शनिवार, फ़रवरी 26, 2011

अर्थव्यवस्था को लेकर खुशफहमी और निश्चिन्तता का माहौल

लेकिन यह समय सावधानी और सतर्कता का है क्योंकि सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घटी


कुछ वर्षों पहले की बात है. मेक्सिको के राष्ट्रपति अमेरिका की यात्रा पर पहुंचे जहां पत्रकारों ने उनसे पूछा कि उनके देश की अर्थव्यवस्था का क्या हाल है? राष्ट्रपति ने तुर्शी के साथ जवाब दिया कि अर्थव्यवस्था का हाल तो अच्छा है लेकिन लोगों का नहीं. भारतीय अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में भी यह बात काफी हद तक सच है.

यह और बात है कि भारत में सरकार के आला नुमाइंदे इसे आसानी से स्वीकार नहीं करते. खासकर जबसे जी.डी.पी की वृद्धि दर अर्थव्यवस्था के अच्छे या बुरे प्रदर्शन का सबसे बड़ा पैमाना बन गई है और अर्थव्यवस्था के मैनेजरों का जी.डी.पी प्रेम आब्शेसन की हद तक पहुंच गया है. कहने की जरूरत नहीं है कि चालू वित्तीय वर्ष में ८.६ प्रतिशत की वृद्धि दर के बाद हर ओर अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन का कोरस जारी है.

असल में, इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था एक ऐसी पहेली बनी हुई है जिसे समझना अच्छे-अच्छों के लिए टेढ़ी खीर बना हुआ है. अगर आप आम आदमी हैं और पिछले दो सालों से लगातार भारी महंगाई की मार से कराह रहे हैं तो यह संभव है कि आप यू.पी.ए सरकार के अर्थव्यवस्था प्रबंधन को कोस रहे हों.

लेकिन अगर आप अर्थशास्त्री या अर्थव्यवस्था के मैनेजरों में हैं तो आपके लिए यह अर्थव्यवस्था का स्वर्ण काल चल रहा है. प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर ८.६ प्रतिशत रहने की उम्मीद है और अगले वित्तीय वर्ष में इसके ९ प्रतिशत तक पहुंच जाने की सम्भावना है.

खुद प्रधानमंत्री की मानें तो कुछ बाहरी चुनौतियों और समस्याओं के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही है. हाल में न्यूज चैनलों के संपादकों से बातचीत के दौरान उन्होंने मुद्रास्फीति की ऊँची दर के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन का बहुत गर्व के साथ उल्लेख किया.

कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री से लेकर सरकार के आर्थिक मैनेजरों तक सभी अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदर्शन से न सिर्फ संतुष्ट हैं बल्कि यह मानते हैं कि मुद्रास्फीति की समस्या को छोड़ दिया जाए तो २००७-०८ की वैश्विक मंदी से लडखडाई अर्थव्यवस्था अब पटरी पर आ चुकी है. विश्व बैंक भी इस आकलन से सहमत है.

सच तो यह है कि जी.डी.पी की ८.६ फीसदी की वृद्धि दर से आर्थिक मैनेजरों का आत्मविश्वास इस हद तक बढ़ा हुआ है कि वे १० फीसदी की वृद्धि दर के सपने देखने लगे हैं. एक बार फिर से चीन से प्रतियोगिता और दोहरे अंकों की आर्थिक वृद्धि दर की चर्चाएं शुरू हो गई हैं. यही नहीं, वे वित्त मंत्री से अगले बजट में उन स्टिमुलस उपायों को वापस लेने की सलाह दे रहे हैं जो वैश्विक मंदी से लड़ने के लिए दो-ढाई साल पहले घोषित किए गए थे. साफ है कि सरकार में अर्थव्यवस्था को लेकर एक निश्चिन्तता का माहौल है.

वित्त मंत्री की निश्चिन्तता की वजह यह भी है कि चालू वित्तीय वर्ष में राजकोषीय घाटा बजट अनुमान से कम रहने का अनुमान है. राजस्व वसूली में उल्लेखनीय वृद्धि, थ्री-जी स्पेक्ट्रम की बिक्री से भारी आय और जी.डी.पी में उछाल के कारण उम्मीद है कि इस साल राजकोषीय घाटा जी.डी.पी के ५.५ प्रतिशत के बजट अनुमान के बजाय ५.२ प्रतिशत रहेगा.

यही नहीं, निर्यात में भी उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है. चालू खाते के घाटे में वृद्धि के बावजूद विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार के कारण कोई घबराहट नहीं है. यहां तक कि मुद्रास्फीति को लेकर चिंताएं जाहिर करने के बावजूद आर्थिक मैनेजरों को भरोसा है कि मुद्रास्फीति की दर मार्च तक न सिर्फ ७ प्रतिशत के नीचे आ जायेगी बल्कि रबी की अच्छी फसल के बाद खाद्य मुद्रास्फीति भी काबू में आ जायेगी.

लेकिन यह अर्थव्यवस्था को लेकर एक तरह की खुशफहमी है. कई बार इस तरह की खुशफहमी का माहौल जानबूझकर बनाया जाता है. कारण कि इस फीलगुड से अर्थव्यवस्था में निवेशकों का भरोसा बढ़ता है, वे उत्साहित होते हैं, निवेश में वृद्धि होती है और इससे अर्थव्यवस्था को गति मिलती है.

यही नहीं, इस नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन का एक और सूचकांक- शेयर बाजार तो पूरी तरह से फीलगुड और भावनाओं पर ही चलता है. असल में, नव उदारवादी अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह फीलगुड और सेंटीमेंट्स पर ज्यादा चलती है क्योंकि उसमें सट्टेबाजी की भूमिका बहुत बढ़ गई है.

लेकिन अर्थव्यवस्था को लेकर यह खुशफहमी और आत्मविश्वास जो अति आत्मविश्वास में बदलता जा रहा है, न सिर्फ आम आदमी पर बहुत भारी पड़ रही है बल्कि अर्थव्यवस्था के लिए भी घातक साबित हो सकती है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई अभी भी बेकाबू है और लगता नहीं है कि यू.पी.ए सरकार इसे काबू करने की कोशिश भी कर रही है.

उसने यह जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप दिया है. उसकी दिलचस्पी सिर्फ मुद्रास्फीति के आंकड़ों में है और वह आंकड़ों में महंगाई कम करने की कसरत जरूर कर रही है. लेकिन आंकड़ों में कम होती महंगाई, उंचे बेस प्रभाव के कारण है और वास्तव में, महंगाई कम नहीं हो रही है. उल्टे, विश्व खाद्य संगठन से लेकर विश्व बैंक तक खाद्य वस्तुओं की कीमतों में और बढ़ोत्तरी की चेतावनी दे रहे हैं.

इसलिए महंगाई को लेकर सरकार का मौजूदा निश्चिन्तता का रवैया आम आदमी के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक रूप से उसे भी भारी पड़ सकता है. दूसरे, सरकार अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन के अति-आत्मविश्वास में स्टिमुलस पैकेज को वापस लेने और आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया को तेज करने की तैयारी कर रही है.

उदाहरण के लिए, ऐसी चर्चा है कि वित्त मंत्री बजट में उत्पाद करों में दो फीसदी की छूट को वापस ले सकते हैं. साथ ही, डीजल की कीमतों को भी नियंत्रण मुक्त किए जाने के कयास लगाये जा रहे हैं. लेकिन ये दोनों फैसले महंगाई की आग में घी डालने की तरह साबित हो सकते हैं.

इसके अलावा, वित्त मंत्री ने इसी अति-आत्मविश्वास में अगर राजकोषीय घाटे को एक सीमा से ज्यादा कम करने के लिए स्टिमुलस को पूरी तरह से वापस लेने और योजना बजट में कटौती पर जोर दिया तो इसका नकारात्मक असर न सिर्फ विभिन्न विकास और कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ेगा बल्कि वृद्धि दर भी प्रभावित हो सकती है.

उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा उच्च वृद्धि दर और बेहतर प्रदर्शन की एक बड़ी वजह यह स्टिमुलस और सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर बढ़ा व्यय और उसके कारण बढनेवाला राजकोषीय घाटा भी है. यह इसलिए भी जरूरी है कि अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन का लाभ आम आदमी को नहीं मिल पा रहा है.

इसके अलावा, वित्त मंत्री को यह नहीं भूलना चाहिए कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ जुड़ी अनिश्चिन्तताएं अभी भी खत्म नहीं हुई हैं. ऐसे हालात में, सावधानी हटी नहीं कि दुर्घटना घटी. कहने की जरूरत नहीं है कि अर्थव्यवस्था के लिहाज से यह समय खुशफहमी और निश्चिन्तता का नहीं बल्कि सावधानी और सतर्कता का है.


('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में २६ फरवरी को प्रकाशित)

शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

खाद्य सुरक्षा का मजाक बनाने पर तुली है सरकार

खाद्य सुरक्षा की राह में कौन अटका रहा है रोड़े




खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे पर यू.पी.ए सरकार और एन.ए.सी के बीच खींचतान जारी है. इस सिलसिले में सबसे ताजा उदाहरण यह है कि एन.ए.सी द्वारा सरकार को भेजे गए खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे की जांच कर रही समिति के मुखिया और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने साफ तौर पर कह दिया है कि एन.ए.सी का प्रस्ताव अव्यावहारिक है और इसे लागू करना संभव नहीं है.

कहने को रंगराजन समिति के इस निष्कर्ष से ‘हैरान’ एन.ए.सी अब अपना जवाब तैयार करने में लगी है लेकिन उसके रक्षात्मक रवैये से साफ है कि वह अब पीछे हटने और सरकार की चिंताओं को भी ध्यान में रखने के नामपर लीपापोती की तैयारी कर रही है.

साफ है कि खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों को हल्का और सीमित करने की जमीन तैयार की जा रही है. रंगराजन समिति की रिपोर्ट से साफ है कि सरकार एन.ए.सी द्वारा खाद्य सुरक्षा को लेकर सुझाये गए सीमित प्रस्तावों को भी मानने के लिए तैयार नहीं है. जबकि एन.ए.सी ने पहले ही खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को सरकार के मंत्रियों और अफसरों से चर्चा के बाद काफी हल्का और सीमित कर दिया है. इसके बावजूद रंगराजन समिति ने जिन आधारों पर उसके प्रस्ताव को ख़ारिज किया है, उससे स्पष्ट है कि उसने एन.ए.सी की लंबी-चौड़ी कसरत और सीमित प्रस्ताव को भी कोई खास भाव नहीं दिया.

