मंदी का डर दिखाकर नव उदारवादी सुधारों को अनिवार्य साबित करने की कोशिश की जा रही है
भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में जी.डी.पी. की वृद्धि दर गिरकर ६.९ प्रतिशत रह गई है. यह पिछले दो वर्षों की किसी भी तिमाही की सबसे धीमी रफ़्तार है. इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर सिर्फ २.७ फीसदी रह गई है.
कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर भी घटकर ३.२ फीसदी रह गई है. दूसरी ओर, पिछले कई महीनों से आश्चर्यजनक रूप से लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहे निर्यात की वृद्धि दर में भी सुस्ती दिखाई पड़ने लगी है. अक्टूबर महीने में निर्यात की वृद्धि दर १०.८ प्रतिशत रह गई है.
यही नहीं, मुद्रास्फीति की वृद्धि दर में मामूली गिरावट के बावजूद खाद्य वस्तुओं की थोक मुद्रास्फीति दर ८ फीसदी पर बनी हुई है. इस बीच, रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति के साथ-साथ नया सिरदर्द डालर के मुकाबले रूपये की लगातार गिरती कीमत है. डालर के मुकाबले रूपया लुढकते हुए ५२ रूपये के नए रिकार्ड पर पहुँच गया है.
इसके साथ ही, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का बैरोमीटर माने-जानेवाले शेयर बाजार की हालत भी खस्ता है. विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) के भारतीय बाजारों से निकलने के कारण बाजार न सिर्फ कराह रहा है बल्कि डालर की मांग बढ़ने के कारण रूपये पर दबाव बढ़ रहा है.
जैसे इतना ही काफी न हो. रिपोर्टों के मुताबिक, सरकार की वित्तीय स्थिति भी काफी नाजुक है. राजस्व वृद्धि दर उम्मीदों से कम है जबकि खर्चों में वृद्धि की दर तेज है. इसके कारण अप्रैल से अक्टूबर के बीच सिर्फ सात महीनों में वित्तीय घाटे के लक्ष्य का ७४ फीसदी पूरा हो चुका है.
खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि इस साल वित्तीय घाटे को जी.डी.पी के ४.६ फीसदी के अनुमान के भीतर रख पाना संभव नहीं होगा. कई स्वतंत्र खासकर बाजार विश्लेषकों का मानना है कि वित्तीय घाटा जी.डी.पी के ५ से लेकर ५.५ फीसदी तक पहुँच सकता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था से आ रही इन नकारात्मक और बुरी ख़बरों से बाजार में घबड़ाहट और बेचैनी का माहौल है. बाजार से फील गुड फैक्टर गायब है और निराशा का माहौल हावी होता जा रहा है.
दूसरी ओर, देश में राजनीतिक अनिश्चितता और वैश्विक स्तर पर आर्थिक अनिश्चितता के कारण भी अर्थव्यवस्था के प्रमुख घटकों में घबड़ाहट का माहौल है. इससे स्थिति और खराब होने की आशंका बढ़ती जा रही है.
इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में बहुत कुछ ‘मार्केट सेंटिमेंट’ पर चलता है. अगर बाजार में अनिश्चितता और निराशा का माहौल है तो निजी निवेशक नया निवेश नहीं करेंगे या निवेश के फैसले को स्थगित कर देंगे जिससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने लगती है.
ऐसे माहौल में आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं. बाजार विश्लेषकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का आरोप है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के लिए यू.पी.ए सरकार जिम्मेदार है जिसकी ‘नीतिगत पक्षाघात’ की स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता का माहौल बना है.
उनका यह भी कहना है कि मौजूदा स्थिति से निकलने के लिए जरूरी है कि सरकार आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाए. गुलाबी अख़बारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों के सम्मेलनों तक में इन मुखर आवाजों को सुना जा सकता है.
मजे की बात यह है कि सरकार में बैठे अर्थव्यवस्था के मैनेजर भी काफी हद तक इन आरोपों और सुझावों से सहमत दिखते हैं.
