मोर्चों पर एक साथ पहल करनी होगी.

पहला यह कि घरेलू मांग को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में बढ़ाना होगा ताकि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिले, लोगों की आय बढ़े और घरेलू मांग बनी रहे. इस कारण उसे वित्तीय घाटे की चिंता फिलहाल भूल जानी चाहिए.

दूसरे, सरकार को मुद्रास्फीति से निपटने के लिए केवल मौद्रिक नीतियों पर निर्भर रहने के बजाय आपूर्ति पक्ष खासकर खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति पर अधिक जोर देना चाहिए. अच्छी खबर यह है कि इस साल मानसून अच्छा रहा है और रबी की फसल अच्छी रहने की उम्मीद है.

लेकिन मुश्किल यह है कि घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार नीतिगत पक्षाघात की शिकार हो गई है और कोई फैसला नहीं कर पा रही है. सरकार का पूरा जोर अपने राजनीतिक बचाव और मंत्रियों के झगडे में जाया हो रहा है. उसके मौजूदा रवैये से लगता नहीं है कि वैश्विक आर्थिक संकट के मद्देनजर भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट का मुद्दा उसकी प्राथमिकताओं में कहीं है.

अगर यही हाल जारी रहा तो भारतीय अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने से बचाना संभव नहीं होगा. चिंता की बात यह है कि इसके संकेत मिलने लगे हैं.


('सरिता' में १५ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित आलेख)


गुरुवार, अक्टूबर 06, 2011

क्या अमीरों पर टैक्स बढ़ाया जाना चाहिए?


यूरोप और अमेरिका की तरह भारतीय अमीरों को भी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझनी होगी




वैश्विक आर्थिक संकट के गहराते बादलों के बीच अमेरिका और यूरोप में अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने को लेकर एक दिलचस्प बहस शुरू हो गई है. अमेरिकी अरबपति वारेन बफे ने अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने की वकालत की है. बफे ने अपने घरेलू टैक्स ढांचे की इस बात के लिए तीखी आलोचना की है कि अरबपति होने के बावजूद उनपर लगनेवाली प्रभावी टैक्स दर उनकी निजी सचिव की आय पर लगनेवाली टैक्स दर से कम है.

बफे की तर्ज पर ही फ़्रांस के १६ सबसे अमीरों और जर्मनी के ५० सुपर अमीरों ने सार्वजनिक रूप से अपनी सरकारों से अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग की है.

यही नहीं, इटली में फेरारी कार बनानेवाली कम्पनी के मालिक लुका मोंटज़मेलो ने भी अमीरों को अधिक कर देने का समर्थन किया है. इससे न सिर्फ अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग ने जोर पकड़ा है बल्कि अमेरिका के अलावा यूरोप में इटली और फ़्रांस की सरकारों ने इस दिशा में कदम भी बढ़ा दिया है.

माना जा रहा है कि भारी कर्ज, घाटे के साथ अपनी देनदारियों पर डिफाल्ट की आशंकाओं के बीच फंसी यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं ने स्थिति को सँभालने के लिए जिस तरह से अपने खर्चों में बड़े पैमाने पर कटौतियां की हैं, उसका सीधा असर सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर पड़ा है जिसके कारण आम लोगों का रहन-सहन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है.
आम लोग खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं. उन्हें लगने लगा है कि वित्तीय-आर्थिक संकट का सारा बोझ उनपर थोप दिया गया है जबकि अमीरों को पहले की तरह कम टैक्स देना पड़ रहा है. उनकी आय उसी तेजी से बढ़ रही है. बड़ी कंपनियों के मालिकों और उनके टॉप मैनेजरों की तनख्वाहों, बोनस और लाभांशों से होनेवाली आय में कोई कटौती नहीं हुई है. यही नहीं, सरकारी खजाने की कीमत पर दिए गए बेल आउट पैकेज का सारा लाभ भी बड़े कार्पोरेट्स और अमीर उठा रहे हैं.

जाहिर है कि इससे अमेरिका खासकर यूरोप में सामाजिक-राजनीतिक असंतोष बढ़ रहा है. लोगों का गुस्सा सड़कों पर फूट रहा है. यहाँ तक कि अमेरिका में कारपोरेट ताकत के प्रतीक वाल स्ट्रीट पर कब्ज़ा करने का अभियान जोर पकड़ रहा है. इस तरह एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा की तर्ज पर आर्थिक संकट तेजी से राजनीतिक अस्थिरता और संकट की ओर बढ़ने लगा है. आर्थिक संकट और फिर से वैश्विक मंदी की आशंकाओं के बीच राजनीतिक अस्थिरता से बुरी खबर और कोई नहीं हो सकती है.

इसे वारेन बफे जैसे अरबपति अमीरों से ज्यादा बेहतर और कौन जानता है? उन्हें अच्छी तरह से पता है कि जन भावनाएं किधर जा रही हैं. आश्चर्य नहीं कि अमेरिका में दो तिहाई से ज्यादा लोग अमीरों पर टैक्स बढ़ाने के पक्ष में हैं. यही हाल यूरोप का भी है. इस मांग के पक्ष में बहुत ठोस तथ्य और तर्क भी हैं.

