मंगलवार, मार्च 01, 2011

वित्तीय कठमुल्लावाद से प्रेरित है यह बजट


प्रणब मुखर्जी एक और मौका चूक गए


मौका गंवाना कोई यू.पी.ए सरकार से सीखे. इस बार का सालाना बजट एक बेहतरीन मौका था जब मनमोहन सिंह सरकार अपनी प्राथमिकताओं के बारे में देश को साफ सन्देश दे सकती थी. यह मौका था जब वह आम आदमी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का सबूत देते हुए अर्थव्यवस्था के हित में कुछ साहसिक फैसले कर सकती थी.

लेकिन इसके बजाय यह बजट पिछली बार की तरह ही वित्तीय कठमुल्लावाद से प्रेरित है. नतीजा यह कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने पिछले साल की तरह ही एक रूटीन बजट पेश किया है जिसमें दिखावे के लिए कृषि-किसान, सामाजिक क्षेत्र और आम आदमी की बात करते हुए भी सबसे अधिक जोर राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर दिया गया है.

आश्चर्य नहीं कि अगले बजट में वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे का अनुमान जी.डी.पी का ४.६ प्रतिशत रहने का अनुमान पेश किया है. इसके लिए उन्होंने सरकारी खर्चों में न सिर्फ मामूली बढोत्तरी की है बल्कि कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बजट प्रावधानों में कटौती कर दी है. उदाहरण के लिए, ग्रामीण विकास पर केन्द्रीय योजना में चालू वित्तीय वर्ष की तुलना में अगले वित्तीय वर्ष में लगभग १५० करोड़ रूपये की कटौती करते हुए ५५२८८ करोड़ रूपये खर्च करने का प्रावधान किया है.

इसी तरह, कृषि क्षेत्र की केन्द्रीय योजना में भी चालू वर्ष की तुलना में अगले वर्ष के बजट में बहुत मामूली लगभग ३८२ करोड़ रूपये की वृद्धि के साथ १४७४४ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. यह चालू वर्ष की तुलना में सिर्फ २.६ प्रतिशत की वृद्धि है. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह वृद्धि वास्तव में नकारात्मक है.

हैरानी की बात यह है कि यह उस सरकार का बजट है जो पिछले कई वर्षों कृषि क्षेत्र में दूसरी हरित क्रांति की बातें कर रही है. लेकिन अगर यह कृषि क्षेत्र को ‘नई डील’ है तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस डील से क्या निकलनेवाला है? इसी तरह, यू.पी.ए सरकार समावेशी विकास के बहुत दावे करती रहती है. लेकिन समावेशी विकास के लिए सामाजिक क्षेत्र पर खर्च करना बहुत जरूरी है.

इस बजट में भी वित्त मंत्री ने बहुत उत्साह के साथ बताया कि सामाजिक क्षेत्र पर १,६०,८८७ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. लेकिन सच यह है कि यह जी.डी.पी का सिर्फ २.१ प्रतिशत है. कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक क्षेत्र पर जी.डी.पी का सिर्फ २ फीसदी खर्च करके किस तरह का समावेशी विकास होगा.

साफ है कि वित्त मंत्री को राजकोषीय घाटे की चिंता सबसे ज्यादा थी. निश्चय ही, इससे विश्व बैंक-मुद्रा कोष और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को सबसे ज्यादा खुशी होगी. उनकी तरफ से यू.पी.ए सरकार पर सबसे अधिक दबाव भी यही था कि सरकार राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर सबसे अधिक जोर दे.

यह एक तरह का वित्तीय कठमुल्लावाद है जो मानता है कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सीमित होनी चाहिए. इसके लिए वह सरकारी खर्चों में कटौती पर जोर देता है. उसका मानना है कि अगर सरकार का राजकोषीय घाटा अधिक होगा तो वह बाजार से कर्ज उगाहने उतारेगी और प्रतिस्पर्द्धा में निजी क्षेत्र को बाहर कर देगी. इससे ब्याज दरों पर भी दबाव बढ़ेगा.

लेकिन यह नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी है जिसकी असलियत हालिया वैश्विक मंदी के दौरान खुलकर सामने आ चुकी है. इसके बावजूद भारत में अर्थव्यवस्था के मैनेजर अभी भी इस सैद्धांतिकी से चिपके हुए हैं. कहते हैं कि आदतें बहुत मुश्किल से छूटती हैं. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों पर भी यह बात लागू होती है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि राजकोषीय घाटे को काबू में करने के आब्शेसन के कारण वित्त मंत्री ने राजनीतिक और आर्थिक रूप से अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा देने और प्राथमिकताओं में बदलाव का एक बड़ा मौका गंवा दिया है. अगर वह चाहते तो अर्थव्यवस्था की मौजूदा बेहतर स्थिति का लाभ उठाकर अधिक से अधिक संसाधन जुटाते और उसे कृषि और सामाजिक क्षेत्र पर खर्च करके एक नई शुरुआत कर सकते थे.

असल में, मुद्दा यह है कि अर्थव्यवस्था की तेज विकास दर का फायदा आम आदमी को नहीं मिल रहा है. तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था से रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं आ रहा है.

किसी भी विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय घाटा आम बात है. राजकोषीय घाटा अपने आप में कोई बुराई नहीं है. अगर सरकार संसाधनों को सही जगह पर और सही तरीके से खर्च करे तो राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था को ज्यादा गति देता है और लोगों को उसका लाभ भी पहुंचा पाता है. ऐसा नहीं है कि वित्त मंत्री यह नहीं जानते हैं. उन्हें राजकोषीय घाटे के लाभों का पता है.

लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि उन्हें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करना है क्योंकि अर्थव्यवस्था की ड्राइविंग सीट उनके हाथों में चली गई है. पिछले दो दशकों में हर वित्त मंत्री की यह एक आर्थिक मजबूरी बन गई है. जाहिर है कि प्रणब मुखर्जी भी इसके अपवाद नहीं हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' में १ मार्च'११ को बजट पर प्रथम पृष्ठ पर छपी त्वरित टिप्पणी : http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9)

2 टिप्‍पणियां:

Pravin chandra roy ने कहा…

आपकी बातो में दम है | मेरा ये कहना बुरा नहीं होगा की इस केंद्र सरकार में एक के बाद एक नौटंकी हो रही है . CWG ,2G , ...........और अब आम बजट - फेहरिस्त लम्बी है, इन नौटंकीयों के बाबत मनमोहन जी को भारत का प्रधानमंत्री कहते ही मुह खट्टा हो जाता है |

Pravin chandra roy ने कहा…

आपकी बातो में दम है | मेरा ये कहना बुरा नहीं होगा की इस केंद्र सरकार में एक के बाद एक नौटंकी हो रही है . CWG ,2G , ...........और अब आम बजट - फेहरिस्त लम्बी है, इन नौटंकीयों के बाबत मनमोहन जी को भारत का प्रधानमंत्री कहते ही मुह खट्टा हो जाता है |