मंगलवार, सितंबर 06, 2011

चैनलों पर ‘अगस्त क्रांति’


संतुलन चैनलों की डिक्शनरी में नहीं है  



ऐसा लग रहा था, जैसे देश दिल्ली के रामलीला मैदान में सिमट गया हो. यह न्यूज चैनलों पर अन्ना हजारे की ‘अगस्त क्रांति’ की नान स्टाप 24x7 लाइव कवरेज थी. बिना किसी अपवाद के सभी चैनलों पर सिर्फ अन्ना और अन्ना छाए हुए थे. बेशक, चैनलों ने अगस्त का दूसरा पखवाड़ा अन्ना हजारे और उनके जन लोकपाल आंदोलन को समर्पित कर दिया था.

चैनलों का स्टूडियो न्यूज से निकलकर रामलीला मैदान पहुँच गया था, एंकर और रिपोर्टर्स धूप-उमस-बारिश और शोर के बीच पल-पल की खबर और अक्सर भीड़ के शोर से मुकाबला करते नजर आए और हर शाम प्राइम टाइम चर्चाओं में भावनाएं, भावनाओं से टकराती दिखीं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पूरे समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनलों पर जन लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के अनिश्चितकालीन अनशन को जिस तरह का सकारात्मक, सहानुभूतिपूर्ण और व्यापक कवरेज मिला, उसने न सिर्फ इस आंदोलन के पक्ष में देशव्यापी माहौल बना बल्कि उसने कांग्रेस और मनमोहन सिंह सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया.

कुछ इस आंदोलन और कुछ इसके कवरेज ने सभी राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं को खलनायक की तरह खड़ा कर दिया. इस हद तक कि संसद में हुई बहस में शरद यादव पूछने लगे कि इस ‘डिब्बे’ का क्या करें? उनके कहने का मतलब यह था कि अन्ना हजारे से तो निपटा जा सकता है लेकिन इन चैनलों से कैसे निपटें?

यह शिकायत करनेवाले शरद यादव अकेले नहीं हैं. सरकार, राजनीतिक दलों, सिविल सोसायटी के कुछ समूहों से लेकर वाम-धर्मनिरपेक्ष-दलित और अल्पसंख्यक बुद्धिजीवियों और कई मीडिया आलोचकों ने इस कवरेज की आलोचना की है. चैनलों पर अन्ना आंदोलन की ‘एकतरफा, अत्यधिक, असंतुलित, पक्षपातपूर्ण’ कवरेज और इसमें चैनलों और उनके पत्रकारों के ‘सीधे भागीदार, भोंपू और चीयरलीडर’ बन जाने के आरोप लगे हैं.

यह भी कि यह आंदोलन टी.आर.पी के लिए रचा गया ‘रियलिटी शो’ या कुछ के मुताबिक, ‘कारपोरेट मीडिया द्वारा प्रायोजित और निर्देशित षड्यंत्र’ था. यहाँ तक कहा गया कि अगर अन्ना हजारे को चैनलों पर 24x7 और एकतरफा कवरेज नहीं मिली होती तो यह आंदोलन न खड़ा होता और न ही इतनी दूर चल पाता.

इन आलोचनाओं में आंशिक सच्चाई है. यह सच है कि इस आंदोलन को चैनलों पर अत्यधिक और असंतुलित कवरेज मिला है. लेकिन यह शिकायत करनेवाले भूल जाते हैं कि यह चैनलों का स्वभाव बन चुका है. वे तथ्यों से कम और भावनाओं से अधिक चलते हैं. संतुलन शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं है.

बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. पिछले दिनों राहुल गाँधी की भट्टा-पारसौल पदयात्रा को तीन-चार दिनों तक ऐसी ही एकतरफा कवरेज मिली थी. हालांकि उनकी अलीगढ़ किसान रैली में रामलीला मैदान की तुलना में एक चौथाई लोग भी नहीं आए थे.

ऐसे और उदाहरणों की कमी नहीं है. अधिकांश मौकों पर चैनलों की इस प्रवृत्ति का इस्तेमाल सरकार, नेताओं, बड़ी पार्टियों और कारपोरेट ने किया है. पहली बार एक जनांदोलन और उसके नेताओं ने मीडिया सफलता के साथ ऐसा इस्तेमाल किया है. अन्ना टीम ने आंदोलन की रणनीति बनाते हुए मीडिया के इस्तेमाल को केन्द्र में रखा. दूसरी बात यह है कि अगर चैनलों का कवरेज अतिरेकपूर्ण था तो यह कहना दूसरा अतिरेक है कि अगर चैनलों का खुला समर्थन न होता तो यह आंदोलन खड़ा नहीं हो पाता या इतने बड़े पैमाने पर फ़ैल नहीं पाता.

