सोमवार, जुलाई 08, 2013

लोक प्रसारक या सरकार का भोंपू?

प्रसार भारती को चाहिए लोकतान्त्रिक और सृजनात्मक आज़ादी और वित्तीय स्वायत्तता

दूसरी और आखिरी क़िस्त

भारत में प्रसार भारती (दूरदर्शन और आकाशवाणी) इसका ज्वलंत उदाहरण है. हैरानी की बात यह है कि भारत में लोक सेवा प्रसारण के विचार के प्रति एक व्यापक सहमति, ध्वनि तरंगों (प्रसारण) को स्वतंत्र करने के बाबत सुप्रीम कोर्ट के फैसले और संसद में प्रसार भारती कानून के पास होने के बावजूद प्रसार भारती वास्तविक अर्थों में एक सक्रिय, सचेत और स्वतंत्र-स्वायत्त लोक प्रसारक की भूमिका नहीं निभा पा रहा है.
हालाँकि ७० और ८० के दशकों की तुलना में प्रसार भारती यानी दूरदर्शन और आकाशवाणी में सीमित सा खुलापन आया है लेकिन इसके बावजूद उसकी लोक छवि एक ऐसे प्रसारक की बनी हुई है कि जो सरकार के नियंत्रण और निर्देशों पर चलता है और जहाँ नौकरशाही के दबदबे के कारण सृजनात्मकता के लिए बहुत कम गुंजाइश बची है.
हैरानी की बात यह भी है कि सार्वजनिक धन और संसाधनों से चलनेवाली प्रसार भारती की मौजूदा स्थिति और उसके कामकाज पर देश में कोई खास चर्चा और बहस नहीं दिखाई देती है. उसके कामकाज पर न तो संसद में कोई व्यापक चर्चा होती है और न ही सार्वजनिक और अकादमिक मंचों पर कोई बड़ी बहस सुनाई देती है.

यहाँ तक कि खुद प्रसार भारती के अंदर उसके कर्मचारियों और अधिकारियों में अपनी स्वतंत्रता और स्वायत्तता को लेकर कोई सक्रियता और उत्साह नहीं दिखाई पड़ता है. इसके उलट कर्मचारियों के संगठन ने प्रसार भारती को भंग करके खुद को सरकारी कर्मचारी घोषित करने की मांग की है. इसके पीछे वजह सरकारी नौकरी का स्थायित्व, पेंशन, आवास सुविधा आदि हैं.

लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि प्रसार भारती के कर्मचारियों में मौजूदा ढाँचे और कामकाज को लेकर कितनी निराशा, उदासी और दिशाहीनता है.  

हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने कुछ महीने पहले संचार विशेषज्ञ सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में प्रसार भारती के सरकार के साथ संबंधों, उसकी फंडिंग, उसके प्रबंधन और संरचना के बारे में सुझाव देने के लिए विशेषज्ञ समिति का गठन किया है.
लेकिन प्रसार भारती को बने कोई १६ साल हो गए और इस बीच, उसकी दशा-दिशा तय करने के लिए अलग-अलग सरकारों ने कोई चार समितियों का गठन किया. इनमें वर्ष १९९६ में बनी नीतिश सेनगुप्ता समिति, वर्ष ९९-०० में बनी नारायण मूर्ति समिति, वर्ष २००० में बनी बक्शी समिति के अलावा अब सैम पित्रोदा समिति का गठन किया गया है लेकिन कहना मुश्किल है कि इन समितियों की रिपोर्टों पर किस हद तक अमल हुआ?

लोक प्रसारक के बतौर प्रसार भारती: स्वप्न भंग की दास्तान 
दूरदर्शन और आकाशवाणी को सृजनात्मक आज़ादी और स्वायत्तता देने के एक लंबे संघर्ष के बाद प्रसार भारती का गठन हुआ था. ७० और ८० के दशक में दूरदर्शन और आकाशवाणी का सत्तारुढ़ दल द्वारा दुरुपयोग के आरोपों के बीच खासकर इमरजेंसी के बाद यह मुद्दा राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर भी प्रमुखता से छाया रहा.

नागरिक समाज के विभिन्न हिस्सों की ओर से भी यह मांग उठती रही कि दूरदर्शन और आकाशवाणी को आज़ादी और स्वायत्तता मिलनी चाहिए और उन्हें वास्तविक अर्थों में लोक प्रसारक की स्वतंत्र भूमिका निभाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए. इसी पृष्ठभूमि में १९९० में प्रसार भारती कानून बना और ११९७ में लागू किया गया.

कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक बड़ा और महत्वाकांक्षी विचार था जिसके साथ यह स्वप्न जुड़ा हुआ था कि दूरदर्शन और आकाशवाणी प्रसार भारती के तहत व्यावसायिक दबावों से दूर और देश के सभी वर्गों-समुदायों-समूहों की सूचना, शिक्षा और मनोरंजन सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करने के लिए काम करेंगे.
वे भारत जैसे विकासशील देश और समाज की बुनियादी जरूरतों ध्यान में रखेंगे और एक ऐसे लोक प्रसारक के रूप में काम करेंगे जिसमें देश और भारतीय समाज की विविधता और बहुलता अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक रूप में दिखाई देगी. उनके साथ यह उम्मीद भी जुड़ी हुई थी कि वह वास्तव में ‘लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा’ चलनेवाला ऐसा प्रसारक होगा जो सामाजिक लाभ के लिए काम करेगा.
लेकिन प्रसार भारती के पिछले १६ सालों के अनुभव एक स्वप्न भंग की त्रासद दास्ताँ हैं. हालाँकि प्रसार भारती का दावा है कि वह भारत का लोक प्रसारक और इस कारण ‘देश की आवाज़’ है. लेकिन सच यह है कि वह ‘देश की आवाज़’ बनने में नाकाम रहा है.

कानूनी तौर पर स्वायत्तता मिलने के बावजूद वह व्यावहारिक तौर पर अब भी एक सरकारी विभाग की ही तरह काम कर रहा है जहाँ नीति निर्माण से लेकर दैनिक प्रबंधन और संचालन में नौकरशाही हावी है. इस कारण उसकी साख में कोई खास सुधार नहीं हुआ है और सृजनात्मकता के मामले में स्थिति ८० के दशक की तुलना में बदतर हुई है.

