शासक वर्गीय पार्टियों का मीडिया मैनेजमेंट और चुनावों में स्पिन डाक्टर्स के खेल
दूसरी किस्त
उदाहरण के लिए, चाहे राहुल गाँधी की
रैलियों/सभाओं/रोड शो की अधिकांश चैनलों पर बिना अपवाद के लाइव कवरेज हो या उत्तर
प्रदेश के अमेठी-रायबरेली-सुल्तानपुर में प्रचार करने पहुंची प्रियंका गाँधी को
मिला अत्यधिक कवरेज हो, उसकी पत्रकारीय व्याख्या मुश्किल है.
एक विदेशी पत्रकार ने हैरानी में ट्वीट किया कि ‘प्रियंका गाँधी क्या हैं, किस राजनीतिक या संवैधानिक पद पर हैं जिन्हें चुनाव प्रचार में इतनी कवरेज मिल रही है?’ यह सचमुच में विचारणीय है कि कांग्रेस और यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी की बेटी के अलावा वे क्या हैं जिन्हें इस हद तक कवरेज के लिए उपयुक्त समझा गया?
इसी तरह, इस चुनाव में अन्य दलों और
उनके नेताओं की उपेक्षा करके राहुल गाँधी को जिस तरह से 24X7 कवरेज मिली है, वह कांग्रेस की जमीनी
ताकत और मौजूदगी से कई गुणा ज्यादा है. इस कवरेज में न सिर्फ अनुपात का ध्यान नहीं
रखा गया बल्कि उसमें वस्तुनिष्ठता, तटस्थता और तथ्यपूर्णता की भी अनदेखी की गई.
मजे की बात यह है कि सभी पार्टियों के नेताओं में प्रचार में सबसे आगे रहने के बावजूद राहुल गाँधी एकमात्र ऐसे नेता है जो मीडिया के लिए सबसे अधिक अनुपलब्ध हैं. यह ठीक है कि मुख्यमंत्री और बसपा नेता मायावती भी मीडिया से दूरी बनाकर रहती हैं लेकिन चुनावी मैदान की सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी होने के बावजूद उन्हें और उनकी पार्टी को उस तरह का सहानुभूतिपूर्ण कवरेज भी नहीं मिला है.
इस तथ्य को भी अनदेखा करना मुश्किल है
कि इन चुनावों में राहुल गाँधी की बहुत बारीकी से एक ‘एंग्री यंगमैन, राजनीतिक रूप
से आक्रामक, मेहनती, राजनीतिक जोखिम उठानेवाला, कांग्रेस को लड़ाई में खड़ी कर
देनेवाला और राजनीतिक रूप से परिपक्व होते’ युवा की छवि गढ़ी गई है.
अगर आप राहुल गाँधी की सार्वजनिक उपस्थिति और सभाओं/रैलियों/रोड शो में उनकी बोलने की शैली, अदाएं, मैनेरिज्म और भीड़ से मिलने-जुलने के तौर-तरीकों को देखें तो उसमें स्वाभाविकता और स्वतःस्फूर्तता के बजाय एक तरह का एनीमेशन दिखेगा.
जाहिर है कि इसमें कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और स्पिन डाक्टरों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इसके साथ ही, यह भी सच है कि खुद मीडिया और खासकर चैनल इस छवि निर्माण में खुलकर पार्टनर हो गए हैं.
कारण चाहे जो हो- स्वेच्छा या लालच
लेकिन तात्कालिक तौर पर इसका राजनीतिक फायदा कांग्रेस को मिला है. उत्तर प्रदेश
में कांग्रेस अपने इर्द-गिर्द एक “बज” यानी चर्चा पैदा करने में कामयाब हो गई है.
उसने मीडिया की मदद से चुनावी एजेंडा सेट करने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल की है
जिसके कारण उसका राजनीतिक ग्राफ चढ़ा है.
मीडिया ने वास्तविक अर्थों में मैजिक मल्टीप्लायर की तरह ‘राहुल मैजिक’ को कई गुणा बढ़ाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है. निश्चय ही, इस मायने में यह कांग्रेस की चुनाव मशीनरी के साथ-साथ मीडिया मैनेजमेंट की कामयाबी है और इसमें वह बाकी सभी दलों से काफी आगे है. आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान फिल्म अभिनेता और एम.पी राज बब्बर के हाथों में है.
ऐसा लगता है कि कांग्रेस से सीख लेकर
भाजपा, सपा और कुछ हद तक बसपा ने भी कारपोरेट अंदाज़ में विज्ञापन फ़िल्में बनाई हैं
जिन्होंने सभी न्यूज चैनलों पर कुछ दिनों के लिए जांघिये-बनियान के विज्ञापनों को
पीछे छोड़ दिया है. एक तरह से इन विज्ञापन फिल्मों से पार्टियों की कारपोरेट
ब्रांडिंग की जा रही है.