यही कारण है कि एन.ए.सी के एक महत्वपूर्ण सदस्य ज्यां द्रेज को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि एन.ए.सी अब नेशनल एडवाइजरी काउन्सिल नहीं बल्कि नोशनल यानी दिखावटी एडवाइजरी काउन्सिल बनती जा रही है. उल्लेखनीय है कि एन.ए.सी ने खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर सबसे पहले भोजन के अधिकार को एक सार्वभौम कानूनी अधिकार बनाने की घोषणा से शुरुआत की थी लेकिन इस सवाल पर खुद एन.ए.सी के अंदर और बाहर सरकार के प्रतिनिधियों के साथ मतभेद होने के कारण पीछे हटते हुए उसने बीच का एक प्रस्ताव तैयार किया जिसमें देश की कुल ७५ फीसदी आबादी को सीमित खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने का प्रावधान किया था.

इस प्रस्ताव में भी एन.ए.सी ने इस कानून के तहत खाद्य सुरक्षा के लाभार्थियों को दो समूहों में बाँट दिया था. पहले समूह को प्राथमिक समूह कहा गया जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों की २८ प्रतिशत आबादी शामिल करने का प्रस्ताव था जिन्हें हर महीने तीन रूपये किलो चावल, दो रूपये किलो गेहूं और एक रूपये किलो मोटा अनाज के भाव से ३५ किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रावधान किया गया था. दूसरी ओर, सामान्य समूह में ग्रामीण क्षेत्रों से ४४ फीसदी और शहरी क्षेत्रों से २२ फीसदी आबादी को हर महीने खाद्यान्नों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी) की आधी कीमत पर २० किलोग्राम खाद्यान्न देने का प्रस्ताव किया गया था.

कहने की जरूरत नहीं है कि एन.ए.सी का यह प्रस्ताव भी उम्मीदों से काफी कम और बहुत सीमित था. प्राथमिक और सामान्य समूह का विभाजन काफी हद तक मौजूदा गरीबी रेखा के नीचे (बी.पी.एल) और ऊपर (ए.पी.एल) के विभाजन की लाइन पर ही था. यहां तक कि योजना आयोग तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के बाद बी.पी.एल परिवारों की संख्या में १० से १५ फीसदी तक बढ़ोत्तरी करने पर राजी हो गया था.

इसी तरह, सामान्य समूह को ऊँची कीमत पर और वह भी सिर्फ २० किलोग्राम अनाज देने का प्रस्ताव खाद्य सुरक्षा का मजाक उड़ने जैसा ही था. लेकिन एन.ए.सी के इस सीमित और आधा-अधूरे प्रस्ताव का उससे भी बड़ा मजाक यू.पी.ए सरकार द्वारा नियुक्त रंगराजन समिति ने उड़ाया है.

रंगराजन समिति का कहना है कि यह प्रस्ताव लागू करना संभव नहीं है क्योंकि लाभार्थियों को कानूनी अधिकार देने के लिए जरूरी अनाज उपलब्ध नहीं है. समिति के मुताबिक, इस अधिकार को एन.ए.सी के सुझावों के अनुसार लागू करने के लिए २०१४ में ७.४ करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी जबकि खादयान्नों की पैदावार और खरीद के मौजूदा ट्रेंड के आधार पर सरकार के पास अधिकतम ५.७६ करोड़ टन अनाज ही उपलब्ध होगा.

समिति का यह भी तर्क है कि भोजन का कानूनी अधिकार देने के बाद सरकार को अपना वायदा हर हाल में यहां तक कि लगातार दो सालों तक सूखा पड़ने की स्थिति में भी पूरा करने में सक्षम होना चाहिए. समिति के अनुसार, मौजूदा परिस्थितियों में आयात के जरिये इस कानूनी वायदे को पूरा करना संभव नहीं है.

समिति का यह भी कहना है कि इस वायदे को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा भारी मात्रा में अनाज की खरीद से खुले बाजार में अनाजों की कीमतें बढ़ जाएंगी. इन तर्कों के आधार पर रंगराजन समिति का सुझाव है कि खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों की ४६ फीसदी और शहरी इलाकों की २८ फीसदी आबादी को दिया जाए जो कि एन.ए.सी के कथित प्राथमिक समूह के करीब है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि भोजन के अधिकार के सीमित और आधे-अधूरे प्रस्ताव पर भी रंगराजन समिति के तर्कों में नया कुछ भी नहीं है. इस तरह की राय नव उदारवादी आर्थिक सुधार के समर्थक और पैरोकार बहुत पहले से व्यक्त करते रहे हैं. वे भोजन के सार्वभौम अधिकार के विरोध को जायज ठहराने के लिए जानबूझकर अनाज और इस कारण सब्सिडी की मांग को इतना अधिक बढ़ा-चढाकर दिखाते रहे हैं कि वह असंभव दिखने लगे.

जबकि सच्चाई यह है कि न सिर्फ देश में अनाज की कोई कमी नहीं है बल्कि सरकार चाहे तो इस अधिकार को लागू करने के लिए जरूरी अनाज खरीद सकती है. इसके लिए उसे सिर्फ अनाज खरीद के मौजूदा दायरे को और बढ़ाना होगा. इससे न सिर्फ किसानों को बिचौलियों से निजात मिलेगी बल्कि उनकी फसलों की उचित कीमत भी मिल पायेगी. इससे किसानों को पैदावार बढ़ाने का प्रोत्साहन भी मिलेगा.

दूसरे, सरकार के बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने से कीमतें बढ़ने की आशंका इसलिए बेमानी है क्योंकि अनाज खरीदकर अगर उसे लोगों तक पहुँचाया गया तो कीमतें बढेंगी नहीं, उल्टे उनपर लगाम लगेगी. कीमतें तब बढ़ती हैं जब सरकार अनाज दबाकर बैठ जाती है जैसीकि जमाखोरी उसने अभी कर रखी है.

साफ है कि सरकार की मंशा वास्तविक और व्यापक खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की नहीं है. वह अधिक से अधिक थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ मौजूदा प्रावधानों को ही खाद्य सुरक्षा के नामपर थोपना चाहती है.

('समकालीन जनमत' के फरवरी अंक में प्रकाशित)

मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

क्रिकेट मैनिया

 प्रधानमंत्री चाहें तो चैन की नींद सो सकते हैं


विश्व कप क्रिकेट का तमाशा शुरू हो चुका हैं. चैनल और अखबार क्रिकेटमय हो चुके हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि अगले दो महीनों तक मीडिया में सिर्फ क्रिकेट होगा और कुछ नहीं. वैसे कुछ दिलजलों का कहना है कि विश्व कप के तुरंत बाद उससे भी बड़ा तमाशा आई.पी.एल शुरू हो जायेगा. मतलब यह कि अगले चार महीनों तक चैनल एक मैनिया की तरह क्रिकेट ओढ़-बिछा-पका-खा और परोस रहे होंगे.

इसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं. सभी समाचार चैनलों और खासकर हिंदी समाचार चैनलों और अख़बारों में विश्व कप क्रिकेट की कवरेज छाने लगी है. चैनलों पर इस शुरूआती कवरेज से साफ है कि उन्होंने इसके लिए जबरदस्त तैयारी की है. सभी एक से एक नायाब आइडिया के साथ दर्शकों को खींचने, प्रतिस्पर्धी चैनल को पछाड़ने और अपनी टी.आर.पी बढ़ाने की होड़ में जुटे हुए हैं. ऐसा लगता है कि जैसे चैनलों के बीच भी एक विश्व कप हो रहा है.

चैनलों के इस विश्व कप में जीत के लिए चैनल वह हर फार्मूला और तिकडम आजमा रहे हैं जिससे वह दर्शकों गुड़ की मक्खी की तरह अपनी ओर खींच और खुद से चिपका सकें. आखिर सवाल टी.आर.पी का है?

असल में, समाचार चैनलों की मुश्किल यह है कि विश्व कप के दौरान असली क्रिकेट एक्शन तो ई.एस.पी.एन-स्टार स्पोर्ट्स और दूरदर्शन पर होगा. जाहिर है कि सबसे ज्यादा दर्शक भी वहीँ होंगे. साफ है कि समाचार चैनलों को दर्शकों के लिए खेल चैनलों से लड़ना पड़ेगा. यह आसान लड़ाई नहीं है.

कहा जाता है कि जैसे प्यार और जंग में सब कुछ जायज है, वैसे ही चैनलों की लड़ाई में भी सब कुछ जायज है. नतीजा, इस लड़ाई में समाचार चैनल हर दांव आजमा रहे हैं. अगर एक्शन और उत्तेजना खेल चैनलों पर है तो समाचार चैनलों पर भी कम ड्रामा नहीं है.

वैसे भी ड्रामा रचने में समाचार चैनलों का कोई जवाब नहीं है. इस ड्रामे की खास बात यह है कि यह क्रिकेट राष्ट्रवाद से सना-पगा हुआ है. हमेशा की तरह से समाचार चैनल एक बार फिर क्रिकेट राष्ट्रवाद को जगाने में लग गए हैं. यह उनका सबसे बड़ा दांव है.

आश्चर्य नहीं कि समाचार चैनलों पर भारत की जीत की संभावनाओं को लेकर जोरशोर से हवा बनाई जाने लगी है. हवा बनानेवाली भाषा खेल की कम और युद्ध की अधिक लगती है. १९८३ की जीत को याद किया जा रहा है. चैनलों पर ‘सचिन को विश्व कप का तोहफा, सहवाग का तूफान, युसूफ पठान का कोहराम, धोनी का धमाका, युवराज का जादू, भज्जी की फिरकी, जहीर का जलवा’ जैसी रिपोर्टों और आधे-आधे घंटे के कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है.

इनमें भारतीय टीम के सभी खिलाडियों का खूब गुणगान किया जा रहा है. पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी चैनलों पर एक्सपर्ट बनकर बैठे हुए हैं और वे भी इस ड्रामे में और उत्तेजना भरने की कोशिश कर रहे हैं. इन रिपोर्टों, विश्लेषणों और कार्यक्रमों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे विश्व कप सिर्फ एक औपचारिकता भर है और कप तो भारतीय टीम को ही जीतना है. गरज यह कि चैनलों की यह क्रिकेट देशभक्ति पूरे शबाब पर है.

