बुधवार, मार्च 09, 2011

'जब वी मेट' उर्फ मिलना संपादकों का प्रधानमंत्री से !

दूर खड़ी नीरा राडिया मुस्कुरा रही है...  




घोटालों और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी यू.पी.ए सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह ने आखिरकार पिछले महीने अपनी लंबी चुप्पी तोड़ने का फैसला किया. वैसे एक सक्रिय और गतिशील लोकतंत्र में सरकार की जवाबदेही के नाते प्रधानमंत्री की चुप्पी हैरान करनेवाली थी.

निश्चय ही, उन्हें और उनके सलाहकारों को अहसास होने लगा था कि उनकी चुप्पी और सवालों से बचने की कोशिश उनकी छवि धूमिल कर रही है. नतीजा, घोटालों और भ्रष्टाचार पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने और एक तरह से सफाई देने के लिए प्रधानमंत्री ने टी.वी समाचार चैनलों के मंच को चुना और कोई एक दर्जन से अधिक संपादकों को मिलने के लिए बुलाया.

हालांकि यह एक संवाददाता सम्मेलन की तर्ज का आयोजन था लेकिन असल में, संवाददाता सम्मेलन नहीं था क्योंकि इसमें चैनलों के रिपोर्टर नहीं बल्कि चुने हुए संपादक बुलाए गए थे. यह असल संवाददाता सम्मेलन इसलिए भी नहीं था क्योंकि एक खुले प्रेस कांफ्रेंस की सरगर्मी के उलट यहां सवाल-जवाब की पूरी प्रक्रिया बहुत सैनिटाइज्ड, मैनेज्ड और मशीनी थी.

सभी संपादकों को प्रधानमंत्री से बारी-बारी से सवाल पूछने का मौका दिया गया. सभी संपादक अपनी पसंद, मर्जी और कुछ अपने चैनल के दर्शक समूह के मुताबिक सवाल पूछने में लगे रहे. इस कारण, सवाल-जवाब का कोई फोकस नहीं बन पाया.

यही नहीं, संपादकों को पूरक प्रश्न पूछने या बारी तोड़कर प्रधानमंत्री के जवाब में से सवाल पूछने का मौका नहीं दिया गया. ‘टाइम्स नाउ’ के अर्णब गोस्वामी ने कोशिश भी की तो उन्हें प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार ने लगभग डपटते हुए चुप करा दिया. हैरानी की बात है कि किसी भी संपादक ने इसका विरोध नहीं किया और न ही किसी और ने ऐसी कोशिश की. अधिकतर सवाल रूटीन किस्म के और हल्के-फुल्के थे. कुछ सवाल लल्लो-चप्पो वाले थे.

पूरा देश इसका लाइव प्रसारण देख रहा था. लोग हैरान थे कि जो संपादक-एंकर अपने चैनलों पर राजनेताओं की खिंचाई और धुलाई के लिए मशहूर हैं, वे यहां अनुशासित बच्चों की तरह कैसे व्यवहार कर रहे हैं? ऐसा नहीं है कि संपादकों ने प्रधानमंत्री से असुविधाजनक और तीखे सवाल नहीं पूछे.

लेकिन कुलमिलाकर, एक घंटे से अधिक का ‘प्रेस कांफ्रेंस’ जैसा यह कार्यक्रम वास्तव में, पी.आर कांफ्रेंस बन गया, जहां प्रधानमंत्री भी पी.आर कर रहे थे और संपादक भी. यह और बात है कि प्रधानमंत्री इतने नियंत्रित, प्रबंधित और संकुचित प्रेस कांफ्रेंस का वह लाभ नहीं उठा पाए जो उनके सलाहकार चाहते थे.

इस पी.आर कांफ्रेंस से जितने सवालों का जवाब मिला, उससे ज्यादा सवाल पैदा हो गए. कहने की जरूरत नहीं है कि २ जी से लेकर देवास डील तक पर प्रधानमंत्री की सफाई से शायद ही कोई संतुष्ट हुआ हो. लोगों को इससे भी निराशा हुई कि संपादकों को खुलकर सवाल-जवाब क्यों नहीं करने दिया गया?

हालांकि कहना मुश्किल है कि अगर यह मौका मिलता भी तो कितने संपादक इसका लाभ उठाने के लिए तैयार थे. लेकिन कम से कम प्रधानमंत्री को यह दावा करने का मौका मिल सकता था कि उन्होंने खुद को ईमानदारी से हर तरह के सवाल के लिए पेश किया.

इस मायने में यह ‘प्रेस कांफ्रेंस’ प्रधानमंत्री की पी.आर मशीनरी के मकसद को पूरा करने में नाकाम रही. लेकिन इसकी वजह चैनल और उनके संपादक कम थे. उन्होंने तो अपने तईं प्रधानमंत्री और उनकी पी.आर मशीनरी की पूरी मदद की. कुछ को छोड़कर अधिकांश संपादक प्रधानमंत्री के निमंत्रण से अभिभूत थे.

नतीजा, उन्होंने मनमोहन सिंह से वही सवाल पूछे जिनकी अपेक्षा उनकी पी.आर मशीनरी ने की थी. यही नहीं, कुछ सवाल इतने ‘फ्रेंडली’ थे कि लगता है, उन्हें प्रधानमंत्री की पी.आर मशीनरी ने प्लांट करवाया हुआ था.

यह पूरा दृश्य कुछ-कुछ ‘जब वी मेट’ की तरह रोमांटिक सा था. सजे-धजे संपादक जिस नफासत और दोस्ताना तरीके से सवाल पूछने का कोरम पूरा कर रहे थे, उससे ऐसा लग रहा था कि जैसे यह ‘प्रेस कांफ्रेंस’ सरकार की किसी बड़ी उपलब्धि की घोषणा के लिए बुलाई गई है. हालांकि प्रधानमंत्री से क्या सवाल पूछना है, यह तय करने का अधिकार संपादकों को है लेकिन कुछ अधिकार दर्शकों का भी है.

निश्चय ही, यह प्रधानमंत्री और संपादकों की कोई व्यक्तिगत मुलाकात नहीं थी और न ही वे प्रधानमंत्री से मित्रता की वजह से वहां बुलाए गए थे. उन्हें वहां इसलिए बुलाया गया था कि प्रधानमंत्री उनके माध्यम से देश को उन सवालों के जवाब देना चाहते थे जो पिछले कई महीनों से लोगों के मन में हैं.