आश्चर्य नहीं कि पिछले एक पखवाड़े में यू.पी.ए सरकार ने बाजार में फील गुड का माहौल पैदा करने के लिए न सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का फैसला किया बल्कि धड़ाधड़ कई फैसलों को एलान कर दिया. पेंशन, नई मैन्युफैक्चरिंग नीति से लेकर खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी एफ.डी.आई जैसे कई फैसले बाजार और बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए ही किये गए हैं.
यू.पी.ए सरकार इन फैसलों के जरिये बाजार खासकर विदेशी पूंजी को यह सन्देश देने की कोशिश कर रही है कि सरकार आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और उसके लिए राजनीतिक जोखिम भी उठाने को तैयार है.
हालांकि सरकार और बाजार विश्लेषक इन फैसलों के पक्ष में यह तर्क भी दे रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति के लिए एक बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का ठहर जाना है. इसके कारण देशी-विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा कमजोर हुआ है. वे नया निवेश नहीं कर रहे हैं. वे अपना पैसा निकालकर वापस जा रहे हैं.
इस तरह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के पक्ष में अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति को लेकर ऐसा डरावना माहौल बनाया जाता है जिससे इन सुधारों को जायज ठहराया जा सके. लोगों को यह कहकर डराया जाता है कि अगर आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया गया तो अर्थव्यवस्था की हालत और पतली और खस्ता होगी.
जबकि सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था की पतली होती स्थिति के लिए ये नव उदारवादी सुधार ही जिम्मेदार हैं. इनके कारण ही मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट पैदा हुआ है जिसका असर भारत पर भी पड़ रहा है. यही नहीं, अर्थव्यवस्था की कई मौजूदा समस्याओं के लिए भी यही सुधार जिम्मेदार हैं
लेकिन मजा देखिए कि उनकी चर्चा नहीं हो रही है, उल्टे इन सुधारों के कथित तौर पर ठहर जाने को अर्थव्यवस्था के सारे मर्जों की वजह साबित करने की कोशिश हो रही है. इसी आधार पर इन मर्जों के इलाज के बतौर सुधारों के नए कड़वे डोज को लोगों के गले के नीचे जबरन उतारने की कोशिश हो रही है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी? इसके आसार कम हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के नाम पर मनमोहन सिंह सरकार मर्ज का इलाज करने के बजाय टोटके कर रही है.
बाजार को खुश करने के लिए जल्दबाजी में किये गए फैसलों से स्थिति नहीं सुधरने वाली है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याएं बाजार के लिए फील गुड पैदा करने से हल नहीं होने वाली हैं.
असल में, यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार है लेकिन यह ‘नीतिगत पक्षाघात’ वह नहीं है जो नव उदारवादी बाजार विश्लेषक, गुलाबी अखबार और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन कह रहे हैं.
सच यह है कि यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ के कारण भोजन के अधिकार से लेकर कृषि और आधारभूत ढांचा क्षेत्र में सार्वजनिक बढ़ाने तक कई महत्वपूर्ण फैसले लटके हुए हैं. उदाहरण के लिए, भोजन के अधिकार को ही लीजिए, सरकार की हीलाहवाली और टालमटोल के कारण न सिर्फ करोड़ों गरीबों को भूखे पेट सोना पड़ रहा है बल्कि सरकार के अनाज भंडारों में रिकार्ड अनाज होते हुए भी एक ओर खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है.
दूसरी ओर, सरकार की खाद्य सब्सिडी बढ़ रही है. यही नहीं, गोदामों में अनाज सड़ रहा है और सरकार कोई फैसला नहीं कर पा रही है.
इसके अलावा सरकार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए भी तैयार नहीं है. माना जाता है कि जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही हो तो सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है. मौजूदा माहौल में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सिर्फ फील गुड से निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आएगा.