हालाँकि यह भी सच है कि इन डेढ़ दशकों में प्रसार भारती का संरचनागत विस्तार हुआ है. दूरदर्शन के चैनल लगभग सभी प्रमुख भाषाओँ और राज्यों में उपलब्ध हैं, खेल-कला/संस्कृति और समाचार के लिए अलग से चैनल हैं और एफ.एम प्रसारण के जरिये आकाशवाणी ने भी श्रोताओं के बीच वापसी की है.
यह भी सच है कि निजी चैनलों की अति व्यावसायिक, महानगर केंद्रित और मुम्बईया सिनेमा के फार्मूलों पर आधारित मनोरंजन कार्यक्रमों और सनसनीखेज और समाचारों के नामपर तमाशा करने में माहिर निजी समाचार चैनलों से उब रहे बहुतेरे दर्शकों को दूरदर्शन के चैनल ज्यादा बेहतर नजर आने लगे हैं. हाल के दिनों में दूरदर्शन के कार्यक्रमों और प्रस्तुति में कुछ सुधार के लक्षण भी दिखाई दे रहे हैं.  
लेकिन प्रसार भारती के सामने खुद को एक बेहतर और आदर्श ‘लोक प्रसारक’ और वास्तविक अर्थों में ‘देश की आवाज़’ बनाने की जितनी बड़ी चुनौती है, उसके मुकाबले इस क्रमिक सुधार से बहुत उम्मीद नहीं जगती है.

यही नहीं, प्रसार भारती में हाल के सुधारों की दिशा उसे निजीकरण और व्यवसायीकरण की ओर ले जाती दिख रही है. प्रसार भारती पर अपने संसाधन जुटाने का दबाव बढ़ता जा रहा है और इसके कारण विज्ञापन आय पर बढ़ती निर्भरता उसे निजी चैनलों के साथ अंधी प्रतियोगिता में उतरने और उनकी सस्ती अनुकृति बनने के लिए मजबूर कर रही है.

हालाँकि दूरदर्शन के व्यवसायीकरण की यह प्रक्रिया ८० के दशक में ही शुरू हो गई थी लेकिन नब्बे के दशक में निजी प्रसारकों के आने के बाद इसे और गति मिली. 

इस कारण आज दूरदर्शन और निजी चैनलों में कोई बुनियादी फर्क कर पाना मुश्किल है. कहने की जरूरत नहीं है कि व्यावसायिकता और लोक प्रसारण साथ नहीं चल सकते हैं. दुनिया भर में लोक प्रसारण सेवाओं के अनुभवों से साफ़ है कि लोक प्रसारण के उच्चतर मानदंडों पर खरा उतरने के लिए उसका संकीर्ण व्यावसायिक दबावों से मुक्त होना अनिवार्य है.
इसकी वजह यह है कि प्रसारण का व्यावसायिक माडल मुख्यतः विज्ञापनों पर निर्भर है और विज्ञापनदाता की दिलचस्पी नागरिक में नहीं, उपभोक्ता में है. उस उपभोक्ता में जिसके पास क्रय शक्ति है और जो उत्पादों/सेवाओं पर खर्च करने के लिए इच्छुक भी है. इस कारण वह ऐसे दर्शक और श्रोता खोजता है जिन्हें आसानी से उपभोक्ता में बदला जा सके. इसके लिए वह ऐसे कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करता है जो इसके उद्देश्यों के अनुकूल हों. 
लेकिन एक सचेत और सक्रिय नागरिक की चिंताएं और सरोकार एक उपभोक्ता की चिंताओं और सरोकारों से काफी अलग होती हैं. एक उपभोक्ता अपने उपभोग को लेकर चिंतित रहता है और उसके व्यापक नतीजों पर कम सोचता है.

लेकिन एक नागरिक उपभोग से पहले उसके नतीजों के बारे में सोचता है और अंधाधुंध उपभोग के खतरों से परिचित होता है. एक नागरिक भी उपभोक्ता होता है लेकिन असल चुनौती यह है कि एक उपभोक्ता में नागरिक की चेतना और सरोकारों को कैसे पैदा किया जाए?

याद रहे कि भारत में उपभोक्तावाद के प्रसार और विस्तार में निजी चैनलों का बड़ा योगदान रहा है. ऐसे में, लोक प्रसारण सेवा को उपभोक्तावाद के विस्तार का एक और माध्यम बनाने के बजाय उसके बारे में लोगों को सचेत करने और उन्हें एक जिम्मेदार उपभोक्ता बनाने की जवाबदेही लेनी होगी.

भारत में लोक प्रसारण सेवा के लिए आगे का रास्ता

हालाँकि पित्रोदा समिति प्रसार भारती के लिए भविष्य का रोडमैप तैयार कर रही है लेकिन यहाँ दूरदर्शन के कार्यक्रमों और उसके लोक प्रसारक के बतौर एक खालिस भारतीय व्यक्तित्व के बारे में पी.सी जोशी समिति (१९८४) की रिपोर्ट ‘टेलीविजन के लिए एक भारतीय व्यक्तित्व’ (एन इंडियन पर्सनालिटी फार टेलीविजन) का जिक्र करना जरूरी है.
इस रिपोर्ट को अगले साल तीन दशक पूरा हो जाएंगे. हालाँकि इन तीन दशकों में देश और दुनिया में प्रसारण का परिदृश्य बहुत बदल गया है लेकिन इसके बावजूद यह रिपोर्ट भारत जैसे बहुराष्ट्रीय-बहुभाषी-बहुधार्मिक-बहुजातीय और विकासशील समाज में लोक प्रसारण सेवा के बुनियादी दृष्टिकोण और कार्यभार को बखूबी पेश करती है. इस मायने में यह रिपोर्ट और उसकी अनुशंसाएँ आज भी न सिर्फ प्रासंगिक हैं बल्कि दूरदर्शन के लिए एक लोक प्रसारक के बतौर बेहतर रोडमैप पेश करती है.
जोशी समिति ने दूरदर्शन के लिए जिस भारतीय व्यक्तित्व की कल्पना की थी, उस स्वप्न को पुनरुज्जीवित करने की जरूरत है. इसके लिए दूरदर्शन को मध्यकालिक और दीर्घकालिक तौर इन कार्यभारों को पूरा करना होगा:

·         प्रसार भारती की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उसकी सरकार और निजी क्षेत्र पर से निर्भरता खत्म करनी जरूरी है. उसकी आर्थिक स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिए एक स्थाई और टिकाऊ वित्तीय माडल की जरूरत है.

