मंगलवार, दिसंबर 13, 2011

महंगाई नहीं, मुद्रास्फीति कम हुई है

महंगाई की हकीकत आंकड़ों में नहीं, आम आदमी की थाली में दिखाई देती है


पिछले ढाई-तीन सालों से यू.पी.ए सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बनी हुई खाद्य मुद्रास्फीति की दर २६ नवंबर को खत्म हुए सप्ताह में गिरकर ६.६ प्रतिशत क्या हुई, सरकार के आर्थिक मैनेजरों के चेहरों पर न सिर्फ खुशी लौट आई है बल्कि उनमें अपनी और एक-दूसरे की पीठ थपथपाने की होड़ शुरू हो गई है.

यही नहीं, एक बार फिर से बड़बोले दावों का दौर शुरू हो गया है. दावा किया जा रहा है कि अगले मार्च तक थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित खाद्य मुद्रास्फीति और आम मुद्रास्फीति की दर पूरी तरह से काबू में आ जायेगी और सात फीसदी से नीचे की आरामदेह स्थिति में होगी.

इसके साथ ही सरकार के राजनीतिक और आर्थिक मैनेजरों में महंगाई पर काबू पाने की चुनौती को लेकर एक निश्चिन्तता और खुशफहमी का भाव भी दिखाई पड़ने लगा है. हालांकि जल्दबाजी में महंगाई की आग में कई बार हाथ जला चुके ये मैनेजर खुलकर यह कह नहीं पा रहे हैं.

लेकिन उनके हालिया बयानों का निष्कर्ष यही है कि मुद्रास्फीति खासकर खाद्य मुद्रास्फीति न सिर्फ काबू में आ गई है बल्कि वह उतनी बड़ी आर्थिक समस्या नहीं रह गई है जितनी कि उसे लेकर राजनीतिक शोर मचाया जा रहा है. संसद में महंगाई पर हुई चर्चा में वित्त मंत्री के जवाब और सरकार द्वारा पेश अर्थव्यवस्था की छमाही समीक्षा में इसकी झलक देखी जा सकती है.

लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच यह है कि मुद्रास्फीति की दर भले कम हुई है लेकिन महंगाई कम नहीं हुई है. तथ्य यह है कि मुद्रास्फीति की दर और वास्तविक महंगाई के बीच बहुत बड़ा फासला है.

यही कारण है कि सरकार और उसके आर्थिक मैनेजर भले ही मुद्रास्फीति की दर में कमी और उसके ७ फीसदी से कम होने का जश्न मना रहे हों लेकिन हकीकत यह है कि आसमान छूती महंगाई की मार से आम लोगों को अभी भी कोई खास राहत नहीं मिली है.

यह ठीक है कि अच्छे मानसून के कारण सब्जियों और कुछ खाद्य वस्तुओं की कीमतों में तात्कालिक तौर पर थोड़ी नरमी आई है लेकिन उससे महंगाई की आंच पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा है.

असल में, मुद्रास्फीति की दर में हालिया गिरावट के आधार पर महंगाई में कमी का दावा इस कारण थोथा है क्योंकि मुद्रास्फीति की दर में गिरावट काफी हद तक एक ‘सांख्कीय चमत्कार’ भर है. यह पिछले वर्षों के ऊँचे आधार प्रभाव यानी बेस इफेक्ट के कारण संभव हुआ है.

चूँकि पिछले वर्ष इन्हीं महीनों और सप्ताहों में मुद्रास्फीति की वृद्धि दर ९ से १० फीसदी की असहनीय ऊँचाई पर थी, इसलिए इस वर्ष कीमतों में वृद्धि के बावजूद मुद्रास्फीति की वृद्धि दर तुलनात्मक रूप से कम दिखाई दे रही है. लेकिन सच यह है कि महंगाई कम होने के बजाय बढ़ी है और उसकी मार इसलिए और भी तीखी है क्योंकि पिछले तीन वर्षों से कीमतें लगातार ऊपर ही जा रही हैं.

अगर आप अब भी नहीं समझे तो इस ‘सांख्कीय चमत्कार’ को इस तरह से समझिए. जैसे पिछले वर्ष किसी वस्तु/उत्पाद जिसकी कीमत १०० रूपये थी और उसकी कीमत में १० रूपये की वृद्धि हुई. इस तरह पिछले वर्ष उस वस्तु की मुद्रास्फीति वृद्धि दर १० फीसदी हुई. इस वर्ष उसकी कीमत में फिर ७ रूपये की वृद्धि हुई और उसकी कीमत बढ़कर ११७ रूपये हो गई लेकिन उसकी मुद्रास्फीति की दर में सिर्फ ६.३ फीसदी की वृद्धि दर्ज होगी.

इस तरह मुद्रास्फीति की दर में पिछले वर्ष के १० फीसदी की तुलना में इस वर्ष ६.३ फीसदी की दर काफी कम दिखाई देगी लेकिन वास्तविकता यह है कि आम उपभोक्ता के लिए उस वस्तु की कीमत में कोई कमी नहीं आई है और उसे अभी भी ऊँची कीमत चुकानी पड़ रही है.

