सोमवार, जनवरी 30, 2012

चुनावी वादे हैं, वादों का क्या?

कोई भी पार्टी चुनावी वायदों को लेकर ईमानदार और गंभीर नहीं दिखती है



विकास के सभी सूचकांकों पर सबसे निचले पायदान पर फिसल गए उत्तर प्रदेश को बीमारू प्रदेशों में लाइलाज सा मान लिया गया है. लेकिन यह जल्दी ही बीते दिनों की बात हो जायेगी. इस बार विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश में विकास की बहार और तोहफों की बरसात आनेवाली है. प्रदेश के मतदाताओं के दिन फिरते दिख रहे हैं.

कारण यह कि चुनाव के लिए बसपा को छोडकर बाकी तीनों प्रमुख पार्टियों- सपा, भाजपा और कांग्रेस ने अपने घोषणापत्रों में वायदा किया है कि प्रदेश में २४ घंटे बिजली होगी, किसानों को मुफ्त बिजली-पानी मिलेगा, हर छात्र के हाथ में लैपटाप या टैबलेट कंप्यूटर होगा, हर साल २० लाख बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा, बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता मिलेगा और वह सब कुछ जो उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने शायद सपने में भी नहीं सोचा हो.

इन चुनावी घोषणापत्रों में क्या नहीं है? केवल स्वर्ग में सीढ़ी लगाने का वायदा रह गया है, अन्यथा शायद ही कोई ऐसा वायदा हो जो रह गया हो. इन घोषणापत्रों में हर वर्ग, जाति-उपजाति-गोत्र, धर्म और क्षेत्र के लिए वायदों और तोहफों की पेशकश की गई है. वायदों के मामले में सपा, भाजपा और कांग्रेस में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ सी मची हुई है.

कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है. इस चक्कर में अगर सपा ने इंटरमीडिएट करनेवाले सभी छात्रों को मुफ्त लैपटाप और हाई स्कूल के छात्रों को टैबलेट कंप्यूटर देने का वायदा किया तो उससे आगे निकलने के लिए भाजपा ने प्राइमरी के छात्रों को टैबलेट और आठवीं के बाद सभी छात्रों को लैपटाप देने के एलान कर दिया है.

हालत यह हो गई है कि अब सपा शिकायत कर रही है कि भाजपा ने उसके घोषणापत्र के वायदों को चुरा लिया है. वायदों की बरसात और भीड़-भाड़ के बीच उनमें इतना गड्डमड्ड हो गया है कि तीनों ही पार्टियों के घोषणापत्र लगभग एक से दिखने लगे हैं. उत्तर प्रदेश की विभाजित और प्रतियोगी राजनीति में विविधता में एकता का इससे बढ़िया उदाहरण शायद ही मिले.

यही नहीं, सबसे आगे निकलने की कोशिश में भाजपा ने महापुरुषों और भगवान तक से वायदा किया है. इस बार भी भाजपा ने भगवान राम से वायदा किया है कि अगर वह सत्ता में आती है तो उनका भव्य मंदिर बनवाएगी.

इसके अलावा उसने कबीर, रैदास, उदा देवी और झलकारी बाई की याद में मूर्तियां लगवाने और मथुरा-वृन्दावन में ‘आध्यात्मिक डिजनीलैंड’ बनवाने का वायदा किया है. कहने का मतलब यह कि चुनावी वायदे करने के मामले में इन पार्टियों ने बेतुकेपन और अनर्गलता (एब्सर्डिटी) की सभी हदें पार कर दी हैं.

मतदाताओं को लुभाने के लिए किये गए इन बेतुके और हास्यास्पद वायदों से भरे इन घोषणापत्रों और विजन दस्तावेजों को पढ़ते हुए ग़ालिब बेसाख्ता याद आ रहे हैं: “तेरे वादे पे जिए हम तो ये जान झूठ जाना, कि खुशी से मर न जाते, गर एतबार होता.” आश्चर्य नहीं कि उत्तर प्रदेश के मतदाता इन सुनहरे वायदों और लुभावने तोहफों के बावजूद खुशी से मरना तो दूर, चुनावों को लेकर उनमें कोई उत्साह नहीं दिख रहा हैं.

कारण यह कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को चुनावी घोषणापत्रों के जन्नत की हकीकत अच्छी तरह से पता है. वे जानते हैं कि चुनावी वादे, वादे हैं और वादों का क्या? जैसे रात गई, बात गई. वैसे ही चुनाव गए, वादे गए. वायदों की जगह बहाने होंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि मतदाताओं के ऐसा सोचने के पीछे उनका अपना पुराना अनुभव है.

वे इतनी बार छले जा चुके हैं कि उनका इन घोषणापत्रों में रत्ती भर भी विश्वास नहीं है. उन्हें यह एक मजाक की तरह लगता है. लेकिन इसके लिए और कोई नहीं, खुद ये राजनीतिक दल और उनके नेता जिम्मेदार हैं. वे खुद अपने घोषणापत्रों/विजन दस्तावेजों को लेकर गंभीर नहीं हैं.

सच यह है कि अगर ये पार्टियां अपने चुनावी घोषणापत्रों को लेकर ईमानदार और गंभीर होतीं तो मतदाताओं से चाँद-सितारों के वायदे करने से पहले सौ बार सोचतीं. यही नहीं, इन घोषणापत्रों से इन पार्टियों की वैचारिक और राजनीतिक दरिद्रता का पता चलता है.

इन घोषणापत्रों से लगता नहीं है कि उत्तर प्रदेश में वर्षों तक राज कर चुकी इन पार्टियों के पास प्रदेश की जमीनी समस्याओं और जरूरतों का कोई वास्तविक समाधान है. समाधान तो दूर, कड़वा सच यह है कि उन्हें उत्तर प्रदेश की वास्तविक समस्याओं और जमीनी जरूरतों का इल्म भी नहीं है. इससे पता चलता है कि ये पार्टियां वास्तविकता से कितनी कट चुकी हैं.

असल में, लुभावने वायदे करके वे अपनी इसी दरिद्रता और हवाई चरित्र को छुपाने की कोशिश कर रही हैं. उनके विजन दस्तावेजों में दृष्टि (विजन) के अलावा सब कुछ है. अगर ऐसा नहीं होता तो प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी तक के छात्रों को मुफ्त में लैपटाप और टैबलेट कंप्यूटर बांटने का वायदा कर रही पार्टियां प्रदेश में सबसे पहले शिक्षा की बदतर स्थिति और स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की बदहाल हालत को सुधारने का प्रस्ताव करतीं. यह किस से छुपा है कि प्रदेश में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी तक की शिक्षा का क्या हाल है?

लेकिन एक मायने में ये घोषणापत्र/विजन दस्तावेज और वायदे प्रदेश की राजनीति में एक बड़े परिवर्तन की ओर भी इशारा कर रहे हैं. उस प्रदेश में जहां राजनीति जाति और धर्म के संकीर्ण अस्मितावादी दायरे में सिमट गई थी, जहां वोट के लिए लोगों की धार्मिक और जातीय अस्मिता का आह्वान काफी होता था, वहां सत्ता की दावेदार सभी पार्टियों को संकीर्ण अस्मितावादी दायरे से बाहर जाकर वायदे करने पड़ रहे हैं और घोषणापत्र/विजन दस्तावेज पेश करना पड़ रहा है.

 यह इस बात का संकेत है कि संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति अपनी चमक खोने लगी है. लोगों की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं जग चुकी हैं. राजनीतिक दलों को इसका अहसास है और उनपर इसका दबाव भी है.

ये चुनावी वायदे उसी का नतीजा हैं. इन वायदों में कोई बुराई नहीं है. लेकिन असल सवाल यह है कि इन वायदों का वास्तविकता से कितना सम्बन्ध है, पार्टियां इन्हें लेकर कितना ईमानदार और गंभीर हैं और उन्हें लागू/पूरा करने के लिए उनके पास क्या योजना है? अफसोस की बात यह है कि इन सवालों के उत्तर में सिर्फ चुनावी शोर-शराबा है और मतदाताओं को एक बार और बेवकूफ बनाने की मंशा है.

जागो मतदाताओं, जागो.

('नया इंडिया' के ३० जनवरी के अंक में प्रकाशित लेख)

मंगलवार, जनवरी 24, 2012

लोकतंत्र और मीडिया उद्योग के लिए रिलायंस-टी.वी 18 डील के निहितार्थ

मीडिया का बढ़ता कारपोरेटीकरण और उसके मायने




भारतीय मीडिया और खासकर टी.वी उद्योग में इन दिनों खासी हलचल है. वर्ष २०१२ की शुरुआत बहुत धमाकेदार रही. देश में शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियों में बाजार पूंजीकरण के लिहाज से सबसे बड़ी कंपनी, मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 (मनोरंजन चैनल कलर्स और न्यूज चैनल सी.एन.एन-आई.बी.एन, सी.एन.बी.सी आदि) में कोई 17 अरब रूपये के निवेश का एलान करके सबको चौंका दिया.

इस डील के तहत रिलायंस के मालिकाने वाले इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 में 1700 करोड़ रूपये का निवेश किया है जिसके बदले में टी.वी-18/नेटवर्क-18 ने इनाडु टी.वी समूह के सभी क्षेत्रीय समाचार चैनलों को पूरी तरह और मनोरंजन चैनलों में बड़ी हिस्सेदारी खरीद ली है.

इस डील के साथ एक ही झटके में मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग की एक बड़ी खिलाड़ी बन गई है. खबरें यह भी हैं कि रिलायंस टी.वी वितरण के क्षेत्र में भी घुसने का रास्ता तलाश रही है और उसकी कई वितरण कंपनियों से उनके अधिग्रहण के लिए सौदा पटाने की कोशिश कर रही है.

इसके अलावा वह कुछ खेल चैनलों को भी अधिग्रहीत करने के प्रयास में भी है. उल्लेखनीय है कि रिलायंस आई.पी.एल क्रिकेट में सबसे महँगी टीमों में से एक मुंबई इंडियन की भी मालिक है. इसके अलावा रिलायंस को पूरे भारत में चौथी पीढ़ी (4 जी) ब्राडबैंड सेवाएं उपलब्ध करने का भी लाइसेंस मिल गया है.

रिलायंस के ताजा फैसले से जाहिर है कि मुकेश अंबानी की तैयारी अब नेपथ्य से मीडिया की राजनीतिक-रणनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करने के बजाय खुद उसके एक बड़े खिलाड़ी की तरह खेल में उतरने की है.

हालांकि यह डील खुद में बहुत जटिल प्रक्रिया के जरिये पूरी होगी और उसकी बारीकियां अभी भी स्पष्ट नहीं हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके जरिये मुकेश अंबानी की नेटवर्क18 में कोई 44 फीसदी और टी.वी18 में 28.5 फीसदी हिस्सेदारी होगी और वे इन कंपनियों में अकेले सबसे बड़े हिस्सेदार होंगे. तात्पर्य यह कि वे इन कंपनियों के वास्तविक मालिक होंगे.

साफ़ है कि मुकेश अंबानी और रिलायंस को अब मीडिया और मनोरंजन उद्योग में व्यवसाय की दृष्टि से भी बेहतर संभावनाएं दिखने लगी हैं और रिलायंस के विस्तार के नए क्षेत्रों में मीडिया व्यवसाय भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है.