तथ्य यह है कि पिछले ३० वर्षों में अमेरिका और यूरोप समेत भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में न सिर्फ अमीरों और कार्पोरेट्स की आय पर लगनेवाले टैक्स की दरों में काफी कमी आई है बल्कि करों में छूटों और रियायतों के कारण प्रभावी टैक्स दरें और कम हो गई हैं.

उदाहरण के लिए, अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल से शुरू हुई टैक्स दरों में कटौती के कारण अधिकतम टैक्स दर ७० प्रतिशत से घटकर २८ प्रतिशत तक आ गई जबकि ब्रिटेन में मार्गरेट थैचर के कार्यकाल में १९७९ से १९८८ के बीच अधिकतम टैक्स दर ८३ फीसदी से घटकर ४० फीसदी रह गई.

यही नहीं, वर्ष २००७ में अधिकांश अमीर देशों में कारपोरेट टैक्स दर औसतन २८ फीसदी थी जो कि ८० के दशक में औसतन ४० फीसदी के आसपास थी. आश्चर्य नहीं कि इस बीच अमीरों की आय में तेजी से वृद्धि हुई है. अकेले अमेरिका में एक फीसदी सर्वाधिक अमीर देश के वास्तविक जी.डी.पी के ५८ फीसदी को गड़प कर जा रहे हैं.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि ऐसे अनेकों महत्वपूर्ण तथ्यों और तर्कों ने विकसित देशों में मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने के लिए अमीरों पर और अधिक टैक्स लगाने के पक्ष में मजबूत जनमत तैयार कर दिया है.

लेकिन अब यह बहस भारत भी पहुँच गई है. पूर्व वित्त मंत्री और मौजूदा गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने आल इंडिया मैनेजमेंट एसोसियेशन के सम्मेलन में अमीरों को और अधिक टैक्स देने के लिए तैयार रहने को कहा है. ये वही चिदंबरम हैं जिन्होंने ९७-९८ में संयुक्त मोर्चा सरकार और बाद में यू.पी.ए सरकार के वित्त मंत्री के बतौर आयकर और कारपोरेट टैक्स की दरों में भारी कटौती की थी. उनके कुछ बजटों को कारपोरेट क्षेत्र आज भी ड्रीम बजट के रूप में याद करता है.

लेकिन यूरोप और अमेरिका के उलट अभी देश को किसी भारतीय वारेन बफे का इंतज़ार है जो आगे बढ़कर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने की वकालत करे. सच यह है कि चिदंबरम के प्रस्ताव पर भारतीय अमीरों और कार्पोरेट्स की प्रतिक्रिया बहुत ठंडी है.

यही नहीं, भारतीय अमीरों और कार्पोरेट्स की लंबे समय से यह शिकायत है कि उनपर टैक्स का बहुत ज्यादा बोझ है. हर बजट से पहले उद्योग जगत टैक्स दरों में कटौती के लिए लाबीइंग करता हुआ दिखाई पड़ता है. इसलिए यह तय है कि भारत में अमीरों और कार्पोरेट्स पर टैक्स बढ़ाने का इन वर्गों की ओर से विरोध होगा.

लेकिन इस सच्चाई से शायद ही कोई इनकार कर सके कि भारत में भी बढ़ते राजकोषीय घाटे और सामाजिक क्षेत्र की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी राजस्व को बढ़ाना बहुत जरूरी हो गया है. यह इसलिए भी जरूरी है कि भारत में आय कर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दरें अधिकांश विकसित देशों और विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हैं. यही नहीं, भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात भी दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत कम है.

इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि आयकर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दर ३३ फीसदी होने के बावजूद विभिन्न छूटों और रियायतों के कारण भारत में अमीरों खासकर कारपोरेट क्षेत्र पर लगनेवाली प्रभावी टैक्स दर सिर्फ २३ फीसदी रह जाती है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों में अनेक छूटों और रियायतों के कारण केन्द्र सरकार ने वर्ष २००९-१० में कोई पांच लाख करोड़ रूपये से अधिक का राजस्व गँवा दिया.

जाहिर है कि यह स्थिति न सिर्फ अस्वीकार्य है बल्कि लंबे समय तक नहीं चल सकती है. भारत के सुपर अमीरों को भी त्याग करने के लिए आगे आना होगा. आखिर उनकी समृद्धि देश की तरक्की और समृद्धि पर टिकी है. अमेरिका और यूरोप के अरबपतियों को यह अहसास हो चुका है. भारतीय अमीर इससे कब तक आँख चुराएंगे?

('राजस्थान पत्रिका' में ५ अक्तूबर को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित मुख्य लेख)

बुधवार, अक्टूबर 05, 2011

मोदी पर मोहित चैनल


चैनल जाने-अनजाने इवेंट मैनेजमेंट उद्योग के हिस्सा बनते जा रहे हैं



न्यूज चैनलों की कई कमजोरियों में से एक बड़ी कमजोरी यह है कि उन्हें पूर्वनियोजित घटनाएँ यानी इवेंट बहुत आकर्षित करते हैं. खासकर अगर उस इवेंट से कोई बड़ी शख्सियत जुड़ी हो, उसमें ड्रामा और रंग हो, कुछ विवाद और टकराव हो और उसमें चैनलों के लिए ‘खेलने और तानने’ की गुंजाइश हो तो चैनल उसे हाथों-हाथ लेते हैं.