·         प्रसार भारती की सृजनात्मक आज़ादी सुनिश्चित करने के लिए उसे नौकरशाही के नियंत्रण से मुक्त करना और उसके संचालन में लोकतांत्रिक भागीदारी और मूल्यों को स्थापित करना भी अनिवार्य है. इसके लिए प्रसार भारती के प्रबंधन और कामकाज में पेशेवर और स्वतंत्र लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को नेतृत्वकारी भूमिका प्रदान करने के अलावा समाज के विभिन्न वर्गों-समुदायों-समूहों को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए. उसके प्रबंधन में कर्मचारियों की भागीदारी भी सुनिश्चित की जानी चाहिए.

·         प्रसार भारती की जिम्मेदारी और जवाबदेही लोगों के प्रति होनी चाहिए. इसके लिए उसके संचालन और प्रबंधन में लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने का लोकतांत्रिक माडल खड़ा किया जाना चाहिए. इसके लिए प्रसार भारती के सभी भागीदारों (स्टेकहोल्डर्स) में अपनी स्वायत्तता और आज़ादी के प्रति एक आग्रह और बोध पैदा किया जाना चाहिए.
 
   याद रहे कि स्वायत्तता और आज़ादी कभी भी उपहार में नहीं मिलते हैं और न ही उपहार में मिली आज़ादी और स्वायत्तता को सुरक्षित रखा जा सकता है. आज़ादी और स्वायत्तता को हासिल करने, बनाए रखने और उसका विस्तार करने के लिए लोक प्रसारण सेवा में जिनका हिस्सा (स्टेक) है, उन्हें उसके लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है.

·         प्रसार भारती के आगे का रास्ता निजीकरण और व्यवसायीकरण में नहीं है. इसके उलट उसे व्यावसायिक प्रसारण से अलग वैकल्पिक माडल की तलाश करनी होगी. वैकल्पिक माडल विकेन्द्रीकृत, पारदर्शी, भागीदारीपूर्ण और जवाबदेह होना चाहिए और उसमें देश-समाज की विविधताओं और बहुलता का अक्स दिखाई देना चाहिए.

·         प्रसार भारती के कार्यक्रमों में देश की हर भाषा और क्षेत्र की कला-संस्कृति, संगीत-नृत्य, साहित्य से लेकर लोक कलाओं को जगह मिलनी चाहिए. उसे इनका सक्रिय संरक्षक और संग्रहालय बनना होगा.      
यह सूची बहुत लंबी हो सकती है. इस मायने में लोक प्रसारण के सामने अनेकों चुनौतियाँ हैं लेकिन भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश-समाज के पास एक वास्तविक लोक प्रसारणकर्ता का कोई विकल्प भी नहीं है. देश इस सच्चाई को जितनी जल्दी समझ जाए, उतना अच्छा होगा.

('योजना' के जुलाई अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त 

रविवार, जुलाई 07, 2013

भारत में लोक सेवा प्रसारण की चुनौतियाँ

कहाँ हैं  आम आदमी की आवाज़ और उनका वास्तविक लोक प्रसारक?

पहली क़िस्त

मैं समझता हूँ कि अज्ञानता से मुक्ति उतनी ही जरूरी है जितनी भूख से मुक्ति. जनसंचार के माध्यम बहुत उपयोगी हैं लेकिन उनके साथ एक खतरा भी जुड़ा हुआ है कि निजी हितों के लिए उनका दुरुपयोग किया जा सकता है...धनपति या अमीर मुल्क अपने मीडिया के माध्यम से देश और दुनिया को अपने उन सोच और विचारों की बाढ़ में डुबो सकते हैं जो सही या गलत हो सकते हैं.”
-जवाहर लाल नेहरु, ५ मार्च’१९६२
भारत एक तरह के सूचना और जनसंचार विस्फोट के दौर से गुजर रहा है. देश में जनसंचार के माध्यमों का तेजी से विस्तार हो रहा है और उनकी पहुँच बढ़ रही है. देश में पंजीकृत समाचारपत्रों/पत्रिकाओं की संख्या ८५७५४ (आर.एन.आई, वर्ष ११-१२ की ‘प्रेस इन इंडिया’ रिपोर्ट) तक पहुँच चुकी है, कुल निजी टी.वी चैनलों की संख्या ८४८ और इसमें न्यूज और सम सामयिक विषयों के चैनलों की संख्या ३९३ है और रेडियो खासकर एफ.एम रेडियो का भी तेजी से विस्तार हो रहा है.

फिक्की-के.पी.एम.जी (२०१३) की मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया और मनोरंजन उद्योग का आकार वर्ष २०१२ में ८२ हजार करोड़ रूपये तक पहुँच गया है और उसकी वृद्धि की रफ़्तार १२.६ फीसदी रही. यह भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर के दुगुने से भी ज्यादा है.

देश जन माध्यमों के तीव्र विस्तार और प्रसार का दूसरा और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उनका राष्ट्रीय जीवन पर प्रभाव बढ़ रहा है, नागरिकों के एक बड़े हिस्से की सोच-रहन-सहन पर उसका असर बढ़ रहा है और सार्वजनिक जीवन में उन्हें राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर एजेंडा तय करते हुए देखा जा सकता है.
इसे लेकर अब बहुत विवाद नहीं है कि जन माध्यमों की सक्रियता सार्वजनिक और नागरिक जीवन के सभी पक्षों को गहरे प्रभावित कर रही है. कई विश्लेषकों का मानना है कि माध्यमों के तीव्र प्रसार के साथ भारत एक ‘मीडियाटाईज्ड समाज’ में बदलता जा रहा है जहाँ नागरिकों के एक बड़े हिस्से के पास राज-समाज खासकर राजनीति और दूसरे महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में सूचनाएं और विचार प्राथमिक स्रोतों और खिलाड़ियों के बजाय जन माध्यमों के जरिये पहुँच रही हैं.
इसके कारण आज जन माध्यम न सिर्फ जनमत को बनाने और उसे प्रभावित करने में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं बल्कि आम जन जीवन में भी लोगों की आदतों, रुचियों, इच्छाओं और उनके व्यवहार पर गहरा असर डाल रहे हैं. ऐसे में, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि खुद इन जन माध्यमों की अपनी सोच, एजेंडा, दिशा और चरित्र क्या है?

