सोमवार, जुलाई 01, 2013

मोदी के मामले में मीडिया के सामने तटस्थ होने का विकल्प नहीं है

मीडिया और चैनलों को न्याय और सच के साथ खड़ा होना होगा

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
यही नहीं, न्यूज मीडिया जिस तरह से २००२ के सांप्रदायिक जनसंहार के मुद्दे को भाजपा/आर.एस.एस की उग्र हिंदुत्व की राजनीति, उसमें मोदी सरकार की भूमिका, पीड़ितों को अब तक न्याय न मिलने और न्याय के रास्ते में लगातार रुकावटें पैदा करने, गुजरात में अल्पसंख्यकों को हाशिए पर ढकेल दिए जाने और सबसे बढ़कर मोदी की हिंदुत्व-कारपोरेट विकास के मिश्रण से तैयार दक्षिणपंथी सांप्रदायिक राजनीति के एजेंडे के तहत महीन-द्विअर्थी-आक्रामक प्रचार शैली से काटकर पेश करता है, उसके कारण ऐसा आभास होता है कि मोदी को अनावश्यक रूप से निशाना बनाया जा रहा है.
इसी का फायदा उठाकर मोदी की पी.आर मशीनरी यह प्रचार करती रही है कि न्यूज मीडिया खासकर राष्ट्रीय (दिल्ली) का मीडिया और अंग्रेजी प्रेस २००२ के दंगों के बहाने मोदी का ‘खलनायकीकरण’ करता रहा है जबकि उसके बाद से गुजरात में ‘शांति है और तेज विकास’ है.
जाहिर है कि न्यूज मीडिया और चैनल यह नहीं बताते हैं कि गुजरात में यह शांति और विकास किस कीमत पर है? वे जांच-पड़ताल करने की कोशिश नहीं करते हैं कि गुजरात में न सिर्फ अल्पसंख्यकों को ख़ामोशी से एक सुनियोजित प्रक्रिया के तहत हाशिए पर ढकेल दिया गया है बल्कि विरोध की सभी आवाजों को दबा दिया गया है.

चूँकि आम दर्शकों को यह पृष्ठभूमि नहीं दी जाती है, इसलिए वे भी मोदी की पी.आर मशीनरी के इस प्रचार को सच मानने लगते हैं कि मोदी के ‘बेदाग़’ प्रशासन और प्रदर्शन पर २००२ के दंगे एक मामूली दाग भर हैं जिन्हें मोदी और गुजरात को बदनाम करने के लिए जरूरत से ज्यादा उछाला जाता रहा है और अब उसे भुला दिया जाना चाहिए.

यही नहीं, मोदी की सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति के व्यापक सन्दर्भों-परिप्रेक्ष्य और पृष्ठभूमि से काटकर २००२ के नरसंहार के अत्यधिक उल्लेख और उसके बाद के हालात की रिपोर्टिंग से परहेज के जरिये लोगों में इस मुद्दे को लेकर विरूचि सी पैदा करने की कोशिश हो रही है.
साफ़ है कि इस तरह न सिर्फ २००२ के सांप्रदायिक नरसंहार के मुद्दे को धीरे-धीरे अप्रासंगिक बनाने की कोशिश
हो रही है बल्कि मोदी के भाषणों और प्रचार में विकास और शक्तिशाली राष्ट्र के नारे की आड़ में बारीक-द्विअर्थी सांप्रदायिक टिप्पणियों और अभियान को नजरंदाज़ करने की भी कोशिश की जा रही है. जैसे मोदी को एक दक्षिणपंथी पार्टी के नेता के रूप में चुनाव प्रचार अभियान में ऐसी टिप्पणियां करने का स्वाभाविक हक हासिल है और उसे अनदेखा किया जाना चाहिए.    
ऐसे में, मोदी के आलोचक माने-जानेवाले राजदीप सरदेसाई जैसे वरिष्ठ संपादक जब ‘मोदी की स्तुति या निंदा की चरम सीमा से परे जाकर विश्लेषण’ करने और मीडिया से ‘बीच का कोई रास्ता निकालने’ के लिए कहते हैं तो यह सवाल पैदा होता है कि मोदी के मामले में बीच का रास्ता निकालने का क्या अर्थ है?

क्या इस बीच के रास्ते का मतलब यह है कि मोदी के मामले में न्यूज मीडिया २००२ के नरसंहार, उसके पीडितों को अब तक न्याय न मिलने और गुजरात में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर फोकस न करे? या उसे संतुलित करने के लिए वायब्रेंट गुजरात और उसके तीव्र विकास की रिपोर्टों के साथ पेश करे? सबसे बढ़कर क्या बीच के रास्ते का अर्थ यह भी नहीं है कि मोदी की राजनीति में सकारात्मक तत्व खोजे जाएँ और इस तरह उनकी आलोचना की धार को भोथरा कर दिया जाए?

