शनिवार, दिसंबर 03, 2011

खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा के बीच नूराकुश्ती हो रही है

राजनीति की कमान लोगों के हाथ में नहीं, बड़ी पूंजी के हाथ में है  




ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राजनीति पर से भी पकड़ छूटती जा रही है. इसका सबूत यह है कि राजनीति में उसकी टाइमिंग का सेंस न सिर्फ गड़बड़ा गया है बल्कि उसके फैसले उल्टे पड़ रहे हैं.

अगर ऐसा नहीं होता तो भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में उलझी और आसमान छूती महंगाई को काबू करने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार आग में घी डालने की तरह खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी विदेशी पूंजी की इजाजत देने का फैसला करने से पहले कई बार सोचती. उसके राजनीतिक नतीजों के बारे में चिंता करती.

लेकिन बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने की जल्दबाजी में उसने एक तरह से राजनीतिक आत्महत्या का रास्ता चुन लिया है. यह ठीक है कि खुदरा व्यापार को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने को लेकर यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों का जबरदस्त दबाव था.

इसके लिए बड़े देशी कारपोरेट समूहों से लेकर वालमार्ट जैसी बड़ी विदेशी कम्पनियाँ काफी दिनों से लाबीइंग कर रही थीं. यहाँ तक कि पिछले साल भारत दौरे पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी घरेलू खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का दबाव डाला था.

यह भी किसी से छुपा नहीं है कि रिलायंस, भारती, गोयनका, बिरला और टाटा जैसे कई बड़े देशी कारपोरेट समूहों ने भी खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने की पैरवी कर रहे थे. इनमें से कई ने पहले से ही खुदरा व्यापार के क्षेत्र में दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ समझौता कर रखा है.

ये सभी बेचैन थे और सरकार पर जल्दी फैसला करने का दबाव बनाए हुए थे. इनकी बेचैनी का कारण यह था कि २००९ में दोबारा सत्ता में आई यू.पी.ए सरकार से उनकी उम्मीदें बहुत बढ़ गईं थीं. बड़े कारपोरेट समूहों को उम्मीद थी कि वामपंथी दलों के दबाव से मुक्त यू.पी.ए सरकार दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाएगी.

लेकिन हुआ यह कि पिछले दो-ढाई सालों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों, सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के बीच आपसी तनातनी, कांग्रेस पार्टी और सरकार में खींचतान और अन्ना हजारे और जन लोकपाल आंदोलन जैसी नई राजनीतिक चुनौतियों ने मनमोहन सिंह सरकार को ऐसा उलझाया कि वह चाहकर भी बड़े कारपोरेट समूहों की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पाई.

जाहिर है कि इससे देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की सरकार से नाराजगी बढ़ती जा रही थी. गुलाबी अखबारों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों की बैठकों में सरकार पर ‘नीतिगत पक्षाघात’ के आरोप लगने लगे थे. यहाँ तक कि आमतौर पर सरकार की खुली आलोचना से बचनेवाले बड़े उद्योगपति जैसे टाटा, मुकेश अम्बानी, अजीम प्रेमजी, नारायणमूर्ति और सुनील मित्तल आदि हाल के महीनों में खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर करने लगे थे.

कहने का अर्थ यह कि सरकार भारी दबाव में थी. वह अपने ऊपर लग रहे ‘नीतिगत पक्षाघात’ के आरोपों से पीछा छुड़ाना चाह रही थी. इसके बावजूद सरकार ने जिस जल्दबाजी और झटके के साथ खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का फैसला किया है, उससे ऐसा लगता है कि उसे बड़े कारपोरेट समूहों की ओर से नोटिस मिल गई थी.

उसे यह भय सता रहा था कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों को नाराज करके सत्ता में टिके रहना मुश्किल होगा. हाल के महीनों में कई बड़े कारपोरेटों ने जिस तरह से भाजपा के नरेन्द्र मोदी की वाहवाही शुरू की है, उससे भी कांग्रेस में बेचैनी थी.

ऐसा लगता है कि इसी हताशा और हड़बड़ी में उसने बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए यह राजनीतिक जोखिम उठाने का फैसला कर लिया. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार का यह फैसला बड़ी पूंजी का खोया हुआ भरोसा जीतने की कोशिश है.

लेकिन बड़ी पूंजी के प्रति वफादारी निभाने के चक्कर में सरकार खासकर कांग्रेस ने राजनीतिक आत्मघात का रास्ता चुन लिया है. खासकर भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों से घिरी सरकार ने अपने लिए एक और गड्ढा खोद लिया है.

यही नहीं, उत्तर प्रदेश सहित राजनीतिक रूप से संवेदनशील कई राज्यों के विधानसभा चुनावों और संसद सत्र के ठीक पहले इस फैसले का औचित्य समझ से बाहर है.

साफ़ है कि सरकार बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. लेकिन इससे विपक्ष खासकर भाजपा को सरकार को घेरने का न सिर्फ एक और बड़ा मुद्दा मिल गया है बल्कि अपने वोट बैंक को कंसोलिडेट करने का अवसर भी हाथ आ गया है. क्या यू.पी.ए खासकर कांग्रेस को इस खतरे का अनुमान नहीं है?

सच यह है कि सरकार और कांग्रेस नेतृत्व को इस फैसले के राजनीतिक जोखिम का अंदाज़ा भले न हो लेकिन आम कांग्रेसियों की बेचैनी से जाहिर है कि उन्हें अच्छी तरह पता है कि यह राजनीतिक रूप से बहुत ज्वलनशील मुद्दा है. सिर्फ छोटे-बड़े दुकानदार ही नहीं, गरीब रेहडी-पटरी वाले भी विरोध कर रहे हैं.