लेकिन इस क्रिकेट राष्ट्रवाद का दबाव भारतीय टीम महसूस करने लगी है. चैनलों और पूरे भारतीय मीडिया ने टीम पर अपेक्षाओं का ऐसा दबाव पैदा कर दिया है कि खिलाडियों के लिए स्वाभाविक होकर खेलना संभव नहीं रह गया है. इसकी वजह यह है कि यह भारतीय टीम के खिलाडियों को भी पता है कि जो मीडिया और चैनल आज उनके गुणगान में जमीन-आसमान एक किए हुए हैं, उनकी एक भी नाकामी उन्हें ‘मैच का मुजरिम’ बनाने में देर नहीं लगायेगी.

समाचार चैनलों पर फैसला बिल्कुल लाइव होता है. इधर टीम के विकेट गिर रहे होंगे, उधर चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज चल रहा होगा : ‘मेमने बन गए शेर, पिद्दी साबित हुए धोनी के रणबांकुरे’ आदि-आदि. इस मायने में चैनलों का सचमुच कोई जवाब नहीं है. वे टीम की जीत और हार में कोई फर्क नहीं करते हैं. टीम जीत गई तो बल्ले-बल्ले, स्टूडियो में ही भांगड़ा शुरू कर देंगे और हार गई तो खाल खींचने और सूली पर लटकाने में देर नहीं करेंगे. किसी को आसमान में चढ़ाना और फिर जमीन पर पटकना कोई चैनलों से सीखे.

मतलब यह कि चैनलों को इससे कोई खास मतलब नहीं है कि भारतीय टीम जीतती है या हारती है. उन्हें तो जीत और हार दोनों से टी.आर.पी बटोरनी है. इसके लिए जीत और हार दोनों में दर्शकों की भावनाओं को भडकाना जरूरी है. भावनाओं में बहुत मुनाफा है. चैनलों के लिए मुनाफे का खेल सबसे बड़ा खेल है. वे इस खेल में पारंगत हो गए हैं. यह और बात है कि इस खेल की कीमत खेल, खिलाड़ी, टीम, दर्शक और देश सभी चुका रहे हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं रह गया है. यह अब खेल से ज्यादा एक विशाल उद्योग और कारोबार बन गया है. इसमें अरबों रूपये दांव पर लगे हुए हैं. चैनल भी इस कारोबार के हिस्सेदार हैं. जाहिर है कि जब खेल, खेल नहीं रहा तो खिलाड़ी भी कारोबारी अधिक हो गए हैं.

लेकिन इस खेल की सबसे बड़ी कीमत तो दर्शकों और देश को चुकानी पड़ेगी क्योंकि अगले चार महीनों तक देश-समाज के सभी मुद्दे और सवाल नेपथ्य में धकेल दिए जाएंगे. प्राइम टाइम पर भ्रष्टाचार, महंगाई और कुशासन का शोर नहीं होगा.

प्रधानमंत्री चाहें तो अगले चार महीनों तक चैन की नींद सो सकते हैं.

('तहलका' के २८ फरवरी'११ अंक में प्रकाशित : http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/826.html

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

वनाधिकार कानून को अंगूठा


वनाधिकार कानून का मजाक उड़ाने पर तुली हुई है यू.पी.ए सरकार


हालांकि वनाधिकार कानून को लागू हुए चार साल से अधिक का समय गुजर गया है लेकिन जमीन पर इस कानून का कहीं अता-पता नहीं है. हालत कितनी गंभीर है, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अभी तक ११ राज्यों ने इस कानून को लागू नहीं किया है. यही नहीं, जिन राज्यों में यह कानून लागू भी किया गया है, वहां भी इसका लाभ जंगलवासियों और आदिवासियों को नहीं मिल रहा है. वास्तव में, ऐसा लगता ही नहीं है कि जंगलों पर आदिवासियों का अधिकार सुनिश्चित करनेवाला कोई कानून भी पास हुआ है.

यहां तक कि खुद केन्द्र सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय और वन और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा एन.सी. सक्सेना की अध्यक्षता में गठित एक संयुक्त समिति ने स्वीकार किया है कि वनाधिकार कानून को ठीक तरीके से लागू नहीं किया गया है. समिति के अनुसार, इस कानून का मुख्य उद्देश्य जंगलों के देखभाल में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ाना था लेकिन जंगल के संसाधनों के सामुदायिक प्रबंधन की दिशा में पहल न के बराबर हुई है.

सक्सेना समिति के मुताबिक, इस कानून के तहत आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने जिन २९ लाख दावों का निपटारा किया है, उनमें से सिर्फ १.६ प्रतिशत मामलों में सामुदायिक अधिकार को मान्यता दी है है. उसमें भी जंगल से निकलनेवाले उत्पादों पर अधिकार शामिल नहीं है.

यही नहीं, इस समिति ने यह भी पाया कि अधिकांश राज्यों में जंगल की भूमि पर आदिवासियों और जंगलवासियों के व्यक्तिगत अधिकार और रिहाइश के अधिकार के दावों के नामंजूर कर दिया जाता है. इस कानून के तहत जंगलों के संसाधनों जैसे वनोत्पादों, तालाबों और चरागाहों पर सामुदायिक अधिकार को भी मान्यता नहीं दी जा रही है.

कहने की जरूरत नहीं है कि इस कानून को लागू करने में आदिवासी मामलों के मंत्रालय के ढीले-ढाले रवैये के अलावा वन और पर्यावरण मंत्रालय का नकारात्मक रवैया भी काफी हद तक जिम्मेदार है. असल में, कानून बन जाने के बावजूद इन मंत्रालयों और उनके अफसरों की मानसिकता अभी भी बदली नहीं है.

इसके अलावा, जिला प्रशासन, पुलिस विभाग, वन विभाग के अफसरों, ठेकेदारों और माफियाओं का गठजोड़ भी जंगलों पर से अपने कब्जे और लूट को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. ये निहित स्वार्थी तत्व हरगिज नहीं चाहते हैं कि जंगलों के प्रबंधन में आदिवासियों को शामिल किया जाए और न ही वह आसानी से जंगलों के संसाधनों को आदिवासियों को सौपने के लिए तैयार है.

जाहिर है कि उन्हें राज्य सरकारों का भी पूरा संरक्षण भी हासिल है. राज्य सरकारें राजस्व के स्रोत के नामपर वनोत्पादों की खरीद-बिक्री पर अपना अधिकार नहीं छोड़ना चाहती है. लेकिन वास्तविकता यह है कि तेंदू पत्ते से लेकर अधिकांश वनोत्पादों के व्यापार को नियंत्रित करने के नाम पर राज्य सरकारें आदिवासियों के खुले शोषण का जरिया बन गई हैं.

असल में, वनाधिकार कानून को जिस तरह से बनाया गया है और उसे लागू किया जा रहा है, उसमें इस कानून का यही हश्र होना था. अधिकांश मामलों में आदिवासियों और अन्य जंगलवासियों के लिए यह साबित करना बहुत मुश्किल हो रहा है कि वे उस जमीन पर ७५ साल से रह रहे हैं. अधिकांश आदिवासी कचहरी और वकीलों के चक्कर काट रहे हैं. इसके बावजूद उनके अधिकारों को नकारने में देर नहीं लगाई जा रही है. सवाल है कि आदिवासी कागज-पत्र आदि कहां से लायें? होना तो यह चाहिए था कि जंगल विभाग और जिला प्रशासन खुद ऐसे कागजात आदि जुटाएं.

हालांकि एन.ए.सी ने इस कानून को ठीक तरीके नहीं लागू किए जाने पर दोनों मंत्रालयों की खिंचाई की है लेकिन खुद एन.ए.सी का रवैया भी बहुत चलताऊ सा है. एन.ए.सी ने इस कानून को लागू करने के लिए इन मंत्रालयों को कई सुझाव भी दिए हैं. लेकिन यू.पी.ए सरकार के रवैये से लगता नहीं है कि इस मुद्दे पर उसके रूख में कोई बदलाव आया है.

उल्टे वन और पर्यावरण मंत्रालय एन.सी सक्सेना की रिपोर्ट को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. यही नहीं, वन मंत्रालय एन.ए.सी के इस सुझाव से कतई सहमत नहीं है कि जंगलों पर आदिवासियों के अधिकार को मान्यता देने के लिए उनसे ७५ साल की रिहाइश के सबूत मांगने पर बहुत जोर नहीं देना चाहिए.

साफ है कि यू.पी.ए सरकार ने वनाधिकार कानून को एक सजावटी कानून बनाने का फैसला कर लिया है. यही कारण है कि एन.ए.सी के सुझावों के बावजूद सरकार में कोई खास हलचल या सक्रियता नहीं दिख रही है.

कल पढ़िए खाद्य सुरक्षा बिल पर जारी रस्साकशी पर...

(समकालीन जनमत के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)



बुधवार, फ़रवरी 16, 2011

एन.ए.सी बनाम यू.पी.ए सरकार : समझिए इस नूराकुश्ती को

क्या कांग्रेस मनमोहन सिंह से पीछा छुड़ाने का बहाना तलाश रही है?

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) और कांग्रेस की अगुवाई वाली यू.पी.ए सरकार के बीच तनातनी बढ़ती जा रही है. पिछले डेढ़ महीने में खाद्य सुरक्षा कानून के मसौदे और सूचना के अधिकार में संशोधन से लेकर कई और महत्वपूर्ण आर्थिक, सामाजिक और कानूनी मुद्दों पर दोनों के बीच का टकराव सार्वजनिक रूप से खुलकर सामने आ गया है.

मीडिया के एक हिस्से में इस तकरार को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के बीच के टकराव के रूप में भी पेश किया जा रहा है. सच जो भी हो लेकिन ऊपर से देखने पर कम से कम ऐसा जरूर लगता है, गोया मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार एक रास्ते जा रही है जबकि सोनिया गांधी के नेतृत्व में एन.ए.सी और कुछ हद तक कांग्रेस पार्टी भी दूसरी दिशा में जा रहे हैं.