पिछले एक-डेढ़ दशक में भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग का जिस गति और पैमाने पर विस्तार हुआ है, उसके कारण कई बड़े उद्योग और कारोबारी समूहों की उसमें दिलचस्पी बढ़ी है. पिछले वर्ष की फिक्की-के.पी.एम.जी मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया उद्योग 2009 में 587 अरब रूपये का था जो 11 फीसदी की वृद्धि दर के साथ बढ़कर वर्ष 2010 में 652 अरब रूपये का हो गया.

इस रिपोर्ट का अनुमान है कि पिछले साल कोई 13 फीसदी की बढोत्तरी के साथ इसका आकार बढ़कर 738 अरब रूपये हो जाएगा. यही नहीं, इस रिपोर्ट का यह भी आकलन है कि भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग आनेवाले वर्षों में औसतन 14 फीसदी सालाना की वृद्धि दर के साथ वर्ष 2015 में लगभग 1275 अरब रूपये का विशाल उद्योग हो जाएगा. साफ़ है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार हो रहा है. इसके साथ ही, इसमें दांव ऊँचे और बड़े होते जा रहे हैं.

स्वाभाविक तौर पर इसके विस्तार के साथ इसमें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की दिलचस्पी भी बढ़ रही है. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आमतौर पर छोटी-मंझोली पूंजी के इस असंगठित उद्योग में पिछले डेढ़-दो दशकों में कई मीडिया कंपनियों ने शेयर बाजार से पूंजी उठाई है और उनमें देशी-विदेशी निवेशकों ने पैसा लगाया है.

आज ऐसी दर्जनों मीडिया कंपनियां हैं जो शेयर बाजार में लिस्टेड हैं और जिनमें देशी-विदेशी पूंजी लगी हुई है. इनमें से कुछ कम्पनियाँ परंपरागत मीडिया कम्पनियाँ हैं जो पिछले कई दशकों से समाचारपत्र और फिल्म कारोबार में सक्रिय थीं.

मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए कहा जा सकता है कि आनेवाले वर्षों में देर-सबेर इनमें से अधिकांश शेयर बाजार में आएँगी और लिस्टेड कंपनी होंगी. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जिस तरह से गलाकाट प्रतियोगिता बढ़ रही है और दांव ऊँचे से ऊँचे होते जा रहे हैं, उसमें अधिकांश कंपनियों के लिए बड़ी पूंजी की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है.

आश्चर्य नहीं कि टी.वी-18 को रिलायंस की शरण में जाना पड़ा है. जाहिर है कि रिलायंस कोई मामूली कंपनी नहीं है. बाजार पूंजीकरण के लिहाज से वह लगभग 257089 करोड़ रूपये की कंपनी है जिसका अर्थ यह हुआ कि उसके आगे अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ बहुत बौनी हैं.

यहाँ तक कि शेयर बाजार में लिस्टेड सभी मीडिया और मनोरंजन कंपनियों के मौजूदा कुल पूंजीकरण को भी जोड़ दिया जाए तो रिलायंस के पूंजीकरण के आधे से भी कम हैं. यही नहीं, रिलायंस नगद जमा कंपनी के मामले में भी देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 सितम्बर’11 को लगभग 14 अरब डालर यानी 70000 करोड़ रूपये का नगद जमा था जिसके इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक बढ़कर 25 अरब डालर (125000 करोड़ रूपये) हो जाने का अनुमान है.

मजे की बात यह है कि बाजार में इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं कि रिलायंस इतने अधिक नगद जमा का क्या और कैसे इस्तेमाल करेगा? उसपर दबाव है कि वह इस पैसे कोई अधिक से अधिक मुनाफा देनेवाले उद्योगों/कारोबारों में इस्तेमाल करे.

इसका अर्थ यह है कि अगर रिलायंस अपने नगद जमा का 10 फीसदी भी मीडिया और मनोरंजन कारोबार में लगाये तो जी नेटवर्क और सन नेटवर्क को छोडकर वह सभी टी.वी कंपनियों को खरीद सकता है. यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनियाभर में खासकर अमेरिका समेत कई विकसित देशों में सक्रिय बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ वास्तव में बड़े उद्योग समूहों की उपांग है.

उदाहरण के लिए, दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) है जिसके मीडिया कारोबार के दर्जनों चैनल और अन्य मीडिया उत्पाद है लेकिन यह उसका मुख्य कारोबार नहीं है. वह अमेरिका की छठी सबसे बड़ी कंपनी है और उसका मुख्य कारोबार उर्जा, टेक्नोलोजी इन्फ्रास्ट्रक्चर, वित्त, उपभोक्ता सामान आदि क्षेत्रों में है.

ऐसे कई और उदाहरण हैं. दूसरी ओर, दुनिया की कई ऐसी बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ हैं जिन्होंने पिछले दो-ढाई दशकों में दर्जनों छोटी और मंझोली मीडिया कंपनियों को अधिग्रहीत या समावेशन (एक्विजेशन और मर्जर) के जरिये गड़प कर लिया है.

असल में, यह पूंजीवाद का सहज चरित्र है जिसमें बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. इसी तरह बड़ी पूंजी धीरे-धीरे छोटी और मंझोली पूंजी को निगलती और बड़ी होती जाती है. अमेरिका में यह प्रक्रिया 70 के दशक के मध्य में शुरू हुई और 80 और 90 के दशक में आकर पूरी हो गई जहां आज सिर्फ छह बड़ी मीडिया कंपनियों का पूरे अमेरिकी मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर एकछत्र राज है जबकि 1983 तक वहां लगभग 50 बड़ी मीडिया कम्पनियाँ थीं.

इसका अर्थ यह हुआ कि आनेवाले महीनों और वर्षों में छोटी, मंझोली और यहाँ तक कि कुछ बड़ी मीडिया कंपनियों के लिए तीखी प्रतियोगिता में टिके रहना बहुत मुश्किल होता चला जाएगा. खासकर उन मीडिया कंपनियों को बहुत मुश्किल होनेवाली है जो इक्का-दुक्का न्यूज चैनलों या एक अखबार/पत्रिका या रेडियो चैनल पर टिकी कम्पनियाँ हैं और किसी बड़े उद्योग या मीडिया समूह का हिस्सा नहीं हैं.

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मीडिया उद्योग में यह प्रक्रिया पिछले कई वर्षों से जारी है लेकिन उसकी गति धीमी थी. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ वर्षों में कई क्षेत्रीय मीडिया समूह बड़ी मीडिया कंपनियों से मुकाबले में कमजोर हुए हैं और प्रतिस्पर्द्धा में बाहर होते जा रहे हैं.

स्पष्ट है कि मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण यानी कुछ बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने और छोटी-मंझोली कंपनियों के खत्म होने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है जिसके गहरे राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं.

मीडिया उद्योग में बढ़ते कारपोरेटीकरण के साथ तेज होती संकेन्द्रण की प्रक्रिया का सीधा अर्थ यह है कि पाठकों/दर्शकों को सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन के लिए मुट्ठी भर कंपनियों पर निर्भर रहना होगा. यह संभव है कि उनके पास चयन के लिए मात्रात्मक तौर पर कई अखबार/पत्रिकाएं और चैनल उपलब्ध हों लेकिन गुणात्मक तौर पर बहुत कम विकल्प हों.

इसकी वजह यह होगी कि उनमें से कई अखबार/चैनल/फिल्म/रेडियो एक ही मीडिया समूह के हों. जाहिर है कि उनका सुर कमोबेश एक सा ही होगा. इस तरह मीडिया उद्योग में विविधता और बहुलता कम होगी जो किसी भी गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है.

लोकतंत्र की बुनियाद विचारों की विविधता और बहुलता पर टिकी है और एक सर्व सूचित और सक्रिय नागरिक के लिए जरूरी है कि उसके पास सूचनाओं और विचारों के अधिकतम संभव स्रोत हों.

यही नहीं, यह भी देखा गया है कि प्रतियोगिता में जितने ही कम खिलाड़ी रह जाते हैं, उनमें विचारों और सृजनात्मकता के स्तर पर एक-दूसरे की नक़ल बढ़ती जाती है और जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम होती जाती है.

यही नहीं, बड़ी कंपनियों के लिए दांव इतने ऊँचे होते हैं कि वे मुनाफे के लिए मीडिया और पत्रकारिता के मूल्यों और उसूलों को तोड़ने में हिचकते नहीं हैं. ऊँचे दांव के कारण बड़ा कारपोरेट मीडिया अकसर सत्ता और दूसरी प्रभावशाली शक्तियों के करीब दिखाई देती हैं.

असल में, मीडिया के कारपोरेटीकरण के साथ यह सबसे बड़ा खतरा होता है कि उन कंपनियों के आर्थिक हित शासक वर्गों के साथ इतनी गहराई से जुड़े होते हैं कि वे आमतौर पर शासक वर्गों की भोपूं और यथास्थितिवाद के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं या अपने हितों के अनुकूल बदलाव की लाबीइंग करते हैं. उनमें वैकल्पिक स्वरों के लिए न के बराबर जगह रह जाती है.

यही नहीं, वे शासक वर्गों के पक्ष में जनमत बनाने से लेकर अपने राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अख़बारों/चैनलों का पूरी बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा चूँकि बड़ी मीडिया कंपनियों का मुनाफा मुख्य रूप से विज्ञापनों से आता है, इसलिए बड़े विज्ञापनदाता परोक्ष रूप से इन मीडिया कंपनियों के कंटेंट को भी नियंत्रित और प्रभावित करने लगते हैं.

आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट मीडिया में जहां राजनेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें और भंडाफोड दिख जाते हैं लेकिन ऐसी रिपोर्टें अपवाद स्वरुप ही दिखती हैं जिनमें कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश किया गया हो.

ऐसे में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में बड़ी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी के निर्बाध प्रवेश और बढ़ते संकेन्द्रण के खतरे और भी स्पष्ट हो गए हैं. इसे अनदेखा करना बहुत बड़ी भूल होगी.

('राजस्थान पत्रिका' के २२ जनवरी'१२ के अंक में रविवारी संस्करण में प्रकाशित लेख का असंपादित पूर्ण संस्करण...इस मुद्दे पर और विस्तार से पढने के लिए कृपया, 'कथादेश' के फरवरी'१२ अंक में स्तम्भ 'इलेक्टानिक मीडिया' देखें..) 

सोमवार, जनवरी 23, 2012

एन.आर.एच.एम घोटाले की जड़ में है भ्रष्ट-माफिया तंत्र


उत्तर प्रदेश इटली के कुख्यात माफिया तंत्र की राह पर चल पड़ा है



उत्तर प्रदेश में चुनावों के शोर के बीच राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.आर.एच.एम) के बारे में आई सी.ए.जी की ताजा रिपोर्ट ने भी इसकी पुष्टि कर दी है कि राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने के लिए शुरू की गई यह महत्वाकांक्षी योजना नेताओं-अफसरों-ठेकेदारों-अपराधियों की चौकड़ी की लूट और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है.

इस रिपोर्ट से यह खुलासा हुआ है कि इस योजना के लिए २००५ से २०११ के बीच छह वर्षों में ८६५७ करोड़ रूपये आवंटित किये गए लेकिन उसमें से कोई ४९३८ करोड़ रूपये यानी ५७ फीसदी राशि का कोई हिसाब-किताब नहीं मिल रहा है.

यही नहीं, सी.ए.जी की रिपोर्ट में ब्यौरेवार बताया गया है कि किस तरह इस योजना में तमाम नियमों और निर्देशों को धता बताते हुए लूटपाट की गई. घोटालेबाज इतने बेख़ौफ़ थे कि वे इस योजना के तहत किराये पर ली गई गाड़ियों में स्कूटर, मोपेड, मोटरसाइकिल और ट्रैक्टर के अलावा शाहजहांपुर के जिलाधिकारी की सरकारी कार का नंबर डालने में भी नहीं घबराए.