चैनलों की इस कमजोरी की कई वजहें हैं. पहली बात तो यह है कि दृश्य-श्रव्य मध्यम होने के नाते विजुअल उनकी सबसे बड़ी कमजोरी हैं. वे हमेशा विजुअल की खोज में रहते हैं. इवेंट्स में उन्हें बहुत आसानी से विजुअल मिल जाते हैं. उन्हें इसके लिए अपने दिमाग पर बहुत जोर नहीं लगाना पड़ता है क्योंकि इवेंट्स में उन्हें सब कुछ बना-बनाया मिल जाता है.

दूसरे, इवेंट्स को कवर करने के लिए उन्हें कोई खास खर्च नहीं करना पड़ता है. यही नहीं, ऐसे इवेंट्स कई बार प्रायोजित भी होते हैं जिन्हें कवर करने के बदले चैनलों को मोटी रकम मिलती है. तीसरे, इवेंट्स के लाइव कवरेज और उसपर स्टूडियो चर्चाओं में चैनलों को अपनी ओर से भी ड्रामा, विवाद और सस्पेंस रचने का मौका मिल जाता है. इससे उन्हें अधिक से अधिक दर्शक खींचने में भी मदद मिलती है.

चैनलों की इस कमजोरी से राजनेता से लेकर कारपोरेट जगत तक और अभिनेता-खिलाड़ी से लेकर धर्म गुरुओं तक सभी वाकिफ हैं. वे इसका खूब इस्तेमाल भी करते हैं. वे मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में प्रचार पाने और सुर्ख़ियों में बने रहने के लिए जमकर मीडिया इवेंट आयोजित करते हैं. आखिर उनका काफी हद तक धंधा सुर्ख़ियों में बने रहने से टिका है.

आश्चर्य नहीं कि न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को भुनाने और अपने क्लाइंट्स को अधिक से अधिक प्रचार देने और सुर्ख़ियों में बनाए रखने के लिए इवेंट मैनजमेंट का एक विशाल उद्योग खड़ा हो गया है. इसके अलावा पी.आर एजेंसियां इस धंधे में पहले से हैं.

इवेंट्स या पी.आर मैनेजरों का एक बड़ा काम यह है कि वे अपने क्लाइंट्स (राजनेताओं, कारपोरेट प्रमुखों, अभिनेताओं, खिलाडियों आदि) के लिए ऐसे इवेंट्स आयोजित करें जो न सिर्फ मीडिया को ललचाए बल्कि उनके क्लाइंट और उसके सन्देश को सकारात्मक कवरेज दिलवाने में मदद करे.

कई ‘मीडिया सुजान’ नेताओं की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी मीडिया खासकर चैनलों की इस कमजोरी को अच्छी तरह जानते हैं. वे यह भी जानते हैं कि सुर्खियाँ कैसे बनाई जाती हैं और सुर्ख़ियों में कैसे रहा जाता है? इसलिए जब उन्हें लगा कि मौजूदा राजनीतिक उथलपुथल के बीच २०१४ के आम चुनावों के मद्देनजर अब राष्ट्रीय राजनीति और खासकर भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद के लिए दावा ठोंकने का समय आ गया है तो उन्होंने एक मीडिया इवेंट आयोजित करने में देर नहीं लगाई. मोदी और उनकी टीम को इस राजनीतिक मीडिया इवेंट का स्वरुप तय करने में ज्यादा दिमाग नहीं खर्च करना पड़ा. अन्ना हजारे और उनके अनशन इवेंट की शानदार सफलता उनके सामने थी.

आश्चर्य नहीं कि बगैर देर किये मोदी ने गुजरात में सद्भावना के लिए तीन दिनों का अनशन करने का एलान कर दिया. मोदी के तीन दिनों के अनशन के लिए गुजरात विश्वविद्यालय के विशाल एयरकंडीशन हाल में मंच सजाया गया, उसे सद्भावना मिशन का नाम दिया गया, लोग खासकर टोपियां पहने मुसलमान इक्कट्ठा किये गए, भाजपा और एन.डी.ए के बड़े नेताओं को बुलाया गया और करोड़ों रूपये खर्च करके देश भर के अखबारों में विज्ञापन दिया गया. न्यूज चैनलों के लाइव कवरेज के लिए विशेष इंतजाम किये गए, रिपोर्टरों और खासकर दिल्ली से बुलाए स्टार रिपोर्टरों/एंकरों की पूरी आवभगत की गई.

उसके बाद क्या हुआ, वह इतिहास है. कल तक अन्ना हजारे की सेवा में लगा ‘डिब्बा’ मोदी सेवा में भी पीछे नहीं रहा. तीन दिनों तक मोदी चैनलों के परदे पर छाए रहे और हर दिन उनकी छवि और बड़ी होती गई. मोदी के अलावा दूसरे भाजपा और एन.डी.ए नेताओं के भाषण लाइव दिखाए गए जिसमें मोदी के गुणगान और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में आने और बड़ी भूमिका निभाने की अपीलें की गईं. चैनलों ने थोक के भाव में मोदी के ‘एक्सक्लूसिव’ इंटरव्यू दिखाए. प्राइम टाइम चर्चाओं में मोदी बनाम राहुल गाँधी से लेकर मोदी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता पर घंटों चर्चा हुई. मोदी को बिना किसी गहरी जांच-पड़ताल के विकास पुरुष और सुशासन के प्रतीक के रूप में पेश किया गया.