हैरानी की बात नहीं है कि कई पार्टियों और नेताओं ने पी.आर कंपनियों की मदद भी ली है और छवि चमकाने के लिए जमकर पैसे बहाए जा रहे हैं. इससे चैनलों की चांदी है. असल में, चैनलों के लिए मंदी के बीच चुनाव एक बड़े सहारे की तरह आया है. इसलिए कोई पीछे नहीं रहना चाहता है और सभी बहती गंगा में हाथ धोने में जुटे हैं.
लेकिन इस सबके बीच चैनलों ने दर्शकों को
सचेत और सूचित करने की अपनी उस प्राथमिक भूमिका को काफी हद तक अनदेखा और कमजोर कर
दिया है. पूंजीवादी लोकतंत्रों में कम से कम सैद्धांतिक तौर पर उनसे अपने दर्शकों
चुनावों के मुद्दों, पार्टियों के कामकाज, उनके घोषणापत्रों, उम्मीदवारों के
व्यक्तित्व और प्रदर्शन को तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष तरीके से सूचित और
सचेत करने की अपेक्षा की जाती है ताकि लोग अपने मताधिकार का सही तरीके से इस्तेमाल
कर सकें.
लेकिन खबर है कि इस बार मीडिया में ‘पेड न्यूज’ नए रूप में चल रहा है. अखबार और चैनल इस बार उम्मीदवारों की प्रशंसा में छापने के बजाय उनकी असलियत/सच्चाई न छापने के पैसे ले रहे हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि उम्मीदवारों
के बारे में सभी जानकारियां (उनकी कुल संपत्ति, शिक्षा और आपराधिक रिकार्ड) होने
के बावजूद अख़बारों और चैनलों पर उनकी बारीकी से पड़ताल/छानबीन तो दूर है, उनकी
तथ्यपूर्ण जानकारी भी नहीं दी जा रही है.
माननीय विधायकों/मंत्रियों की संपत्तियों में न्यूनतम दस-पन्द्रह गुने से लेकर सौ गुने तक की वृद्धि के पीछे क्या राज है? उम्मीदवारों के अतीत और वर्तमान की स्वतंत्र खोजबीन तो बहुत दूर की बात है.
क्या दर्शकों/पाठकों को यह जानने का अधिकार नहीं है? क्या यह सिर्फ चैनलों/अख़बारों और उनके पत्रकारों की उदासीनता और आलस है यह इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? यह वाचडाग मीडिया है या पालतू पेड मीडिया?
दूसरी किस्त
लेकिन जब सत्ता के लिए मुकाबला शासक
वर्ग की ही चार पार्टियों के बीच हो तो मीडिया ‘राजनीतिक हवा’ का रुख किसी एक ओर
मोड़ने या उसके अनुकूल माहौल बनाने या फिर भ्रम पैदा करने या एजेंडा बदलने की कीमत
वसूलने से भी पीछे नहीं रहता है. ‘पेड न्यूज’ की परिघटना इसी प्रक्रिया से निकली
है.
हालांकि पिछले चुनावों में ‘पेड न्यूज’ इतना ज्यादा बेपर्दा हुआ कि खुद मीडिया
की विश्वसनीयता ही दांव पर लग गई और खतरा पैदा हो गया कि पूंजीवादी लोकतंत्र में जनमत
गढ़ने, सहमति निर्माण करने और लोगों को नियंत्रित करने का यह औजार कहीं भोथरा न हो
जाए.
इस कारण खुले तौर पर ‘पेड न्यूज’ की खूब लानत-मलामत हुई, मीडिया संस्थानों ने
‘पेड न्यूज’ से तौबा करने की कसमें खाईं और चुनाव आयोग-प्रेस काउन्सिल जैसे
सार्वजनिक नियामकों ने उसपर सख्ती बरतने के एलान किये.
ऐसा लगा कि इन विधानसभा चुनावों में
‘पेड न्यूज’ नामक धोखाधड़ी बीते दिनों की बात ही जायेगी. लेकिन जैसे चुनावों में
कालाधन एक चुनावी सच्चाई है, वैसे ही ‘पेड न्यूज’ भी एक चुनावी सच्चाई है. खबरें
हैं कि इन चुनावों में भी मीडिया (अखबार और न्यूज चैनल) ‘पेड न्यूज’ के जरिये
दोनों हाथों से पैसा बटोरने में लगा है.