जाहिर है कि संपादक अपने दर्शकों के प्रतिनिधि के बतौर वहां बुलाए गए थे. ऐसे में, चैनल के संपादकों से यह अपेक्षा थी कि वे प्रधानमंत्री से वे सवाल जरूर पूछेंगे जो अगर उनके दर्शकों को सीधा मौका मिलता तो पूछते. लेकिन ऐसे सवाल बहुत कम पूछे गए.

असल में, यह ‘प्रेस कांफ्रेंस’ जिस तरह से आयोजित की गई, उसमें ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि चैनलों और उनके संपादकों ने प्रधानमंत्री की पी.आर मशीनरी को खुद को इस्तेमाल करने का मौका क्यों दिया?

दूसरे, अगर प्रधानमंत्री को इतने ही मैनेज्ड और सैनिटाइज्ड तरीके से सवालों का जवाब देना था तो इससे बेहतर होता कि वह दूरदर्शन/डी.डी न्यूज पर राष्ट्र के नाम सन्देश पढ़ देते. इसके लिए इस तामझाम की जरूरत क्या थी?

आश्चर्य नहीं कि इस बेमानी पी.आर कसरत से प्रधानमंत्री और न्यूज चैनलों के संपादकों, दोनों की साख को धक्का लगा है. कहीं दूर खड़ी नीरा राडिया जरूर मुस्करा रही होगी.

 
('तहलका' के १५ मार्च के अंक में प्रकाशित)

सोमवार, मार्च 07, 2011

भारत का अल जजीरा कहाँ है?

लोग दुनिया के बारे में देखना-जानना चाहते हैं लेकिन चैनलों को इसमें मुनाफा नहीं दिखता है  

तीसरी किस्त

कहने की जरूरत नहीं है कि इसके लिए बुनियादी रूप से चैनलों के स्वामित्व का ढाँचा और उनका कारोबारी माडल जिम्मेदार है. उदारीकरण और भूमंडलीकरण के गर्भ से निकले अधिकांश निजी चैनल शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियां हैं जिनमें बड़ी देशी और विदेशी (मुख्यतः अमेरिकी) पूंजी लगी हुई है. इन कंपनियों का मुनाफा विज्ञापन से आता है और अधिकांश विज्ञापनदाता कंपनियों के हित कहीं न कहीं से अमेरिकी पूंजी और कंपनियों से जुड़े हैं.

यह भी किसी से छुपा नहीं है कि भारतीय शासक वर्गों ने राजनीतिक-आर्थिक और रणनीतिक तौर पर ‘राष्ट्रीय हितों’ को अमेरिका के साथ नत्थी कर दिया है. स्वाभाविक तौर पर कारपोरेट मीडिया इस गठजोड़ का प्रवक्ता है और यह उसके कवरेज और विश्लेषण में भी दिखाई पड़ता है.


लेकिन आज के भारतीय समाचार मीडिया और उसकी अमेरिका परस्ती को देखकर कौन कह सकता है कि कोई चार दशक पहले सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और सूचनाओं के एकतरफा प्रवाह के खिलाफ नई अंतर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था की मांग करनेवाले तीसरी दुनिया के देशों में भारत अगली कतार में खड़ा था? सत्तर के दशक में बहुराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों की भूमिका और उनकी रिपोर्टिंग में तीसरी दुनिया के देशों की तोडमरोड कर पेश की गई छवियों के खिलाफ न सिर्फ पूरी दुनिया में विरोध की तीखी आवाजें उठीं थीं बल्कि तीसरी दुनिया के देशों ने मिलजुलकर तय किया था कि वे एक-दूसरे देश की कवरेज के लिए अपनी राष्ट्रीय समाचार एजेंसियों के बीच सहयोग को बढ़ावा देंगे.

इसके पीछे उद्देश्य यह था कि तीसरी दुनिया के देशों की स्वतंत्र और पूर्वाग्रह मुक्त कवरेज सुनिश्चित हो. लेकिन उस लक्ष्य को कब का भुला दिया गया. इसी का नतीजा है कि आज मिस्र की खबरों के लिए हम बहुराष्ट्रीय समाचार एजेंसियों और सी.एन.एन. और बी.बी.सी जैसे अमेरिकी-ब्रिटिश चैनलों के भरोसे हैं.

दूसरी बात यह है कि अधिकांश चैनल समाचार-शिक्षा-नागरिक-जनतंत्र माडल के बजाय मूलतः पूंजीवाद-समाचार-मनोरंजन-विज्ञापन माडल पर खड़े हैं. नतीजा, अंतर्राष्ट्रीय खबरों में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं है. जो थोड़ी-बहुत दिलचस्पी है, वह अमेरिका और हालीवुड स्टारों तक सीमित है. ये और ऐसी ही बहुतेरी पी.आर खबरें उन्हें बड़ी आसानी से बहुराष्ट्रीय एजेंसियों से मिल जाती है.

लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर अंतर्राष्ट्रीय खबरों की स्वतंत्र कवरेज में उनकी बिल्कुल दिलचस्पी नहीं है. चैनलों की अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं की स्वतंत्र कवरेज में दिलचस्पी न होने की एक बड़ी वजह यह भी है कि उन्हें यह न सिर्फ बहुत खर्चीला लगता है बल्कि निरर्थक खर्च लगता है. उनकी समझ यह है कि विदेशों की खबरें टी.आर.पी नहीं देतीं, इसलिए बाहर विदेशों में संवाददाता रखने का कोई फायदा नहीं है.

लेकिन यह एक अतार्किक और गलत समझ है. यह सही है कि चैनलों पर जिस तरह से चलताऊ और हल्के तरीके से बहुराष्ट्रीय एजेंसियों की फीड पर आधारित खबरें दिखाई जाती हैं, उनमें दर्शकों की कोई रूचि नहीं है. लेकिन इस आधार पर यह निष्कर्ष निकलना बिल्कुल गलत है कि दर्शक अंतर्राष्ट्रीय खबरें नहीं देखना चाहते हैं और उनकी इन खबरों में दिलचस्पी नहीं होती है.

आखिर बी.बी.सी रेडियो के उन करोड़ों श्रोताओं के बारे में क्या कहेंगे जो शहरों से अधिक सुदूर गांवों में भारत के साथ-साथ दुनिया भर की खबरें बड़ी दिलचस्पी से सुनते रहे हैं. यह मानने का कोई कारण नहीं है कि अगर चैनल दुनिया की महत्वपूर्ण खबरें अपने संवाददाताओं के जरिये और स्वतंत्र तरीके से दिखाएं तो उसे दर्शक नहीं मिलेंगे.