जाहिर है कि घोटालेबाजों को यह हिम्मत इसलिए हुई क्योंकि उन्हें पता था कि इसमें नीचे से लेकर ऊपर तक सभी की हिस्सेदारी है और उनका बाल भी बांका नहीं होगा. उन्हें यह भी पता था कि जो इस लूट में अडंगा लगाने या सवाल उठाने की कोशिश करेगा, उसे रास्ते से हटाने के लिए यह भ्रष्ट तंत्र किसी हद तक जा सकता है.

यह हुआ भी. एन.आर.एच.एम में लूटपाट में रोड़ा बन रहे दो चीफ मेडिकल आफिसरों की राजधानी लखनऊ में हत्या कर दी गई और उनमें से एक की हत्या के आरोप में जेल में बंद डिप्पटी सी.एम.ओ की जेल में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई. घरवालों का आरोप है कि उनकी भी हत्या की गई.

साफ़ है कि उत्तर प्रदेश में लुटेरों ने केवल सार्वजनिक धन की लूट ही नहीं की बल्कि उनके हाथ खून से भी सने हुए हैं. इससे पता चलता है कि यह भ्रष्ट तंत्र किस तरह से एक भ्रष्ट-माफिया तंत्र में बदलता जा रहा है.

असल में, एन.आर.एच.एम घोटाला इस बात का एक और प्रमाण है कि उत्तर प्रदेश में नेता-अफसर-ठेकेदार और माफिया गठजोड़ किस तरह सार्वजनिक धन खासकर विकास के पैसे की लूट पर फल-फूल रहा है. राज्य में सरकार चाहे जिस पार्टी या गठबंधन की हो, इस भ्रष्ट-माफिया तंत्र की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.

नतीजा यह कि राज्य में हर विकास योजना और गरीबी उन्मूलन योजना खुले भ्रष्टाचार, अनियमितता और लूटपाट के कारण भ्रष्ट-माफिया तंत्र की भेंट चढ़ जा रही है और सबसे बड़ी बात यह कि हर बड़ी योजना और उसके साथ आ रही विशाल राशि के साथ इस भ्रष्ट-माफिया तंत्र की ताकत मजबूत और जड़ें गहरी होती जा रही हैं.

सच पूछिए तो उत्तर प्रदेश में राज्य शासन को इस भ्रष्ट-माफिया तंत्र ने बंधक बना लिया है. राज्य के सभी मुख्य राजनीतिक दल इसके कब्जे में हैं. नौकरशाही- सिविल और पुलिस दोनों ने उसके आगे न सिर्फ घुटने टेक दिए हैं बल्कि इस तंत्र की हिस्सेदार बन गई है. राजनेता, ठेकेदार और अपराधियों में फर्क करना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है.

हालत यह हो गई है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता की दावेदार सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में जिला स्तर से लेकर राज्य स्तर पर उनके नेताओं/कार्यकर्ताओं में ठेकेदारों, थाना-ब्लाक-बैंक-कचहरी के दलालों, अपराधियों और लफंगों की भरमार हो गई है जो विकास के धन की लूट पर फल-फूल रही है. इस मायने में उत्तर प्रदेश इटली के कुख्यात माफिया तंत्र में बदलता जा रहा है.

यही नहीं, राजनीति के जिस अपराधीकरण की इतनी चर्चा होती है, उसकी जड़ में विकास के पैसों की यही लूट है. यह लूट इतनी संस्थाबद्ध हो चुकी है कि उसे तोड़े बिना राजनीति का अपराधीकरण खत्म नहीं होगा बल्कि बढ़ता ही जाएगा. अगर विकास के इस पैसे की लूट को रोक दिया जाए तो राजनीति का अपराधीकरण कल खत्म हो जाएगा.

नब्बे के दशक में राजनीति के अपराधीकरण पर बनी वोहरा समिति ने भी इस ओर इशारा करते हुए कहा था कि शासन ने राजनेताओं-अफसरों-ठेकेदारों-अपराधियों के गठजोड़ के आगे समर्पण कर दिया है.

अफसोस की बात यह है कि नब्बे के दशक की तुलना में स्थितियां बद से बदतर ही हुई हैं. जैसे-जैसे विकास योजनाओं के मद में राशि बढ़ी है, दांव ऊँचे हुए हैं, यह गठजोड़ न सिर्फ और व्यापक और मजबूत हुआ है बल्कि वह शासन का पर्याय बन गया है. दूसरी ओर, इस भ्रष्ट माफिया तंत्र के कारण राज्य की सेहत बिगडती चली जा रही है.

उदाहरण के लिए, राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं को ही लीजिए जो कोमा में चली गई हैं. सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य केन्द्रों का बुरा हाल है. वहां न डाक्टर हैं, न चिकित्सा सुविधाएँ और न साजों-सामान और दवाएं. अगर यह हाल न होता तो चाहे शिशु मृत्यु दर हो या मात् मृत्यु दर या कोई और स्वास्थ्य सूचकांक, उत्तर प्रदेश पूरे देश में सबसे निचले पायदान पर नहो होता.

इसे ही ठीक करने के लिए एन.आर.एच.एम की शुरुआत की गई. इससे अधिक शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि जो राज्य स्वास्थ्य के सभी मानकों पर पूरे देश में आखिरी पायदान पर है, वहां इस योजना के तहत छह वर्षों में आठ हजार करोड़ रूपये से अधिक खर्च करने के बावजूद एक भी नया स्वास्थ्य उपकेन्द्र नहीं बनाया जा सका.

हालत कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले दो दशकों (१९९०-२०११) में राज्य में सिर्फ ३६८ नए स्वाथ्य उपकेन्द्र बनाए गए. यानी हर साल औसतन १७ नए स्वास्थ्य उपकेन्द्र. जो स्वास्थ्य केन्द्र हैं, वे खुद इतने बीमार हैं और वहां इतनी लूटपाट है कि गरीब भी वहां नहीं जाना चाहते हैं.

आश्चर्य नहीं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य की इस कब्र पर पूरे राज्य में एक समानांतर निजी अस्पतालों/क्लिनिक्स/नर्सिंग होम्स का जबरदस्त नेटवर्क खड़ा हो गया है. उत्तर प्रदेश के किसी भी शहर या जिला मुख्यालय या बड़े कसबे में चले जाइए, आपको सबसे अधिक फलता-फूलता कारोबार प्राइवेट नर्सिंग होम्स/अस्पतालों का ही है जहां गरीब और आम आदमी जमीन-गहना बेचकर इलाज करने को मजबूर है. मजे की बात यह है कि इन निजी अस्पतालों के साथ भ्रष्ट-माफिया तंत्र के बहुत गहरे रिश्ते हैं.

लेकिन एन.आर.एच.एम घोटाले में आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच यह असली सवाल चर्चाओं से गुम कर दिया गया है कि राज्य में उस भ्रष्ट-माफिया तंत्र की लगातार गहरी होती पकड़ को तोड़े बिना ऐसे घोटालों से मुक्ति संभव नहीं है जिसने सभी राजनीतिक दलों को अपनी चपेट में ले लिया है.

('नया इंडिया' में २३ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)

गुरुवार, जनवरी 19, 2012

‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ उर्फ चैनलों का चुनावी जनतंत्र


चैनलों ने चुनावों को तमाशा बना दिया है

उत्तरप्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है. ये चुनाव राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे न सिर्फ इन राज्यों की बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होनी है. यही कारण है कि इन चुनावों को २०१४ के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है.

इसमें कांग्रेस-भाजपा जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर सपा-बसपा-अकाली दल जैसी छोटी पार्टियों और राहुल गाँधी-मायावती-मुलायम सिंह जैसे नेताओं का बहुत कुछ दांव लगा हुआ है. यही नहीं, ये चुनाव अन्ना हजारे के उस भ्रष्टाचार विरोधी और जन-लोकपाल आंदोलन की छाया में हो रहे हैं जिसने देश को झकझोर कर रख दिया.

स्वाभाविक तौर पर इन चुनावों की ओर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं. ऐसे में, न्यूज चैनल कहाँ पीछे रहने वाले हैं? जहां दर्शक, वहां चैनल. आश्चर्य नहीं कि इस चुनावी महा-संग्राम में सत्ता की दावेदार राजनीतिक पार्टियों, उनके स्टार प्रचारकों और उम्मीदवारों के साथ-साथ न्यूज चैनल भी मैदान में कूद पड़े हैं.

नतीजा, चैनलों पर लंबे अरसे बाद क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम और सेलेब्रिटीज से इतर राजनीतिक खबरों की वापसी हुई है. नियमित और स्पेशल बुलेटिनों के अलावा प्राइम टाइम बहसों में राजनीतिक मुद्दों खासकर चुनावी घमासान को अच्छी-खासी कवरेज मिलने लगी है.

हालांकि चुनाव पांच राज्यों में हो रहे हैं लेकिन न्यूज चैनलों का सबसे अधिक फोकस उत्तर प्रदेश पर है. उत्तर प्रदेश चुनाव को 24x7 कवरेज देने के लिए एक दर्जन से ज्यादा प्रमुख हिंदी न्यूज चैनलों के अलावा जी न्यूज-यू.पी, ईटीवी-यू.पी, सहारा-यू.पी, महुआ-यू.पी और जनसंदेश जैसे आधा दर्जन से अधिक क्षेत्रीय न्यूज चैनल भी कमर कसकर मैदान में उतर पड़े हैं.

चैनलों पर ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ जैसे दर्जनों कार्यक्रम शुरू हो गए हैं जिनमें प्रमुख शहरों से विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की तू-तू-मैं-मैं से लेकर चुनावी रिपोर्टें और समीकरण समझाए जा रहे हैं.

यही नहीं, राहुल गाँधी जैसे स्टार प्रचारकों की चुनावी सभाओं के लाइव कवरेज दिखाए जा रहे हैं. राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़े नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस दिल्ली और लखनऊ से लाइव हो रही है. इस तरह पार्टियों के बीच श्लील-अश्लील आरोप-प्रत्यारोपों से लेकर नेताओं के दलबदल, टिकट और उम्मीदवारी के लिए मारामारी, बागियों की धमाचौकड़ी तक सब कुछ लाइव है या आगे-पीछे चैनलों पर है.

चुनाव आयोग के निर्देश पर चुनावी आचार संहिता को लागू करने के लिए नगद रूपयों से लेकर शराब जब्ती की रिपोर्टों के अलावा नेताओं/प्रत्याशियों के हर उल्टे-सीधे कारनामों पर न्यूज चैनलों के कैमरों की निगाहें लगी हुई हैं.

इस तरह न्यूज चैनल खासकर क्षेत्रीय चैनल इस हाई वोल्टेज चुनाव के नए अखाड़े बन गए हैं. यह दिखने और दिखाने का दौर है. मान लिया गया है कि जो जितना दिखेगा, वह चुनावों में उतना ही चमकेगा.

एक मायने में यह राजनीति और चुनावों के टीवीकरण का दौर हैं. चैनलों से हवा बनाने में मदद मिलती है. जाहिर है कि पार्टियों और नेताओं में न्यूज चैनलों पर अधिक से अधिक एयर टाइम जुगाड़ने की होड़ लगी हुई है. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बह रहा है.

चैनलों के लिए भी चुनाव हर्रे लगे, न फिटकिरी, रंग चोखा के तर्ज पर अच्छी कमाई का मौका हो गए हैं. आश्चर्य नहीं कि मंदी की मार से दबे न्यूज चैनलों के लिए चुनाव संजीवनी की तरह हो गए हैं. जब हजारों करोड़ रूपये दांव पर लगे हों तो न्यूज चैनल भी अपनी झोली भरने में पीछे नहीं रहना चाहते हैं.