जाहिर है कि इस सवाल का उत्तर बहुत गहराई से जन माध्यमों के स्वामित्व (ओनरशिप) और उनके एजेंडे और सोच-विचार से जुड़ा हुआ है. भारत में जन माध्यम मुख्यत: निजी क्षेत्र के हाथों में हैं. प्रिंट मीडिया (अखबार/पत्रिकाएं) पर तो पूरी तरह से निजी क्षेत्र का वर्चस्व है जबकि मूलतः सार्वजनिक क्षेत्र के नियंत्रण में रहे प्रसारण माध्यमों (टी.वी/रेडियो) में भी पिछले दो दशकों में निजी क्षेत्र का दायरा और दखल तेजी से बढ़ा है. इसी तरह सिनेमा शुरू से पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हाथ में रहा है.

जन माध्यमों पर बड़ी निजी पूंजी का बढ़ता वर्चस्व
इस बीच एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि जन माध्यमों पर निजी क्षेत्र के बढ़ते वर्चस्व और खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पिछले दो दशकों में जन माध्यमों के स्वामित्व में निजी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी प्रवेश और प्रभाव में उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है.

जन माध्यमों में निजी बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के प्रवेश के साथ मीडिया उद्योग के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया तेज हुई है. इसके साथ मीडिया उद्योग में कुछ बड़े देशी-विदेशी मीडिया समूहों का वर्चस्व बढ़ा है. मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण (कंसन्ट्रेशन) और एकाधिकारवादी और अल्पधिकरवादी (मोनोपोली और अल्गापोली) प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं.

इसके कारण जन माध्यमों की अंतर्वस्तु (कंटेंट) और उसके चरित्र में भी बदलाव साफ़ देखे जा सकते हैं. असल में, कारपोरेटीकरण के बाद मीडिया कंपनियों पर उनके निवेशकों की ओर से मुनाफे का दबाव बढ़ा है और नतीजे में, अधिक से अधिक से मुनाफा कमाने के लिए मीडिया कम्पनियाँ जन माध्यमों और पत्रकारिता की आचार संहिता (एथिक्स) के साथ समझौता कर रही हैं, पत्रकारिता के उसूलों और मूल्यों को तोड़ रही हैं और कारपोरेट हितों के अनुकूल एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगी है.
हाल के अनेकों उदाहरणों से साफ़ है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों के स्वामित्व वाले मीडिया समूहों के लिए लोकतंत्र और जनहित की तुलना में निजी कारपोरेट हित ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.
इस कारण लोकतंत्र की बुनियादी जरूरत विचारों की विविधता और बहुलता के लिए कारपोरेट जन माध्यमों में जगह दिन पर दिन सिकुड़ती जा रही है. दूसरी ओर, जन माध्यमों के कंटेंट में भी आम लोगों और उनके सरोकारों, जरूरतों और इच्छाओं के लिए जगह कम होती जा रही है.

जन माध्यमों में लोगों के वास्तविक मुद्दों के बजाय छिछले, सनसनीखेज और हल्के मुद्दों को बड़ा बनाकर उछालने और सार्वजनिक हित की प्राथमिकताओं को नजरंदाज़ करने और मनोरंजन के नामपर सस्ते-फूहड़-फ़िल्मी मनोरंजन को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं है.

एक मायने में, कारपोरेट जन माध्यम अपने पाठकों और दर्शकों को एक सक्रिय नागरिक के बजाय निष्क्रिय उपभोक्ता भर मानकर चलते हैं और उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करते हैं.

लेकिन कारपोरेट जन माध्यमों के इस बुनियादी चरित्र और उद्देश्य को लेकर लंबे अरसे से सवाल उठते रहे हैं और चिंता जाहिर की जाती रही है. इसी पृष्ठभूमि में जनहित को सर्वोपरि माननेवाले और लोगों के जानने और स्वस्थ मनोरंजन के अधिकार के लिए समर्पित लोक सेवा प्रसारण को मजबूत करने और आगे बढ़ाने की मांग होती रही है.
इसकी वजह यह है कि इस मुद्दे पर अधिकांश मीडिया अध्येता और विश्लेषक एकमत हैं कि निजी पूंजी के स्वामित्व वाले जन माध्यमों की सीमाएं स्पष्ट हैं क्योंकि वे व्यावसायिक उपक्रम हैं, मुनाफे के लिए विज्ञापनदाताओं और निवेशकों के दबाव में कंटेंट के साथ समझौता करना उनके स्वामित्व के ढांचे में अन्तर्निहित है और वे व्यापक जनहित और लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा करते रहेंगे.

लोक सेवा प्रसारण की कसौटियां  
हालाँकि लोक प्रसारण सेवा का विचार नया नहीं है लेकिन यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि लोक सेवा प्रसारण की पहली और सबसे महत्वपूर्ण कसौटी यह है कि वह न राज्य (सरकार) के नियंत्रण में होनी चाहिए और न ही निजी व्यावसायिक प्रसारकों के अधिकार में. वह इन दोनों के नियंत्रण और दबावों से बाहर और वास्तविक अर्थों में स्वतंत्र और स्वायत्त होनी चाहिए.

उसका मुख्य उद्देश्य सभी वर्गों, समुदायों और समूहों के लोगों को बिना किसी लैंगिक-जातिवादी-धार्मिक-एथनिक पूर्वग्रह के उनकी नागरिक की भूमिका निभाने के लिए जरूरी सच्ची, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित सूचनाएं उपलब्ध कराना, उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अधिकतम संभव विचारों से अवगत कराना, उन्हें शिक्षित करने के लिए जानकारी, विचार और चर्चाओं से रूबरू कराना और उनके स्वस्थ मनोरंजन के लिए सृजनात्मक विविधता और बहुलता को प्रोत्साहित करना होना चाहिए.

