लोग दुनिया के बारे में देखना-जानना चाहते हैं लेकिन चैनलों को इसमें मुनाफा नहीं दिखता है
तीसरी किस्त
कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए बुनियादी रूप से चैनलों के स्वामित्व का ढाँचा और उनका कारोबारी माडल जिम्मेदार है. उदारीकरण और भूमंडलीकरण के गर्भ से निकले अधिकांश निजी चैनल शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियां हैं जिनमें बड़ी देशी और विदेशी (मुख्यतः अमेरिकी) पूंजी लगी हुई है. इन कंपनियों का मुनाफा विज्ञापन से आता है और अधिकांश विज्ञापनदाता कंपनियों के हित कहीं न कहीं से अमेरिकी पूंजी और कंपनियों से जुड़े हैं.
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि भारतीय शासक वर्गों ने राजनीतिक-आर्थिक और रणनीतिक तौर पर ‘राष्ट्रीय हितों’ को अमेरिका के साथ नत्थी कर दिया है. स्वाभाविक तौर पर कारपोरेट मीडिया इस गठजोड़ का प्रवक्ता है और यह उसके कवरेज और विश्लेषण में भी दिखाई पड़ता है.
लेकिन आज के भारतीय समाचार मीडिया और उसकी अमेरिका परस्ती को देखकर कौन कह सकता है कि कोई चार दशक पहले सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और सूचनाओं के एकतरफा प्रवाह के खिलाफ नई अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था की मांग करनेवाले तीसरी दुनिया के देशों में भारत अगली कतार में खड़ा था? सत्तर के दशक में बहुराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों की भूमिका और उनकी रिपोर्टिंग में तीसरी दुनिया के देशों की तोडमरोड कर पेश की गई छवियों के खिलाफ न सिर्फ पूरी दुनिया में विरोध की तीखी आवाजें उठीं थीं बल्कि तीसरी दुनिया के देशों ने मिलजुलकर तय किया था कि वे एक-दूसरे देश की कवरेज के लिए अपनी राष्ट्रीय समाचार एजेंसियों के बीच सहयोग को बढ़ावा देंगे.
इसके पीछे उद्देश्य यह था कि तीसरी दुनिया के देशों की स्वतंत्र और पूर्वाग्रह मुक्त कवरेज सुनिश्चित हो. लेकिन उस लक्ष्य को कब का भुला दिया गया. इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की खबरों के लिए हम बहुराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और सी.एन.एन. और बी.बी.सी जैसे अमेरिकी-ब्रिटिश चैनलों के भरोसे हैं.
दूसरी बात यह है कि अधिकांश चैनल समाचार-शिक्षा-नागरिक-जनतंत्र माडल के बजाय मूलतः पूंजीवाद-समाचार-मनोरंजन-विज्ञापन माडल पर खड़े हैं. नतीजा, अंतर्राष्ट्रीय खबरों में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं है. जो थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है, वह अमेरिका और हालीवुड स्टारों तक सीमित है. ये और ऐसी ही बहुतेरी पी.आर खबरें उन्हें बड़ी आसानी से बहुराष्ट्रीय एजेंसियों से मिल जाती है.
लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर अंतर्राष्ट्रीय खबरों की स्वतंत्र कवरेज में उनकी बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है. चैनलों की अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं की स्वतंत्र कवरेज में दिलचस्पी न होने की एक बड़ी वजह यह भी है कि उन्हें यह न सिर्फ बहुत खर्चीला लगता है बल्कि निरर्थक खर्च लगता है. उनकी समझ यह है कि विदेशों की खबरें टी.आर.पी नहीं देतीं, इसलिए बाहर विदेशों में संवाददाता रखने का कोई फायदा नहीं है.
लेकिन यह एक अतार्किक और गलत समझ है. यह सही है कि चैनलों पर जिस तरह से चलताऊ और हल्के तरीके से बहुराष्ट्रीय एजेंसियों की फीड पर आधारित खबरें दिखाई जाती हैं, उनमें दर्शकों की कोई रूचि नहीं है. लेकिन इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलना बिल्कुल गलत है कि दर्शक अंतर्राष्ट्रीय खबरें नहीं देखना चाहते हैं और उनकी इन खबरों में दिलचस्पी नहीं होती है.