खासकर जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में ऐसी अनिश्चितता और संकट हो. ऐसे समय में जरूरत घरेलू अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए घरेलू मांग को बढ़ाने और उसके लिए सार्वजनिक निवेश पर जोर देने की है.
जाहिर है कि सिर्फ निजी क्षेत्र पर भरोसा करने से बात नहीं बनेगी. सरकार को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा होगा.
लेकिन इसके लिए उसे मौजूदा नीतिगत पक्षाघात और उससे अधिक नव उदारवादी अर्थनीति के प्रति मानसिक सम्मोहन से निकलना होगा. वित्तीय घाटे की चिंता को छोड़ना होगा. क्या यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार है?
('नया इंडिया' के ५ दिसंबर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का पूरा हिस्सा)
भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है. चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में जी.डी.पी. की वृद्धि दर गिरकर ६.९ प्रतिशत रह गई है. यह पिछले दो वर्षों की किसी भी तिमाही की सबसे धीमी रफ़्तार है. इसमें सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर सिर्फ २.७ फीसदी रह गई है.
कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर भी घटकर ३.२ फीसदी रह गई है. दूसरी ओर, पिछले कई महीनों से आश्चर्यजनक रूप से लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहे निर्यात की वृद्धि दर में भी सुस्ती दिखाई पड़ने लगी है. अक्टूबर महीने में निर्यात की वृद्धि दर १०.८ प्रतिशत रह गई है.
यही नहीं, मुद्रास्फीति की वृद्धि दर में मामूली गिरावट के बावजूद खाद्य वस्तुओं की थोक मुद्रास्फीति दर ८ फीसदी पर बनी हुई है. इस बीच, रिजर्व बैंक के लिए मुद्रास्फीति के साथ-साथ नया सिरदर्द डालर के मुकाबले रूपये की लगातार गिरती कीमत है. डालर के मुकाबले रूपया लुढकते हुए ५२ रूपये के नए रिकार्ड पर पहुँच गया है.
इसके साथ ही, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का बैरोमीटर माने-जानेवाले शेयर बाजार की हालत भी खस्ता है. विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफ.आई.आई) के भारतीय बाजारों से निकलने के कारण बाजार न सिर्फ कराह रहा है बल्कि डालर की मांग बढ़ने के कारण रूपये पर दबाव बढ़ रहा है.
जैसे इतना ही काफी न हो. रिपोर्टों के मुताबिक, सरकार की वित्तीय स्थिति भी काफी नाजुक है. राजस्व वृद्धि दर उम्मीदों से कम है जबकि खर्चों में वृद्धि की दर तेज है. इसके कारण अप्रैल से अक्टूबर के बीच सिर्फ सात महीनों में वित्तीय घाटे के लक्ष्य का ७४ फीसदी पूरा हो चुका है.
खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि इस साल वित्तीय घाटे को जी.डी.पी के ४.६ फीसदी के अनुमान के भीतर रख पाना संभव नहीं होगा. कई स्वतंत्र खासकर बाजार विश्लेषकों का मानना है कि वित्तीय घाटा जी.डी.पी के ५ से लेकर ५.५ फीसदी तक पहुँच सकता है.
कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था से आ रही इन नकारात्मक और बुरी ख़बरों से बाजार में घबड़ाहट और बेचैनी का माहौल है. बाजार से फील गुड फैक्टर गायब है और निराशा का माहौल हावी होता जा रहा है.
दूसरी ओर, देश में राजनीतिक अनिश्चितता और वैश्विक स्तर पर आर्थिक अनिश्चितता के कारण भी अर्थव्यवस्था के प्रमुख घटकों में घबड़ाहट का माहौल है. इससे स्थिति और खराब होने की आशंका बढ़ती जा रही है.
इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी अर्थव्यवस्था में बहुत कुछ ‘मार्केट सेंटिमेंट’ पर चलता है. अगर बाजार में अनिश्चितता और निराशा का माहौल है तो निजी निवेशक नया निवेश नहीं करेंगे या निवेश के फैसले को स्थगित कर देंगे जिससे अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने लगती है.