हालांकि इन रिपोर्टों, साक्षात्कारों और चर्चाओं में गुजरात के २००२ के दंगों और उसमें मोदी की भूमिका की भी खूब चर्चा हुई और सवाल भी पूछे गए लेकिन कुल-मिलाकर उसे एक ‘विचलन’ (एबेरेशन) की तरह पेश करने की कोशिश की गई. २००२ को १९८४ के सिख नरसंहार और अन्य दंगों के बराबर ठहराने के प्रयास हुए.

यही नहीं, २००२ को भूलने और आगे देखने की सलाहें दी गई. इसके लिए गुजरात के कथित विकास का मिथ गढा जा रहा है. बहुत सफाई और बारीकी से कहा जा रहा है कि मोदी ने गुजरात में विकास की गंगा बहा दी है. राज्य बहुत तेजी से तरक्की कर रहा है. राज्य में सुशासन है.

साफ है कि यह मोदी ब्रांड की नई मार्केटिंग रणनीति है जिसमें मोदी पर लगे दागों को ‘विकास की चमक’ में छुपाने की कोशिश की जा रही है. यही नहीं, चैनलों में मोदी भक्तों की कभी कमी नहीं रही है लेकिन अब वे खुलकर सामने आने लगे हैं.

‘आपको आगे रखनेवाले’ चैनल के एक ऐसे ही स्टार एंकर/रिपोर्टर तो मोदी से इतने प्रभावित दिखे कि एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में अपनी पक्षधरता छुपाये बिना नहीं रह सके. सवाल पूछते हुए कहा कि ‘मैं निजी तौर पर मानता हूँ कि देश की जनता आपको प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहती है.’ क्या बात है? इस महान रिपोर्टर को यह इलहाम कहाँ से हुआ? क्या आजकल उनका जनता जनार्दन से कोई दैवीय संवाद हो रहा है?

सचमुच, चैनलों की महिमा अपरम्पार है! मानना पड़ेगा कि मोदी मोह में उन्होंने सच की ओर से आँखें बंद कर ली हैं.

 
('तहलका' के १५ अक्तूबर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ: आप अपनी प्रतिक्रियाएं उसकी वेबसाईट पर भी जाकर दे सकते हैं: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/982.html )

मंगलवार, अक्टूबर 04, 2011

गरीबी रेखा की गरीबी


देश के करोड़ों गरीबों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है.


 

मशहूर लेखक थामस कार्लाइल ने कभी खिन्न होकर अर्थशास्त्र को ‘निराशापूर्ण या कहिये, शोक का विज्ञान’ (डिज्मल साइंस) कहा था. यह बात कहीं और लागू होती हो या नहीं लेकिन अपने योजना आयोग के अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों पर जरूर लागू होती है. उनका अर्थशास्त्र देश-काल-समाज की वास्तविकताओं और आम भारतीयों के जीवन से किस कदर कट चुका है, इसका अंदाज़ा सुप्रीम कोर्ट में पेश उस हलफनामे से लगाया जा सकता है.

इसमें आयोग ने गरीबी रेखा को स्पष्ट करते हुए दावा किया है कि अगर कोई व्यक्ति अपने दैनिक उपभोग पर शहरी इलाके में ३२ रूपये और ग्रामीण इलाके में २६ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करता है तो वह गरीब नहीं है. आयोग के अर्थशास्त्र के मुताबिक, इस राशि से कम पर गुजारा करनेवाले ही गरीब माने जाएंगे.

यही नहीं, योजना आयोग के महान अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि कोई व्यक्ति अपने दैनिक उपभोग पर शहरी इलाके में ३२ रूपये और ग्रामीण इलाके में २६ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करके आराम से गुजर-बसर कर सकता है. इसलिए आयोग ऐसे लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर (ए.पी.एल) की श्रेणी में रखता है.

लेकिन आयोग के यह कहने का असली मतलब यह है कि ऐसे लोगों और परिवारों को गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों (बी.पी.एल) के लिए लक्षित विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलेगा. स्वाभाविक तौर पर योजना आयोग की इस नायाब खोज या कहिये कि गरीबों के साथ क्रूर मजाक ने न सिर्फ पूरे देश को स्तब्ध और हैरान कर दिया है बल्कि उसकी चारों ओर तीखी आलोचना हुई है.

इसकी प्रतिक्रिया में स्वाभाविक मांग हुई है कि योजना आयोग के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के अलावा आयोग के अन्य अर्थशास्त्रियों और नौकरशाहों को कुछेक महीनों के लिए ३२ से ३५ रूपये प्रतिदिन के उपभोग पर ‘आराम से जीने’ और अपना गुजारा चलाने के लिए कहा जाए.

यही नहीं, इस पायलट परियोजना में संसद सदस्यों, विभिन्न मंत्रालयों के उच्च अधिकारियों, कैबिनेट मंत्रियों को भी शामिल किया जाना चाहिए और इसे बिना किसी विलम्ब के तुरंत लागू किया जाना चाहिए ताकि सच्चाई सामने आ सके. अगर देश के ये सभी भाग्य विधाता ३२ रूपये प्रतिदिन से कुछ अधिक के दैनिक उपभोग में कुछ महीने गुजारा कर लेते हैं तो देश को बिना किसी संकोच के गरीबी की इस परिभाषा को स्वीकार कर लेना चाहिए.