लेकिन अगर कोई खबर चाहे वह देश की हो या विदेश की, उसे चलताऊ और छिछले तरीके से पेश किया जायेगा तो उसे दर्शक क्यों देखेंगे? असल में, भारतीय चैनलों खासकर हिंदी चैनलों में अंतर्राष्ट्रीय खबरों के प्रति उदासीनता कई रूपों में सामने आती है. अधिकांश चैनलों में अंतर्राष्ट्रीय खबरें के प्रति गहरी अरुचि का नतीजा यह है कि उनके यहां अलग से कोई विदेश डेस्क नहीं है. जहां है वहां भी सबसे महत्वहीन डेस्क है.

यह उदासीनता यहां तक पहुंच गई है कि कई चैनलों में विदेश मंत्रालय को नियमित तौर पर कवर करने के लिए अलग संवाददाता तक नहीं हैं. ऐसे में, यह उम्मीद करना बेकार है कि चैनल विदेशों में अपने संवाददाता नियुक्त करेंगे. इसलिए यह तथ्य हैरान नहीं करता है कि किसी भी भारतीय चैनल ने दुनिया के महत्वपूर्ण देशों में अपने संवाददाता नहीं नियुक्त किए हैं.

अलबत्ता, इससे बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले चैनलों की दयनीयता जरूर उजागर होती है. लेकिन इस कारण अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और हलचलों की उनकी कवरेज भी उतनी ही दयनीय दिखती है. कहने की जरूरत नहीं है कि जब आपके पास अरब जगत को कवर करने के लिए उन देशों में स्वतंत्र संवाददाता नहीं होंगे तो उस कमी की भरपाई ए.पी और रायटर्स जैसी बहुराष्ट्रीय एजेंसियों की फीड या मिस्र जैसे हालात में बीच में संवाददाता भेजकर नहीं पूरी की जा सकती है.

आखिर मिस्र जैसे हालात में अचानक एक संवाददाता को भेज दिया जाए जिसके पास न तो स्थानीय संपर्क हैं, न उस देश के इतिहास-भूगोल-राजनीति और अर्थनीति का गहरा ज्ञान है तो उससे आप और क्या अपेक्षा कर सकते हैं?

आश्चर्य नहीं कि ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ की तर्ज पर अधिकांश चैनलों के मिस्र गए संवाददाता वहां से हड़बड़ी और बीच में ही लौट आए जबकि तहरीर चौक पर लाखों लोग मौजूद थे और वे बिना मुबारक की विदाई के लिए लौटने के लिए तैयार नहीं थे. मजे की बात यह है कि जब अठारह दिनों बाद आख़िरकार मुबारक ने इस्तीफा देने का ऐलान किया तो वहां किसी भारतीय चैनल का संवाददाता मौजूद नहीं था.

क्या वे चैनल अठारह दिनों तक भी इंतज़ार नहीं कर सकते थे? साफ है कि जो चैनल अठारह दिन इंतज़ार नहीं कर सकते, उनसे यह अपेक्षा करना बेकार है कि वे उन देशों की स्वतंत्र कवरेज के लिए वहां अपने संवाददाता नियुक्त करेंगे.

कहने की जरूरत नहीं है कि अंतर्राष्ट्रीय खबरों के लिए विदेशी चैनलों पर निर्भर रहना भारतीय दर्शकों की मजबूरी है. ऐसे में, यह अपेक्षा करना एक आकाशकुसुम की उम्मीद करना है कि भारत का भी कोई अपना अल जजीरा होगा. अभी तो हिंदी के दर्शकों को इंडिया टी.वी नुमा चैनलों से ही काम चलाना होगा.

('कथादेश' के मार्च'११ अंक में प्रकाशित लेख की आखिरी किस्त)

शनिवार, मार्च 05, 2011

अमेरिकी चश्मे से दुनिया को देखते देशी चैनल

पैराशूट रिपोर्टिंग से पूर्णकालिक रिपोर्टर की भरपाई की कोशिश   


शुरुआत में अधिकांश चैनलों ने कहीं न कहीं मिस्र के जन उभार को एक ऐसी समस्या की तरह देखा जिसके कारण वहां काम करनेवाले और घूमने गए भारतीय पर्यटक फंस गए हैं. इस कारण, उनकी शुरूआती कवरेज में फोकस उन भारतीयों को सुरक्षित वापस लाने और कुछ हद तक अरब जगत की उथल-पुथल की वजह से पेट्रोलियम की कीमतों में वृद्धि पर था. यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि ये खबरें नहीं थीं.

लेकिन निश्चय ही, बड़ी खबर यह नहीं थी. बड़ी खबर थी, अरब जगत और उसके केन्द्र मिस्र में तीस सालों की होस्नी मुबारक तानाशाही के खिलाफ जन विद्रोह का भडकना और उसका आसपास के देशों में फैलना. लेकिन भारतीय चैनल इसे थोड़ी देर से समझ पाए और जब तक समझे तब तक यह खबर दुनिया भर के मीडिया में छा चुकी थी.


इसके बाद हड़बड़ी में कुछ चैनलों जैसे स्टार न्यूज, एन.डी.टी.वी २४x७, आज तक आदि ने अपने संवाददाता मिस्र की राजधानी काहिरा भेजे लेकिन उनकी रिपोर्टिंग का स्तर कुछ वैसे ही था, जैसे एक अनजान जगह पर पैराशूट से आपको उतार दिया गया हो और आप न वहां की भाषा जानते हैं, न संस्कृति और न राजनीति.

नतीजा यह कि उनकी ‘एक्सक्लूसिव’ रिपोर्टिंग न सिर्फ रूटीन और घटना प्रधान रिपोर्टिंग तक सीमित रही बल्कि अपनी अंतर्वस्तु में सी.एन.एन और बी.बी.सी की नक़ल ज्यादा लग रही थी. रिपोर्टिंग की इस सीमा और विकलांगता की भरपाई इन स्टार रिपोर्टरों ने ड्रामा और उत्तेजना से पूरी करने की कोशिश की.

यह और बात है कि उनके ड्रामे और उत्तेजना पैदा करने की कोशिश पर हंसी ज्यादा आ रही थी. उन्होंने यह भी जताने की कोशिश की कि गोया तहरीर चौक पर लाखों की भीड़ के बीच वे अकेले रिपोर्टर हों और यह भी कि कैसे सुरक्षा बलों को छकाते हुए वे रिपोर्टिंग कर रहे हैं. इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि ऐसे चैनलों ने उन चैनलों की तुलना में ज्यादा साहस और उत्साह का परिचय दिया जिन्होंने इसकी भी जरूरत नहीं समझी.