लेकिन एन.ए.सी और सरकार के बीच इस तकरार और टकराव में कितनी हकीकत है और कितना फ़साना? हालांकि इस तकरार में कोई नई बात नहीं है. पहले भी खासकर यू.पी.ए-एक के कार्यकाल में विभिन्न मुद्दों पर सरकार और एन.ए.सी के बीच तकरार और खींचतान चलती रही है. लेकिन पहले के उस तकरार में दिखावा ज्यादा और वास्तविकता कम थी.

वह वास्तव में, एक तरह की मिली-जुली कुश्ती ज्यादा थी जिसका मकसद न सिर्फ विपक्ष का स्पेस भी अपने पास रखना था बल्कि यू.पी.ए सरकार पर कांग्रेस अध्यक्ष के प्राधिकार को स्थापित करना और सरकार के कुछ अच्छे फैसलों और कदमों की क्रेडिट उन्हें देनी थी. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए के पिछले कार्यकाल में यह रणनीति काफी कारगर रही.

लेकिन एक ऐसे समय में जब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यू.पी.ए सरकार के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों और महंगाई रोकने में नाकामी के कारण चौतरफा हमलों से घिरी हुई है और गहरे राजनीतिक संकट से गुजर रही है, उस समय इस तरह के खुले टकराव की बात थोड़ी हैरान करनेवाली जरूर है. लेकिन बारीकी से देखिए तो इसमें हैरान करनेवाली कोई बात नहीं है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह मूलतः अभी भी नूराकुश्ती ही है. खाद्य सुरक्षा से लेकर मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी देने तक जैसे टकराव के कई मुद्दों पर बुनियादी रूप से एन.ए.सी के इक्का-दुक्का सदस्यों को छोड़कर बहुमत सदस्यों और मनमोहन सिंह सरकार की राय में कोई बड़ा फर्क नहीं है. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यह पहलेवाली नूराकुश्ती से कई मायनों में अलग भी है.

असल में, इस टकराव और तकरार के पीछे कई कारण हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण यह लगता है कि कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा गंभीरता से मनमोहन सिंह से पीछा छुड़ाना चाहता है. पिछले कुछ महीनों में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों ने इस सरकार की जो भी थोड़ी-बहुत चमक और साख थी, उसे उतार दिया है. इन मामलों में सरकार के साथ-साथ कांग्रेस की भी खूब भद पिटी है.

इसी तरह, महंगाई से निपटने में नाकामी के कारण भी सरकार और पार्टी को चौतरफा आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. पार्टी के एक हिस्से का मानना है कि वैसे भी मनमोहन सिंह को राहुल गांधी के लिए गद्दी छोडनी ही है तो यह बेहतर होगा कि पार्टी इस सरकार के खिलाफ बन रहे सत्ता विरोधी रुझानों के मद्देनजर अभी से दूरी बनानी शुरू कर दे.

कांग्रेस के इस हिस्से को खुद सोनिया गांधी का भी आशीर्वाद हासिल है. लेकिन वह खुलकर सामने नहीं आना चाहती हैं. आखिर सत्ता की मलाई को कौन छोड़ना चाहता है? लेकिन वह यह भी चाहती हैं कि माखनचोर का इल्जाम उनपर न लगे. कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल यह भी है कि वह प्रधानमंत्री पद से मनमोहन सिंह को इतनी आसानी से हटा भी नहीं सकती है.

२००९ के चुनावों में जीत का श्रेय कुछ हद तक मनमोहन सिंह और उनकी छवि को भी दिया गया था. यह भी सही है कि २००९ के बाद कई मामलों में प्रधानमंत्री के बतौर वे अपने प्राधिकार को इस्तेमाल करके नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की कोशिश करते भी दिख रहे हैं. इससे भी पार्टी और एन.ए.सी के सदस्यों के साथ तकरार को बढ़ावा मिल रहा है.

दरअसल, २००९ के चुनावों में कांग्रेस की सीटों में ठीक-ठाक बढ़ोत्तरी और यू.पी.ए-दो के सत्ता में आने के बाद पार्टी और सरकार में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थकों ने मान लिया कि उन्हें सुधारों को जोरशोर से आगे बढ़ाने का खुला लाइसेंस मिल गया है. लेकिन पार्टी के अंदर एक प्रभावी हिस्से और बाहर एन.ए.सी जैसे शुभचिंतकों का मानना था कि आर्थिक सुधारों के मामले में फूंक-फूंककर कदम बढ़ाये जाएं और सरकार की दिशा कुलमिलाकर मध्य-वाम ही रखी जाए क्योंकि यह जीत राजनीतिक तौर पर इसी मध्य-वाम लाइन और नव उदारवादी अर्थनीति की मार से त्रस्त जनता को राहत देनेवाली मनरेगा जैसी योजनाओं के कारण ही संभव हो पाई है.

कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी भी इस मौके का इस्तेमाल करके कई रुके हुए आर्थिक सुधारों के फैसलों पर आगे बढ़ने का दबाव बनाए हुए है. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए-दो सरकार ने शुरुआत में नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की दिशा में ही कदम उठाये जिसका सबसे बड़ा सबूत २००९ और उसके बाद २०१० के आम बजट हैं.

यही नहीं, गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने भी प्रधानमंत्री के समर्थन से सुधारों की राह में रोड़ा बन रहे माओवादियों को नेस्तनाबूद करने के लिए बहुत जोरशोर से आपरेशन ग्रीन हंट शुरू कर दिया. उधर, मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जैसे कई अति उत्साही मंत्री सुधारों को तेज करने के अभियान उतर पड़े.

सच यह है कि इन सुधारों और फैसलों को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का समर्थन भी हासिल है लेकिन यह भी सच है कि जैसे-जैसे आपरेशन ग्रीन हंट और वेदांता, पास्को और अन्य बड़ी परियोजनाओं के खिलाफ जन विरोध बढ़ने लगा, कांग्रेस के एक हिस्से में बेचैनी बढ़ने लगी. उसके लिए यह मौका सुधार समर्थक नेताओं से हिसाब बराबर करने का भी था.

इसी बीच, नई सरकार के कई सुधार समर्थक मंत्रियों के कुछ कारपोरेट समूहों के लिए खुले पक्षपात और उन्हें जमकर रेवडियाँ बांटने से नाराज कारपोरेट समूहों में भी बेचैनी बढ़ रही थी. नतीजा, जल्दी ही टेलीकाम से लेकर सी.डब्ल्यू.जी तक एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे और पूरी मनमोहन सिंह सरकार अंदर और बाहर से हमलों से घिर गई.

यही नहीं, सरकार एक बड़े कारपोरेट युद्ध में भी फंस गई. ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था. यही समय था जब कांग्रेस के एक हिस्से ने भी सोनिया गांधी की मौन सहमति के साथ सरकार से दूरी बढ़ाने की रणनीति पर अमल शुरू कर दिया. यहां तक कि सरकार और सुधारों के प्रति खुद युवराज राहुल गांधी के सुर भी थोड़े अलग और बदले हुए लगने लगे.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि राहुल गांधी को राजनीतिक रूप से तैयार कर रहे और उनकी छवि गढ़ने में जुटे रणनीतिकारों की रणनीति भी यही है कि राहुल की एक गरीब समर्थक छवि गढ़ने के लिए जरूरी है कि उन्हें सरकार की छवि खासकर उन फैसलों से अलग रखा जाए जिनको लेकर विवाद और जन विरोध हो.

इसी रणनीति के तहत पिछले कुछ महीनों में एन.ए.सी को भी सक्रिय किया गया है. एन.ए.सी के जरिये कांग्रेस नेतृत्व दो राजनीतिक मकसद साधने में लगा है. पहला, इसके जरिये खुद की सरकार से अलग एक गरीब और आम आदमी समर्थक छवि बनाई जाए. इसके लिए खाद्य सुरक्षा से लेकर वनाधिकार कानून जैसे मुद्दों को उठाया जाए और उन्हें लागू करने का राजनीतिक श्रेय सरकार के बजाय खुद लिया जाए.

दूसरा, इससे राजनीतिक एजेंडा बदलने में भी मदद मिलेगी. भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर फंसी सरकार और कांग्रेस पार्टी हर कोशिश कर रहे हैं कि मुद्दा बदले. उन्हें लगता है कि अगर एन.ए.सी द्वारा उठाये गए मुद्दों पर चर्चा होगी तो कांग्रेस नेतृत्व को अपनी छवि चमकाने में मदद मिलेगी.

लेकिन एन.ए.सी के सुझावों पर जारी इस तकरार का एक लाभ सरकार को भी है. यह किसी से छुपा नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार खासकर उसके नव उदारवादी सुधार समर्थक खाद्य सुरक्षा आदि मुद्दों पर एन.ए.सी के प्रस्तावों को लेकर उत्साहित नहीं है. हालांकि सरकार और सुधार समर्थक लाबी को खुश करने के लिए एन.ए.सी ने खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों को बहुत कमजोर कर दिया है.

इसके बावजूद सरकार एन.ए.सी के प्रस्ताव को अव्यवहारिक मानती है. वह न सिर्फ उसे एन.ए.सी द्वारा प्रस्तावित प्रावधानों के साथ लागू नहीं करना चाहती है बल्कि वह उसे रंगराजन समिति द्वारा सुझाये संशोधनों के साथ भी लागू करने की जल्दी में नहीं है. एन.ए.सी के साथ तकरार के कारण उसे इसे अभी और टालने का बहाना मिल गया है.

ध्यान रहे कि कांग्रेस और यू.पी.ए ने २००९ के चुनावों में खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार देने का वायदा किया था. लेकिन पौने दो साल गुजरने के बावजूद सरकार और एन.ए.सी के बीच अभी भी उसके मसौदे पर बहस चल रही है. साफ है कि यह इसे जब तक संभव हो सके टालने की रणनीति है. कहने की जरूरत नहीं है कि परोक्ष रूप से कांग्रेस अध्यक्ष भी इस खेल में शामिल हैं.

यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि जब भी कांग्रेस अध्यक्ष ने किसी भी मुद्दे पर स्टैंड लिया, सरकार को झुकते देर नहीं लगी है. सवाल है कि अगर सोनिया गांधी की इन मुद्दों के प्रति इतनी प्रतिबद्धता है तो वे साफ स्टैंड लेकर सरकार पर दबाव क्यों नहीं डालती हैं? वे अगर चाहें तो इन सुझावों पर दाएं-बाएं कर रही सरकार तुरंत सीधे रास्ते पर आ सकती है.