इसके साथ ही, लोक सेवा प्रसारण की एक और महत्वपूर्ण कसौटी यह है कि उसमें कार्यक्रमों के निर्माण से लेकर उसके प्रबंधन में आम लोगों और बुद्धिजीवियों/कलाकारों की सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए. लेकिन पिछले कुछ दशकों में व्यावसायिक प्रसारण माध्यमों के बढ़ते वर्चस्व के बीच इस विचार को हाशिए पर ढकेल दिया गया था.
यह मान लिया गया था कि व्यावसायिक प्रसारण के विस्तार और बढ़ोत्तरी में लोक सेवा की जरूरतें भी पूरी हो जायेंगी. यही कारण है कि भारत समेत दुनिया के ज्यादातर देशों में लोक प्रसारण सेवा की स्थिति संतोषजनक नहीं है. ज्यादातर देशों में लोक प्रसारण के नामपर राज्य और सरकार के नियंत्रण और निर्देशों पर चलनेवाले राष्ट्रीय प्रसारक हैं जिन्हें न तो पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए जाते हैं, न उन्हें सृजनात्मक आज़ादी हासिल है और न ही वे जनहित में प्रसारण कर रहे हैं.
अफ़सोस और चिंता की बात यह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर देशों में वे सरकार के भोंपू में बदल दिए गए हैं और दूसरी ओर, उन्हें निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में ढकेल दिया गया है.

इस कारण लोगों में एक ओर उनकी साख बहुत कम है और दूसरी ओर, निजी प्रसारकों के साथ व्यावसायिक प्रतियोगिता में उनका इस हद तक व्यवसायीकरण हो गया है कि उनमें लोक प्रसारण सेवा की कोई विशेषता नहीं दिखाई देती है.

इस प्रक्रिया में वे न तो लोक प्रसारण सेवा की कसौटियों पर खरे उतर पा रहे हैं और न ही पूरी तरह व्यावसायिक प्रसारक की तरह काम कर पा रहे हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि सत्तारुढ़ दल और नौकरशाही के साथ-साथ व्यावसायिक शिकंजे में उनका दम घुट रहा है.

जारी .....

('योजना' के जुलाई अंक में प्रकाशित लेख की पहली क़िस्त)

शनिवार, जुलाई 06, 2013

याराना पूंजीवाद की एक और मिसाल है गैस की बढ़ी कीमतें

आम आदमी को चुकानी पड़ेगी इस बढ़ोत्तरी की कीमत
दूसरी क़िस्त 
इसी तरह खाद की कीमतों में भी भारी इजाफा करना होगा लेकिन सवाल यह है कि पहले से ही बिजली से लेकर बीज-खाद-कीटनाशकों की बढ़ी कीमतों के कारण उत्पादन लागत बढ़ने से त्रस्त गरीब और मंझोले किसान क्या यह बोझ उठा पाएंगे?
क्या इस बढ़ी लागत की भरपाई के लिए सरकार अनाजों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाएगी? क्या इससे महंगाई और नहीं बढ़ेगी? क्या यह फैसला महंगाई की आग में घी डालनेवाला नहीं है?
असल में, इस फैसले के लागू होने के बाद उसका असर चौतरफा होगा क्योंकि बिजली, परिवहन और उर्वरकों की लागत में भारी इजाफे से हर वस्तु-उत्पाद और सेवा की कीमत में बढ़ोत्तरी तय है. इससे चौतरफा महंगाई बढ़ेगी. ऐसा नहीं है कि सरकार को यह पता नहीं है. खुद वित्त मंत्री से लेकर पेट्रोलियम मंत्री तक यह स्वीकार करते हैं कि इससे उपभोक्ताओं पर बोझ पड़ेगा.

लेकिन इसके बावजूद जिस तरह से गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी की गई है, उससे और क्या नतीजा निकाला जा सकता है? दोहराने की जरूरत नहीं है कि इससे सबसे अधिक फायदा मुकेश अम्बानी की रिलायंस को होगा. यह एक तरह से छप्पर-फाड़ मुनाफे की गारंटी है. यह ‘याराना पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म) का एक और उदाहरण है जब एक बड़े कार्पोरेट्स समूह के फायदे के लिए सार्वजनिक और आम आदमी के हितों को कुर्बान करने में भी सरकारें शर्माती नहीं हैं.

याद कीजिए, आज से सिर्फ चार साल पहले जब के.जी बेसिन गैस की कीमतों को तय करने को लेकर दोनों अम्बानी भाइयों- मुकेश और अनिल अम्बानी के बीच कानूनी जंग चल रही थी, मुकेश अम्बानी की रिलायंस ने तर्क था कि गैस राष्ट्रीय संपत्ति है और इसकी कीमतें तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार को है.
उस समय भी यू.पी.ए सरकार ने मुकेश अम्बानी को खुश करने के लिए गैस की कीमतें २.४० डालर प्रति एम.बी.टी.यू से लगभग दोगुना बढ़ाकर ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू कर दी थी. उस समय ये कीमतें २०१४ तक के लिए तय की गईं थीं लेकिन दो साल बीतते ही रिलायंस ने ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ को अपनी संपत्ति मानकर उसकी कीमतें फिर से बढ़ाने का दबाव डालना शुरू कर दिया. इसके लिए उसने सुनियोजित तरीके से के.जी. बेसिन से गैस का उत्पादन कम करना शुरू कर दिया.
तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने विरोध किया और गैस का उत्पादन कम करने के लिए रिलायंस पर जुर्माना ठोंकने की पहल की तो उन्हें हटा दिया गया. यह किसी से छुपा नहीं है कि पेट्रोलियम मंत्रालय में रिलायंस की पसंद के मंत्री और अधिकारी ही टिक पाते हैं.