मिस्र और अरब जगत की ताजा उथलपुथल की कवरेज को लेकर अधिकांश चैनलों की उदासीनता न सिर्फ बनी रही बल्कि इसकी सीमित कवरेज के लिए भी वे विदेशी चैनलों और बहुराष्ट्रीय न्यूज एजेंसियों जैसे ए.पी और रायटर्स पर निर्भर बने रहे. जाहिर है कि उसमें कुछ भी नया या अलग नहीं था.

हैरानी की बात यह है कि मिस्र और अरब जगत के ताजा हालत की सबसे सटीक रिपोर्टें अल जजीरा चैनल पर आ रही थीं लेकिन भारतीय चैनलों ने अज्ञात कारणों से उससे एक दूरी बनाए रखी. यहां यह जिक्र जरूरी है कि भारत सरकार ने अल जजीरा को भारत में डाउन लिंक की इजाजत नहीं दी है.

उल्लेखनीय है कि अल जजीरा पिछले कुछ वर्षों में न सिर्फ मध्य पूर्व के सबसे प्रभावी और वैकल्पिक क्षेत्रीय आवाज के रूप में उभरा है बल्कि उसने अंतर्राष्ट्रीय कवरेज में सी.एन.एन और बी.बी.सी के वर्चस्व को भी चुनौती दी है.

इस बार भी उसने मिस्र के कवरेज में सी.एन.एन और बी.बी.सी को पीछे छोड़ दिया. उसने न सिर्फ मिस्र और अन्य अरब देशों के जन उभार की स्पॉट और इवेंट रिपोर्टिंग बेहतर की बल्कि सरकारों के अंदर की हलचलों की अंदरूनी खबरें भी सबसे पहले दीं. यही नहीं, इन घटनाओं के विश्लेषण में भी अल जजीरा ने एक क्षेत्रीय और वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य पेश किया.

लेकिन भारतीय चैनलों ने अल जजीरा से आ रही खबरों और पक्ष को भी जगह देने के बजाय पश्चिमी एजेंसियों और चैनलों पर अधिक भरोसा किया. स्वाभाविक तौर पर इसका असर टी.वी चर्चाओं पर भी दिखाई पड़ा. कई चैनलों ने मिस्र के जन उभार पर पन्द्रह दिनों में एकाधिक बार चर्चा भी कराई लेकिन इन अधिकांश चर्चाओं का दायरा बहुत सीमित और स्तर बहुत छिछला था.

इन चर्चाओं की सबसे खास बात यह थी कि उनका वैचारिक दायरा अरब जगत और मिस्र को लेकर विकसित पश्चिम देशों खासकर अमेरिका की सोच और चिंताओं से परिचालित था. आश्चर्य की बात नहीं है कि इन चर्चाओं में भी वही सवाल उठ रहे थे, वही बातें हो रही थीं और वही चिंताएं जाहिर की जा रहीं थीं जो सी.एन.एन या बी.बी.सी पर की जा रही थीं.

सबसे ज्यादा चिंता मुस्लिम ब्रदरहुड और उसकी भूमिका को लेकर व्यक्त की जा रही थी. कुछ ऐसी तस्वीर पेश की जा रही थी, गोया मिस्र के पूरे जन उभार के पीछे केवल मुस्लिम ब्रदरहुड हो और मुबारक के सत्ता से हटते ही वह सत्ता में आ जायेगा.

यही नहीं, उसे एक ऐसे कट्टरपंथी इस्लामी संगठन की तरह पेश किया जा रहा था जिसके सत्ता में आते ही मिस्र ईरान की तरह कट्टर इस्लामी राज्य बन जायेगा. लेकिन मुस्लिम ब्रदरहुड के इस खलनायिकीकरण के बावजूद सच यह है कि वह मिस्र के सबसे पुराने राजनीतिक दलों में एक है. दशकों से दमन झेल रहा है.

यही नहीं, यह तथ्य भी बहुत कम जगहों पर आया कि ट्यूनीशिया और मिस्र दोनों ही जगहों पर आंदोलन में श्रमिक वर्ग की बहुत बड़ी भूमिका थी. सच यह है कि श्रमिक वर्ग ने इस उभार को संगठित करने और उसे काहिरा से बाहर ले जाने के अलावा मुबारक हुकूमत को ठप्प करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह भी कि इसमें मुस्लिम ब्रदरहुड से कहीं अधिक सक्रियता के साथ और भी दर्जनों छोटे-बड़े संगठन और राजनीतिक दल और आम नौजवान, बेरोजगार, नागरिक शामिल थे.

लेकिन इन सभी तथ्यों का जिक्र कहीं नहीं था या हाशिए पर था या फिर इस रूप में था, गोया पूरा उभार मध्यवर्गीय युवाओं तक सीमित हो. इस कारण अधिकांश चैनलों पर मिस्र के जन विद्रोह की बड़ी तस्वीर और आम छवि बहुत एकांगी थी. हालांकि अपवादस्वरूप इक्का-दुक्का अलग आवाजें भी सुनाई पड़ीं लेकिन मुख्य सुर अमेरिकी समझ और हितों से ही बना था. जो इक्का-दुक्का आवाजें अलग थीं, वे चैनलों के अंदर से नहीं बल्कि बाहर से आ रही थीं.

कुलमिलाकर, इन टी.वी चर्चाओं और उनकी रिपोर्टिंग से एक बात साफ है कि भारतीय चैनलों के पास दुनिया को देखने का अपना कोई स्वतंत्र और वैकल्पिक नजरिया और वैचारिकी नहीं है और वे दुनिया को मूलतः अमेरिकी चश्मे से देखते हैं. वैसे यह बात कमोबेश पूरे भारतीय समाचार मीडिया के लिए भी सही है कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया ने उसके वैचारिक परिप्रेक्ष्य का काफी हद तक अमेरिकीकरण कर दिया है.

जारी....

('कथादेश' के मार्च अंक में प्रकाशित)

शुक्रवार, मार्च 04, 2011

चैनलों के भूगोल में देश से बाहर दुनिया नहीं है

भूमंडलीकृत होते देश में स्थानीयकृत होते न्यूज चैनलों की दुनिया 


पहली किस्त  



पिछले दिनों दुनिया भर के समाचार मीडिया में समूचे अरब जगत खासकर मिस्र में तानाशाही के खिलाफ जनतंत्र की बहाली के लिए लाखों लोगों के सड़क पर उतरने की खबरें सुर्ख़ियों में छाई रहीं. पूरी दुनिया ने देखा कि कोई अठारह दिनों तक मिस्र की राजधानी काहिरा में लाखों लोग तब तक डटे रहे, जब तक ३० वर्षों से आतंक और दमन के जरिये राज कर रहे राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने इस्तीफा नहीं दे दिया.