गरीबी की परिभाषा गढ़ने वाले अपने अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्रियों पर योजना आयोग को इतना विश्वास है तो उसे इस चुनौती को जरूर स्वीकार करना चाहिए अन्यथा गरीबों के साथ इस मजाक को तुरंत बंद करना चाहिए. गरीबों के साथ यह मजाक बहुत लंबा चल चुका है. याद रहे कि ७० के दशक से ही गरीबी रेखा के मानदंडों और उसके निर्धारण को लेकर गंभीर और तीखे सवाल उठते रहे हैं.

जिस तरह से गरीबी के निर्धारण के लिए ग्रामीण इलाके में प्रतिदिन २४०० कैलोरी और शहरी इलाके में २१०० कैलोरी के उपभोग को पैमाना बनाया गया, उससे शुरू से साफ़ हो गया था कि यह गरीबी की नहीं भूखमरी की रेखा है. आखिर गरीबी को सिर्फ दो जून भोजन की उपलब्धता तक कैसे सीमित किया जा सकता है?

कहने की जरूरत नहीं है कि एक ऐसे देश में जो खुद को ‘सभ्य स्वतंत्र जनतांत्रिक गणराज्य’ मानता है और अपने संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में सभी नागरिकों के भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और घर के अधिकार की वकालत करता है, वहां गरीबी की यह परिभाषा कैसे स्वीकार की जा सकती है जो किसी व्यक्ति के सिर्फ दो जून भोजन का जुगाड़ कर लेने को गरीबी रेखा से बाहर रखने के लिए पर्याप्त मानती है?

क्या गरीबी के मायने वह हर सामाजिक-आर्थिक-मानवीय वंचना नहीं है जो किसी भी व्यक्ति और उसके परिवार के सम्पूर्ण मानवीय विकास को बाधित करती है? क्या हर उस व्यक्ति और परिवार को गरीब नहीं माना जाना चाहिए जो एक स्वस्थ-सम्मानपूर्ण मानवीय जीवन के लिए जरूरी बुनियादी अधिकारों और जरूरतों से वंचित है?

लेकिन इसके उलट भारतीय अर्थशास्त्रियों की गरीबी की परिभाषा वैचारिक तौर पर इतनी दरिद्र रही है कि उसे गरीबी के बजाय भूखमरी की रेखा कहना ज्यादा बेहतर होगा. सच पूछिए तो गरीबी की मौजूदा रेखा एक ऐसी काल्पनिक गल्प रेखा है जिसका मकसद गरीबों की ईमानदारी से पहचान करना नहीं बल्कि किसी भी तरह से उनकी संख्या को कम से कम करके दिखाना है.

गरीबों की संख्या को कम करके दिखाने का मकसद भी किसी से छुपा नहीं है. एक तो भारतीय शासक वर्ग गरीबों की संख्या कम दिखाके देश की कथित तरक्की और आर्थिक नीतियों की सफलता के ढिंढोरे पीटता और उनकी वैधता साबित करता है. दूसरे, कृत्रिम तरीके से गरीबों की संख्या कम करके राष्ट्रीय संसाधनों में उन्हें उनके संवैधानिक हकों से वंचित किया जाता है.

यही नहीं, गरीबों की संख्या इसलिए भी मायने रखती है क्योंकि इसके आधार पर ही राष्ट्रीय प्राथमिकताएं और राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक नीतियों की दिशा तय होती है. अगर योजना आयोग का सर्वेक्षण यह बता रहा है कि गरीबों की संख्या न सिर्फ कम हुई है बल्कि लगातार घट रही है तो नीतिगत तौर पर इसका अर्थ यह होता है कि मौजूदा आर्थिक-सामाजिक नीतियां सही हैं और उनसे गरीबी को खत्म करने में सफलता मिल रही है.

जाहिर है कि इससे न सिर्फ उन नीतियों को जारी रखने का औचित्य सिद्ध किया जाता है बल्कि आर्थिक नीति और योजनाओं/कार्यक्रमों के एजेंडे की प्राथमिकता सूची से गरीबी को बाहर करने तर्क गढा जाता है.

साफ है कि गरीबी की परिभाषा और गरीबी रेखा के निर्धारण के पैमाने सिर्फ सैद्धांतिक और शैक्षणिक चर्चा और बहस के मुद्दे भर नहीं हैं. सच्चाई यह है कि उनकी वास्तविक गणना नहीं करने का अर्थ उन्हें राष्ट्रीय सरोकारों और चिंताओं से बेदखल करना है. यही नहीं, देश के करोड़ों गरीबों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है.

खासकर ९० के दशक से जब से नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत पहले से ही सीमित और आधे-अधूरे मन से लागू सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी कार्यक्रमों को और सीमित करने के लिए उन्हें लक्षित (टारगेट) करने करने का फैसला हुआ ताकि सब्सिडी में कटौती की जा सके.

इसके तहत न सिर्फ लोगों को मनमाने तरीके से गरीबी रेखा से नीचे (बी.पी.एल) और गरीबी रेखा से ऊपर (ए.पी.एल) के दो कृत्रिम वर्गों में बाँट दिया गया बल्कि योजना आयोग के सरकारी अर्थशास्त्रियों का सारा जोर और परिश्रम बी.पी.एल परिवारों की संख्या को कम से कमतर करने पर लगने लगा.