ऐसे माहौल में आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाते हैं. बाजार विश्लेषकों खासकर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों का आरोप है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के लिए यू.पी.ए सरकार जिम्मेदार है जिसकी ‘नीतिगत पक्षाघात’ की स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता का माहौल बना है.
उनका यह भी कहना है कि मौजूदा स्थिति से निकलने के लिए जरूरी है कि सरकार आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाए. गुलाबी अख़बारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों के सम्मेलनों तक में इन मुखर आवाजों को सुना जा सकता है.
मजे की बात यह है कि सरकार में बैठे अर्थव्यवस्था के मैनेजर भी काफी हद तक इन आरोपों और सुझावों से सहमत दिखते हैं.
आश्चर्य नहीं कि पिछले एक पखवाड़े में यू.पी.ए सरकार ने बाजार में फील गुड का माहौल पैदा करने के लिए न सिर्फ आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने का फैसला किया बल्कि धड़ाधड़ कई फैसलों को एलान कर दिया. पेंशन, नई मैन्युफैक्चरिंग नीति से लेकर खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी एफ.डी.आई जैसे कई फैसले बाजार और बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए ही किये गए हैं.
यू.पी.ए सरकार इन फैसलों के जरिये बाजार खासकर विदेशी पूंजी को यह सन्देश देने की कोशिश कर रही है कि सरकार आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने और उसके लिए राजनीतिक जोखिम भी उठाने को तैयार है.
हालांकि सरकार और बाजार विश्लेषक इन फैसलों के पक्ष में यह तर्क भी दे रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति के लिए एक बड़ा कारण आर्थिक सुधारों का ठहर जाना है. इसके कारण देशी-विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा कमजोर हुआ है. वे नया निवेश नहीं कर रहे हैं. वे अपना पैसा निकालकर वापस जा रहे हैं.
इस तरह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के पक्ष में अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति को लेकर ऐसा डरावना माहौल बनाया जाता है जिससे इन सुधारों को जायज ठहराया जा सके. लोगों को यह कहकर डराया जाता है कि अगर आर्थिक सुधारों को आगे नहीं बढ़ाया गया तो अर्थव्यवस्था की हालत और पतली और खस्ता होगी.
जबकि सच्चाई यह है कि अर्थव्यवस्था की पतली होती स्थिति के लिए ये नव उदारवादी सुधार ही जिम्मेदार हैं. इनके कारण ही मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट पैदा हुआ है जिसका असर भारत पर भी पड़ रहा है. यही नहीं, अर्थव्यवस्था की कई मौजूदा समस्याओं के लिए भी यही सुधार जिम्मेदार हैं
लेकिन मजा देखिए कि उनकी चर्चा नहीं हो रही है, उल्टे इन सुधारों के कथित तौर पर ठहर जाने को अर्थव्यवस्था के सारे मर्जों की वजह साबित करने की कोशिश हो रही है. इसी आधार पर इन मर्जों के इलाज के बतौर सुधारों के नए कड़वे डोज को लोगों के गले के नीचे जबरन उतारने की कोशिश हो रही है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी? इसके आसार कम हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था की समस्याओं के समाधान के नाम पर मनमोहन सिंह सरकार मर्ज का इलाज करने के बजाय टोटके कर रही है.
बाजार को खुश करने के लिए जल्दबाजी में किये गए फैसलों से स्थिति नहीं सुधरने वाली है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी समस्याएं बाजार के लिए फील गुड पैदा करने से हल नहीं होने वाली हैं.
असल में, यू.पी.ए सरकार ‘नीतिगत पक्षाघात’ की शिकार है लेकिन यह ‘नीतिगत पक्षाघात’ वह नहीं है जो नव उदारवादी बाजार विश्लेषक, गुलाबी अखबार और औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठन कह रहे हैं.