चुनावी विज्ञापनों से कमाई के अलावा चैनलों खासकर क्षेत्रीय चैनलों पर दबे-छुपे ‘पेड न्यूज’ भी चल रहा है. हालांकि इसे साबित करना मुश्किल है लेकिन अगर इन चैनलों पर चलनेवाली बहुतेरी चुनावी खबरों और चुनावी सभाओं-रैलियों की लाइव कवरेज को गौर से देखिए तो उसमें एक पैटर्न और झुकाव साफ़ दिखाई देता है.

लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इस कवरेज से दर्शकों को क्या मिल रहा है? लोकतंत्र कितना समृद्ध हो रहा है? इक्का-दुक्का अपवादों को छोडकर इस सवाल का जवाब निराश करनेवाला है.

चैनलों की चुनावी कवरेज में दर्शकों उर्फ वोटरों को सूचनाएं कम और प्रचार अधिक, चुनाव की बारीकियां कम और शोर-शराबा अधिक, मुद्दों की स्पष्टता कम और भ्रम अधिक, विचार कम और पूर्वाग्रह अधिक, जमीनी हकीकत कम और राजनीतिक चंडूखाने की गप्पें अधिक छाई हुई हैं. रिपोर्टर ठोस सूचनाएं और जानकारियां कम और विचार ज्यादा उगलते दिखते हैं.

यही नहीं, चैनलों पर होनेवाली प्राइम टाइम बहसों में पार्टियों और उनके नेताओं की तू-तू, मैं-मैं और हंगामे के बीच असली मुद्दे गुम से हो जाते हैं. बहस का मतलब वाकयुद्ध और भाषाई कुश्ती हो गई है. इससे थोड़ी देर के लिए चैनलों के परदे पर खासी उत्तेजना और सनसनी भले पैदा हो जाए.

लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि पार्टियों, उनके नेताओं और उम्मीदवारों की जवाबदेही नहीं तय हो पाती है. पिछले पांच सालों तक सरकार और विपक्ष में उनके प्रदर्शन का हिसाब-किताब नहीं हो पाता है. वे उन असुविधाजनक और तीखे सवालों का जवाब देने से बच निकलते हैं जो चुनावों के मौके पर उनसे जरूर पूछी जानी चाहिए.

लेकिन ज्यादातर यह दिखाई पड़ता है कि चैनलों के एंकर और उनके रिपोर्टर बिना किसी तैयारी, शोध और गहरी छानबीन के नेताओं और उम्मीदवारों से ऐसे सवाल पूछते हैं जो पी.आर पत्रकारिता की हद में आते हैं.

कहना मुश्किल है कि ऐसा नासमझी में होता है या किसी समझदारी के साथ. इसके अलावा चैनलों के चुनावी जनतंत्र में व्यक्तियों (नेताओं/उम्मीदवारों) पर इतना अधिक फोकस होता है कि असली मुद्दे और सवाल नेपथ्य में चले जाते हैं. जमीनी हलचलें और बदलाव निगाहों से ओझल हो जाती हैं.

पार्टियां और उनके नेता यही चाहते हैं. चैनल भी जाने-अनजाने उनके इस खेल में हिस्सेदार बन जाते हैं और चुनावों को तमाशा बना डालते हैं. बताने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में बेवकूफ कौन बनता है?

('तहलका' के ३० जनवरी के अंक में प्रकाशित स्तम्भ. आप चाहें तो इस लेख पर अपनी टिपण्णी यहाँ भी दे सकते हैं:http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1081.html#en )

बुधवार, जनवरी 18, 2012

न्यू मीडिया के खिलाफ क्यों हैं सरकारें?

वैकल्पिक मीडिया की जरूरत पहले से भी ज्यादा बढ़ गई है

दूसरी और आखिरी किस्त


दुनिया की सबसे ताकतवर सरकारों ने जिस तरह से विकीलिक्स और उसके मुखिया जूलियन असांज को बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है, वह इसका प्रमाण है कि नए माध्यमों को काबू में करने के लिए खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरुआ बतानेवाली सरकारें कहाँ तक जा सकती हैं.

यही नहीं, विकीलिक्स की मदद से यह भी खुलासा हुआ है कि दुनिया भर में सरकारें कितने बड़े पैमाने पर आम नागरिकों की जासूसी कर रही हैं. भारत भी इसका अपवाद नहीं है. नए माध्यमों खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स को सेंसर करने और उन्हें ‘साफ़-सुथरा’ बनाने (सैनिटाइज) को लेकर संचार मंत्री कपिल सिब्बल के बयान को इसी सिलसिले में देखा जाना चाहिए.


लेकिन सिब्बल के बयानों और कोशिशों का जिस तरह से विरोध हुआ है, उससे यह उम्मीद बंधी है कि कारपोरेट मीडिया से निराश और नए माध्यमों पर मौजूद आज़ादी का लुत्फ़ उठा रहे लोग इतनी आसानी से हथियार नहीं डालने वाले हैं.

अलबत्ता नए माध्यमों को सरकार और प्रभावशाली हित समूहों के बाद जिससे सबसे अधिक खतरा है, वह और कोई नहीं बल्कि उनके प्रोमोटर्स हैं जिनके बड़ी पूंजी से बहुत गहरे रिश्ते हैं. इस बारे में किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

सच यह है कि गूगल से लेकर फेसबुक तक और ट्विटर से लेकर यू-ट्यूब तक में अरबों डालर की पूंजी लगी हुई है और उनके दांव बहुत ऊँचे हैं. वे भी एक सीमा से अधिक जोखिम नहीं उठा सकते हैं.

हैरानी की बात नहीं है कि गूगल ने विभिन्न देशों की सरकारों से मिले अनुरोधों/निर्देशों के आधार पर ऐसा बहुत सारा कंटेंट हटाया है जिसमें राजनीतिक या राजनेताओं की आलोचना थी. लेकिन इसके बावजूद नए साल में गहराते आर्थिक-राजनीतिक संकट और उथल-पुथल के बीच नए माध्यमों खासकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स, विकीलिक्स जैसे साइट्स के अलावा वैकल्पिक राजनीति और विचारों को आगे बढ़ाने वाले रैडिकल समूहों और राजनीतिक संगठनों/दलों की वेब साइट्स की प्रासंगिकता बनी रहेगी.

वे लोगों में सूचना-विचार और संवाद की साझेदारी को बढ़ाने, उन्हें गोलबंद करने और सामूहिक कार्रवाइयों में उतारने में उल्लेखनीय भूमिका निभाते रहेंगे. लेकिन इसके साथ ही, सरकारों द्वारा उनकी सख्त निगरानी और उनके उपयोगकर्ताओं को व्यक्तिगत तौर पर दण्डित करने के मामले भी बढ़ेंगे.

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बीते वर्ष में भारत में भी भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शनों और जन लोकपाल के समर्थन में अन्ना हजारे के भूख हडतालों में लोगों खासकर शहरी मध्य वर्ग की अच्छी खासी भागीदारी दिखी. भारतीय न्यूज खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस मौके को पेड न्यूज और नीरा राडिया प्रकरणों से अपनी साख पर लगे धक्के और अपने दाग-धब्बों को धोने के लिए किया.

कारपोरेट मीडिया खासकर न्यूज चैनलों ने अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को जिस तरह से गोद ले लिया और उस आंदोलन की गंगा में डुबकी लगाने लगे, उससे एकबारगी उनके खुद के पापों की चर्चा थम सी गई और वे ‘राजनीतिक रूप से सही जगह’ (पोलिटिकली करेक्ट) खड़े दिखाई पड़ने लगे.

लेकिन सच्चाई बहुत दिनों तक छिप नहीं सकी और जैसे-जैसे आंदोलन का ज्वार उतरने लगा, न्यूज चैनलों की असलियत भी सामने आने लगी. कारपोरेट भ्रष्टाचार के बारे में उनकी चुप्पी बोलने लगी. नतीजा, साल के उत्तरार्ध में प्रेस काउन्सिल के नए अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने जिस तरह से न्यूज चैनलों के खिलाफ मोर्चा खोला और उसे लोगों का समर्थन भी मिला, उससे चैनलों के रेगुलेशन का सवाल फिर से सुर्ख़ियों में आ गया.

न्यूज चैनलों की एसोशियेशन- एन.बी.ए और ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोशियेशन- बी.ई.ए सक्रिय हो गए और एक बार फिर से स्व-नियमन का राग अलापा जाने लगा. जस्टिस काटजू की झिडकी के बाद चैनलों ने सामूहिक रूप से तय किया कि वे एश्वर्य राय के बच्ची के जन्म की ‘खबर’ को संयत तरीके से कवर करेंगे.

मजे की बात यह है कि उन्होंने यह कर दिखाया. लेकिन कहते हैं कि हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. एश्वर्य राय के मामले में सामूहिक कसम खाकर आत्म-नियमन का उदाहरण पेश कर चुके चैनल जल्दी ही अपने फार्म में आ गए. हैरानी की बात नहीं है कि साल के आखिरी दिनों में चैनल अचानक ‘गायब’ हो गईं पाकिस्तानी राखी सावंत कही जानेवाली टी.वी कलाकार वीना मलिक को खोजते नजर आए.

वीना मलिक के लिए चैनलों की चिंता और बेचैनी देखने लायक थी. लेकिन यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है और न ही कोई अपवाद है. अलबत्ता इससे तो यही लगता है कि एश्वर्य राय की बच्ची के मामले में चैनलों का संयम और धैर्य अपवाद था.

नियम अब भी सिनेमा, क्रिकेट, क्राइम, सेलिब्रिटीज ही हैं. वे ही अधिकांश चैनलों का न्यूज एजेंडा तय कर रहे हैं. साफ़ है कि आत्म-नियमन और बाजार में हमेशा बाजार ही हावी रहेगा. बाजार यानी टी.आर.पी की चौखट पर आत्म-नियमन की कुर्बानी चढ़ती रहेगी.

मजे की बात यह है कि इस साल न्यूज चैनलों में गुमशुदा ‘खबरों की वापसी’ की अफवाहें भी बहुत सुनाई पड़ती रहीं. लेकिन साल के गुजरते-गुजरते यह कहना मुश्किल है कि चैनलों पर खबरें कितनी लौटी हैं?

अलबत्ता खबरों के नाम पर इस साल हिंदी न्यूज चैनलों पर जिस तरह से स्पीड न्यूज, बुलेट न्यूज, न्यूज २०-२० और उनके दर्जनों क्लोन छा गए, उसे देखते हुए ‘खबरों की वापसी’ की रही-सही उम्मीद भी जाती रही.

समाप्त

('कथादेश' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

मंगलवार, जनवरी 17, 2012

विरोध का जनतंत्र बनाम कारपोरेट मीडिया प्रबंधित जनतंत्र


कार्पोरेट मीडिया की विश्वसनीयता दिन पर दिन रसातल में जा रही है

पहली किस्त  

देश-दुनिया में राजनीतिक झंझावातों और छोटे-बड़े राजनीतिक परिवर्तनों, सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल और प्राकृतिक-मानव निर्मित त्रासदियों के बीच एक और साल गुजर गया. कई मामलों में काफी हद तक गुजरे सालों से मिलता-जुलता होने के बावजूद कई मामलों में यह साल बहुत खास रहा. देश के लिए भी और दुनिया के लिए भी.