जाहिर है कि इस प्रक्रिया में बी.पी.एल रेखा और उसकी पहचान का पूरा उपक्रम गरीबों के साथ एक धोखा और क्रूर मजाक साबित हुआ है. इसमें वास्तविक गरीबों का हक मारने और मनमानी, भ्रष्टाचार, और अनियमितताओं के लिए न सिर्फ गुंजाइश बनी है बल्कि खुलकर लूटने की छूट मिल गई है.

यह बी.पी.एल रेखा कितना बड़ा धोखा बन गई है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में कितने लोग गरीब हैं, इसे लेकर पिछले चार-पांच सालों से खुद सरकारी हलकों और उनके अर्थशास्त्रियों में बहस छिड़ी हुई है. सबसे पहले योजना आयोग ने कहा कि देश में गरीब २८ फीसदी हैं.

लेकिन असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति के अध्ययन के लिए गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति ने कहा कि देश में ७८ फीसदी यानी करीब ८३ करोड़ लोग २० रूपये प्रतिदिन से कम पर गुजर कर रहे हैं. इसके बाद शुरू हुई बहस और विवाद के कारण मजबूर होकर योजना आयोग ने सुरेश तेंदुलकर समिति गठित की जिसने माना कि ३७ फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं.

इसी बीच, ग्रामीण विकास मंत्रालय की एन.सी. सक्सेना समिति ने काफी झिझकते हुए कहा कि वैसे तो देश में गरीबों की वास्तविक संख्या ८० फीसदी के आसपास है लेकिन कम से कम ५० प्रतिशत को बी.पी.एल परिवारों में जरूर शामिल कर लेना चाहिए. एक गैर सरकारी आकलन (प्रो. ज्यां द्रेज और डेटन) के मुताबिक, कैलोरी पैमाने पर भी देश में गरीबों की कुल संख्या ७५.८ फीसदी है जिसमें ग्रामीण इलाकों में ७९.८ प्रतिशत और शहरी इलाकों में ६३.९ प्रतिशत गरीब हैं.

सबसे मजे की बात यह है कि गरीबों की संख्या के बारे में ये सभी अनुमान एन.एस.एस.ओ के २००४-०५ के सर्वेक्षण पर आधारित हैं. एक ही सर्वेक्षण से इतने अंतर्विरोधी और भिन्न नतीजों से साफ है कि न सिर्फ गरीबी मापने के पैमाने बल्कि उनके आकलन के तरीकों में भी गंभीर समस्याएं हैं.

यही नहीं, गरीबी के मौजूदा सरकारी अनुमानों के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह भी है कि एक बार जब योजना आयोग राष्ट्रीय स्तर और राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों का आकलन घोषित कर देता है तो राज्य सरकारों की जिम्मेदारी उस घोषित संख्या के अंदर वास्तविक गरीब परिवारों की पहचान करने भर की रह जाती है.

इसका सीधा सा अर्थ यह है कि वास्तविक गरीब चाहे जितने हों लेकिन राज्य सरकारें गरीबों की संख्या को उसी सीमा के अंदर रखने के लिए बाध्य हैं. अगर वे बी.पी.एल परिवारों की संख्या बढाती हैं तो बढ़ी हुई संख्या के लिए सरकारी योजनाओं को लागू करने के वास्ते जरूरी संसाधनों का इंतजाम उन्हें खुद करना होगा. जाहिर है कि इस कारण सभी राज्य सरकारें योजना आयोग के बी.पी.एल अनुमानों का विरोध करने के बावजूद उसे चुपचाप स्वीकार कर लेती हैं.

दरअसल, गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों के ये सभी, खासकर योजना आयोग अनुमान कितने बेमानी हैं, इसका अंदाज़ा अनेक सामाजिक-आर्थिक-मानवीय विकास के सूचकांकों पर भारत के प्रदर्शन से लगाया जा सकता है. आखिर यह कैसे हो सकता है कि देश में गरीब तो सिर्फ ३७ फीसदी हों लेकिन कुपोषणग्रस्त बच्चों की संख्या लगभग ४७ फीसदी हो?

ऐसे बीसियों आंकड़े यहाँ दिए जा सकते हैं जो गरीबी रेखा को झूठा साबित करते हैं. साफ है कि गरीबी के मौजूदा पैमानों को सिरे से ख़ारिज करने का समय आ चुका है. इसके अलावा आज जब गरीबी निर्धारण के पैमानों पर बहस चल रही है तो इस बहस के दायरे को बढ़ाने और उसे एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है.

आखिर २६ और ३२ रूपये की बहस में इस सच्चाई को कैसे नजरंदाज किया जा सकता है कि पिछले सात सालों में महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई कई गुना बढ़ चुकी है जबकि उस अनुपात में कामगारों के बड़े हिस्से की मजदूरी और वेतन में वृद्धि नहीं हुई है. शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य के बढ़ते निजीकरण के बीच उनके खर्चों में बेतहाशा बढोत्तरी हुई है.

दूसरे, गरीबी को देश में कुछ वर्गों की तेजी से बढ़ती अमीरी के सापेक्ष में भी देखा जाना चाहिए. यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशकों में अमीरों और गरीबों के बीच फासला और बढ़ा है. देश में गैर बराबरी और आर्थिक विषमता और बढ़ी है. इसके कारण गरीबों का जीना दिन पर दिन और मुश्किल होता जा रहा है.