लेकिन नहीं, जानबूझकर मुद्दे को लटकाया और खींचा जा रहा है ताकि एक तरफ सरकार अपने वित्तीय घाटे को कम करने के कठमुल्लावादी एजेंडे को आगे बढ़ा सके और दूसरी ओर, सोनिया गांधी खुद को गरीबनवाज साबित कर सकें. सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि इस पूरी तकरार और खींचतान का एक नतीजा यह हुआ है कि खाद्य सुरक्षा से लेकर आर.टी.आई और मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी जैसे मुद्दे भी विवादस्पद हो गए हैं.

जबकि ऐसे मुद्दों में विवाद की कोई खास गुंजाइश नहीं है. यह भी एक सोची-समझी रणनीति है. असल में, किसी मुद्दे को विवादस्पद बना देने का फायदा यह है कि इससे उस मुद्दे के प्रति न सिर्फ लोगों में भ्रम, संशय और संदेह पैदा हो जाते हैं बल्कि जनमत भी प्रभावित होता है.

इस मामले में भी यही हो रहा है. उदाहरण के लिए, खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर एन.ए.सी और प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त रंगराजन समिति के बीच मतभेद और टकराव के कारण खाद्य सुरक्षा को लेकर मध्य वर्ग और लोगों में यह भ्रम और संशय बढ़ रहा है कि इसे एन.ए.सी के कहे मुताबिक लागू करना संभव नहीं है और न ही यह वांछनीय है.

ऐसे में, अगर एन.ए.सी और खाद्य सुरक्षा के अधिकार के लिए लड़नेवाले संगठन इस मुद्दे पर अड़ते हैं तो सरकार को यह प्रचार करने का मौका मिल जायेगा कि इन संगठनों के अड़ियल रूख के कारण खाद्य सुरक्षा के कानून को लागू करने में कठिनाई आ रही है.

यह और बात है कि इस मुद्दे पर सरकार का रवैया सबसे अधिक अड़ियल है. लेकिन इस पूरे विवाद के कारण सरकार को न सिर्फ इस अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे को और हल्का और कमजोर करने का तर्क और मौका मिल रहा है बल्कि एन.ए.सी के भी पीछे हटने की जमीन तैयार हो रही है. असल में, जब भी किसी मुद्दे पर विवाद बढ़ता है तो बीच का रास्ता लेने का माहौल बनने लगता है. कई बार विवाद इसी उद्देश्य से खड़े भी किए जाते हैं.

आश्चर्य नहीं कि अगले कुछ दिनों में खाद्य सुरक्षा और अन्य मुद्दों पर बीच का रास्ता लेने का माहौल बनाया जायेगा और सोनिया गांधी के नेतृत्व में एन.ए.सी को इसे स्वीकार करने के लिए तैयार कर लिया जायेगा. एन.ए.सी पहले ही इस मुद्दे पर जिस तरह से काफी पीछे हट चुकी है, उसे और पीछे हटने में शायद ही कोई गुरेज होगा.

यह बात और है कि इस समझौते में खाद्य सुरक्षा का कानून न सिर्फ और पिलपिला, बेमानी और नई बोतल में पुरानी शराब होकर रह जायेगा. लेकिन नूराकुश्ती का नतीजा और हो भी क्या सकता है?

आगे दो किस्तों में पढ़िए खाद्य सुरक्षा और वनाधिकार कानून के बारे में....

(समकालीन जनमत के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)


सोमवार, फ़रवरी 14, 2011

हमारे समय में प्रेम

प्रेम सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम तक सीमित नहीं है  

आज वैलेंटाइन डे है. प्रेम और उसके इजहार का दिन. लेकिन क्या प्रेम सिर्फ प्रेमी और प्रेमिका तक सीमित है? या प्रेम इससे कुछ बड़ी चीज़ है!


आज जब बाजार ने प्रेम को भी खरीद-बिक्री की चीज़ बना दिया है और प्रेम का मतलब महँगी से महँगी गिफ्ट देना बताया जा रहा है, उस समय क्या मान लिया जाए कि प्रेम पर सिर्फ अमीरों का अधिकार है? एक अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक, वैलेंटाइन डे पर होनेवाला कुल कारोबार 12000 हजार करोड़ रूपये तक पहुंच गया है, तब हम प्रेम को कैसे देखें?

दूसरी ओर, प्रेम पर पहरे बढ़ते जा रहे हैं. परंपरा और संस्कृति के भगवा ठेकेदार प्रेम को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं. नौजवान लड़के-लडकियों का मिलना-जुलना उन्हें संस्कृति पर हमले की तरह दिखाई देता है. खासकर, प्रेम में स्त्री की आज़ादी उन्हें हरगिज मंजूर नहीं है. खाप पंचायतें प्रेमी-प्रेमिकाओं को सरेआम क़त्ल कर रही हैं.

लेकिन इस दोहरे हमले के बीच भी प्रेम जीवित है. सिर्फ प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम में ही नहीं बल्कि अपने सभी रूपों में.

लेकिन क्या हम सचमुच, प्रेम का अर्थ समझते हैं? आखिर प्रेम है क्या? मुझे एरिक फ्राम की किताब ‘प्रेम का वास्तविक अर्थ’ याद आ रही है. उसका एक छोटा सा हिस्सा आप सभी के लिए पेश है:

“प्रेम किसी एक व्यक्ति के साथ संबंधों का नाम नहीं है. यह एक 'दृष्टिकोण' है, एक 'चारित्रिक रुझान' है- जो व्यक्ति और दुनिया के संबंधों को अभिव्यक्त करता है, न कि प्रेम के सिर्फ एक 'लक्ष्य' के साथ उसके संबंधों को. अगर एक व्यक्ति सिर्फ दूसरे व्यक्ति से प्रेम करता है और अन्य सभी व्यक्तियों में उसकी जरा भी रूचि नहीं है – तो उसका प्रेम, प्रेम न होकर मात्र एक समजैविक जुडाव भर है, उसके अहम का विस्तार भर है.


फिर भी ज्यादातर लोग यही समझते हैं कि प्रेम एक 'लक्ष्य' होता है, एक व्यक्ति, न कि एक 'क्षमता'. बल्कि वे तो यह समझने की भूल भी कर बैठते हैं कि अगर वे सिर्फ अपने प्रेमी या प्रेमिका से ही प्रेम करते हैं तो यह उनके प्रेम की गहराई का प्रतीक है. इसका मतलब है कि वे प्रेम को एक 'गतिविधि' के रूप में देखते हैं न कि 'आत्मा की एक शक्ति' के रूप में. उन्हें लगता है कि एक प्रेमी या प्रेमिका को पा लेने का अर्थ है 'प्रेम' को पा लेना.


यह बिल्कुल ऐसी ही बात है जैसे कोई व्यक्ति चित्रकारी करना चाहता हो और समझे कि उसे सिर्फ एक प्रेरक विषय की जरूरत है, उसके बाद वह खुद-ब-खुद बहुत बढ़िया चित्रकारी कर लेगा. अगर मैं किसी एक व्यक्ति से सचमुच प्रेम करता हूँ, किसी से आई लव यू कहने का सच्चा अर्थ है कि मैं उसके माध्यम से पूरी दुनिया और जिंदगी से प्रेम करता हूँ.”

इस मौके पर अवतार सिंह पाश की एक मशहूर कविता पेश है जो प्रेम के असली मायने बताती है:

मैं अब विदा लेता हूँ
अवतार सिंह पाश

अब विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं

उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का जिक्र होना था

उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त

लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है

युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूं

मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है

मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूं

प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे

प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने बनिया बना दिया

जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना,
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं

तुम भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों के भीतर पालकर जवान किया
मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने कितना खूबसूरत बना दिया तुम्हारा चेहरा
कि मेरे आलिंगनों ने
तुम्हारा मोम-जैसा शरीर कैसे सांचें में ढाला

तुम यह सभी कुछ भूल जाना मेरी दोस्त
सिवाय इसके,
कि मुझे जीने की बहुत लालसा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे हिस्से का जी लेना, मेरी दोस्त
मेरे भी हिस्से का जी लेना !

अनुवाद- चमनलाल


शुक्रवार, फ़रवरी 11, 2011

टी.आर.पी के गुलाम

समस्या टी.आर.पी नहीं बल्कि व्यावसायिक टी.वी के मुनाफा आधारित बिजनेस माडल में है 

दूसरी और आखिरी किस्त

सच यह है कि इस प्रक्रिया में चैनल एक तरह से टी.आर.पी के गुलाम बन जाते हैं. किसी एक सप्ताह की टी.आर.पी के आधार पर किसी कार्यक्रम की गुणवत्ता तय होने लगती है. कार्यक्रम निर्माताओं के पास कोई स्वायत्तता नहीं रह जाती है. ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब टी.आर.पी में गिरावट के कारण किसी कार्यक्रम की कहानी की दिशा, उसके पात्रों के चरित्र चित्रण या प्रस्तुति में उलटफेर करना पड़ा है. इसी तरह, टी.आर.पी की दृष्टि से सफल कार्यक्रमों की नक़ल या प्रतिरूप सभी चैनलों पर छा जाते हैं जिसका सबसे पहला शिकार विविधता और बहुलता होती है.

यही कारण है कि कई समाचार चैनलों के संपादक यह मांग करते रहे हैं कि जैसे अख़बारों की पाठक संख्या का सर्वेक्षण हर छह महीने पर आता है, उसी तरह से टी.वी चैनलों की रेटिंग भी छह महीने पर आनी चाहिए. खुद समिति के मुताबिक, इससे अनावश्यक रूप से एयरटाइम का जिन्सीकरण होता है और इससे प्रसारक और विज्ञापनदाता दोनों तात्कालिक टी.आर.पी बढ़ोत्तरी के पीछे भागने लगते हैं.