इससे पहले, मिस्र के पड़ोसी देश ट्यूनीशिया में भी ऐसे ही जन विद्रोह के कारण तानाशाह राष्ट्रपति बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा. इन दोनों घटनाओं के बाद अरब जगत के अन्य देशों में भी तानाशाहियों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा है और परिवर्तन का दबाव बढ़ता जा रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि अरब जगत में दशकों से जमी तानाशाहियों के खिलाफ खुले जन विद्रोह और उससे उठी परिवर्तन की यह लहर हाल के वर्षों की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण राजनीतिक परिघटनाओं में से एक है. इस राजनीतिक उथलपुथल का न सिर्फ इस इलाके की राजनीति पर गहरा असर पड़ा है बल्कि इससे वैश्विक राजनीति भी जरूर प्रभावित होगी.

यही नहीं, इस आंधी से भारत समेत दक्षिण एशिया भी अछूते नहीं रहनेवाले हैं. स्वाभाविक तौर पर अरब जगत और खासकर मिस्र की घटनाओं और हलचलों में दुनिया के साथ-साथ भारत के लोगों की भी गहरी दिलचस्पी है.

इसके कारण स्पष्ट हैं. अरब जगत और खासकर मिस्र के साथ भारत के गहरे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं. इसके अलावा, अरब जगत में होनेवाले इन राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों का भारत समेत इस पूरे इलाके की मुस्लिम राजनीति और समाज पर असर पड़ना भी तय है.

ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर आम भारतीयों में भी यह जानने की उत्सुकता है कि अरब जगत में क्या, कहां, कब, कैसे और सबसे बढ़कर क्यों हो रहा है? मिस्र की इस उथलपुथल के पीछे कौन लोग हैं, उनकी सोच क्या है और वे क्या चाहते हैं? आम पाठक और दर्शक इन घटनाओं के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मायने समझना चाहते हैं? वे यह भी समझना चाहते हैं कि इन घटनाओं का भारत पर क्या असर पड़ेगा?

जाहिर है कि इस सबके बारे में लोग अपने समाचार माध्यमों खासकर भारतीय अख़बारों और चैनलों से जानना चाहते हैं. यह स्वाभाविक अपेक्षा है. यह अपेक्षा इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि भारतीय समाचार मीडिया भारत को न सिर्फ एक उभरती हुई महाशक्ति मानता है बल्कि वैश्विक नेतृत्व की भी आकांक्षा रखता है.

ऐसी महत्वाकांक्षा रखनेवाले देश के समाचार मीडिया में दुनिया की बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाओं की व्यापक कवरेज के साथ अंतर्राष्ट्रीय खबरों में ज्यादा से ज्यादा दिलचस्पी की उम्मीद रखना गलत नहीं है. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि दुनिया भर की घटनाओं और राजनीतिक-आर्थिक हलचलों के बारे में हर देश खासकर बड़े और प्रभुत्वशाली देशों के मीडिया का अपना नजरिया और पूर्वग्रह हैं. उनपर पूरी तरह से भरोसा नहीं किया जा सकता है.

यही नहीं, आस-पड़ोस की घटनाओं का सीधा असर देश पर भी पड़ रहा है. चाहे वह पाकिस्तान हो या अफगानिस्तान या चीन या नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश या फिर ईरान और पश्चिम एशिया के अन्य देश हों, इन देशों में होनेवाली घटनाएं भारत की राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और आम जन जीवन को सीधे प्रभावित करती हैं.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि जब एक ओर भारतीय अर्थव्यवस्था अधिक से अधिक भूमंडलीकृत हो रही है, मध्य और उच्च मध्यवर्ग बेहतर अवसरों की तलाश में अधिक से अधिक विदेशों की ओर रुख कर रहा है और इस कारण लोगों में देश से बाहर क्या हो रहा है, यह जानने की भूख बढ़ती जा रही है, उस समय भारतीय समाचार मीडिया बहिर्मुखी होने के बजाय अंतर्मुखी होता जा रहा है. अंतर्वस्तु के मामले में वह वैश्वीकृत होने के बजाय अधिक से अधिक स्थानीकृत होता जा रहा है.

इस सन्दर्भ में सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि भारत में भूमंडलीकरण और उदारीकरण की असली मीडिया संतान – २४ घंटे के टी.वी समाचार चैनलों खासकर हिंदी समाचार चैनलों में आम तौर पर अंतर्राष्ट्रीय खबरें न के बराबर होती हैं. विदेशों की खबरों में उनकी दिलचस्पी सिर्फ पाकिस्तान और उसके बाद अमेरिका तक सीमित है. हिंदी समाचार चैनलों में अंतर्राष्ट्रीय खबरों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता को देखकर ऐसा लगता है कि उनके लिए भारत से बाहर दुनिया नहीं है.

इन चैनलों के लिए विदेश का मतलब आमतौर पर पाकिस्तान और अमेरिका है. यह और बात है कि पाकिस्तान की कवरेज भी बहुत एकांगी, भ्रामक और युद्धोन्माद से भरपूर है. यही नहीं, वैश्विक महाशक्ति बनने का ख्वाब देख रहे भारतीय टी.वी चैनलों को देखकर नहीं लगता कि अमेरिका और पाकिस्तान के अलावा भी दुनिया में कोई पौने दो सौ देश हैं.

ऐसे में, अफ्रीका, लातिन अमेरिका, पश्चिम और पूर्व एशिया के कवरेज की तो बात ही दूर है, इन चैनलों में दक्षिण एशियाई और अन्य पड़ोसी देशों की भी बहुत सीमित, सतही और एकांगी कवरेज होती है. हैरानी की बात नहीं है कि समाचार चैनलों खासकर हिंदी चैनलों में मिस्र के जन विद्रोह की कवरेज भी अपेक्षा से कहीं कम और गुणात्मक रूप से बहुत कमजोर थी.

एक तो अरब जगत खासकर ट्यूनीशिया से शुरू हुई परिवर्तन की इस लहर और मिस्र के जन उभार के प्रति चैनलों का रूख आम तौर पर ठंडा और उदासीनता भरा था. ऐसा लगता है कि शुरू में उन्होंने न सिर्फ इस उभार का महत्व समझने में देर की बल्कि जब समझा भी तो उसमें अक्ल से ज्यादा नक़ल हावी थी. नतीजा, उनकी कवरेज में सतही घटनाओं पर ज्यादा जोर था और उसके लिए जिम्मेदार प्रक्रियाओं की छानबीन सिरे से गायब थी.

जारी....
 