निश्चय ही, इस साल को पारिभाषित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण परिघटना दुनिया भर में कारपोरेट लूट, भ्रष्टाचार, बढ़ती सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी-विषमता और तानाशाही के खिलाफ और सच्चे जनतंत्र के लिए भड़के आन्दोलनों, विरोध प्रदर्शनों और कब्ज़ा-घेराव-धरना-हड़ताल में आम लोगों खासकर मध्य वर्ग की बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी थी.

आश्चर्य नहीं कि मशहूर समाचार पत्रिका “टाइम” ने वर्ष २०११ के ‘पर्सन आफ द इयर’ के बतौर उन ‘प्रदर्शनकारियों’ को चुना है जिन्होंने अरब जगत में ट्यूनीशिया से लेकर मिस्र में दमनकारी तानाशाहियों, यूरोप में बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए सामाजिक सुरक्षा में कटौतियों और अमेरिका में कारपोरेट और आवारा पूंजी के लालच और हवस के खिलाफ ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ (आक्युपाई वाल स्ट्रीट) से लेकर भारत में कारपोरेट और राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के लिए शुरू हुए आन्दोलनों की अगुवाई की है.

इन आम प्रदर्शनकारियों ने इस साल को बहुत खास बना दिया. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये आंदोलन, विरोध प्रदर्शन और प्रदर्शनकारी कई मायनों में पहले के आन्दोलनों, विरोधों और प्रदर्शनकारियों से अलग थे.

उनकी सक्रियता, भागीदारी, गोलबंदी से लेकर विरोध प्रदर्शनों के तरीकों और सबसे बढ़कर उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों ने न सिर्फ देश-दुनिया का ध्यान खींचा बल्कि उसके राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक एजेंडे पर कई नए सवालों और मुद्दों को खड़ा कर दिया है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन आन्दोलनों ने एक बार फिर बहुत मजबूती से यह साबित करने की कोशिश की है कि लोकतंत्र को लोकतंत्र बनाने में लोगों की सक्रिय भागीदारी, गोलबंदी, उनके आन्दोलनों और विरोध प्रदर्शनों की बहुत बड़ी भूमिका है.

सच पूछिए तो लोकतंत्र की आत्मा है स्थापित-यथास्थितिवादी सत्ताओं और शासक वर्गों और उनके एजेंडे के खिलाफ असहमति के स्वर, विरोध प्रदर्शन और उन्हें चुनौती देनेवाले बदलाव के आंदोलन. इस मायने में बीते साल दुनिया भर में कारपोरेट भूमंडलीकरण, नव उदारवादी अर्थनीतियों, आवारा पूंजी की मनमानी और तानाशाही के बीच निरंतर सिकुड़ते और दमनकारी होते पूंजीवादी लोकतंत्रों में असहमति की तेज होती आवाजों और विरोध प्रदर्शनों की नई लहरों ने लोकतंत्र की आत्मा को पुनरुज्जीवित करने की कोशिश की है.

यही नहीं, इन आन्दोलनों ने राजनीति के नए मुहावरे गढे हैं, उनके मुद्दों-नारों ने समतामूलक, न्यायपूर्ण और सच्चे लोकतंत्र की लड़ाइयों को नया आवेग दिया है और लोगों खासकर मध्यवर्ग को घरों से बाहर सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित किया है.

लेकिन इन विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों के बीच मुख्यधारा का मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया कहाँ खड़ा है? यह ऐसा सवाल है जो कारपोरेट मीडिया को खुद से जरूर पूछना चाहिए. यह सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जो कारपोरेट मीडिया खुद को ‘जन माध्यम’ (मास मीडिया) कहता है, उसका ‘जन यथार्थ’ (मास रीयलिटी) से कितना सम्बन्ध रह गया है?

कहने की जरूरत नहीं है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में तानाशाही और नव उदारवादी अर्थनीति के खिलाफ फूट पड़े इन विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों के प्रति कारपोरेट मीडिया का शुरूआती रुख उपेक्षा और सिरे से ख़ारिज करने का था.

लेकिन जब नजरंदाज करना मुश्किल होने लगा तो उसके प्रति एक शक-संदेह और हैरानी से भरा भाव सामने आया और उसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की गई.

लेकिन जब विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों का दायरा बढ़ने और उनकी आवाज़ और तेज होने लगी तो कारपोरेट मीडिया ने अपना ट्रैक बदलकर एक ओर उन्हें यूटोपियन, आदर्शवादी, अव्यवहारिक और अराजक बताना शुरू कर दिया, वहीँ दूसरी ओर, उसे हड़पने में भी जुट गया.

यही कारण है कि जो विरोध प्रदर्शन उसके अपने निहित स्वार्थों और हितों के अनुकूल थे, उन्हें उसने बढ़-चढ़कर समर्थन दिया, यहाँ तक कि इन प्रदर्शनों को गोद ले लिया लेकिन जहां भी ये विरोध प्रदर्शन और आंदोलन सीधे उनके कारपोरेट हितों पर चोट कर रहे थे, उन्हें यूटोपियन से लेकर खलनायक बनाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी.

उदाहरण के लिए पश्चिमी कारपोरेट मीडिया ने जिस तरह से अरब वसंत से लेकर रूस में पुतिन विरोधी प्रदर्शनों तक को हाथों-हाथ लिया, उसी तरह का उत्साह आक्युपाई वाल स्ट्रीट और ग्रीस से लेकर इटली में बजट और सामाजिक सुरक्षा में कटौतियों के खिलाफ भड़के विरोध प्रदर्शनों के प्रति नहीं दिखाई पड़ा.

वैश्विक कारपोरेट मीडिया में अरब वसंत खासकर सीरिया और लीबिया में हुए विरोध प्रदर्शनों के प्रति न सिर्फ अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ा बल्कि उन्होंने असद और गद्दाफी सरकार के खिलाफ एक तरह का मोर्चा खोल दिया.

पश्चिमी मीडिया का यह पूर्वाग्रह खुलकर दिखाई पड़ा. उन्होंने सीरिया, ईरान और लीबिया में मानवीय आधार और परमाणु हथियारों के खतरे के मद्देनजर नाटो/अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के लिए जनमत बनाने की पूरी कोशिश की.

हैरानी की बात नहीं है कि लीबिया में गद्दाफी को एक क्रूर तानाशाह के बतौर पेश करते हुए पश्चिमी मीडिया ने नाटो की सैन्य कार्रवाई को खुलकर समर्थन दिया. हालांकि इसमें कुछ भी नया नहीं है. यह पश्चिमी वैश्विक कारपोरेट मीडिया की पुरानी रणनीति है. इस मायने में वह काफी हद तक अमेरिकी विदेश विभाग और नाटो के प्रवक्ता की तरह काम करता है.

सच यह है कि वह ऐसी सैन्य कार्रवाइयों के लिए जनमत बनाने के जरिये जमीन तैयार करता है. लीबिया में गद्दाफी शासन के अंत के बाद इस वैश्विक कारपोरेट मीडिया के निशाने पर सीरिया, ईरान और उत्तर कोरिया हैं जिनके खलनायकीकरण का अभियान जोर-शोर से जारी है.

आश्चर्य नहीं होगा अगर वर्ष २०१२ में वैश्विक कारपोरेट मीडिया की मदद से अमेरिका/नाटो इन्हें सैन्य निशाना भी बनाएं.

लेकिन इसके ठीक उलट इन बहुराष्ट्रीय वैश्विक मीडिया कंपनियों ने यूरोप और अमेरिका में कारपोरेट पूंजीवाद और नव उदारवादी अर्थनीतियों के खिलाफ भड़के लोगों के गुस्से, विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों को उस तरह का सहानुभूतिपूर्ण कवरेज तो दूर उन्हें तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष कवरेज भी नहीं दिया. यह स्वाभाविक भी था.

असल में, इन विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों खासकर आक्युपाई वाल स्ट्रीट प्रदर्शनों में सिर्फ बड़े कारपोरेट समूह, सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग ही निशाने पर नहीं थे बल्कि खुद कारपोरेट मीडिया और उसका झूठ भी निशाने पर थे.

सच पूछिए तो इस आंदोलन ने जिस तरह से मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया को नकार दिया और नए और वैकल्पिक मीडिया के जरिये लोगों के बीच सूचना-संवाद-बहस और गोलबंदी शुरू की है, वह भविष्य की ओर संकेत करता है.

यह कारपोरेट मीडिया के लिए खतरे की घंटी है. उसकी विश्वसनीयता दिन पर दिन नीचे की ओर जा रही है. बीते साल में भी कई ऐसी घटनाएँ हुईं जिनसे वैश्विक कारपोरेट मीडिया की विश्वसनीयता और साख को और गहरा धक्का लगा है.

खासकर ब्रिटेन में जिस तरह से मीडिया मुग़ल रूपर्ट मर्डोक और उनकी कंपनी न्यूज इंटरनेशनल की गैरकानूनी और अनैतिक गतिविधियां सामने आईं हैं और उसके खिलाफ लोगों का गुस्सा फूटा है, वह इस बात का सबूत है कि बड़े वैश्विक मीडिया समूहों के लिए आगे का रास्ता इतना आसान नहीं होगा. उनकी सार्वजनिक जांच पड़ताल बढ़ेगी और उनसे अब कहीं ज्यादा जवाबदेह होने की मांग की जायेगी.

यही नहीं, उनके लिए शासक वर्गों के हित में सूचनाओं और विमर्शों का प्रबंधन करना भी उतना आसान नहीं रह गया है. इस मायने में बीता साल पारंपरिक कारपोरेट मीडिया का नहीं बल्कि नए माध्यमों खासकर विकीलिक्स जैसे मंचों और सोशल नेटवर्किंग साइट्स का था.

रैडिकल समूहों ने लोगों को जागरूक बनाने से लेकर उन्हें गोलबंद करने और सामूहिक कार्रवाइयों में उतारने में इन नए माध्यमों का जिस तरह से खुलकर उपयोग किया है, उसने कारपोरेट मीडिया के साथ-साथ सत्ता प्रतिष्ठानों और शासक वर्गों को भी सतर्क कर दिया है. आश्चर्य नहीं कि इस साल सरकारों के निशाने पर ये नए माध्यम भी आ गए हैं.

जारी...

('कथादेश' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली किस्त)

सोमवार, जनवरी 16, 2012

अर्थव्यवस्था के साथ नीमहकीमी

सरकार का कन्फ्यूजन अर्थव्यवस्था के लिए भारी पड़ रहा है

अर्थव्यवस्था को लेकर यू.पी.ए सरकार की नीमहकीमी जारी है. सरकार को न तो अर्थव्यवस्था के असली मर्ज और मुश्किलों का सटीक अंदाज़ा है और न ही उसके इलाज को लेकर स्पष्टता है. मनमोहन सिंह सरकार अर्थव्यवस्था को लेकर कितनी ‘कन्फ्यूज्ड’ है, इसका अंदाज़ा सरकार के अंदर से आ रहे परस्पर अंतर्विरोधी बयानों और फैसलों में देखा जा सकता है.

खुद प्रधानमंत्री का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही है और चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी की वृद्धि दर ७ फीसदी ही रह पाएगी. हालांकि इसके ठीक एक दिन पहले वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने इस साल जी.डी.पी के ७.३० प्रतिशत रहने का अनुमान जताया था.

लेकिन असल बात यह है कि पिछले साल जी.डी.पी की वृद्धि दर ८.५ फीसदी थी और वित्त मंत्री ने बजट भाषण में चालू वित्तीय वर्ष में जी.डी.पी के ९ फीसदी रहने का अनुमान जाहिर किया था. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है और ऐसे संकेत हैं कि वह पटरी से उतर भी सकती है.