लेकिन समिति ने टी.आर.पी व्यवस्था की इस अपर्याप्तता और विसंगतियों का समाधान सैम्पल साइज को बढ़ाने में खोजा है. समिति ने सिफारिश की है कि अगले पांच वर्षों में पीपुल मीटर्स की संख्या को बढ़ाकर तीस हजार तक ले जाया जाए. समिति के मुताबिक इन अतिरिक्त २२००० मीटर्स को लगाने का खर्च लगभग ६६० करोड़ रूपये आएगा जिसे टी.वी उद्योग से एक सालाना फ़ीस के रूप में वसूला जा सकता है. समिति ने टैम और अन्य रेटिंग एजेंसी को टी.वी उद्योग से जुड़े प्रसारकों, विज्ञापन दाताओं और विज्ञापन एजेंसियों का प्रतिनिधित्व करनेवाली संस्था ब्राडकास्ट आडिएंस रिसर्च काउन्सिल- बार्क की निगरानी में लाने की भी सिफारिश की है.

समिति ने इसके अलावा, केबल, टेरेस्ट्रियल, डी.टी.एच, आई.पी.टी.वी और अन्य तकनीकों को भी टी.आर.पी के दायरे में लाने की सिफारिश की है. समिति का मानना है कि रेटिंग की घोषणा प्रतिदिन के बजाय साप्ताहिक आधार पर ही होनी चाहिए और बार्क चाहे तो इसे पाक्षिक भी कर सकता है. समिति ने यह भी सिफारिश की है कि हितों का टकराव टालने के लिए रेटिंग एजेंसियों, प्रसारकों, विज्ञापन दाताओं और विज्ञापन एजेंसियों के बीच क्रास मीडिया निवेश नहीं होना चाहिए.

समिति ने टी.आर.पी व्यवस्था की निगरानी के लिए गठित की जानेवाली संस्था- बार्क में एक उच्च स्तरीय समिति गठित करने की भी सिफारिश की है जिसमें विशेषज्ञों, नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए. समिति ने टी.आर.पी संग्रह की पूरी प्रक्रिया और उसके नतीजों को सार्वजनिक करने की भी सिफारिश की है ताकि उन्हें स्वतंत्र रूप से जांचा-परखा जा सके.

सवाल यह है कि क्या इन सिफारिशों से टी.आर.पी के कारण पैदा होनेवाली कई बुनियादी समस्याएं और गडबडियां दूर हो जाएंगी? निश्चय ही, सिर्फ टी.आर.पी मीटर्स की संख्या को चौगुना कर देने और उसमें ग्रामीण क्षेत्रों और अन्य उपेक्षित राज्यों को भी शामिल भर कर लिए जाने भर से न तो टी.आर.पी का अवांछित दबाव कम होनेवाला है और न ही उसके दबाव के कारण कंटेंट के स्तर होनेवाली गडबडियां दूर होनेवाली है. उल्टे इस बात की आशंका अधिक है कि मीटर्स की संख्या बढ़ने से उसे और ज्यादा महत्व मिलने लगेगा जिसके कारण कार्यक्रमों फार्मेट से लेकर उसके स्वरुप, सिक्वेंस और ट्रीटमेंट में टी.आर.पी की घुसपैठ और बढ़ जायेगी.

असल में, टी.आर.पी व्यवस्था के साथ सबसे बुनियादी समस्या यह है कि यह व्यावसायिक टेलीविजन और उसके मुनाफे के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी व्यवस्था है. व्यावसायिक टेलीविजन मुनाफे के लिए चलता है और फ़िलहाल, प्रसारकों के मुनाफे का मुख्य स्रोत विज्ञापनों से होनेवाली आय है. स्वाभाविक तौर पर विज्ञापनदाता उस चैनल या कार्यक्रम को ज्यादा और ऊँची कीमत पर विज्ञापन देता है जिसके पास सबसे अधिक दर्शक होते हैं.

कहा भी जाता है कि टी.वी के कार्यक्रमों के पीछे मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक दर्शक जुटाकर विज्ञापनदाताओं को बेच देना होता है. यही नहीं, विज्ञापनदाता यह भी देखता है कि उसके दर्शक समाज के किन वर्गों से आते हैं. जाहिर है कि उनकी प्राथमिकता उन दर्शकों की होती है जिनके पास इतनी क्रयशक्ति है कि वे उन उत्पादों और सेवाओं को खरीद पायें.

टी.आर.पी के मौजूदा ढांचे में बड़े महानगरों और समृद्ध राज्यों में अधिक पीपुल मीटर्स का लगा होना इसी जरूरत को पूरा करने के लिए है. वास्तव में, टी.आर.पी व्यवस्था उन विज्ञापन दाताओं के लिए ही बनाई गई है जो चाहते हैं कि विज्ञापन पर खर्च होनेवाला उनका पैसा बेकार न जाए. लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि इस समिति ने टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था में कई बड़ी कमियों और गडबडियों की शिकायतों को सही मानते हुए भी समाधान की बहुत सीमित और सतही पेशकश की है. यह टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था के अंदर ही कुछ प्रक्रियागत सुधारों के जरिये उसे और सशक्त और प्रभावी बनाने की कोशिश है.

आश्चर्य नहीं कि समिति ने टी.आर.पी के कंटेंट पर पड़नेवाले नकारात्मक प्रभावों पर सिवाय इसके कुछ नहीं कहा है कि चैनल कंटेंट के मामले में स्व-नियमन और अनुशासन का पालन करें. लेकिन सवाल है कि जब तक चैनलों मुनाफे के लिए विज्ञापन और उससे जुड़े टी.आर.पी पर आश्रित हैं तो स्व-नियमन की परवाह कौन करता है? जाहिर है कि इससे रेटिंग की तानाशाही कमजोर नहीं पड़ेगी.

इस पूरी बहस की सबसे बड़ी त्रासदी यही है. दरअसल, उसे टी.वी रेटिंग की व्यवस्था से कोई शिकायत नहीं है. उसे सिर्फ टैम की रेटिंग प्रणाली की कमियों-खामियों से शिकायत है. लेकिन समस्या सिर्फ टैम की रेटिंग तक सीमित नहीं है बल्कि इस तरह की किसी भी रेटिंग व्यवस्था की यह अन्तर्निहित विकृति है जिसका उद्देश्य विज्ञापनदाताओं के लिए टार्गेट आडिएंस खोजना है. याद रहे, इस रेटिंग व्यवस्था का मूल मकसद विज्ञापनदाता के लिए उन दर्शकों की तलाश है जिनके पास उसके उत्पादों/सेवाओं को खरीदने की सामर्थ्य है.

जाहिर है कि जब तक समृद्ध और उपभोक्ता दर्शकों की पसंद-नापसंद को ध्यान में रखकर रेटिंग होगी और उसे आकर्षित करने के लिए कार्यक्रम बनाये जायेंगे, रेटिंग के दलदल से बाहर निकलना संभव नहीं है. चाहे टैम हो या बार्क- समस्या हल होनेवाली नहीं है. असल में, मूल मुद्दा टैम का नहीं, टी.वी रेटिंग का विकल्प खोजने का है या कहें कि विज्ञापन आय पर निर्भर टी.वी को विज्ञापनों और मुनाफे की जकडबंदी से बाहर निकालने का है.

समाप्त
('कथादेश' के फरवरी'११ में प्रकाशित)

मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011

टी.आर.पी का धोखा

सुधार नहीं, मौजूदा टी.वी रेटिंग व्यवस्था का विकल्प खोजिये  

पहली किस्त


बहुतेरे विश्लेषक ही नहीं, संपादक भी टेलीविजन चैनलों पर कंटेंट के गिरते स्तर और उससे जुड़ी अधिकांश समस्याओं के लिए उनकी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं. चैनलों में यह आम धारणा है और बहुत हद तक सही है कि टी.वी कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने के लिए इस्तेमाल होनेवाली टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स (टी.आर.पी) की मौजूदा व्यवस्था के कारण चैनलों, प्रसारकों और कार्यक्रम निर्माताओं पर अधिक से अधिक रेटिंग बटोरने का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है.

इस कारण वे कार्यक्रमों की गुणवत्ता से अधिक रेटिंग बढ़ाने के टोटकों पर ध्यान देते हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि सभी व्यावसायिक यहां तक कि सार्वजनिक चैनलों पर भी बिना किसी के अपवाद के रेटिंग के लिहाज से सफल कार्यक्रमों की नक़ल से लेकर सफल विषयों के दोहराव, सतही, छिछले और अश्लील कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गई है.

यही नहीं, हाल के वर्षों में चैनलों और कार्यक्रम निर्माताओं में अधिक से अधिक टी.आर.पी बटोरने की ऐसी अंधी होड़ शुरू हुई है कि उसमें सामाजिक-मानवीय मूल्यों, नैतिकता, पत्रकारीय एथिक्स और मूल्यों की सबसे अधिक अनदेखी हो रही है. सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि चैनलों की इस प्रतियोगिता से कार्यक्रमों की गुणवत्ता में बेहतरी नहीं आ रही है जबकि माना यह जाता है कि प्रतियोगिता से गुणवत्ता में सुधार आता है.

उल्टे हो यह रहा है कि चैनलों के कार्यक्रमों में नयापन, प्रयोग, सुरुचि और विविधता के लिए जगह लगातार कम होती जा रही है. इस मामले में चैनल और कार्यक्रम निर्माता जोखिम लेने और प्रयोग करने के बजाय टी.आर.पी के तयशुदा फार्मूलों पर चलना पसंद करते हैं.

यही कारण है कि टी.आर.पी मापने की मौजूदा व्यवस्था को लेकर शिकायतें बढ़ती ही जा रही हैं. सार्वजनिक मंचों से लेकर संसद तक में इस मुद्दे पर बहस हुई और हो रही है. इन शिकायतों के कारण ही पिछले कुछ वर्षों में दूरसंचार नियामक आयोग- ट्राई और सूचना तकनीक मंत्रालय की संसदीय स्टैंडिंग कमिटी ने इस व्यवस्था की जांच-पड़ताल की और उनकी रिपोर्टें भी आ चुकी हैं.

लेकिन इसके बावजूद व्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं आया है. पिछले वर्ष सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था की समीक्षा और उसमें सुधार के उपाय सुझाने के लिए फिक्की के महासचिव अमित मित्र की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था जिसने अपनी रिपोर्ट इस साल जनवरी के दूसरे सप्ताह में पेश कर दी है.

इस रिपोर्ट में समिति ने टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था में कई बड़ी गडबडियों और खामियों की बात स्वीकार की है और माना है कि इसमें सुधार की जरूरत है. समिति ने टी.आर.पी व्यवस्था में सिर्फ दो निजी कंपनियों खासकर ए.सी-निएल्सन/टैम के दबदबे और एकाधिकार पर चिंता प्रकट करने के अलावा टी.आर.पी के सैम्पल आकार की अपर्याप्तता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता के अभाव जैसे मुद्दों को उठाया है.