ऐसा माननेवाले मीडिया खासकर चैनलों के प्रभाव और शक्ति को कुछ ज्यादा ही आंक रहे हैं. अगर इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए कि मीडिया अकेले इतना बड़ा और व्यापक आंदोलन खड़ा कर सकता है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि चैनल देश के भाग्य विधाता बन गए हैं.

यह सही है कि कई चैनलों खासकर टाइम्स नाउ के अर्नब गोस्वामी को यह मुगालता है कि वे ही देश चला रहे हैं लेकिन इससे बड़ा भ्रम कुछ और नहीं हो सकता है. यह भ्रम खुद इस देश की जनता ने कई बार तोड़ा है. याद कीजिये, ‘इंडिया शाइनिंग’ का मीडिया कैम्पेन जो मुंह के बल गिरा था. माफ़ कीजिये, मीडिया और न्यूज चैनल आंदोलन खड़ा नहीं कर सकते हैं. किसी आंदोलन के पीछे कई राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक कारक और परिस्थितियां होती हैं.

अलबत्ता वे किसी आंदोलन को समर्थन और कवरेज देकर एक प्रतिध्वनि प्रभाव (इको इफेक्ट) जरूर पैदा कर सकते हैं. यह हुआ भी. चैनलों ने रामलीला मैदान की आवाजों को देश के करोड़ों घरों में गुंजाने में मदद की. इससे आंदोलन और उसके मुद्दों को राष्ट्रीय एजेंडे पर लाने और सरकार पर दबाव बढ़ाने में मदद मिली.

चैनल एक हद तक ‘मैजिक मल्टीप्लायर’ की भूमिका अदा कर सकते हैं यानी किसी मुद्दे/आंदोलन के प्रभाव को कई गुना बढ़ा सकते हैं लेकिन उसके लिए भी अनुकूल परिस्थितियां होनी चाहिए. यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए अनुकूल राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां मौजूद थीं.

भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है, सरकार और लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों की साख पाताल में पहुँच चुकी है और लोगों में एक बेचैनी, गुस्सा और हताशा थी जो अन्ना हजारे के जरिये फूट पड़ी.

सच पूछिए तो लोगों की इस बेचैनी और गुस्से को आवाज़ देना चैनलों की मजबूरी थी. वे इसे चाहकर भी अनदेखा नहीं कर सकते थे. यह एक अच्छा बिजनेस सेन्स और रणनीति भी थी. असल में, इस आंदोलन में चैनलों के मध्यवर्गीय दर्शक भी बड़े पैमाने पर शामिल थे या उनकी खुली सहानुभूति थी. दूसरे, चैनलों के गेट-कीपरों में भी मध्यवर्ग का बहुमत है. नतीजा, वे पहले भी पब्लिक मूड के साथ बहते रहे हैं और एक बार फिर बहते नजर आए.

तीसरी बात यह है कि यह २०११ का आंदोलन था जब इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि देश में १५० से ज्यादा छोटे-बड़े डिब्बे मतलब न्यूज चैनल और लाखों सदस्यों वाले सोशल नेटवर्किंग साइट्स हैं. याद रखिये जब कमिश्नर के कुत्ते के गायब होने और अमिताभ बच्चन को सर्दी लगने की ‘खबर’ ब्रेकिंग न्यूज बन सकती है तो राजधानी और देश के और शहरों में हजारों लोगों के सड़कों पर उतर आने की खबर कैसे छुप सकती थी?

इसके साथ यह भी सच है कि मीडिया के इस्तेमाल के खेल में अन्ना की टीम ने सरकार को लगातार दूसरी बार मात दे दी है. लेकिन खेल अभी खत्म नहीं हुआ है. यह सिर्फ ब्रेक है. ब्रेक के बाद एक बार फिर खेल जल्दी ही शुरू होगा. देखते रहिए.


(आत्म-स्वीकृति : मैं खुद भी आंदोलन के समर्थन में हूँ.)

('तहलका' के १५ सितम्बर के अंक में प्रकाशित)

2 टिप्‍पणियां:

स्वर्ण सुमन ने कहा…

लेख के लिए धन्यवाद सर. आपने प्रभावशाली ढंग से हमें यह बताया कि आखिर मीडिया ने अन्ना हजारे आंदोलन का एकतरफा समर्थन क्यों किया? लेकिन एक बात तो माननी पड़ेगी चाहे चैनलों का मकसद जो भी हो लेकिन एक सही रास्ते के लिए मीडिया का समर्थन भी जरुरी था. जो मीडिया ने किया.

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

सच कह रहे हैं आप. मीडिया को मिर्गी सी चढ़ जाती है मुद्दे को लेकर... अपने कमेन्ट बाक्स में वार्ड वेरिफिकेशन हटा दीजिये.. सेटिंग्स में जाके होगा... इस से कमेन्ट करने में आसानी होती है..