यह और बात है कि रिलायंस के.जी. बेसिन की गैस के उत्पादन के लिए नियुक्त ठेकेदार भर है और इसकी असली मालिक सरकार है. लेकिन मजे की बात यह है कि के.जी. बेसिन की गैस के मुनाफे का ९० फीसदी रिलायंस को जाता है और ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ की ट्रस्टी सरकार के खजाने में सिर्फ १० फीसदी मुनाफा आता है.

यही नहीं, घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमत डालर में तय करने का औचित्य भी समझ से बाहर है? जब देश में पैदा होनेवाली किसी और चीज की कीमतें घरेलू उपभोक्ताओं के लिए डालर में नहीं तय की जाती हैं तो गैस की कीमत डालर में क्यों तय की गई है?
कहने की जरूरत नहीं है कि गैस की कीमतें डालर में तय करने से भी गैस कंपनियों को भारी फायदा है क्योंकि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के साथ उनका मुनाफा मौजूदा कीमतों पर ही बढ़ता रहता है. उदाहरण के लिए, पिछले दो महीनों में डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ११ फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की है जिसका अर्थ यह है कि बिना किसी हर्रे-फिटकरी के रिलायंस के मुनाफे में ११ फीसदी की बढ़ोत्तरी.
यही नहीं, पिछले दो वर्षों में गैस की कीमत में बिना बढ़ोत्तरी के भी सिर्फ डालर के मुकाबले रूपये की कीमत में ३३ फीसदी से ज्यादा की गिरावट के कारण रिलायंस को ३३ फीसदी ज्यादा फायदा हुआ है.

सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि डालर के मुकाबले रूपये की गिरती कीमत के बीच गैस की कीमतों में डालर में १०० फीसदी बढ़ोत्तरी से रिलायंस के मुनाफे में कितना भारी मुनाफा होगा और देश और आम उपभोक्ताओं को कितना भारी नुकसान होगा. लेकिन हैरानी की बात यह है कि सरकार कीमतें बढाते हुए बार-बार आयातित गैस की १४.१७ डालर की कीमत का हवाला दे रही है.

सवाल यह है कि अगर घरेलू गैस और आयातित गैस की कीमतें बराबर होंगी तो घरेलू खोज और उत्पादन की क्या जरूरत है?

दूसरे, उर्जा विशेषज्ञ सूर्य पी. सेठी ने वास्तविक उदाहरण के जरिये बताया है कि दुनिया के अलग-अलग बाजारों में गैस की कीमतें अलग-अलग हैं और उन्हें नजीर के बतौर पेश करना उचित नहीं है. याद रहे कि अमेरिका से लेकर पडोसी पाकिस्तान और बंगलादेश में भी घरेलू गैस की कीमतें भारत से कम हैं.
ऐसे में, यू.पी.ए सरकार के इस फैसले पर गंबीर सवाल उठने स्वाभाविक हैं. आखिर अगले साल चुनाव हैं और इतना महत्वपूर्ण फैसला अगली सरकार पर छोड़ने के बजाय यू.पी.ए सरकार ने अगले साल अप्रैल से लागू होनेवाले कीमतें अभी तय करने की हड़बड़ी क्यों दिखाई? इस फैसले की राजनीतिक नैतिकता पर सवाल उठ रहे हैं. वामपंथी पार्टियों ने लगातार इस मुद्दे को उठाया है. 
लेकिन हैरानी की बात यह है कि २०१४ में प्रधानमंत्री की दावेदारी पेश कर रहे और यू.पी.ए सरकार के कटु आलोचक नरेन्द्र मोदी सरकार के इस फैसले पर चुप हैं? भाजपा से लेकर सपा-जे.डी-यू-बसपा तक सभी खामोश हैं.

आखिर मुकेश अम्बानी को नाराज करने का जोखिम लेना इतना आसान नहीं है? क्या मान लिया जाए कि, ‘सभी पार्टियां अब मुकेश अम्बानी की दूकान बन चुकी हैं?’

('शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की दूसरी और आखिरी क़िस्त) 

शुक्रवार, जुलाई 05, 2013

किसके लिए बढ़ाई गईं हैं गैस की कीमतें?

आम उपभोक्ताओं को इसकी भारी कीमत चुकानी होगी जबकि रिलायंस चांदी नहीं सोना काटेगी

पहली क़िस्त

यह किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार कार्पोरेट्स और बड़ी विदेशी पूंजी को खुश करने और उसका भरोसा जीतने के लिए बेचैन है. जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, उसकी यह बेचैनी बढ़ती जा रही है. कार्पोरेट्स और बड़ी विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है.
इसका ताजा सबूत यह है कि खुद सरकार के अंदर बिजली और उर्वरक मंत्रालय के अलावा कई वरिष्ठ मंत्रियों की आपत्तियों और विरोध को ठुकराते हुए उसने प्राकृतिक गैस की कीमतों को दोगुना करने का फैसला किया है. इस फैसले के मुताबिक, अगले साल एक अप्रैल से प्राकृतिक गैस की कीमत मौजूदा ४.२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू (मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट) से १०० फीसदी बढ़कर ८.४ डालर प्रति एम.बी.टी.यू हो जाएगी.
मजे की बात यह है कि खुद पेट्रोलियम मंत्रालय ने गैस की कीमत ६.७७ डालर प्रति एम.बी.टी.यू प्रस्तावित किया था लेकिन मंत्रिमंडल ने कई कदम आगे बढ़कर उसे ८.४२ डालर प्रति एम.बी.टी.यू करने का फैसला किया.

यही नहीं, इसके बाद हर तीन महीने पर कीमतों की समीक्षा होगी जिसका एक ही अर्थ है कि कीमतें आगे भी बढ़ती रहेंगी और हैरानी नहीं होगी, अगर २०१५ तक ये १४-१५ डालर प्रति एम.बी.टी.यू तक पहुँच जाएँ.

ऐसा मानने की वजह यह है कि घरेलू प्राकृतिक गैस की कीमतें तय करने के लिए यू.पी.ए सरकार ने प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है जिसने गैस की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय कीमतों और आयातित गैस की कीमतों के बराबर करने का फार्मूला पेश किया है.