इसके बावजूद सरकार ने यह फैसला किया है तो इसका एक ही अर्थ है कि राजनीति की कमान बड़ी पूंजी के हाथों में है. उसमें लोगों की इच्छाओं और आकांक्षाओं के लिए जगह नहीं रह गई है. असल में, नव उदारवादी अर्थनीति की यह सबसे बड़ी पहचान हो गई है.

मार्क्स ने ठीक कहा था कि ‘राजनीति, अर्थनीति का ही संकेंद्रित रूप है.’ आश्चर्य नहीं कि भारतीय राजनीति की मुख्यधारा की सभी पार्टियां बड़ी देशी-विदेशी पूंजी द्वारा जोर-शोर से आगे बढ़ाई गई नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और सुधारों का खुलकर समर्थन करती रही हैं.

भाजपा भी इसकी अपवाद नहीं है. सच यह है कि वह अपने को नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और सुधारों का असली चैम्पियन मानती है. आडवाणी ने बहुत पहले शिकायत की थी कि नव उदारवादी अर्थनीति मूलतः भाजपा(जनसंघ) की अर्थनीति है जिसे १९९१ में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने चुरा लिया था.

हैरानी की बात नहीं है कि भाजपा के नेतृत्व वाली एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में आर्थिक सुधारों को जोर-शोर से आगे बढ़ाया गया और स्वदेशी को हाशिए पर डाल दिया गया था. मजे की बात यह है कि आज खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोध में आसमान उठाये भाजपा तब इसकी घोषित समर्थक थी.

तथ्य यह है कि अगर २००४ के चुनावों में एन.डी.ए की हार नहीं होती तो चुनावों के तुरंत बाद वाजपेयी सरकार खुदरा व्यापार में कम से कम २६ फीसदी विदेशी पूंजी की इजाजत दे चुकी होती. भाजपा ने २००४ के चुनावों से पहले जारी विजन डाक्यूमेंट में इसका वायदा किया था.

तत्कालीन वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने कई अखबारों को दिए इंटरव्यू में भी इस वायदे के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई थी. यही नहीं, इससे पहले २००२ में एन.डी.ए सरकार के तत्कालीन वाणिज्य मंत्री मुरासोली मारन ने खुदरा व्यापार में १०० फीसदी विदेशी पूंजी का प्रस्ताव किया था जिसपर सरकार के एक जी.ओ.एम में विचार चल रहा था.

दूर क्यों जाएं, पिछले साल इस मुद्दे पर अपनी राय देते हुए भाजपा शासित गुजरात और पंजाब की राज्य सरकारों ने खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने का समर्थन किया था. यही नहीं, कई भाजपा शासित राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक और पंजाब में भारती-वालमार्ट ने कैश और कैरी स्टोर्स खोल रखे हैं.

साफ है कि भाजपा खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी की सिद्धांततः विरोधी नहीं है. हो भी नहीं सकती है. अगर आप नव उदारवादी अर्थनीति के पैरोकार हैं तो आप खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोधी नहीं हो सकते हैं क्योंकि यह फैसला इस अर्थनीति का ही तार्किक विस्तार है.

भाजपा ही क्यों, इस मुद्दे पर विरोध में बोल रहे तृणमूल, डी.एम.के और कुछ हद तक वाम पार्टियां भी अवसरवादी रुख अपनाती रही है. इनमें से अधिकतर नव उदारवादी अर्थनीति की समर्थक रही है. सच यह है कि या तो आप नव उदारवादी अर्थनीति के साथ हैं या फिर विरोधी हैं, किसी बीच की और ‘किन्तु-परन्तु’ के लिए जगह नहीं है.

इसलिए भाजपा का मौजूदा विरोध उसकी मौकापरस्ती की राजनीति का ही एक और उदाहरण है. असल में, इस विरोध के जरिये वह खुदरा व्यापार सहित अन्य मुद्दों पर सरकार के खिलाफ बन रहे जनमत को भुनाने की कोशिश कर रही है. एक मायने में विरोध का नाटक करके भाजपा यू.पी.ए सरकार के खिलाफ उठ रहे वास्तविक विरोध को हड़पने की कोशिश कर रही है.

लेकिन यह भाजपा भी जानती है कि बड़ी पूंजी के हितों को नजरंदाज करते हुए इस विरोध को बहुत आगे नहीं ले जा सकती है. आश्चर्य नहीं होगा अगर अगले कुछ दिनों में खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के मुद्दे पर कांग्रेस और भाजपा बीच का रास्ता निकाल लें, जिससे भाजपा और कांग्रेस दोनों ‘देशहित’ में राजनीतिक जीत का दावा कर सकें.

लेकिन सब जानते हैं कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण दौर में ‘देशहित’ का असली मतलब बड़ी देशी-विदेशी पूंजी का हित हो गया है. इसलिए खुदरा व्यापार के मुद्दे पर भी इस नूराकुश्ती में जीत अंततः राजनीति की नहीं, बड़ी पूंजी की ही होगी.

('राष्ट्रीय सहारा' के ३ दिसम्बर'११ अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित लेख का पूरा संस्करण)

3 टिप्‍पणियां:

S.N SHUKLA ने कहा…

सार्थक और सामयिक प्रस्तुति,आभार.

आग़ाज़.....नयी कलम से... ने कहा…

thanks for this post sir.. hume fdi samjh nhi aata .. but aapke is lekh se bhut kuch samjh aaya....

आग़ाज़.....नयी कलम से... ने कहा…

thanks for this post sir...hume Fdi samajh nhi aata.. par is post mein sab kuch samjh aaya....