खासकर जब औद्योगिक उत्पादन की दर अक्टूबर महीने में गिरकर नकारात्मक -४.७ प्रतिशत हो गई थी. सरकार के अंदर और बाहर निराशा और घबराहट का माहौल बन गया. लेकिन जैसे ही पिछले सप्ताह नवंबर महीने के औद्योगिक उत्पादन के सकारात्मक आंकड़े आए और उत्पादन दर बढ़कर ५.९ प्रतिशत हो गया और पिछले तीन सप्ताहों से खाद्य मुद्रास्फीति दर के आंकड़े नकारात्मक आए, सरकार के आर्थिक मैनेजर अपने पुराने फार्म में वापस लौट आए.

कहा जाने लगा कि अर्थव्यवस्था की सेहत ठीक है और वैश्विक कारणों से धीमी पड़ी उसकी रफ़्तार जल्दी ही फिर से पटरी पर दौड़ने लगेगी. इस तरह से अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार में एक बार फिर निश्चिन्तता और खुशफहमी बढ़ने लगी है.

लेकिन सरकार और उसके आर्थिक मैनेजरों की यह निश्चिन्तता और खुशफहमी अर्थव्यवस्था को बहुत भारी पड़ सकती है. इसकी वजह यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में मौजूद अनिश्चितता बढ़ती जा रही है, अमेरिकी अर्थव्यवस्था अभी भी पटरी पर नहीं लौटी है जबकि यूरोपीय आर्थिक संकट थमने के बजाय और गहराता जा रहा है.

अब यह तय है कि यूरोप २०१२ में मंदी की चपेट में आने से नहीं बच पायेगा. जाहिर है कि इसका असर भारत समेत तमाम विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर भी पड़ेगा. विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं के संकट में फंसे होने का सीधा असर विदेशी पूंजी के प्रवाह, निवेश और निर्यात में गिरावट के रूप में दिखाई पड़ने लगा है.

ऐसे में, भारतीय अर्थव्यवस्था के पास सिवाय अंदर की ओर देखने के कोई और उपाय नहीं है. लेकिन मुश्किल यह है कि यू.पी.ए सरकार पर अभी भी विदेशी पूंजी का मोह इस कदर हावी है कि वह उसे आकर्षित करने के लिए जमीन-आसमान एक किये हुए है. प्रधानमंत्री से लेकर दूसरे आर्थिक मैनेजरों तक सभी खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के वायदे को दोहराने से लेकर शेयर बाजार में विदेशी निवेश को और ढीला करने जैसे फैसले कर रहे हैं.

लेकिन इन टोटकों से कोई मदद मिलनेवाली नहीं है. आवारा विदेशी पूंजी मौजूदा वैश्विक अनिश्चितता के माहौल में सुरक्षित ठिकानों का रुख कर रही है. अगर नियमों को ढीला करने और निवेश को अधिक से अधिक लुभावना बनाने भर से विदेशी पूंजी किसी देश की ओर दौड़ पड़ती तो लातीनी अमेरिका और अफ्रीका से लेकर एशिया के सभी गरीब मुल्कों में विदेशी पूंजी की बहार होती.

साफ़ है कि विदेशी पूंजी खासकर वित्तीय पूंजी उन्हीं मुल्कों का रूख करती है जहां उसे सबसे अधिक मुनाफा हो. उसे अपने मुनाफे की जितनी चिंता होती है, उतनी किसी देश की अर्थव्यवस्था की नहीं. लेकिन किसी देश के लिए पहली चिंता उसकी अपनी अर्थव्यवस्था, समग्र और समावेशी विकास और अपने नागरिकों की बेहतरी होनी चाहिए न कि विदेशी पूंजी के लिए अधिक से अधिक मुनाफे की गारंटी करना.

अफसोस की बात यह है कि देश के नीति-नियंताओं से लेकर आर्थिक मैनेजरों तक की आँख पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का ऐसा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें विदेशी पूंजी में ही देश और अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल और मुक्ति दिखाई देती है. इस कारण उन्हें देश के अंदर मौजूद संभावनाएं नहीं दिखाई देती हैं या वे जान-बूझकर उससे आँखें मूंदे रहते हैं.

उदाहरण के लिए, इस समय अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती निवेश बढ़ाने की है. इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि नवंबर महीने में औद्योगिक उत्पादन की दर में वृद्धि के बावजूद पूंजीगत सामानों की उत्पादन दर लगातार तीसरे महीने नकारात्मक – ४.६ फीसदी रही है.

साफ़ है कि नया निवेश नहीं हो रहा है. इसके कारण अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. ऐसा नहीं है कि देश में निवेश की गुंजाइश नहीं है. अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों लेकिन खासकर कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर, सामाजिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश की गुंजाइश है.

सच पूछिए तो अर्थव्यवस्था इसके लिए भूखी है. लेकिन निजी क्षेत्र इन क्षेत्रों में आने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है. दूसरी ओर, सरकार का रोना है कि उसके पास संसाधन नहीं है. लेकिन यह सच नहीं है.

सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है बशर्ते अगर वह वित्तीय घाटे के आब्शेसन से बाहर निकल सके. सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास इस समय दो लाख करोड़ रूपये से अधिक का नगद और बैंक जमा पड़ा हुआ है. सरकार अगर इन कंपनियों को प्रेरित करे तो वे निवेश बढ़ा सकती हैं.

लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस मुद्दे पर सरकार के अंदर से दो परस्पर विरोधी संकेत आ रहे हैं. एक ओर प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रधान सचिव पुलोक चैटर्जी ने पिछले सप्ताह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के प्रमुखों की बैठक करके उनसे निवेश बढ़ाने को कहा.

अखबारों में खबरें आईं कि सरकार अर्थव्यवस्था को 'स्टिमुलेट' करने के लिए कमर कस चुकी है. निश्चय ही, यह अच्छी पहल थी. इस स्तम्भ में हमने पहले ही यह सुझाव दिया था क्योंकि माना जाता है कि सार्वजनिक निवेश बढ़ने से निजी निवेशक भी निवेश करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं.

लेकिन अब वित्त मंत्रालय के सचिव आर. गोपालन इन कंपनियों को निवेश बढ़ाने के बजाय अपने नगद से अधिक लाभांश देने की मांग कर रहे हैं ताकि वित्तीय घाटा कम किया जा सके. जाहिर है कि अगर ये कम्पनियाँ ज्यादा लाभांश देंगी तो निवेश नहीं बढ़ा पाएंगी. सवाल यह है कि यह सरकार क्या चाहती है? यह 'कन्फ्यूजन' अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो रहा है.

('नया इंडिया' में १६ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)

बुधवार, जनवरी 11, 2012

विधानसभा चुनावों में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है...कोई शक?


कोई भी पार्टी नहीं चाहती है भ्रष्टाचार मुद्दा बने क्योंकि कहीं न कहीं सभी की पूंछ दबी है


पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की सरगर्मियां तेज होने लगी है. इन चुनावों खासकर राजनीतिक रूप से संवेदनशील उत्तर प्रदेश के नतीजों पर पूरे देश की निगाहें लगी हैं. इन चुनावों से न सिर्फ इन राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारों और उन्हें चुनौती दे रही पार्टियों के भाग्य का फैसला होगा बल्कि इनसे केन्द्र की सत्ता और आगे की राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होगी.

इन चुनावों को यूँ ही २०१४ के आम चुनावों के महासंग्राम से पहले का सेमीफाइनल नहीं माना जा रहा है. लेकिन ये चुनाव इसलिए भी बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं कि पिछले साल अन्ना हजारे की अगुवाई में चले भ्रष्टाचार विरोधी और जन लोकपाल समर्थक आंदोलन की छाया में हो रहे हैं.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने पिछले साल जिस तरह से देश भर में आम जनमानस को झकझोरा और समूचे राजनीतिक तंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया, उसके राजनीतिक-सामाजिक और नैतिक प्रभाव की असली परीक्षा का समय आ गया है. सवाल यह है कि क्या इन चुनावों में भ्रष्टाचार मुद्दा है?

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन सभी राज्यों में मौजूदा राज्य सरकारें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी हैं. चाहे वह उत्तर प्रदेश में बसपा की मायावती सरकार हो या पंजाब में शिरोमणि अकाली दल-भाजपा की प्रकाश सिंह बादल और उत्तराखंड में भाजपा की पहले रमेश पोखरियाल निशंक और अब भुवन चन्द्र खंडूरी की सरकार या फिर गोवा और मणिपुर में कांग्रेस की दिगंबर कामत और इबोबी सिंह की सरकारें- भ्रष्टाचार के मामले में कोई किसी से पीछे नहीं है.

सभी ने पांच वर्षों तक जमकर सत्ता का दुरुपयोग किया है और सार्वजनिक धन की लूट के नए रिकार्ड बना दिए हैं. यह किसी से छुपा नहीं है कि इन सभी राज्यों में सत्ता चाहे किसी भी पार्टी की हो लेकिन एक बात आम है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे एक छोटे से गिरोह के नेतृत्व में केंद्रीकृत और संगठित लूट की खुली व्यवस्था कायम कर दी गई है.

नतीजा, इन राज्यों में भ्रष्टाचार इस तरह संस्थाबद्ध हो चुका है कि आम नागरिकों खासकर गरीबों और कमजोर वर्गों को हर छोटे-बड़े सरकारी काम के लिए कदम-कदम पर नेताओं, सत्ता के दलालों, छोटे-बड़े सरकारी अफसरों और अपराधियों की लूट-खसोट का शिकार होना पड़ता है.

यही नहीं, उनके वाजिब हकों और गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए बनी सरकारी योजनाओं के पैसे को ऊपर ही ऊपर लूट लिया जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि इन राज्यों में आम लोगों के लिए यह भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है. लोग लूट-खसोट की व्यवस्था का अंत और इससे मुक्ति चाहते हैं.

यही कारण है कि इन सभी राज्यों में बदलाव का माहौल है. लेकिन आम वोटरों के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वे किस पर भरोसा करें? सत्ता की दावेदार सभी पार्टियां, चाहे वे सरकार में हों या विपक्ष में, बिना किसी अपवाद के भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी हुई हैं.

यही कारण है कि आम वोटरों के बीच भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होते हुए भी पार्टियों के लिए यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है. असल में, सत्ता की दावेदार किसी भी पार्टी में भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाने का नैतिक साहस नहीं है क्योंकि सभी के दामन पर भ्रष्टाचार के छींटें चमक रहे हैं.

आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस-भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों से लेकर बसपा, सपा, अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों तक सभी एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप जरूर लगा रहे हैं लेकिन इस मुद्दे पर आम वोटरों को कोई भी दल उद्वेलित नहीं कर पा रहा है.

इससे सत्ता की होड़ में शामिल राजनीतिक पार्टियों को यह भ्रम हो गया है कि वोटरों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. इससे उनका हौसला इतना बढ़ गया है कि वे एक ओर धड़ल्ले से जातिवादी-सांप्रदायिक-क्षेत्रीय कार्ड खेल रही हैं, वहीँ दूसरी ओर, वोटरों को खरीदने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है और अपराधियों-माफियाओं का सहारा लिया जा रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि हमेशा ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की दुहाई देनेवाली और ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ मुक्त राजनीति के दावे करनेवाली भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बसपा राज में घोटालों के प्रतीक बन गए बाबू सिंह कुशवाहा समेत बसपा सरकार से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए कई पूर्व मंत्रियों को न सिर्फ पार्टी में ससम्मान शामिल किया है बल्कि उनमें से अधिकांश को चुनाव मैदान में भी उतार दिया है.