('कथादेश' के मार्च'११ अंक में प्रकाशित)

बुधवार, मार्च 02, 2011

‘रैडिकल बजट’ की असलियत

आम आदमी की सरकार का बजट आम आदमी पर भारी पड़नेवाला है 




वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के तीसरे बजट से सुरजीत एस भल्ला और उन जैसे अन्य नव उदारवादी अर्थशास्त्री बहुत गदगद हैं. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा है कि ‘लोकलुभावन राजनीति और अर्थनीति को आगे बढ़ानेवाली यू.पी.ए सरकार ऐसा साहसी बजट पेश कर सकती है.’ भल्ला के मुताबिक, इस मायने में ‘यह एक रैडिकल बजट है.’ उनकी खुशी की सबसे बड़ी वजह यह है कि प्रणब मुखर्जी ने बजट में सबसे अधिक जोर सरकार के खर्चों को घटाने और इस तरह राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर दिया है.

निश्चय ही, वित्त मंत्री ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट में सरकार के खर्चों में कटौती का रिकार्ड बना दिया है. प्रणब मुखर्जी के बजट अनुमान के मुताबिक, अगले साल सरकार के कुल खर्चों में लगभग ४११५३ करोड़ रूपये की वृद्धि होगी जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान से सिर्फ ३.४ प्रतिशत अधिक है. इस रिकार्ड के लिए वित्त मंत्री ने जहां योजना बजट में चालू वित्तीय वर्ष की तुलना में कुल ४६५२३ करोड़ रूपये यानी ११.८ प्रतिशत की वृद्धि की है, वहीँ गैर योजना व्यय में लगभग एक फीसदी यानी कुल ५३७० करोड़ रूपये की कटौती की है.

इसके कारण वह अगले वित्तीय वर्ष में राजकोषीय घाटे को ४१२८१७ करोड़ रूपये की सीमा में रखने में कामयाब हुए हैं. यह जी.डी.पी का सिर्फ ४.६ प्रतिशत है जो कि चालू वर्ष के राजकोषीय घाटे के संशोधित अनुमान जी.डी.पी के ५.१ प्रतिशत से कहीं बेहतर हैं. वित्त मंत्री की इस बात के लिए भी प्रशंसा हो रही है कि उन्होंने चालू वित्तीय वर्ष में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.५ प्रतिशत के बजट अनुमान से घटाकर जी.डी.पी के ५.१ प्रतिशत लाने में कामयाबी हासिल की है.

यह और बात है कि इस कामयाबी के पीछे सबसे बड़ी वजह थ्री-जी/ब्राडबैंड की बिक्री से होनेवाली जबरदस्त आय, टैक्स वसूली में उल्लेखनीय वृद्धि और जी.डी.पी की विकास दर में अच्छी वृद्धि से उसके आधार में होनेवाली बढोत्तरी है.

लेकिन राजकोषीय घाटे में उल्लेखनीय कमी लाने के लिए प्रणब मुखर्जी ने सरकारी खर्चों खासकर सामाजिक कल्याण योजनाओं और सब्सिडी में कटौती का ‘अविश्वसनीय’ रिकार्ड बनाया है. इससे भल्ला जैसे नव उदारवादी अर्थशास्त्रियों से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को चाहे जितनी खुशी हो लेकिन सच्चाई यह है कि यह आम आदमी की कीमत पर किया गया है.

उदाहरण के लिए, वित्त मंत्री ने खाद्य सब्सिडी के लिए बजट में ६०७५२ करोड़ रूपये का प्रावधान किया है जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान से सिर्फ १७२ करोड़ रूपये अधिक है. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह नकारात्मक वृद्धि है. अफसोस की बात यह है कि यह प्रावधान तब किया गया है, जब यू.पी.ए सरकार बजट सत्र में खाद्य सुरक्षा का विधेयक ले आने का एलान कर चुकी है. इससे साफ है कि खाद्य सुरक्षा का कानून बन जाने से भी कुछ खास नहीं बदलनेवाला है.

प्रणब मुखर्जी की कटौती का चाकू यहीं नहीं रुका. बजट में यू.पी.ए सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना- मनरेगा के बजट में यह मामूली वृद्धि भी नहीं उल्टे कटौती कर दी गई है. अगले वित्तीय वर्ष में मनरेगा के बजट में चालू वर्ष की तुलना में १०० करोड़ रूपये की कटौती करते हुए सिर्फ ४० हजार करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है.

उल्लेखनीय है कि प्रणब मुखर्जी ने चालू वित्तीय वर्ष के बजट में मनरेगा के लिए वर्ष २००९-१० की तुलना में सिर्फ १०० करोड़ रूपये की वृद्धि की थी जिसे इस बजट में वापस ले लिया है. यह जी.डी.पी के आधे फीसदी से भी कम है. कहने की जरूरत नहीं है कि मनरेगा के साथ यह दूसरा बड़ा मजाक है. इससे पहले मनमोहन सिंह सरकार ने मनरेगा के तहत राज्य सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी देने से मना कर दिया था.

इससे साफ है कि बड़ी विदेशी पूंजी खासकर आवारा पूंजी को खुश करने के लिए वित्त मंत्री के राजकोषीय घाटा कम करने के अभियान की गाज कहां गिर रही है? वित्त मंत्री ने इसी तरह उर्वरक सब्सिडी में भी अगले वित्तीय वर्ष में कोई ९ फीसदी यानी ४९७९ करोड़ रूपये की कटौती का एलान किया है. साफ है कि किसानों को न सिर्फ खाद के लिए अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी बल्कि खाद और मुहाल हो जायेगी.

हैरानी की बात यह है कि खाद सब्सिडी में इतनी भारी कटौती तब की जा रही है, जब सरकार दूसरी हरित क्रांति के दावे कर रही है. हालांकि प्रणब मुखर्जी ने बजट में कृषि और किसानों का कई बार नाम लिया लेकिन वास्तव में इसमें कृषि और किसानों पर भी कटौती अभियान की अच्छी-खासी मार पड़ी है.

उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र की केन्द्रीय योजना में भी चालू वर्ष की तुलना में अगले वर्ष के बजट में बहुत मामूली लगभग ३८२ करोड़ रूपये की वृद्धि के साथ १४७४४ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. यह चालू वर्ष की तुलना में सिर्फ २.६ प्रतिशत की वृद्धि है. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह वृद्धि वास्तव में नकारात्मक है.