आखिर बी.बी.सी रेडियो के उन करोड़ों श्रोताओं के बारे में क्या कहेंगे जो शहरों से अधिक सुदूर गांवों में भारत के साथ-साथ दुनिया भर की खबरें बड़ी दिलचस्पी से सुनते रहे हैं. यह मानने का कोई कारण नहीं है कि अगर चैनल दुनिया की महत्वपूर्ण खबरें अपने संवाददाताओं के जरिये और स्वतंत्र तरीके से दिखाएं तो उसे दर्शक नहीं मिलेंगे.
लेकिन अगर कोई खबर चाहे वह देश की हो या विदेश की, उसे चलताऊ और छिछले तरीके से पेश किया जायेगा तो उसे दर्शक क्यों देखेंगे? असल में, भारतीय चैनलों खासकर हिंदी चैनलों में अंतर्राष्ट्रीय खबरों के प्रति उदासीनता कई रूपों में सामने आती है. अधिकांश चैनलों में अंतर्राष्ट्रीय खबरें के प्रति गहरी अरुचि का नतीजा यह है कि उनके यहां अलग से कोई विदेश डेस्क नहीं है. जहां है वहां भी सबसे महत्वहीन डेस्क है.
यह उदासीनता यहां तक पहुंच गई है कि कई चैनलों में विदेश मंत्रालय को नियमित तौर पर कवर करने के लिए अलग संवाददाता तक नहीं हैं. ऐसे में, यह उम्मीद करना बेकार है कि चैनल विदेशों में अपने संवाददाता नियुक्त करेंगे. इसलिए यह तथ्य हैरान नहीं करता है कि किसी भी भारतीय चैनल ने दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में अपने संवाददाता नहीं नियुक्त किए हैं.
अलबत्ता, इससे बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले चैनलों की दयनीयता जरूर उजागर होती है. लेकिन इस कारण अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और हलचलों की उनकी कवरेज भी उतनी ही दयनीय दिखती है. कहने की जरूरत नहीं है कि जब आपके पास अरब जगत को कवर करने के लिए उन देशों में स्वतंत्र संवाददाता नहीं होंगे तो उस कमी की भरपाई ए.पी और रायटर्स जैसी बहुराष्ट्रीय एजेंसियों की फीड या मिस्र जैसे हालात में बीच में संवाददाता भेजकर नहीं पूरी की जा सकती है.
आखिर मिस्र जैसे हालात में अचानक एक संवाददाता को भेज दिया जाए जिसके पास न तो स्थानीय संपर्क हैं, न उस देश के इतिहास-भूगोल-राजनीति और अर्थनीति का गहरा ज्ञान है तो उससे आप और क्या अपेक्षा कर सकते हैं?
आश्चर्य नहीं कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ की तर्ज पर अधिकांश चैनलों के मिस्र गए संवाददाता वहां से हड़बड़ी और बीच में ही लौट आए जबकि तहरीर चौक पर लाखों लोग मौजूद थे और वे बिना मुबारक की विदाई के लिए लौटने के लिए तैयार नहीं थे. मजे की बात यह है कि जब अठारह दिनों बाद आख़िरकार मुबारक ने इस्तीफा देने का ऐलान किया तो वहां किसी भारतीय चैनल का संवाददाता मौजूद नहीं था.
क्या वे चैनल अठारह दिनों तक भी इंतज़ार नहीं कर सकते थे? साफ है कि जो चैनल अठारह दिन इंतज़ार नहीं कर सकते, उनसे यह अपेक्षा करना बेकार है कि वे उन देशों की स्वतंत्र कवरेज के लिए वहां अपने संवाददाता नियुक्त करेंगे.
कहने की जरूरत नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय खबरों के लिए विदेशी चैनलों पर निर्भर रहना भारतीय दर्शकों की मजबूरी है. ऐसे में, यह अपेक्षा करना एक आकाशकुसुम की उम्मीद करना है कि भारत का भी कोई अपना अल जजीरा होगा. अभी तो हिंदी के दर्शकों को इंडिया टी.वी नुमा चैनलों से ही काम चलाना होगा.
('कथादेश' के मार्च'११ अंक में प्रकाशित लेख की आखिरी किस्त)
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