यह किसी से छुपा नहीं है कि इन चुनावों
में पैसा पानी की तरह बह रहा है और अख़बारों के साथ-साथ छोटे-बड़े सभी चैनल इसमें
डुबकी लगाने में पीछे नहीं हैं. हालांकि इस बार थोड़ी सावधानी और चतुराई के साथ यह
सब हो रहा है लेकिन अगर आप चैनलों के कवरेज और खासकर कुछ पार्टियों-नेताओं की
रैलियों/भाषणों के अत्यधिक लाइव कवरेज को बारीकी से देखें तो ‘पेड न्यूज’ का कमाल
साफ दिखने लगता है.
एक विदेशी पत्रकार ने हैरानी में ट्वीट किया कि ‘प्रियंका गाँधी क्या हैं, किस राजनीतिक या संवैधानिक पद पर हैं जिन्हें चुनाव प्रचार में इतनी कवरेज मिल रही है?’ यह सचमुच में विचारणीय है कि कांग्रेस और यू.पी.ए अध्यक्ष सोनिया गाँधी की बेटी के अलावा वे क्या हैं जिन्हें इस हद तक कवरेज के लिए उपयुक्त समझा गया?
मजे की बात यह है कि सभी पार्टियों के नेताओं में प्रचार में सबसे आगे रहने के बावजूद राहुल गाँधी एकमात्र ऐसे नेता है जो मीडिया के लिए सबसे अधिक अनुपलब्ध हैं. यह ठीक है कि मुख्यमंत्री और बसपा नेता मायावती भी मीडिया से दूरी बनाकर रहती हैं लेकिन चुनावी मैदान की सबसे महत्वपूर्ण खिलाड़ी होने के बावजूद उन्हें और उनकी पार्टी को उस तरह का सहानुभूतिपूर्ण कवरेज भी नहीं मिला है.
अगर आप राहुल गाँधी की सार्वजनिक उपस्थिति और सभाओं/रैलियों/रोड शो में उनकी बोलने की शैली, अदाएं, मैनेरिज्म और भीड़ से मिलने-जुलने के तौर-तरीकों को देखें तो उसमें स्वाभाविकता और स्वतःस्फूर्तता के बजाय एक तरह का एनीमेशन दिखेगा.
जाहिर है कि इसमें कांग्रेस के मीडिया मैनेजरों और स्पिन डाक्टरों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इसके साथ ही, यह भी सच है कि खुद मीडिया और खासकर चैनल इस छवि निर्माण में खुलकर पार्टनर हो गए हैं.
मीडिया ने वास्तविक अर्थों में मैजिक मल्टीप्लायर की तरह ‘राहुल मैजिक’ को कई गुणा बढ़ाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है. निश्चय ही, इस मायने में यह कांग्रेस की चुनाव मशीनरी के साथ-साथ मीडिया मैनेजमेंट की कामयाबी है और इसमें वह बाकी सभी दलों से काफी आगे है. आश्चर्य नहीं कि कांग्रेस के प्रचार अभियान की कमान फिल्म अभिनेता और एम.पी राज बब्बर के हाथों में है.
हैरानी की बात नहीं है कि कई पार्टियों और नेताओं ने पी.आर कंपनियों की मदद भी ली है और छवि चमकाने के लिए जमकर पैसे बहाए जा रहे हैं. इससे चैनलों की चांदी है. असल में, चैनलों के लिए मंदी के बीच चुनाव एक बड़े सहारे की तरह आया है. इसलिए कोई पीछे नहीं रहना चाहता है और सभी बहती गंगा में हाथ धोने में जुटे हैं.
लेकिन खबर है कि इस बार मीडिया में ‘पेड न्यूज’ नए रूप में चल रहा है. अखबार और चैनल इस बार उम्मीदवारों की प्रशंसा में छापने के बजाय उनकी असलियत/सच्चाई न छापने के पैसे ले रहे हैं.
माननीय विधायकों/मंत्रियों की संपत्तियों में न्यूनतम दस-पन्द्रह गुने से लेकर सौ गुने तक की वृद्धि के पीछे क्या राज है? उम्मीदवारों के अतीत और वर्तमान की स्वतंत्र खोजबीन तो बहुत दूर की बात है.
क्या दर्शकों/पाठकों को यह जानने का अधिकार नहीं है? क्या यह सिर्फ चैनलों/अख़बारों और उनके पत्रकारों की उदासीनता और आलस है यह इसके पीछे कोई निश्चित पैटर्न है? यह वाचडाग मीडिया है या पालतू पेड मीडिया?
लेकिन राजनीतिक सत्ता के साथ एम्बेडेड
मीडिया से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है?
('कथादेश' में मार्च'१२ में प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त...पहली किस्त २९ मार्च को छपी है..)