समिति ने सबसे अधिक जोर मौजूदा टी.आर.पी व्यवस्था में रेटिंग की माप के लिए इस्तेमाल किए जा रहे सैम्पल साइज को बढ़ाने पर दिया है. समिति के मुताबिक, भारत जैसे देश के आकार और विविधता के मुकाबले टी.आर.पी की मौजूदा सैम्पल साइज काफी सीमित और कम है. 

समिति के अनुसार, ५० करोड़ से ज्यादा दर्शकों की पसंद का वास्तविक आकलन सिर्फ ८००० पीपुल मीटर से नहीं किया जा सकता है. भारत में टी.वी. रेटिंग के व्यवसाय की सबसे बड़ी और लगभग एकाधिकार की स्थिति रखनेवाली कंपनी टैम के मुताबिक, देश में कुल २२.३ करोड़ घर हैं जिनमें से कुल १३.८ करोड़ घरों में टी.वी है. इनमें से १०.३ करोड़ टी.वी घरों में केबल और सेटेलाईट उपलब्ध है जबकि दो करोड़ टी.वी घरों में डिजिटल टी.वी उपलब्ध है.

इसी तरह, देश में कुल टी.वी घरों में ६.४ करोड़ शहरी इलाकों में और सात करोड़ ग्रामीण क्षेत्रों हैं. लेकिन इससे अधिक हैरानी की बात क्या होगी कि जिस टी.वी रेटिंग के आधार पर चैनलों और उनके कार्यक्रमों की लोकप्रियता का आकलन किया जाता है, उसके ८००० पीपुल मीटरों में एक भी मीटर ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है?

यही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर, असम को छोड़कर पूरे उत्तर पूर्व में कोई पीपुल मीटर नहीं है. इसका अर्थ यह हुआ कि इन क्षेत्रों के दर्शकों की पसंद कोई मायने नहीं रखती है. लेकिन उससे भी अधिक चौंकानेवाली बात यह है कि अधिकांश पीपुल मीटर देश के आठ बड़े महानगरों तक सीमित हैं जहां कुल २६९० मीटर लगे हुए हैं. इस तरह, सिर्फ आठ महानगरों में कुल पीपुल मीटर्स के ३३.६ प्रतिशत लगे हुए हैं.

इसमें भी दिल्ली और मुंबई में कुल टी.वी मीटर्स के १३.५ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं जबकि इन दोनों शहरों में देश की सिर्फ दो प्रतिशत आबादी रहती है. इसी तरह, देश के पश्चिमी हिस्सों खासकर गुजरात (अहमदाबाद सहित) और महाराष्ट्र (मुंबई छोड़कर) में कुल पीपुल मीटर्स के १९ फीसदी मीटर्स लगे हुए हैं.

टी.वी रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में जहां अकेले पुणे में १८० पीपुल मीटर्स लगे हुए हैं, वहीँ पूरे बिहार में सिर्फ १५० मीटर्स लगे हैं. इसी तरह, दिल्ली में कुल ५४० पीपुल मीटर्स लगे हैं, वहीँ पूरे मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल ४५० मीटर्स लगे हैं. जाहिर है कि टी.आर.पी की मौजूदा व्यवस्था में इस तरह की भारी विसंगतियाँ हैं.

आश्चर्य नहीं कि टी.आर.पी व्यवस्था की जांच करते हुए ट्राई ने भी स्वीकार किया था कि “ रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था मुख्यतः केबल घरों पर आधारित है. चूँकि केबल घरों की बड़े पैमाने पर अंडर रिपोर्टिंग होती है, इसलिए ८००० घरों पर आधारित रेटिंग की व्यवस्था अत्यधिक अपर्याप्त है. इसके अलावा चूँकि लगभग ६० फीसदी टी.वी सेट्स अभी भी ब्लैक एंड व्हाइट हैं, जिनसे दर्शकों की पसंद के बारे में सही अनुमान लगा पाना बहुत संदेहास्पद है.

इसी तरह, चैनलों की मौजूदगी भी देश के सभी क्षेत्रो में एक सामान नहीं है. इस सबसे रेटिंग की मौजूदा प्राविधि की सीमाएं अस्पष्ट होती हैं. इसका नतीजा यह हो रहा है कि जिन चैनलों की ग्रामीण इलाकों या दर्शकों के कुछ हिस्सों में अधिक पैठ होगी, वे रेटिंग की मौजूदा व्यवस्था में नुकसान में रहते हैं. मुख्यतः शहरी दर्शक ही चैनलों की रेटिंग और उनके कार्यक्रमों का शेड्यूल तय कर रहे हैं.”

इसके अलावा, समिति टी.वी उद्योग की इन शिकायतों से भी सहमत दिखती है कि टैम और ए-मैप की मौजूदा रेटिंग व्यवस्था में पारदर्शिता और विश्वसनीयता का भी अभाव है. सैम्पल की गोपनीयता के नाम पर रेटिंग एजेंसियों की मौजूदा व्यवस्था में उनके आंकड़ों की शुद्धता की जांच और उस प्रक्रिया का मूल्यांकन संभव नहीं है. टैम पर यह आरोप अक्सर लगते रहे हैं कि उसके द्वारा बरती जानेवाली गोपनीयता के आवरण में उसके आंकड़ों को बड़े प्रसारक प्रभावित करते हैं. यह भी आरोप लगते रहे हैं कि पीपुल मीटर्स के पैनल की जानकारी कुछ बड़े चैनलों/प्रसारकों को मुहैया कर दी जाती है जो उसका फायदा संबंधित दर्शकों की पसंद को मैनीपुलेट करके उठाते हैं.

यही नहीं, रेटिंग एजेंसियों के स्वामित्व और उनमें क्रास मीडिया निवेश के कारण हितों के टकराव (कनफ्लिक्ट आफ इंटरेस्ट) के सवाल भी उठते रहे हैं. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि अगर रेटिंग एजेंसी में प्रसारकों या विज्ञापन एजेंसियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शेयर होगा या रेटिंग एजेंसी का प्रसारकों, कार्यक्रम निर्माता कंपनियों या विज्ञापन एजेंसियों में हिस्सेदारी होगी तो निश्चय ही, हितों के टकराव होगा और उससे रेटिंग की विश्वसनीयता प्रभावित होगी.

इसके अलावा, समिति ने इस चिंता का भी उल्लेख किया है कि रेटिंग व्यवसाय में एकाधिकार की स्थिति के कारण पीपुल मीटर की कीमत बहुत अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार, एक पीपुल मीटर की कीमत लगभग डेढ़ लाख रूपये है. आरोप है कि पीपुल मीटर की इस अत्यधिक कीमत के जरिये संबंधित कंपनी अपनी विदेशी पैरेंट कंपनी को अनुचित तरीके (ट्रांसफर प्राइसिंग) से लाभ पहुंचा रही है.

समिति ने इस मुद्दे पर भी चिंता जाहिर की है कि टी.आर.पी के आंकड़ों को जारी करने की अवधि और बारंबारता (फ्रीक्वेंसी) को हर मिनट, हर घंटे, हर दिन और हर सप्ताह करके उसे शेयर बाजार की तरह बना दिया गया है. उल्लेखनीय है कि अभी टैम मीडिया साप्ताहिक आधार पर जबकि ए-मैप दैनिक आधार पर टी.आर.पी रेटिंग जारी करते हैं.

इसके कारण, चैनलों और कार्यक्रम निर्माताओं पर हर सप्ताह रेटिंग में आनेवाले उतार-चढाव के अनुसार अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ता है. प्रसारकों और कार्यक्रम निर्माताओं पर न सिर्फ टी.आर.पी में बढ़त को बनाए रखने और कमी को सुधारने का दबाव रहता है बल्कि उनके पास कार्यक्रमों में प्रयोग करने की कोई गुंजाइश भी नहीं रह जाती है.
जारी.....
('कथादेश' के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)

सोमवार, फ़रवरी 07, 2011

महंगाई के बहाने खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को इजाजत देने की तैयारी

महंगाई के आगे घुटने टेक चुकी है सरकार


अब इस तथ्य में कोई शक नहीं रह जाना चाहिए कि यू.पी.ए सरकार ने महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती महंगाई के आगे घुटने टेक दिए हैं. वह मान चुकी है कि महंगाई पर काबू पाना उसके वश की बात नहीं है. पहले यह कृषि मंत्री शरद पवार कहा करते थे लेकिन अब खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने महंगाई पर नियंत्रण की समयसीमा देने से इंकार करते हुए यह कहकर अपनी लाचारगी स्वीकार कर ली है कि वे कोई ज्योतिषी नहीं हैं. उनसे पहले यू.पी.ए-प्रथम में वित्त मंत्री रहे और अब गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी यह स्वीकार किया किया कि, ‘मुझे यह साफ नहीं है कि हम महंगाई के सभी कारणों को भलीभांति समझ रहे हैं या हमारे पास इस महंगाई को रोकने के सभी औजार उपलब्ध हैं.’


ये सभी अकेले नहीं हैं. यू.पी.ए सरकार के सभी आर्थिक मैनेजर लगभग यही राग अलाप रहे हैं. चाहे योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया हों या प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी. रंगराजन या फिर खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी- सभी ने या तो यह कहकर हाथ खड़े कर दिए हैं कि सब्जियों की कीमतों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है या फिर ऐसे ही और बहाने बनाने में लगे हैं.

नतीजा, मनमोहन सिंह सरकार महंगाई पर काबू करने के नाम पर अँधेरे में तीर चला रही है या फिर मार्च तक मुद्रास्फीति (महंगाई नहीं) की दर गिरने के दावे कर रही है. कहने की जरूरत नहीं है कि उसकी यह उम्मीद सांखिकीय चमत्कार (बेस प्रभाव) पर टिकी है जिसके तहत पिछले वर्ष की ऊँची मुद्रास्फीति दर के कारण इस साल की बढ़ोत्तरी कम दिखने लगती है.