साफ़ है कि भाजपा के लिए चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. उनके लिए यह सिर्फ प्रचार का मुद्दा है, व्यवहार का नहीं. उसके लिए सबसे बड़ा मुद्दा किसी भी तरह से चुनाव जीतना है. चुनाव जीतने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है.

लेकिन इसके साथ ही यह भी उतना ही सच है कि कुछ हद तक वामपंथी पार्टियों को छोडकर इस बीमारी से भाजपा ही नहीं, कोई भी पार्टी अछूती नहीं है. फर्क यह है कि इस बार भाजपा व्यावहारिक राजनीति के नाम पर उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही नंगी और बेशर्म हो गई है.

निश्चय ही, इस स्थिति को भांप कर ही अन्ना हजारे ने इन चुनावों से दूर रहने का फैसला किया है क्योंकि उनके कांग्रेस विरोधी प्रचार की धार भ्रष्टाचार के मामले में उसी तरह नंगे और बेशर्म विपक्ष ने कुंद कर दी है.

लेकिन क्या इसका अर्थ यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर शुरू हुई लड़ाई मंजिल पर पहुँचने से पहले ही लड़खड़ाने लगी है? ऐसा सोचना थोड़ी जल्दबाजी होगा. सच यह है कि इस देश में वोटरों ने अपने फैसले से राजनीतिक तंत्र को हमेशा चौंकाया और छकाया है.

इसलिए इन चुनावों में बहुत संभव है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम वोटरों के गुस्से का निशाना सत्तारूढ़ पार्टियां बनें और विपक्ष को इसका नकारात्मक फायदा मिल जाए. इस देश में सरकारों और पार्टियों को सबक सिखाने का वोटरों का अपना ही तरीका है.

लेकिन इस आधार पर किसी पार्टी विशेष के जीतने से यह निष्कर्ष निकालने की भूल न की जाए कि आम लोगों के लिए भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है. अलबत्ता, उसके लिए भ्रष्टाचार चुनाव से ज्यादा सड़क की लड़ाई बन गई है क्योंकि चुनावों में सभी पार्टियों ने एक नापाक गठजोड़ बनाकर एक मुद्दे के बतौर भ्रष्टाचार को बेमानी बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखा है.

(दैनिक 'नया इंडिया' में ९ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख)

मंगलवार, जनवरी 10, 2012

भ्रष्ट और अपराधी तत्वों की आखिरी शरणस्थली बन गई है भाजपा

दागियों पर पर्दा डालने के लिए राष्ट्रवाद और देशभक्ति को आड़ की तरह इस्तेमाल करती है भाजपा  

दूसरी और आखिरी किस्त

असल में, भाजपा की राजनीति में बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण कोई पहली घटना नहीं है और न ही यह कोई अपवाद है. पार्टी की राजनीति को नजदीक से देखने वाले जानते हैं कि ९० के दशक में कांग्रेसी नेता और तत्कालीन संचार मंत्री सुखराम के भ्रष्टाचार के आरोपों में पकडे जाने के मुद्दे पर कार्रवाई की मांग को लेकर संसद ठप्प कर देनेवाली भाजपा को हिमाचल प्रदेश में सत्ता के लिए सुखराम के साथ हाथ मिलाने में कोई शर्म नहीं आई.

इसी तरह, यू.पी.ए सरकार के मंत्री शिबू सोरेन को दागी बताकर मंत्रिमंडल से निकलने की मांग को लेकर भाजपा ने संसद के अंदर और बाहर खूब हंगामा किया लेकिन झारखण्ड में जोड़तोड़ करके उन्हीं शिबू सोरेन के साथ सत्ता की मलाई चाट रही है.


यही नहीं, भाजपा ने उत्तर प्रदेश में पहले कल्याण सिंह के नेतृत्व में दलबदलुओं, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों और दागियों के साथ सबसे बड़ा मंत्रिमंडल बनाके और फिर मायावती के नेतृत्व में बसपा के साथ सत्ता की साझेदारी करके राजनीतिक अवसरवाद का नया रिकार्ड बनाया. भाजपा के छोटे से राजनीतिक इतिहास में ऐसे अवसरवादी राजनीतिक समझौतों की एक पूरी श्रृंखला है.

कर्नाटक में पार्टी ने खनन माफिया के बतौर कुख्यात रेड्डी बंधुओं की बगावत के बाद उनके आगे घुटने टेक दिए और बाद में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में फंसे येद्दियुरप्पा ने भी भाजपा नेतृत्व की पूरी फजीहत कराने के बाद ही इस्तीफा दिया.

सच पूछिए तो आज भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और धनबलियों को राजनीतिक संरक्षण और प्रोत्साहन देने में भाजपा किसी भी मध्यमार्गी पार्टी से पीछे नहीं नहीं है. किसी भी अन्य पार्टी की तरह भाजपा में भी सत्ता के दलालों, भ्रष्ट और लुटेरे ठेकेदारों/कंपनियों, माफियाओं और अवसरवादी तत्वों की तूती बोल रही है.

पार्टी की राज्य इकाइयों से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व में भी ऐसे तत्वों की पैठ बहुत गहरी हो चुकी है. यह बहुत बड़ा भ्रम है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बहुत साफ़-सुथरा है और इसलिए निचले स्तर पर ऐसे भ्रष्ट/अपराधी/अवसरवादी तत्वों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सच यह है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे तत्वों के आगे घुटने टेक दिए हैं.

भाजपा के नेता भले स्वीकार न करें लेकिन तथ्य यह है कि इन भ्रष्ट और अपराधी तत्वों के आगे शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह से लाचार हो चुका है. उसकी लाचारी का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि आडवाणी से लेकर सुषमा स्वराज तक और उमा भारती से लेकर आर.एस.एस की कथित नाराजगी के बावजूद पार्टी बाबू सिंह कुशवाहा और अन्य दागियों को निकालने के लिए तैयार नहीं है?

आखिर भाजपा किसे धोखा दे रही है? क्या यह संभव है कि पार्टी के शीर्ष नेता और यहाँ तक कि आर.एस.एस भी जिस फैसले से नाराज हो, उसे पलटना इतना मुश्किल हो? यह तभी संभव है जब या तो पार्टी के शीर्ष नेताओं की कथित नाराजगी सिर्फ सार्वजनिक दिखावे के लिए हो या फिर उन्होंने ऐसे तत्वों के आगे घुटने टेक दिए हों?

भाजपा और उसके शीर्ष नेताओं के लिए ये दोनों ही बातें सही हैं. असल में, वे गुड भी खाना चाहते हैं और गुलगुले से परहेज का नाटक भी करते हैं. सच यह है कि एक राष्ट्रीय पार्टी के बतौर भाजपा की राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता जैसे-जैसे उजागर होती जा रही है, उसके लिए सत्ता, साधन के बजाय साध्य बनती जा रही है.

जाहिर है कि जब सत्ता ही साध्य बन जाए तो उसे हासिल करने के लिए पार्टी को कोई भी जोड़तोड़ करने, किसी भी तिकड़म का सहारा लेने और भ्रष्ट/अपराधी तत्वों के साथ गलबहियां करने में कोई संकोच नहीं रह गया है. इसलिए उत्तर प्रदेश में जो रहा है, वह भाजपा के इसी राजनीतिक-वैचारिक स्खलन से पैदा हुए अवसरवाद की राजनीति का नया मुकाम है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता और स्खलन एक ऐसी सर्वव्यापी और सर्वग्रासी परिघटना बन चुकी है जिससे सत्ता के खेल में शामिल कोई भी पार्टी अछूती नहीं बची है. हैरानी की बात नहीं कि दागी तत्व बहुत सहजता के साथ एक से दूसरी पार्टी और तीसरी से चौथी पार्टी में प्रवेश, सम्मान और निर्णायक मक़ाम हासिल करने में कामयाब होते हैं.

एक पार्टी के लिए दागी, दूसरे के लिए राजनीतिक सफलता की कुंजी है. यहाँ तक कि सिद्धांतत: मान लिया गया है कि यही व्यवहारिक राजनीति है और व्यावहारिक राजनीति, विचार, सिद्धांत और मूल्यों से नहीं चलती है. मतलब यह कि इसमें अगर आप सफल हैं तो सब कुछ जायज है.

जाहिर है कि भाजपा भी इस नई व्यावहारिक राजनीतिक संस्कृति की अपवाद नहीं है. लेकिन भाजपा के साथ खास बात यह है कि वह राजनीतिक नैतिकता, शुचिता और सदाचार की जितनी ही अधिक डींगे हांकती है, उतनी ही बेशर्मी से उनकी धज्जियाँ भी उड़ाती है. इसमें उसे कोई संकोच या असुविधा महसूस नहीं होती है. इस मामले में उसके साहस का शायद ही कोई और पार्टी मुकाबला कर पाए.

असल में, भाजपा जिस उग्र हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वैचारिकी पर आधारित राजनीति करती है, उसमें उसके पास दागियों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुखौटे के पीछे छुपाने की अवसरवादी सुविधा है. यह सुविधा किसी भी और पार्टी के पास नहीं है.

सैमुएल जानसन ने कहा था कि ‘राष्ट्रवाद और देशभक्ति लफंगों की आखिरी शरणस्थली होती है.’ भाजपा के मामले में यह बात सौ फीसदी सच है. भ्रष्ट/अपराधी और दागी तत्वों को भाजपा इसीलिए बहुत आकर्षित करती है. ऐसे तत्व भाजपा में आ कर न सिर्फ राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के झंडे के नीचे अपने सभी पापों को ढंकने-छुपाने में कामयाब हो जाते हैं बल्कि बड़े आराम से अपने काले कारबार को भी जारी रख पाते हैं.

जाने-अनजाने मुख्तार अब्बास नकवी ने भाजपा की गंगा से तुलना करते हुए हिंदुत्व के प्रतीक का ही इस्तेमाल किया. भाजपा की राजनीति की यही असलियत है. लेकिन हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की संकीर्ण और घृणा आधारित राजनीति से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है.

('जनसत्ता' के ९ जनवरी के अंक में प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी किस्त)

सोमवार, जनवरी 09, 2012

भाजपा के ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की असलियत


अवसरवाद का दूसरा नाम भाजपा है

पहली किस्त
 
भारतीय जनता पार्टी को दाग अच्छे लगने लगे हैं. पार्टी के आशीर्वाद से इन दिनों उत्तरप्रदेश की राजनीति में दागियों की चांदी हो गई है. विधानसभा चुनावों से ठीक पहले भ्रष्टाचार के आरोपों में बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा सहित कई और मंत्रियों और विधायकों के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अपने दरवाजे खोल दिए हैं.

इन दागी मंत्रियों, विधायकों और नेताओं को न सिर्फ ससम्मान भाजपा में शामिल कराया जा रहा है बल्कि उनमें से अधिकांश को पार्टी टिकट से भी नवाजा जा रहा है. इनके अलावा बलात्कार से लेकर घूस लेकर संसद में सवाल पूछने के दोषी नेताओं के नाम भी भाजपा के उम्मीदवारों की सूची में शामिल हैं.