यही नहीं, वित्त मंत्री ने अपने पिछले बजट में दूसरी हरित क्रांति के लिए सबसे मुफीद क्षेत्र पूर्वी भारत को बताते हुए ४०० करोड़ रूपये का प्रावधान किया था और इस बार फिर ४०० करोड़ रूपये देने की घोषणा की है. सवाल है कि पूर्वी भारत के सात राज्यों- असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड, उडीसा, छत्तीसगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस मामूली रकम से दूसरी हरित क्रांति तो दूर सात जिलों में भी क्रांति नहीं हो पायेगी.

इसी तरह कटौती की गाज ग्रामीण विकास पर भी गिरी है. बजट में ग्रामीण विकास के लिए केन्द्रीय आयोजन में चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान ५५४३८ करोड़ रूपयों की तुलना में अगले वर्ष के बजट में १५० करोड़ रूपये की कटौती करते हुए ५५२८८ करोड़ रूपयों का प्रावधान किया गया है. अगर आसमान छूती महंगाई को ध्यान में रखें तो यह कटौती भी ग्रामीण विकास की योजनाओं के लिए अच्छी खबर नहीं है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि कटौतियों की यह सूची अंतहीन है. इसकी मार से रक्षा क्षेत्र को छोड़कर शायद ही कोई क्षेत्र बच पाया है. लेकिन यहां सामाजिक क्षेत्र का जिक्र जरूरी है क्योंकि वित्त मंत्री ने बहुत गर्व के साथ यह घोषणा की है कि बजट में सामाजिक क्षेत्र के लिए कुल बजट १६०८८७ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है.

लेकिन तथ्य यह है कि यह रकम जी.डी.पी की मात्र १.७९ प्रतिशत है. इसके उलट रक्षा क्षेत्र के लिए बजट में १२८३३ करोड़ रूपये की बढोत्तरी करते हुए वित्त मंत्री ने १६४४१५ करोड़ रूपयों का प्रावधान किया है जिसमें से लगभग ७० हजार करोड़ रूपये सिर्फ हथियारों की खरीद के लिए हैं. इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है कि सामाजिक क्षेत्र का कुल बजट रक्षा बजट से लगभग चार हजार करोड़ रूपये कम है?

यही नहीं, अकेले हथियारों की खरीद पर होनेवाला खर्च शिक्षा और कृषि क्षेत्र के बजट प्रावधान के बराबर है. इससे यू.पी.ए सरकार की प्राथमिकताओं का पता चलता है. अगर समावेशी विकास के दावे करनेवाली सरकार सामाजिक क्षेत्र पर जी.डी.पी की १.७९ प्रतिशत के प्रावधान को अपनी उपलब्धि मानती है तो उसे यह याद दिलाना बेकार है कि पिछले साठ वर्षों से सरकारें शिक्षा पर जी.डी.पी का ६ प्रतिशत और स्वास्थ्य पर जी.डी.पी का २.५ प्रतिशत खर्च करने का वायदा करती रही हैं.

अफसोस की बात है कि इस बजट में भी शिक्षा औए स्वास्थ्य के बजट प्रावधानों में अच्छी-खासी वृद्धि के दावों के बावजूद दोनों के संयुक्त बजट पर जी.डी.पी का एक फीसदी भी खर्च नहीं होगा. आश्चर्य की बात नहीं है कि अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि दर के दावों के बावजूद भारत अभी भी मानव विकास के सूचकांक पर न सिर्फ १६९ देशों की सूची में ११९ वें पायदान पर है बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कई मामलों में अपने पड़ोसी देशों श्रीलंका और बंगलादेश से भी पीछे है.

सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक बजट इतना कम है कि यहां की स्वास्थ्य सेवा दुनिया की सबसे अधिक निजीकृत सेवा है. विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर खर्च होनेवाले हर सौ रूपये में से लगभग ९० रूपये लोगों को अपनी जेब देना पड़ता है जबकि सार्वजनिक व्यय से सिर्फ १० रूपये आता है.

लेकिन सबसे बड़ा मजाक तो यह है कि एक ओर वित्त मंत्री ने बढ़ते घाटे का रोना रोते हुए कृषि से लेकर सामाजिक और ग्रामीण विकास जैसे सभी क्षेत्रों के बजट में बड़ी बेदर्दी से कटौती की है लेकिन दूसरी ओर, अमीरों और कारपोरेट क्षेत्र को हमेशा की तरह मालामाल कर दिया है. खुद वित्त मंत्रालय के मुताबिक, यू.पी.ए सरकार के चालू वित्तीय वर्ष के बजट में भी अमीर और कारपोरेट वर्ग को विभिन्न तरह के टैक्सों में छूट और अन्य रियायतों के जरिये लगभग ५११६३० करोड़ रूपये का उपहार दिया है जो जी.डी.पी का लगभग ६.४९ प्रतिशत है.

कहने की जरूरत नहीं है कि अगले वर्ष के बजट में भी वित्त मंत्री ने अमीरों और कारपोरेट क्षेत्र पर यह उदारता दिखाने में कोई कोताही नहीं की है. उनके लिए छूटों और रियायतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है. आखिर यह आम आदमी की सरकार है!

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रणब मुखर्जी के पिछले बजट की तरह इस बजट पर भी नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी हावी है. यह सैद्धांतिकी अर्थव्यवस्था में राज्य की सीमित भूमिका की वकालत करती है. इसके लिए वह सरकार के खर्चों में कटौती के लिए राजकोषीय घाटे को एक निश्चित सीमा में रखने पर अत्यधिक जोर देती है.

हैरानी की बात नहीं है कि विश्व बैंक और मुद्रा कोष से लेकर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी तक राजकोषीय घाटे को काबू में रखने को पहली प्राथमिकता बताती रही हैं और भारत जैसे विकासशील देशों की सरकारें इसका आँख मूंदकर पालन करती रही हैं. हालत यह हो गई है कि राजकोषीय घाटे को काबू में रखने की पैरोकारी अब एक तरह के आब्शेसन में बदल गई है. यह और बात है कि हालिया वैश्विक मंदी ने इस सैद्धांतिकी के दिवालिएपन को खुलकर उजागर कर दिया है.

लेकिन हमारे आर्थिक मैनेजरों का इस सैद्धांतिकी में अन्धविश्वास अब भी बना हुआ है. इसे ही कठमुल्लावाद कहते हैं और कहने की जरूरत नहीं है कि आम आदमी की कसमें खाने के बावजूद यू.पी.ए सरकार भी इस वित्तीय कठमुल्लावाद से उबर नहीं पाई है. यह बजट भी इसका अपवाद नहीं है.