इसलिए अब समय आ गया है कि गरीबी की परिभाषा को व्यापक करके उसमें पर्याप्त और पोषण युक्त भोजन के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, घर, यातायात से लेकर अन्य बुनियादी जरूरतों को भी शामिल किया जाए जो किसी भी नागरिक के गरिमापूर्ण जीवन के लिए जरूरी हैं. यही नहीं, इन मदों पर होनेवाले वास्तविक खर्च की ईमानदार गणना की जाए.

लेकिन नव उदारवादी अर्थनीति कभी ऐसा होने देगी, इसकी उम्मीद बहुत कम है. गरीबों के राजनीतिक संघर्षों और हस्तक्षेप से ही स्थिति बदल सकती है. वैसे भी गरीबों को बिना लड़े शायद ही कुछ मिला है.

('जनसत्ता' के ३ अक्तूबर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

सोमवार, अक्टूबर 03, 2011

जलते तेलंगाना की आग से और मत खेलिए


तेलंगाना एक विचार है और उसका समय आ गया है



तेलंगाना एक बार फिर उबल रहा है. अलग राज्य की मांग को लेकर पिछले बीस दिनों से आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र के दस जिलों सहित राजधानी हैदराबाद में हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं. पूरे तेलंगाना इलाके में अनिश्चितकालीन बंद, हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों के कारण सब कुछ ठप्प है.

इस इलाके के सरकारी कर्मचारी, वकील, शिक्षक-छात्र, खदान मजदूर और आम लोगों सहित सभी राजनीतिक पार्टियों के विधायक-सांसद-मंत्री इस अनिश्चितकालीन हड़ताल में शामिल हैं. एक तरह से सिविल नाफरमानी की स्थिति है. इससे पहले, इस साल फ़रवरी और मार्च में भी ऐसे ही हालात बन गए थे.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि तेलंगाना की स्थिति बहुत गंभीर है और केन्द्र की यू.पी.ए सरकार खासकर कांग्रेस नेतृत्व के अनिर्णय के कारण स्थिति विस्फोटक होती जा रही है. हालत यह हो गई है कि इस आंदोलन के कारण आंध्र प्रदेश की किरण कुमार रेड्डी सरकार पूरी तरह से पंगु सी हो गई है. खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बीते शनिवार को स्वीकार किया कि तेलंगाना की स्थिति गंभीर है.

लेकिन मसले के हल में और समय लगने और राजनीतिक पार्टियों से और चर्चा करने की बात कह के उन्होंने जाहिर कर दिया है कि केन्द्र सरकार की इस मसले के तत्काल हल में कोई दिलचस्पी नहीं है.

साफ है कि इस मसले के हल को लेकर कांग्रेस नेतृत्व अब भी न सिर्फ ‘कन्फ्यूज्ड’ और अगंभीर है बल्कि वह इसे लटकाए रखकर आंदोलन को थकाने और भ्रमित करने की रणनीति पर चल रहा है. गृह मंत्री पी. चिदंबरम के शब्दों में कहें तो ‘फैसला न लेना भी एक फैसला है.’ यह संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए आन्दोलनों से निपटने का कांग्रेस का पुराना और आत्मघाती खतरनाक तरीका है.

इससे इस पूरे मामले के शांति, सौहार्द और न्यायोचित तरीके से सुलझने के बजाय बिगड़ने का खतरा बढ़ता जा रहा है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने अपने पुराने अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है. याद रहे, उसके संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की राजनीति के कारण ही ८० के दशक में पंजाब और असम जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो गईं थीं.

असल में, कोई दो साल पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के. चंद्रशेखर राव के अनिश्चितकालीन अनशन के बाद गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने तेलंगाना बनाने की प्रक्रिया शुरू करने का आश्वासन दिया था. लेकिन कांग्रेस की खुद की अंदरूनी राजनीति के कारण जल्दी ही न सिर्फ तटीय आंध्र और रायलसीमा इलाके में तेलंगाना बनाए जाने के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया बल्कि यू.पी.ए सरकार भी अपने वायदे से मुकरने लगी.

इसके बाद से उसकी पूरी कोशिश इस मामले को टालने और लटकाने की रही है. इसे टालने के लिए ही जस्टिस श्रीकृष्ण समिति का गठन किया गया. हालांकि एक राजनीतिक मसले का तकनीकी हल नहीं होता लेकिन यू.पी.ए सरकार ने इसे विशेषज्ञों के मत्थे थोप दिया.

लेकिन अपनी इन सीमाओं के बावजूद जस्टिस श्रीकृष्ण समिति ने तेलंगाना मुद्दे की गेंद को फिर से केन्द्र सरकार के पाले में डाल दिया. अब फैसला कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार को करना है. लेकिन कांग्रेस इस मुद्दे पर कोई साफ और नीतिगत निर्णय लेने के बजाय अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण मामले को लटकाने और अपने पुराने राजनीतिक दांव-पेंच पर उतर आई है. कहने की जरूरत नहीं है कि तेलंगाना के मुद्दे पर एक बार फिर ऐसी राजनीतिक गलती देश को बहुत भारी पड़ सकती है.