सच यह है कि यू.पी.ए सरकार के ‘नीतिगत पक्षाघात’ के कारण भोजन के अधिकार से लेकर कृषि और आधारभूत ढांचा क्षेत्र में सार्वजनिक बढ़ाने तक कई महत्वपूर्ण फैसले लटके हुए हैं. उदाहरण के लिए, भोजन के अधिकार को ही लीजिए, सरकार की हीलाहवाली और टालमटोल के कारण न सिर्फ करोड़ों गरीबों को भूखे पेट सोना पड़ रहा है बल्कि सरकार के अनाज भंडारों में रिकार्ड अनाज होते हुए भी एक ओर खाद्य वस्तुओं की महंगाई आसमान छू रही है.
दूसरी ओर, सरकार की खाद्य सब्सिडी बढ़ रही है. यही नहीं, गोदामों में अनाज सड़ रहा है और सरकार कोई फैसला नहीं कर पा रही है.
इसके अलावा सरकार अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए भी तैयार नहीं है. माना जाता है कि जब अर्थव्यवस्था की रफ़्तार सुस्त पड़ रही हो तो सार्वजनिक निवेश बढ़ाने से निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है. मौजूदा माहौल में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है क्योंकि सिर्फ फील गुड से निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आएगा.
खासकर जब वैश्विक अर्थव्यवस्था में ऐसी अनिश्चितता और संकट हो. ऐसे समय में जरूरत घरेलू अर्थव्यवस्था को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए घरेलू मांग को बढ़ाने और उसके लिए सार्वजनिक निवेश पर जोर देने की है.
जाहिर है कि सिर्फ निजी क्षेत्र पर भरोसा करने से बात नहीं बनेगी. सरकार को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना अच्छा होगा.
लेकिन इसके लिए उसे मौजूदा नीतिगत पक्षाघात और उससे अधिक नव उदारवादी अर्थनीति के प्रति मानसिक सम्मोहन से निकलना होगा. वित्तीय घाटे की चिंता को छोड़ना होगा. क्या यू.पी.ए सरकार इसके लिए तैयार है?
('नया इंडिया' के ५ दिसंबर'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख का पूरा हिस्सा)
4 टिप्पणियां:
सर, इन गंभीर बातों का इतने सॉफ्ट तरीके से चुटकी लेते हुए हम लोगों तक पहुँचाने की आपकी कुशलता का कायल हूँ। बधाई हो। भाग्यशाली हूँ आपका छात्र होकर कहूँ तो काफी हद तक दोस्त जैसा होकर भी।
सर, इन गंभीर बातों का इतने सॉफ्ट तरीके से चुटकी लेते हुए हम लोगों तक पहुँचाने की आपकी कुशलता का कायल हूँ। बधाई हो। भाग्यशाली हूँ आपका छात्र होकर कहूँ तो काफी हद तक दोस्त जैसा होकर भी।
आपका ब्लॉग लगातार पढने से अब कुछ कुछ समझ में आने लगा है. ''पढना पढने से आता है''. हो सके तो ब्लॉग के कुछ शब्दों को लिंक कर दिया करें ताकि पाठकों को आसानी हो. मसलन ''पेंशन फंड में एफ डी आई'' का मतलब मैं ठीक से नहीं समझ पा रहे हूं और गूगल से भी इस चीज को कैसे पूछूं ये भी समझ नहीं पा रह. काफी पशोपेश में हूं.
एक पाठक
आज संसद मे शरद यादव ने मोंटॆक सिंग आहलूवालियो को छक्का कह दिया। हालत कमोबेश एइसा दर्शाती भी है जमीन से जुड़े हुये नेता हाशिये मे नजर आ रहे है और वकीलो और आयातित अर्थशास्त्रियो के द्वारा सरकार चलाई जा रही है। प्रधानमंत्री कम और वर्ल्ड बैंक गवर्नर ज्यादा नजर आ रहे प्रधानमंत्री को कब शर्म और समझ आयेगी भगवान ही जानता है।
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