यह फार्मूला कुछ ऐसा है, जैसे भारत में पैदा होनेवाले अनाजों और फलों-सब्जियों की कीमत अंतर्राष्ट्रीय कीमतों या अमेरिका/यूरोप की कीमतों के बराबर कर दिया जाए. उदाहरण के लिए, अमेरिका में इस समय टमाटर अगर लगभग २ डालर प्रति किलो है तो भारत में उसकी कीमत १२० रूपये प्रति किलो कर दी जाए.
हैरानी की बात यह है कि यह फार्मूला सुझानेवाले अर्थशास्त्री सी. रंगराजन की घरेलू गैस की कीमतें तय करने के बारे में कोई विशेषज्ञता नहीं है. ‘द हिंदू’ के संपादकीय पृष्ठ पर एक लेख में उर्जा मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ सूर्य पी. सेठी ने घरेलू गैस की कीमतों को तय करने के रंगराजन समिति के फार्मूले को ‘खुला मजाक’ बताया था. उनका तर्क था कि घरेलू गैस की कीमतें घरेलू उत्पादन लागत, मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होनी चाहिए.           
इसके बावजूद सरकार ने ९ महीने बाद लागू होनेवाली गैस की कीमतों को जिस जल्दबाजी में दोगुना बढ़ाने का फैसला किया है, उससे उसकी असली मंशा साफ़ हो जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस फैसले के तुरंत बाद कई सप्ताहों से पस्त चल रहे शेयर बाजार में अचानक ५१२ अंकों का उछाल दर्ज किया गया. खासकर मुकेश अम्बानी की कंपनी रिलायंस के अलावा अन्य सरकारी तेल-गैस कंपनियों के शेयरों की कीमतों में खासी तेजी देखी गई.

इससे अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस फैसले से किसे फायदा होगा और सबसे अधिक खुश कौन होगा? यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मुकेश अम्बानी की रिलायंस पिछले दो साल से यू.पी.ए सरकार पर गैस की कीमतों को बढ़ाने की मांग को लेकर जबरदस्त दबाव बनाए हुए थी.

इसके लिए उसने देश में गैस की भारी किल्लत और उसके कारण अनेकों गैस आधारित बिजलीघरों के ठप्प पड़े रहने के बावजूद कृष्णा-गोदावरी (के.जी.) बेसिन से गैस का उत्पादन घटाकर महज १९ प्रतिशत तक कर दिया था. यही नहीं, रिलायंस के दबाव का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इस मांग का विरोध कर रहे तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी को पिछले साल के मंत्रिमंडल फेरबदल में हटाकर विज्ञान और तकनीकी मंत्री बना दिया गया था.
उसी दिन यह तय हो गया था कि यू.पी.ए सरकार मुकेश अम्बानी की मांग को पूरा करने में ज्यादा समय नहीं लगायेगी. उम्मीद के मुताबिक, नए पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली पिछले छह महीने से इस एकसूत्री मुहिम में जुटे हुए थे और रिलायंस को छप्पर फाड़ मुनाफे की गारंटी करनेवाले इस फैसले के पक्ष में दलीलें तैयार कर रहे थे.  
इस फैसले के पक्ष में यू.पी.ए सरकार और मोइली की सबसे बड़ी दलील यह है कि इससे प्राकृतिक गैस की खोज और उत्पादन के क्षेत्र में निवेश खासकर विदेशी बढ़ेगा जिससे गैस के उत्पादन में वृद्धि होगी और आयात पर निर्भरता कम होगी.

लेकिन सच ठीक इसके उलट है. अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, खुद मंत्रिमंडल की बैठक में पूर्व पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि इस फैसले के कारण सरकार समेत आम लोगों पर पड़नेवाला बोझ निश्चित है लेकिन इसके संभावित फायदे अनिश्चित हैं. यह बोझ मामूली नहीं है.

सी.पी.आई सांसद गुरुदास दासगुप्ता के मुताबिक, अकेले रिलायंस की के.जी बेसिन गैस की बढ़ी कीमतों के कारण बिजली और उर्वरक के मद में सरकार पर पांच वर्षों (२०१४-२०१९) में ९६००० करोड़ रूपये की सब्सिडी का बोझ पड़ेगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि भविष्य में गैस की कीमतों में और बढ़ोत्तरी के साथ सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता जाएगा. लेकिन राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती की मौजूदा नीति के मद्देनजर सरकार आखिरकार यह बोझ आम उपभोक्ताओं पर ही डालेगी जिसका अर्थ होगा- यात्रा भाड़े से लेकर बिजली और खाद की दरों में भारी बढ़ोत्तरी.
एक मोटे आकलन के मुताबिक, ताजा वृद्धि के लागू होने पर गैस से बननेवाली बिजली में प्रति यूनिट दो रूपये की वृद्धि होगी जबकि यूरिया ६००० रूपये टन यानी प्रति किलो ६ रूपया महंगा हो जाएगा. इसी तरह सी.एन.जी की कीमतों में न्यूनतम ३० फीसदी की बढ़ोत्तरी तय है.
स्वतंत्र आकलनों के मुताबिक, गैस की बढ़ी हुई कीमतों के बाद गैस से बननेवाली बिजली की कीमत प्रति यूनिट लगभग ५.४० रूपये से लेकर ६.४० पैसे प्रति यूनिट तक पहुँच सकती है. सवाल यह है कि क्या बिजली की यह भारी कीमत आम उपभोक्ता चुका पाएंगे?

वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का तर्क है कि आम उपभोक्ता चाहता है कि बिजली न होने से अच्छा है कि थोड़ी महँगी ही सही लेकिन बिजली मिले. लेकिन लगता है, चिदम्बरम बहुत धूम-धाम के साथ शुरू हुए एनरान के दाभोल प्रोजक्ट को भूल गए जो इसलिए फ्लाप साबित हुआ क्योंकि उसकी बिजली बहुत महँगी थी और राज्य बिजली बोर्ड महँगी बिजली खरीदकर सस्ती बिजली बेचने के कारण दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गया.

आशंका यह है कि घरेलू गैस की कीमतों में भारी वृद्धि के बाद गैस से चलनेवाले ज्यादातर बिजलीघर महँगी बिजली के कारण एनरान की गति को प्राप्त होंगे या फिर इसकी कीमत आम उपभोक्ता को चुकानी होगी.

