शुक्रवार, मार्च 04, 2011

चैनलों के भूगोल में देश से बाहर दुनिया नहीं है

भूमंडलीकृत होते देश में स्थानीयकृत होते न्यूज चैनलों की दुनिया 


पहली किस्त  



पिछले दिनों दुनिया भर के समाचार मीडिया में समूचे अरब जगत खासकर मिस्र में तानाशाही के खिलाफ जनतंत्र की बहाली के लिए लाखों लोगों के सड़क पर उतरने की खबरें सुर्ख़ियों में छाई रहीं. पूरी दुनिया ने देखा कि कोई अठारह दिनों तक मिस्र की राजधानी काहिरा में लाखों लोग तब तक डटे रहे, जब तक ३० वर्षों से आतंक और दमन के जरिये राज कर रहे राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने इस्तीफा नहीं दे दिया.

इससे पहले, मिस्र के पड़ोसी देश ट्यूनीशिया में भी ऐसे ही जन विद्रोह के कारण तानाशाह राष्ट्रपति बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा. इन दोनों घटनाओं के बाद अरब जगत के अन्य देशों में भी तानाशाहियों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है और परिवर्तन का दबाव बढ़ता जा रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि अरब जगत में दशकों से जमी तानाशाहियों के खिलाफ खुले जन विद्रोह और उससे उठी परिवर्तन की यह लहर हाल के वर्षों की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण राजनीतिक परिघटनाओं में से एक है. इस राजनीतिक उथलपुथल का न सिर्फ इस इलाके की राजनीति पर गहरा असर पड़ा है बल्कि इससे वैश्विक राजनीति भी जरूर प्रभावित होगी.

यही नहीं, इस आंधी से भारत समेत दक्षिण एशिया भी अछूते नहीं रहनेवाले हैं. स्वाभाविक तौर पर अरब जगत और खासकर मिस्र की घटनाओं और हलचलों में दुनिया के साथ-साथ भारत के लोगों की भी गहरी दिलचस्पी है.

इसके कारण स्पष्ट हैं. अरब जगत और खासकर मिस्र के साथ भारत के गहरे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं. इसके अलावा, अरब जगत में होनेवाले इन राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों का भारत समेत इस पूरे इलाके की मुस्लिम राजनीति और समाज पर असर पड़ना भी तय है.

ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर आम भारतीयों में भी यह जानने की उत्सुकता है कि अरब जगत में क्या, कहां, कब, कैसे और सबसे बढ़कर क्यों हो रहा है? मिस्र की इस उथलपुथल के पीछे कौन लोग हैं, उनकी सोच क्या है और वे क्या चाहते हैं? आम पाठक और दर्शक इन घटनाओं के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मायने समझना चाहते हैं? वे यह भी समझना चाहते हैं कि इन घटनाओं का भारत पर क्या असर पड़ेगा?

जाहिर है कि इस सबके बारे में लोग अपने समाचार माध्यमों खासकर भारतीय अख़बारों और चैनलों से जानना चाहते हैं. यह स्वाभाविक अपेक्षा है. यह अपेक्षा इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि भारतीय समाचार मीडिया भारत को न सिर्फ एक उभरती हुई महाशक्ति मानता है बल्कि वैश्विक नेतृत्व की भी आकांक्षा रखता है.

ऐसी महत्वाकांक्षा रखनेवाले देश के समाचार मीडिया में दुनिया की बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाओं की व्यापक कवरेज के साथ अंतर्राष्ट्रीय खबरों में ज्यादा से ज्यादा दिलचस्पी की उम्मीद रखना गलत नहीं है. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि दुनिया भर की घटनाओं और राजनीतिक-आर्थिक हलचलों के बारे में हर देश खासकर बड़े और प्रभुत्वशाली देशों के मीडिया का अपना नजरिया और पूर्वग्रह हैं. उनपर पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है.

यही नहीं, आस-पड़ोस की घटनाओं का सीधा असर देश पर भी पड़ रहा है. चाहे वह पाकिस्तान हो या अफगानिस्तान या चीन या नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश या फिर ईरान और पश्चिम एशिया के अन्य देश हों, इन देशों में होनेवाली घटनाएं भारत की राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और आम जन जीवन को सीधे प्रभावित करती हैं.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि जब एक ओर भारतीय अर्थव्यवस्था अधिक से अधिक भूमंडलीकृत हो रही है, मध्य और उच्च मध्यवर्ग बेहतर अवसरों की तलाश में अधिक से अधिक विदेशों की ओर रुख कर रहा है और इस कारण लोगों में देश से बाहर क्या हो रहा है, यह जानने की भूख बढ़ती जा रही है, उस समय भारतीय समाचार मीडिया बहिर्मुखी होने के बजाय अंतर्मुखी होता जा रहा है. अंतर्वस्तु के मामले में वह वैश्वीकृत होने के बजाय अधिक से अधिक स्थानीकृत होता जा रहा है.

इस सन्दर्भ में सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि भारत में भूमंडलीकरण और उदारीकरण की असली मीडिया संतान – २४ घंटे के टी.वी समाचार चैनलों खासकर हिंदी समाचार चैनलों में आम तौर पर अंतर्राष्ट्रीय खबरें न के बराबर होती हैं. विदेशों की खबरों में उनकी दिलचस्पी सिर्फ पाकिस्तान और उसके बाद अमेरिका तक सीमित है. हिंदी समाचार चैनलों में अंतर्राष्ट्रीय खबरों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता को देखकर ऐसा लगता है कि उनके लिए भारत से बाहर दुनिया नहीं है.

इन चैनलों के लिए विदेश का मतलब आमतौर पर पाकिस्तान और अमेरिका है. यह और बात है कि पाकिस्तान की कवरेज भी बहुत एकांगी, भ्रामक और युद्धोन्माद से भरपूर है. यही नहीं, वैश्विक महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहे भारतीय टी.वी चैनलों को देखकर नहीं लगता कि अमेरिका और पाकिस्तान के अलावा भी दुनिया में कोई पौने दो सौ देश हैं.

ऐसे में, अफ्रीका, लातिन अमेरिका, पश्चिम और पूर्व एशिया के कवरेज की तो बात ही दूर है, इन चैनलों में दक्षिण एशियाई और अन्य पड़ोसी देशों की भी बहुत सीमित, सतही और एकांगी कवरेज होती है. हैरानी की बात नहीं है कि समाचार चैनलों खासकर हिंदी चैनलों में मिस्र के जन विद्रोह की कवरेज भी अपेक्षा से कहीं कम और गुणात्मक रूप से बहुत कमजोर थी.

एक तो अरब जगत खासकर ट्यूनीशिया से शुरू हुई परिवर्तन की इस लहर और मिस्र के जन उभार के प्रति चैनलों का रूख आम तौर पर ठंडा और उदासीनता भरा था. ऐसा लगता है कि शुरू में उन्होंने न सिर्फ इस उभार का महत्व समझने में देर की बल्कि जब समझा भी तो उसमें अक्ल से ज्यादा नक़ल हावी थी. नतीजा, उनकी कवरेज में सतही घटनाओं पर ज्यादा जोर था और उसके लिए जिम्मेदार प्रक्रियाओं की छानबीन सिरे से गायब थी.

जारी....
 
('कथादेश' के मार्च'११ अंक में प्रकाशित)

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