भाजपा के इस फैसले ने उसके बहुतेरे समर्थकों को स्तब्ध कर दिया है, विश्लेषकों को चौंका दिया है और ये सभी हैरानी जाहिर कर रहे हैं. इसकी वजह यह है कि जो पार्टी खुद को अपने ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ के आधार पर सभी पार्टियों से अलग (पार्टी विथ डिफ़रेंस) बताती है और ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ के खिलाफ लड़ने का नारा लगाते नहीं थकती है, वह दूसरी पार्टियों से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए दागियों को थोक के भाव में पार्टी में कैसे और क्यों शामिल कर रही है?

सवाल यह भी उठ रहा है कि जो भाजपा दूसरी पार्टियों के दागियों के मुद्दे पर सिर आसमान पर उठाए रहती है, हप्तों संसद नहीं चलने दिया है और रामराज्य और सुशासन के दम भरती रहती है, वह किस मुंह से दागियों का बचाव कर रही है? दूसरी पार्टियों के दागी भाजपा में आकर पार्टी के लिए तिलक कैसे बन जाते हैं?

मजे की बात यह है कि भाजपा नेता किरीट सोमैया ने सिर्फ चार दिन पहले जिन बाबू सिंह कुशवाहा को उत्तर प्रदेश में दस हजार करोड़ रूपयों से अधिक के बहुचर्चित राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.एच.आर.एम) घोटाले का सूत्रधार बताया था और जो सी.बी.आई जांच के घेरे में फंसे हैं, उन्हें भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व की पूरी सहमति से ससम्मान पार्टी में शामिल करा लिया गया.

लेकिन कुशवाहा अकेले दागी नेता नहीं हैं, जिन्हें भाजपा ने इस तरह बाहें फैलाकर स्वागत किया है. ऐसे बसपाई मंत्रियों, विधायकों और नेताओं की तादाद अच्छी खासी है जिन्हें उनकी चुनाव जीतने की काबिलियत के आधार पर पार्टी में शामिल कराया गया है.

ऐसे नेताओं में मायावती सरकार के एक और पूर्व मंत्री बादशाह सिंह हैं जिन्हें लोकायुक्त जांच में दोषी पाए जाने के कारण हटाया गया था. कुछ और मंत्रियों जैसे अवधेश वर्मा, ददन मिश्र आदि को भी मायावती ने ऐसे ही आरोपों में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया. भाजपा ने इन सभी को हाथों-हाथ लिया है. कई और पूर्व बसपाई मंत्री/विधायक और सांसद कतार में हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि थोक के भाव में दागियों को पार्टी में शामिल करने और उन्हें चुनावों में उम्मीदवार बनाने के फैसले की मीडिया और बौद्धिक हलकों में खूब आलोचना हुई है. यही नहीं, भाजपा में पार्टी के अंदर भी निचले स्तर पर विरोध के इक्का-दुक्का स्वर उभरे हैं और अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, लालकृष्ण आडवाणी समेत कई वरिष्ठ नेता भी नाराज हैं.

लेकिन घोषित तौर पर पार्टी प्रवक्ता और उनके नेता भांति-भांति के तर्कों से इस फैसले को जायज ठहराने में जुटे हैं. पार्टी प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी के मुताबिक, ‘भाजपा वह गंगा है जिसमें कई परनाले गिरते हैं लेकिन उससे गंगा की निर्मलता पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.’

दूसरी प्रवक्ता निर्मला सीतारमण के अनुसार, ‘यह फैसला किसी जल्दबाजी में नहीं बल्कि बहुत सोच-समझकर लिया गया है. इसका उद्देश्य पिछड़ी खासकर अति पिछड़ी जातियों के नेतृत्व को आगे बढ़ाना है.’ वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा को बाबू सिंह कुशवाहा में मायावती की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ ‘व्हिसल-ब्लोवर’ दिख रहा है.

लेकिन भाजपा नेताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को अहसास है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देशव्यापी जनमत और राजनीतिक माहौल में पार्टी का मध्यमवर्गीय आधार इस फैसले को पचा नहीं पा रहा है.

उसकी बेचैनी को भांपते हुए टी.वी चर्चाओं में कई भाजपा नेता और बुद्धिजीवी मध्यमवर्गीय जनमत को इस आधार पर आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं कि चूँकि ये दागी पार्टी में निचले स्तर के नेता हैं और रहेंगे और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व साफ़-सुथरा है, इसलिए ये दागी पार्टी की नीतियों और सरकार को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं.

इस फैसले का बचाव ‘व्यावहारिक राजनीति के तकाजों’ के आधार पर भी किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस के माफियाओं और भ्रष्ट उम्मीदवारों से निपटने के लिए भाजपा को भी ऐसे तत्वों को मैदान में उतारना जरूरी है जो चुनाव जीत सकें.

कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा की इन दलीलों में कोई दम नहीं है. ये तर्क उसके चरम राजनीतिक अवसरवाद पर पर्दा डालने की कोशिश भर हैं. सच पूछिए तो भाजपा के इस फैसले पर हैरानी से अधिक हंसी आती है.

भाजपा के लिए यह कोई नई बात नहीं है. पार्टी इस खेल में माहिर हो चुकी है. उसके लिए अवसरवाद अब सिर्फ रणनीतिक मामला भर नहीं है बल्कि उसके राजनीतिक दर्शन का हिस्सा बन चुका है.

आश्चर्य नहीं कि भाजपा तात्कालिक राजनीतिक लाभ और सत्ता के लिए अपने घोषित राजनीतिक सिद्धांतों और मूल्यों की बिना किसी अपवाद के बलि चढ़ाती आई है. यह उसकी राजनीति की सबसे बड़ी पहचान बन गई है.

जारी...

('जनसत्ता' में ९ जनवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख की पहली किस्त...बाकी कल)

मंगलवार, जनवरी 03, 2012

२०११ में अर्थव्यवस्था:महंगाई की सुरसा के आगे लाचार सरकार

सरकार के पास इन सभी समस्याओं का एक ही जादुई हल है- खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को न्यौता


यही हाल महंगाई यानी मुद्रास्फीति का है जो साल भर अर्थव्यवस्था और आम आदमी दोनों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनी रही. लेकिन मजा देखिए कि सरकार महंगाई के साथ लाल बुझक्कडों की तरह निपटने की कोशिश करती रही. प्रधानमंत्री से लेकर वित्त मंत्रालय के अफसर तक मुद्रास्फीति दर के काबू में आने की तारीख पर तारीख घोषित करते रहे लेकिन महंगाई बेकाबू बनी रही.

सरकार और अर्थव्यवस्था के मैनेजर महंगाई के मर्ज को कभी ठीक से समझ नहीं पाए और आखिरकार महंगाई से निपटने का सारा जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप कर खुद हाथ पर हाथ धरकर बैठ गए.


रिजर्व बैंक के पास मौद्रिक उपायों के अलावा और कोई उपाय नहीं था. नतीजा, रिजर्व बैंक ने इस साल आधा दर्जन से अधिक बार ब्याज दरों में वृद्धि की लेकिन मुद्रास्फीति की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. लगभग पूरे साल मुद्रास्फीति की दर दोहरे अंकों के आसपास बनी रही.

हालांकि साल के आखिरी सप्ताहों में खाद्य मुद्रास्फीति की दरों में अच्छी खासी गिरावट दर्ज की गई है लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस गिरावट का आम मुद्रास्फीति दर पर कितना असर पड़ा है क्योंकि नवंबर महीने तक मुद्रास्फीति की दर ९.११ फीसदी पर टिकी हुई है.


दूसरी बात यह है कि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट का मतलब यह नहीं है कि महंगाई कम हो रही है. सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर में यह कमी सांख्यिकीय चमत्कार है जो पिछले वर्ष के ऊँचे आधार के कारण संभव हुई है. इसके अलावा मुद्रास्फीति की दर में यह कमी कुछ खाद्य वस्तुओं खासकर फलों, सब्जियों आदि की कीमतों में आई सीजनल कमी के कारण है.

इससे उपभोक्ताओं को थोड़ी राहत जरूर मिली है लेकिन इसके स्थाई होने में संदेह है क्योंकि आम खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कोई कमी नहीं आई है. इसके अलावा महंगाई मैन्युफैक्चरिंग वस्तुओँ को अपने लपेटे में ले चुकी है.

लेकिन इसके साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के विरोधाभास भी खुलकर सामने आने लगे हैं. एक ओर सब्जियों आदि की कीमतों में कमी के कारण खाद्य मुद्रास्फीति दर में कमी पर खुशियाँ मनाई जा रही हैं लेकिन दूसरी ओर, पंजाब से लेकर महाराष्ट्र तक और गुजरात से लेकर उत्तराखंड तक के किसान अपने उत्पादों खासकर आलू, प्याज और टमाटर की उचित कीमत न मिलने के कारण रो रहे हैं. नाराजगी में अपनी फसल सडकों पर फेंक रहे हैं. कल तक आम आदमी महंगाई से त्रस्त था और आज किसान लुटा-पिटा महसूस कर रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि एक बार फिर देश के कई हिस्सों से किसानों की आत्महत्या की खबरें आ रही हैं. किसानों की हताशा का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि आंध्र प्रदेश में पहली बार पूर्वी गोदावरी जिले के किसानों ने ‘कृषि अवकाश’ यानी खेत खाली छोड़ने का फैसला किया है. इस सामान्य घटना नहीं है.

यह खतरे की घंटी है खासकर यह देखते हुए कि सरकार ने आख़िरकार काफी ना-नुकुर और दाएं-बाएं करने के बाद भोजन के अधिकार का कानून बनाने के लिए पहला कदम बढ़ा दिया है. सरकार जितनी जल्दी हो, यह समझ जाए ले कि भोजन के अधिकार का कानून कृषि और किसानों की उपेक्षा करके लागू नहीं किया जा सकता है.

लेकिन सरकार के पास इन सभी समस्याओं का एक ही जादुई हल है और वह है- खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को न्यौता. आप भले सिर खुजाते रहें लेकिन प्रधानमंत्री से लेकर युवराज राहुल गाँधी तक सभी पूरी तरह से मुतमईन हैं कि कृषि, किसानों और आम उपभोक्ताओं सभी की समस्याओं को अब वाल मार्ट और टेस्को जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियाँ ही सुलझा सकती हैं.

वैसे ही जैसे सरकार ने मान लिया कि देश में गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी जैसी सभी समस्याओं के हल की कुंजी तेज विकास दर में है. मुद्रास्फीति से मुक्ति का जिम्मा रिजर्व बैंक के मत्थे है.

जैसे इतना ही काफी नहीं था. सरकार यह भी माने बैठी है कि गिरती वृद्धि दर खासकर औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट से निपटने का जिम्मा भी उद्योग जगत का है. उद्योग जगत ही अर्थव्यवस्था में नया निवेश करेगा और उसे गति देगा.

सरकार और उद्योग जगत दोनों की राय है कि सरकार का असली काम सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाना और निजी पूंजी निवेश के अनुकूल माहौल बनाना है. गोया आर्थिक सुधार नहीं हुए, जादू की छड़ी हो गई जिसे घुमाते ही अर्थव्यवस्था की सारी दिक्कतें दूर हो जाएँगी.

यह और बात है कि अर्थव्यवस्था की बहुतेरी समस्याएं इन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पैदा हुई हैं. जैसे औद्योगिक उत्पादन की दर में गिरावट के पीछे एक बड़ा कारण सरकार का वित्तीय घाटे को कम करने के प्रति अतिरिक्त मोह है जिसके कारण अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में कटौती की गई. नतीजा सबके सामने है. लेकिन लगता नहीं है कि सरकार में २०११ में इससे कोई सबक सीखा है.

('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में ३१ दिसम्बर'११ में प्रकाशित आलेख की दूसरी और आखिरी किस्त)