(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के ताजा अंक में प्रकाशित टिप्पणी की पहली क़िस्त। कल पढ़िए अगली क़िस्त) 

बुधवार, जुलाई 03, 2013

चैनल और आपदा

आपदा के समय ही चैनलों को क्यों याद आती है पर्यावरणवादियों की? 

उत्तराखंड में भारी बारिश और बादल फटने से जैसी तबाही आई है, उसने पूरे देश को हिला दिया है. ऐसी बड़ी प्राकृतिक आपदाएं सबके लिए परीक्षा की घड़ी होती हैं. न्यूज मीडिया भी उसका अपवाद नहीं है.
ऐसी त्रासदी और संकट के समय में जब भारी तबाही हुई हो, लाखों लोगों की जान दाँव पर लगी हो, सूचनाओं की मांग बहुत बढ़ जाती है.
संकट के समय में लोग अपने सगे-संबंधियों, मित्रों और सबसे बढ़कर अपने जैसे लोगों की पल-पल की खैर-खबर जानना चाहते हैं. आश्चर्य नहीं कि ऐसे संकट के समय में चौबीस घंटे के न्यूज चैनलों के दर्शकों की संख्या बहुत बढ़ जाती है.
चैनल भी इसे जानते हैं. उनके लिए यह अपनी कवरेज से दर्शकों का भरोसा जीतने और अपने दर्शक वर्ग के विस्तार का मौका होता है. जाहिर है कि कोई चैनल ऐसी प्राकृतिक आपदाओं के कवरेज में पीछे नहीं रहना चाहता है. उत्तराखंड की ह्रदय विदारक आपदा भी इसकी अपवाद नहीं थी.

हालाँकि अधिकांश राष्ट्रीय चैनलों का देहरादून में स्थाई संवाददाता और ब्यूरो नहीं है, ज्यादातर स्ट्रिंगर्स के भरोसे हैं और यही कारण है कि इस आपदा और उसकी भयावहता के बारे में राष्ट्रीय चैनलों को पहले एक-दो दिनों तक अंदाज़ा नहीं चला. इसकी वजह से सबसे तेज से लेकर आपको आगे रखनेवाले चैनलों को रीएक्ट करने में समय लगा.

यानी सिर्फ उत्तराखंड की विजय बहुगुणा सरकार को ही इस आपदा की तीव्रता को समझने और राहत-बचाव का काम शुरू करने में देर नहीं लगा बल्कि न्यूज चैनलों भी देर से जगे. अगर राष्ट्रीय चैनलों ने १६-१७ जून की रात/सुबह से इस खबर को उठा लिया होता, उनके स्थाई संवाददाता फील्ड में उतर गए होते और उसकी रिपोर्टिंग को प्राथमिकता दी गई होती तो शायद राज्य और केन्द्र सरकार पर राहत-बचाव को जल्दी और बड़े पैमाने पर शुरू करने का दबाव बना होता.
यह एक सबक है. राष्ट्रीय चैनल होने का दावा करनेवाले चैनलों के पास देश के कोने-कोने में तो दूर, राज्यों की राजधानियों में भी स्थाई संवाददाता और ब्यूरो (ओ.बी) नहीं हैं. आखिर क्यों?
लेकिन एक बार जब न्यूज चैनल उत्तराखंड आपदा की कवरेज में उतरे तो उन्होंने आसमान सिर पर उठा लिया. चैनलों में अधिक से अधिक रिपोर्टिंग टीम भेजने और आपदाग्रस्त क्षेत्रों में सबसे पहले पहुँचने का दावा करने की होड़ सी लग गई. चैनलों के जाने-पहचाने स्टार एंकरों/रिपोर्टरों के अलावा दर्जनों रिपोर्टर/कैमरामैन आपदाग्रस्त इलाकों में ओ.बी वैन के साथ उतर गए.

कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था. जल्दी ही बचाव में लगे वायु सेना और राज्य सरकार के हेलीकाप्टर्स पर चढ़कर आपदाग्रस्त इलाकों तक पहुँचने और राहत और बचाव की ‘एक्सक्लूसिव’ कवरेज दिखाने की होड़ में स्टार रिपोर्टरों की हैरान-हांफती-उत्तेजनापूर्ण रिपोर्टें चैनलों पर छा गईं. पीपली लाइव से हालात बन गए.

यह और बात है कि उत्तराखंड और वहां के भूगोल-पारस्थितिकी से अनजान रिपोर्टर उसकी भरपाई नाटकीयता और तबाही के विजुअल्स से करते नजर आए. हद तो यह कि कई चैनल केदारनाथ की तबाही के बीच मंदिर के बचे रहने के चमत्कार से अभिभूत दिखे.
उधर, ‘विकास’ की चिंता में हमेशा दुबले और पर्यावरणवादियों को ‘विकास’ के दुश्मन बतानेवाले चैनलों के संपादक-एंकरों को इलहाम हुआ कि उत्तराखंड में बेलगाम और विनाशकारी ‘विकास’ के कारण ही यह प्राकृतिक आपदा वास्तव में, मानव-निर्मित आपदा है.
चैनलों पर अचानक पर्यावरणवादियों की पूछ बढ़ गई. हिमालय में मौजूदा अनियंत्रित ‘विकास’ के माडल पर तीखे सवालों के बीच चैनलों के स्टूडियो गर्म हो गए.
लेकिन जल्दी ही यह गुस्सा मोदी बनाम राहुल और कांग्रेस-बी.जे.पी की तू-तू-मैं-मैं में स्खलित हो गया. यह इस बात का संकेत है कि कुछ ही दिनों में उत्तराखंड की त्रासदी चैनलों की सुर्ख़ियों से उतर जाएगी और इस आपदा को भी भुला दिया जाएगा.

स्टार एंकर/रिपोर्टर दिल्ली लौट आयेंगे. हिमालय की कराह पीछे छूट जाएगी. चैनलों पर फिर से ‘विकास’ का अहर्निश कोरस शुरू हो जाएगा. जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो.

लेकिन क्या मानव निर्मित आपदा की शुरुआत यहीं से नहीं होती है?

('तहलका' के 15 जुलाई के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)