असल में, तेलंगाना मुद्दे पर कांग्रेस अपनी अवसरवादी और संकीर्ण स्वार्थों की राजनीति के कारण फंस गई है. कांग्रेस के लिए आंध्र प्रदेश में दांव बहुत उंचे हैं. कांग्रेस के सबसे अधिक करीब ३५ सांसद आंध्र से ही आते हैं. देश के बड़े राज्यों में कांग्रेस की सत्ता केवल आंध्र प्रदेश में ही है क्योंकि महाराष्ट्र में वह एन.सी.पी के साथ गठबंधन सरकार चला रही है. दक्षिण भारत में आंध्र एकमात्र राज्य है जहां कांग्रेस को भविष्य की राजनीति के लिहाज से सबसे अधिक उम्मीदें हैं.

जाहिर है कि कांग्रेस आंध्र गंवाने का जोखिम नहीं ले सकती है लेकिन आंध्र की सत्ता को बचाने के लिए कांग्रेस जिस तरह का दांव-पेंच कर रही है, उसके कारण वह न सिर्फ राजनीतिक रूप से आंध्र और तेलंगाना दोनों गंवाने के कगार पर पहुंच गई है बल्कि दोनों खित्तों को आग में भी झोंकती दिखाई पड़ रही है. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस इस मुद्दे पर एक सैद्धांतिक और नीतिगत रूख अपनाने के बजाय अपने राजनीतिक फायदे-नुकसान की राजनीति के आधार पर मामले को लटकाने और उलझाने की आत्मघाती राजनीति कर रही है.

दरअसल, कांग्रेस दूर तक नहीं देख पा रही है. उसकी राजनीति तात्कालिकता और अवसरवाद से संचालित हो रही है. इसके कारण आंध्र प्रदेश में वह सच और न्याय के पक्ष को अनदेखा करने की कोशिश कर रही है. क्या यह सच नहीं है कि तेलंगाना को अलग राज्य बनाने का मुद्दा आंध्र कांग्रेस के घोषणापत्र और यू.पी.ए – प्रथम के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शामिल था? क्या यह अवसरवाद नहीं है कि उस समय कांग्रेस ने तेलंगाना राष्ट्र समिति (टी.आर.एस) का समर्थन लेने के लिए अलग राज्य का वायदा किया था लेकिन बाद में मुकर गई?

कांग्रेस और वामपंथी दलों को इस बात पर जरूर विचार करना चाहिए कि क्या कारण है कि तेलंगाना अलग राज्य बनाए जाने का एक लोकतान्त्रिक आंदोलन भाजपा और टी.आर.एस जैसी सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी और अवसरवादी शक्तियों के हाथ में चला गया है? कांग्रेस ही क्यों, तेलंगाना के मुद्दे पर लगभग हर पार्टी का अवसरवादी और दोमुंहा रवैया उजागर हो चुका है.

आज भाजपा तेलंगाना को अलग राज्य बनाए जाने की सबसे बड़ी चैम्पियन बन रही है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि अपने चुनाव घोषणापत्र में वायदे के बावजूद उसने वर्ष २००० में झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के साथ तेलंगाना को अलग राज्य नहीं बनाया? तथ्य यह है कि भाजपा उस समय केन्द्र में अपनी सरकार बचाने के लिए पीछे हट गई. वाजपेयी सरकार चन्द्र बाबू नायडू की टी.डी.पी के समर्थन से चल रही थी.

इसी तरह, खुद टी.डी.पी का अवसरवाद यह है कि उसने पिछले चुनावों में अपनी डूबती नैय्या को बचाने के लिए टी.आर.एस के साथ समझौता करके चुनाव लड़ा लेकिन अब तेलंगाना के मुद्दे पर दाएं-बाएं कर रहे हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दलों को इस अवसरवादी राजनीति का यह खामियाजा भुगतना पड़ रहा है कि आन्ध्र में सभी पार्टियां दो हिस्सों में बंट गई हैं. यही नहीं, उनकी इस अवसरवादी राजनीति के कारण आंध्र प्रदेश में तेलंगाना और राज्य के अन्य हिस्सों – तटीय आंध्र और रायलसीमा के बीच गृह युद्ध के आसार पैदा हो गए हैं.

लेकिन इस सबके बावजूद सच यह है कि अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के गठन को अब और नहीं टाला जा सकता है. तेलंगाना एक ऐसी ऐतिहासिक राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सच्चाई और विचार है जिसका समय आ गया है.

तेलंगाना शुरू से ही यहां तक कि तेलुगु भाषी राज्य के रूप में आंध्र के गठन से पहले से ही यह एक राजनीतिक रूप से स्वतंत्र, सांस्कृतिक रूप से अलग और आर्थिक रूप से सक्षम इकाई रहा है. इस सच्चाई को जितनी जल्दी स्वीकार किया जायेगा, वह आंध्र और पूरे देश के लिए उतना ही अच्छा होगा क्योंकि इस अपरिहार्य फैसले को टालने या लटकाने के नतीजे किसी के लिए भी अच्छे नहीं होंगे.

अच्छा तो यह होता कि यू.पी.ए सरकार इस पूरे मुद्दे पर तदर्थवादी और अवसरवादी तरीके से फैसला करने के बजाय द्वितीय राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन करती और ऐसी सभी मांगों पर खुले और लोकतान्त्रिक तरीके से विचार का माहौल बनाती. तेलंगाना ने यह अवसर दिया है. इससे एक नई राह निकल सकती है. इसे गंवाना नहीं चाहिए.

('नया इंडिया' के ३ अक्तूबर'११ के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का पूर्ण रूप)