क्या पत्रकारिता में संतुलन और निष्पक्षता का अर्थ न्याय और अन्याय के बीच संतुलन रखना और दोनों में से किसी के पक्ष में खड़ा न होना है? आखिर गुजरात में २००२ के नरसंहार के दोषियों को सजा दिलाने और पीड़ितों के लिए न्याय की मांग में तटस्थता और संतुलन और बीच का रास्ता क्या हो सकता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि यह संतुलन और निष्पक्षता की कृत्रिम और मशीनी व्याख्या है. याद रहे, पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों में पीड़ितों-कमजोरों और न्याय के साथ खड़ा होना, सत्ता की जवाबदेही तय करना और उसकी गडबडियों का पर्दाफाश करना भी है. इसमें बीच का रास्ता नहीं हो सकता है. बीच का रास्ता दरअसल, लीपापोती और दोषियों को परोक्ष रूप से बचाने का रास्ता है.  
दूसरे, राजदीप सरदेसाई का यह आग्रह भी गंभीर सवाल खड़ा करता है कि मोदी के आकलन में वैचारिक आग्रहों से परे जाकर उनका मूल्यांकन किया जाए? सवाल यह है कि सरदेसाई किन वैचारिक आग्रहों की बात कर रहे हैं? क्या वह यह कह रहे हैं कि मोदी का आकलन करते हुए धर्मनिरपेक्षता के विचार को परे रख दिया जाए?

क्या वह यह प्रस्ताव कर रहे हैं कि दुनिया भर के लोकतंत्रों और भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों को दिए गए संरक्षण और अधिकारों के विचार को किनारे करके मोदी का आकलन किया जाए? क्या सरदेसाई यह कह रहे हैं कि मोदी के आकलन में मानवाधिकारों के विचार प्रति उनके शत्रुपूर्ण रवैये को अनदेखा कर दिया जाए?

ऐसे ही कई और विचार हैं जिन्हें दुनिया भर में सार्वभौम मानवाधिकारों के रूप में स्वीकार किया गया है लेकिन क्या पत्रकारिता में वैचारिक आग्रह छोड़ने के नामपर उन्हें अनदेखा किया जा सकता है?

सवाल यह है कि क्या पत्रकारों और पत्रकारिता को इन विचारों के प्रति कोई आग्रह या प्रतिबद्धता नहीं रखनी चाहिए? इससे एक और बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या पत्रकारिता का कोई वैचारिक आधार नहीं है? क्या उसे विचारशून्य होना चाहिए?
संभव है कि सरदेसाई के कहने तात्पर्य यह नहीं हो. लेकिन देखा गया है कि पत्रकारिता को वैचारिक आग्रहों से परे रखने का आग्रह बिना किसी अपवाद के सत्ता और वर्चस्व की ताकतों और अनुदारवादी-दक्षिणपंथी-फासीवादी वैचारिक खेमों की ओर से आता है. इसके जरिये वह पत्रकारिता को सत्ता और ताकतवर वर्गों के हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं.
आखिर विचारों के बिना पत्रकारिता क्या है? सच यह है कि पत्रकारिता की आत्मा उसके विचारों और सरोकारों में है. विचार ही पत्रकारिता को वह धार और औजार देते हैं जिसके जरिये वह जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में खड़ी हो पाती है, जिसके जरिये वह सच का संधान करती है और जिसके माध्यम से वह नागरिकों को सत्य, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ, संतुलित और निष्पक्ष सूचनाएं और जानकारियाँ देकर शिक्षित और स्वशासन के लिए तैयार करती है.

लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक/आर्थिक न्याय, समता, मानवाधिकार (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विरोध का अधिकार आदि), अल्पसंख्यकों के अधिकार आदि प्रगतिशील विचारों और सरोकारों से ही एक पत्रकार के पास वह दृष्टि और समझ आती है जिससे वह देश-समाज में घट रही घटनाओं-व्यक्तियों-मुद्दों की पड़ताल करता है और उनका आकलन कर पाता है.

आखिर सरदेसाई मोदी के आकलन के लिए नैतिकता और पत्रकारिता की जिस कसौटी की बात करते हैं, वह विचारों के बिना क्या है? उन्हें यह बताना चाहिए कि मोदी का मूल्यांकन वे किन कसौटियों पर करना चाहेंगे? उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि नैतिकता के जिन पैमानों को फिर से ठीक करने की बात कर रहे हैं, वे पैमाने क्या हैं?
नैतिकता (एथिक्स) के किस पैमाने में न्याय नहीं है? पत्रकारीय नैतिकता या आचार संहिता (एथिक्स) में क्या कोई विचार या सरोकार नहीं हैं? अगर हैं तो नरेन्द्र मोदी का आकलन उनपर क्यों नहीं होना चाहिए? और अगर उस आकलन में मोदी खरे नहीं उतरते हैं तो यह कहने में एक पत्रकार को संकोच या बीच का रास्ता क्यों अख्तियार करना चाहिए?
यह सवाल आज इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हो गया है कि मोदी की सांप्रदायिक-फासीवादी राजनीति ने वास्तव में, आज कोई बीच का रास्ता नहीं रहने दिया है. यह फैसला करने का वक्त है क्योंकि मोदी जिस राजनीति और उसके एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, वह जनतंत्र के बुनियादी मूल्यों, विचारों और सरोकारों के विरुद्ध है.

इस समय तटस्थ रहने का विकल्प नहीं है और ऐसे मौकों पर तटस्थता एक अपराध है. आनेवाले महीनों में जैसे-जैसे मोदी का अभियान आगे बढ़ेगा, पत्रकारिता खुद कसौटी पर खड़ी होगी.

('कथादेश' के जुलाई अंक में प्रकाशित स्तम्भ की दूसरी और आखिरी क़िस्त)

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