जाहिर है कि इस ‘सांख्कीय चमत्कार’ से अर्थशास्त्री और सरकार के आर्थिक मैनेजर खुश हो सकते हैं लेकिन इससे आम आदमी कैसे खुश हो सकता है? इसीलिए कहते हैं कि ‘झूठ, महाझूठ और सांख्कीय.’

अफसोस की बात यह है कि महंगाई के मामले में सरकारें इसी सांख्कीय झूठ का सहारा लेकर अपनी पीठ थपथपाती रही हैं लेकिन दूसरी ओर, आम आदमी की पीठ महंगाई के बोझ से दोहरी होती गई है. यू.पी.ए सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है. वह भी इस आधार पर अपनी पीठ ठोंकने में जुट गई है कि मार्च तक मुद्रास्फीति की दर ७ फीसदी से नीचे आ जायेगी.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि उसके इस दावे के पीछे महंगाई को कम करने की ठोस कोशिशों से ज्यादा उसी ‘सांख्कीय चमत्कार’ पर भरोसा है जिसके कारण मुद्रास्फीति की दर गिरकर फिलहाल ६.६ फीसदी हो गई है.

असल में, पिछले वर्ष आम मुद्रास्फीति की दर दिसम्बर से लेकर जनवरी तक क्रमश: ९.४५, ९.४७, ९.५७ और ९.६८ फीसदी थी. यही नहीं, वर्ष २०१० में इन्हीं महीनों में खाद्य मुद्रास्फीति की दर १६ से २० फीसदी के बीच थी और पिछले वर्ष २०११ के इन महीनों में यह दर ७ से १० फीसदी के बीच थी. इसी आधार पर आर्थिक मैनेजरों को उम्मीद है कि इस साल दिसंबर से लेकर अगले साल के जनवरी-मार्च के महीनों में मुद्रास्फीति की दर ७ फीसदी से नीचे आ जायेगी.

दूसरी बात यह है कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित खाद्य और आम मुद्रास्फीति की दर से वास्तविक महंगाई का इसलिए भी पता नहीं चलता है क्योंकि आम आदमी को खुदरा स्तर पर जो कीमत चुकानी पड़ती है, उसमें और थोक मूल्य में काफी अंतर होता है.

यही नहीं, थोक मूल्य सूचकांक में आम आदमी की बुनियादी जरूरत की अधिकांश चीजों का भारांक कम है जिसके कारण उनकी कीमतों में वृद्धि सूचकांक में उस तीखेपन के साथ नहीं दिखाई पड़ती है जो आम आदमी को झेलनी पड़ती है.

इस कारण सरकार मुद्रास्फीति में कमी के आधार पर भले महंगाई में कमी के दावे करे लेकिन साफ़ है कि महंगाई के मामले में न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम लागू नहीं होता है. सच यह है कि महंगाई के मामले में इस नियम का उल्टा लागू होता है यानी जो कीमतें ऊपर जाती हैं, वे कभी नीचे नहीं आती हैं.

मुद्रास्फीति और महंगाई के इस खेल की यही कड़वी सच्चाई है जिसमें आंकड़े चाहे जो कहें, आम आदमी का कोई पुरसाहाल नहीं है. सच्चाई यह है कि महंगाई की हकीकत आंकड़ों में नहीं, आम आदमी की थाली में दिखाई देती है.

('नया इंडिया' में १२ दिसंबर और 'जनसंदेश टाइम्स' के १३ दिसंबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

1 टिप्पणी:

योगेश कुमार 'शीतल' ने कहा…

''अगर आप अब भी नहीं समझे तो इस ‘सांख्कीय चमत्कार’ को इस तरह से समझिए. जैसे पिछले वर्ष किसी वस्तु/उत्पाद जिसकी कीमत १०० रूपये थी और उसकी कीमत में १० रूपये की वृद्धि हुई. इस तरह पिछले वर्ष उस वस्तु की मुद्रास्फीति वृद्धि दर १० फीसदी हुई. इस वर्ष उसकी कीमत में फिर ७ रूपये की वृद्धि हुई और उसकी कीमत बढ़कर ११७ रूपये हो गई लेकिन उसकी मुद्रास्फीति की दर में सिर्फ ६.३ फीसदी की वृद्धि दर्ज होगी.

इस तरह मुद्रास्फीति की दर में पिछले वर्ष के १० फीसदी की तुलना में इस वर्ष ६.३ फीसदी की दर काफी कम दिखाई देगी लेकिन वास्तविकता यह है कि आम उपभोक्ता के लिए उस वस्तु की कीमत में कोई कमी नहीं आई है और उसे अभी भी ऊँची कीमत चुकानी पड़ रही है.''
बस बस इसी तरीके से समझाते रहिये, शुक्रिया आगे भी थोडा सुलझा सुलझा कर समझिए सर ये तरीके बेजोर है, शुर्किया, शब्दों पर लिंक कर देंगे तो और भी आसानी होगी मसलन थोक मूल्य सूचकांक और खुदरा मूल्य सूचकांक की बारीकियां समझ में नहीं आ पा रही है.