लेकिन यह एक त्रासदी है. एक ऐसे दौर में, जब अर्थव्यवस्था तेज गति से बढ़ रही है और सबसे बड़ा मुद्दा यह बना हुआ है कि उससे निकलनेवाली समृद्धि का लाभ आम आदमी और गरीबों को नहीं मिल पा रहा है, उस समय राजकोषीय घाटे को काबू में करने के नाम पर एक बार फिर आम आदमी की बुनियादी जरूरतों पर कटौती की तलवार चलाने को जायज कैसे ठहराया जा सकता है? सवाल है कि क्या यू.पी.ए के समावेशी विकास का माडल यही है?

('जनसत्ता' के २ मार्च'११ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख )

मंगलवार, मार्च 01, 2011

वित्तीय कठमुल्लावाद से प्रेरित है यह बजट


प्रणब मुखर्जी एक और मौका चूक गए


मौका गंवाना कोई यू.पी.ए सरकार से सीखे. इस बार का सालाना बजट एक बेहतरीन मौका था जब मनमोहन सिंह सरकार अपनी प्राथमिकताओं के बारे में देश को साफ सन्देश दे सकती थी. यह मौका था जब वह आम आदमी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का सबूत देते हुए अर्थव्यवस्था के हित में कुछ साहसिक फैसले कर सकती थी.

लेकिन इसके बजाय यह बजट पिछली बार की तरह ही वित्तीय कठमुल्लावाद से प्रेरित है. नतीजा यह कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने पिछले साल की तरह ही एक रूटीन बजट पेश किया है जिसमें दिखावे के लिए कृषि-किसान, सामाजिक क्षेत्र और आम आदमी की बात करते हुए भी सबसे अधिक जोर राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर दिया गया है.

आश्चर्य नहीं कि अगले बजट में वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे का अनुमान जी.डी.पी का ४.६ प्रतिशत रहने का अनुमान पेश किया है. इसके लिए उन्होंने सरकारी खर्चों में न सिर्फ मामूली बढोत्तरी की है बल्कि कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बजट प्रावधानों में कटौती कर दी है. उदाहरण के लिए, ग्रामीण विकास पर केन्द्रीय योजना में चालू वित्तीय वर्ष की तुलना में अगले वित्तीय वर्ष में लगभग १५० करोड़ रूपये की कटौती करते हुए ५५२८८ करोड़ रूपये खर्च करने का प्रावधान किया है.

इसी तरह, कृषि क्षेत्र की केन्द्रीय योजना में भी चालू वर्ष की तुलना में अगले वर्ष के बजट में बहुत मामूली लगभग ३८२ करोड़ रूपये की वृद्धि के साथ १४७४४ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. यह चालू वर्ष की तुलना में सिर्फ २.६ प्रतिशत की वृद्धि है. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह वृद्धि वास्तव में नकारात्मक है.

हैरानी की बात यह है कि यह उस सरकार का बजट है जो पिछले कई वर्षों कृषि क्षेत्र में दूसरी हरित क्रांति की बातें कर रही है. लेकिन अगर यह कृषि क्षेत्र को ‘नई डील’ है तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस डील से क्या निकलनेवाला है? इसी तरह, यू.पी.ए सरकार समावेशी विकास के बहुत दावे करती रहती है. लेकिन समावेशी विकास के लिए सामाजिक क्षेत्र पर खर्च करना बहुत जरूरी है.

इस बजट में भी वित्त मंत्री ने बहुत उत्साह के साथ बताया कि सामाजिक क्षेत्र पर १,६०,८८७ करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. लेकिन सच यह है कि यह जी.डी.पी का सिर्फ २.१ प्रतिशत है. कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक क्षेत्र पर जी.डी.पी का सिर्फ २ फीसदी खर्च करके किस तरह का समावेशी विकास होगा.

साफ है कि वित्त मंत्री को राजकोषीय घाटे की चिंता सबसे ज्यादा थी. निश्चय ही, इससे विश्व बैंक-मुद्रा कोष और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को सबसे ज्यादा खुशी होगी. उनकी तरफ से यू.पी.ए सरकार पर सबसे अधिक दबाव भी यही था कि सरकार राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर सबसे अधिक जोर दे.

यह एक तरह का वित्तीय कठमुल्लावाद है जो मानता है कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सीमित होनी चाहिए. इसके लिए वह सरकारी खर्चों में कटौती पर जोर देता है. उसका मानना है कि अगर सरकार का राजकोषीय घाटा अधिक होगा तो वह बाजार से कर्ज उगाहने उतारेगी और प्रतिस्पर्द्धा में निजी क्षेत्र को बाहर कर देगी. इससे ब्याज दरों पर भी दबाव बढ़ेगा.

लेकिन यह नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी है जिसकी असलियत हालिया वैश्विक मंदी के दौरान खुलकर सामने आ चुकी है. इसके बावजूद भारत में अर्थव्यवस्था के मैनेजर अभी भी इस सैद्धांतिकी से चिपके हुए हैं. कहते हैं कि आदतें बहुत मुश्किल से छूटती हैं. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों पर भी यह बात लागू होती है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि राजकोषीय घाटे को काबू में करने के आब्शेसन के कारण वित्त मंत्री ने राजनीतिक और आर्थिक रूप से अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा देने और प्राथमिकताओं में बदलाव का एक बड़ा मौका गंवा दिया है. अगर वह चाहते तो अर्थव्यवस्था की मौजूदा बेहतर स्थिति का लाभ उठाकर अधिक से अधिक संसाधन जुटाते और उसे कृषि और सामाजिक क्षेत्र पर खर्च करके एक नई शुरुआत कर सकते थे.

असल में, मुद्दा यह है कि अर्थव्यवस्था की तेज विकास दर का फायदा आम आदमी को नहीं मिल रहा है. तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था से रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं आ रहा है.

किसी भी विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय घाटा आम बात है. राजकोषीय घाटा अपने आप में कोई बुराई नहीं है. अगर सरकार संसाधनों को सही जगह पर और सही तरीके से खर्च करे तो राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था को ज्यादा गति देता है और लोगों को उसका लाभ भी पहुंचा पाता है. ऐसा नहीं है कि वित्त मंत्री यह नहीं जानते हैं. उन्हें राजकोषीय घाटे के लाभों का पता है.

लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि उन्हें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करना है क्योंकि अर्थव्यवस्था की ड्राइविंग सीट उनके हाथों में चली गई है. पिछले दो दशकों में हर वित्त मंत्री की यह एक आर्थिक मजबूरी बन गई है. जाहिर है कि प्रणब मुखर्जी भी इसके अपवाद नहीं हैं.

('राष्ट्रीय सहारा' में १ मार्च'११ को बजट पर प्रथम पृष्ठ पर छपी त्वरित टिप्पणी : http://www.rashtriyasahara.com/epapermain.aspx?queryed=9)