लेकिन खाद्य वस्तुओं की जबरदस्त महंगाई को लेकर सरकार के रवैये से साफ है कि वह महंगाई की आंधी के आगे शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छिपाकर उसके गुजरने का इंतज़ार कर रही है. अलबत्ता लोगों को दिखाने के लिए महंगाई पर काबू पाने के नाम पर कुछ टोटके भी करती रहती है जैसे जब प्याज की कीमतें आसमान छूने लगीं तो निर्यात पर प्रतिबन्ध और प्याज के आयात के साथ-साथ कुछ शहरों में चुनिन्दा ठिकानों पर ३५ से ४० रूपये किलो प्याज बेचने का फैसला. लेकिन वास्तविकता यह है कि ये सभी टोटके खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती महंगाई को रोकने में पूरी तरह से नाकाम साबित हुए हैं.

आश्चर्य नहीं कि इस बीच, महंगाई खासकर खाद्य वस्तुओं की महंगाई लगातार ऊँची बनी हुई है. हालात कितने खराब हैं, इसका अंदाज़ा सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर पिछले २४ महीनों से लगातार दोहरे अंकों में बनी हुई है. यह इसलिए अत्यधिक चिंताजनक है क्योंकि पिछले साल के आखिरी महीने और अब नए साल के पहले कुछ सप्ताहों में खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर वर्ष २००९ और वर्ष २०१० के शुरूआती महीनों की ऊँची मुद्रास्फीति दर के ऊपर आई है. उदाहरण के लिए, २५ दिसंबर’१० को खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर १८.३२ प्रतिशत पहुंच गई लेकिन यह इसलिए और भी चुभनेवाली थी क्योंकि उसके पिछले वर्ष १९ दिसम्बर’०९ को मुद्रास्फीति की दर १९.८३ प्रतिशत थी.

इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ एक साल में अधिकांश खाद्य वस्तुओं की कीमतों में औसतन कोई ३८ फीसदी की वृद्धि हो चुकी है. सच पूछिए तो यह महंगाई के ऊपर रिकार्डतोड़ महंगाई का मामला है. इससे यह भी पता चलता है कि खुद सरकार मुद्रास्फीति के मामले में वर्ष २००९ के जिस उंचे बेस प्रभाव के कारण पिछले साल नवंबर-दिसंबर तक मुद्रास्फीति की दर में गिरावट की उम्मीद पाले हुए थी, वह कामयाब नहीं हुई.

हालांकि मनमोहन सिंह सरकार अब भी इस उंचे बेस प्रभाव के कारण मार्च-अप्रैल तक मुद्रास्फीति की दर में गिरावट पर उम्मीद टिकाये हुए है लेकिन उसके सफल होने के आसार कम ही दिख रहे हैं. दूसरे, अगर ऐसा होता भी है कि उंचे बेस के कारण मुद्रास्फीति की दर ८-९ फीसदी तक आ जाती है तो यह महंगाई में कम नहीं होगी.

लेकिन सबसे अधिक हैरानी की बात यह है कि जो सरकार खाद्य वस्तुओं की महंगाई को रोकने के मामले में अपनी लाचारगी जाहिर कर चुकी है, वह इस मौके का फायदा उठाकर खुदरा व्यापार को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने को बेचैन दिख रही है. इस साजिशी सिद्धांत (कांसपिरेसी थियरी) को अगर अनदेखा भी कर दिया जाए कि सब्जियों समेत खाद्य वस्तुओं की कीमतों में जानबूझकर भारी इजाफा कराया गया ताकि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का माहौल बनाया जा सके.

लेकिन इस संयोग को कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि इस महंगाई के लिए खुदरा व्यापारियों को जिम्मेदार ठहराकर सरकार खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के प्रस्ताव को आगे बढ़ा रही है. उल्लेखनीय है कि महंगाई पर दो दिनों की मैराथन बैठक के बाद केन्द्र सरकार के बयान में सबसे महत्वपूर्ण घोषणा इसी बाबत थी.

ऐसी खबरें हैं कि मनमोहन सिंह सरकार जल्दी ही कैबिनेट में खुदरा क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए पूरी तरह से खोलने का प्रस्ताव ला सकती है. केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया जिस तरह से इसके पक्ष में बैटिंग कर रहे हैं और हालिया विवादों और कारपोरेट युद्ध के बीच यू.पी.ए सरकार नव उदारवादी सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए मौके की तलाश कर रही है, उसमें आश्चर्य नहीं होगा, अगर सरकार इस बारे में बजट सत्र के पहले फैसला कर ले. यही नहीं, अमेरिका से लेकर यूरोपीय संघ तक यू.पी.ए सरकार पर खुदरा व्यापार को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने का दबाव बनाए हुए हैं.

हालांकि यह तय है कि इससे खाद्य वस्तुओं की महंगाई में कोई कमी नहीं होगी बल्कि उल्टे उसके स्थाई हो जाने की आशंका अधिक है. सच तो यह है कि मौजूदा महंगाई के पीछे एक बड़ी वजह खुदरा व्यापार और अनाजों के कारोबार के क्षेत्र में मौजूद बड़ी भारतीय कंपनियां हैं. यही नहीं, वाल मार्ट जैसी कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां होलसेल-कैश एंड कैरी बाज़ार में पहले से मौजूद हैं.

इन सभी देशी-विदेशी कंपनियों में ही बड़े पैमाने पर जमाखोरी करने की क्षमता है. खाद्य वस्तुओं और सब्जियों आदि की महंगाई का फायदा उठाने में वे भी पीछे नहीं रही हैं. इसका सबूत यह है कि अधिकांश बड़ी कंपनियों के स्टोर्स में प्याज और टमाटर से लेकर अन्य खाद्य वस्तुओं की कीमतों में कोई खास फर्क नहीं दिखाई दे रहा है.

लेकिन महंगाई के वास्तविक कारणों की पड़ताल करने के बजाय हमेशा की तरह यू.पी.ए सरकार अपने बचाव में बहाने ढूंढने में लगी है. वह पिछले दो सालों से लगातार इस तेज महंगाई के लिए तीन कारण बता रही है. पहला, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जिंसों खासकर पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं. दूसरे, देश में किसानों की स्थिति बेहतर करने के लिए उनकी फसलों की न्यूनतम कीमत में भी काफी बढ़ोत्तरी की गई है.

तीसरे, लोगों की आय में इजाफा होने के कारण भी खाद्य वस्तुओं की मांग बढ़ी है. यू.पी.ए सरकार के मुताबिक इन तीनों कारणों से खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ी हैं. साथ ही, वह जमाखोरी और मुनाफाखोरी से लड़ने में राज्य सरकारों की ढिलाई को भी निशाना बनाती रही है.

लेकिन ये सभी कारण पूरी सच्चाई का बयान नहीं करते हैं. अधिक से अधिक इन्हें अर्ध सत्य माना जा सकता है. सच यह है कि महंगाई इन तीन कारणों से इतर वजहों से भी बढ़ रही है. बेलगाम महंगाई के लिए एक साथ कई कारण जिम्मेदार हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण है, खाद्यान्नों की उत्पादन वृद्धि दर में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है बल्कि कई मामलों में गिरावट आ रही है. यह कृषि क्षेत्र में पिछले कई वर्षों की गतिरुद्धता का नतीजा है.

इसके लिए और कोई नहीं, मौजूदा सरकार और उसकी नीतियां जिम्मेदार हैं. असल में, उत्तर उदारीकरण दौर में यह मान लिया गया कि कृषि क्षेत्र को बाईपास करके भी सेवा और उद्योग क्षेत्र के बूते ऊँची वृद्धि दर हासिल की जा सकती है. इस कारण, पिछले डेढ़-दो दशकों में कृषि क्षेत्र की जमकर उपेक्षा की गई है. कृषि में सार्वजनिक निवेश में काफी गिरावट आई.

इसी उपेक्षा का नतीजा अब हमारे सामने है. यह एक मायने में कृषि क्षेत्र का बदला भी है, दुर्भाग्य से जिसकी कीमत आज आम आदमी, मध्य और निम्न मध्यवर्ग उठा रहा है. मौजूदा महंगाई का दूसरा बड़ा कारण यह है कि कृषि जिंसों में वायदा कारोबार को बढ़ावा देने की नीति के कारण सट्टेबाजी काफी ज्यादा बढ़ गई है. इस सट्टेबाजी का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले वर्ष २००९-१० में देश के सभी जिंस बाजारों में कुल ७७,६४,७५४ करोड़ रूपये का वायदा कारोबार हुआ जो वर्ष २००८-०९ की तुलना में ४८ प्रतिशत ज्यादा है. यह राशि भारत के वर्ष ०९-१० के कुल सालाना बजट से ७.५ गुना ज्यादा है.

इसके साथ ही, कृषि उत्पादों के कारोबार में कई बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के घुसने के कारण जमाखोरी, कालाबाजारी और मुनाफाखोरी बढ़ी है. सरकार उनके आगे लाचार सी दिख रही है. इसके अलावा महंगाई का चौथा सबसे बड़ा कारण सरकार की अक्षमता, लापरवाही, नीतिगत विफलता और महंगाई से लड़ने के मामले में सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति का न होना है. अक्सर यह देखा जा रहा है कि महंगाई के मुद्दे पर न सिर्फ केन्द्र और राज्य सरकारों में कोई तालमेल नहीं है बल्कि केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के बीच भी जमकर खींचातानी होती रहती है.

हैरानी की बात यह है कि इस बार भी जब प्याज के दाम तेजी से बढ़े तो सरकार सोती हुई मिली. हालांकि तथ्य यह है कि खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय में १४ जिंसों (प्याज सहित) की देश के ३७ बाजारों में खुदरा और थोक कीमतों की नियमित निगरानी की उच्च स्तरीय व्यवस्था है. यही नहीं, कई प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों की एक समिति भी समय-समय पर आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों, आपूर्ति, उत्पादन और निर्यात-आयत पर निगाह रखती है. कैबिनेट की कीमतों पर एक अलग कमिटी है लेकिन यह जानते हुए भी कि बेमौसमी बारिश से प्याज की फसल खराब हो गई है और इसके कारण कीमतें बढ़ सकती हैं, किसी भी स्तर पर कोई अग्रिम पहल नहीं हुई.

यही नहीं, सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि केन्द्र सरकार खुद सबसे बड़ी जमाखोर बन गई है. खाद्य संकट और कीमतों के आसमान छूने के बावजूद सरकार के गोदामों में ३० नवंबर’१० को गेहूं और चावल का रिकार्ड ४.८४ करोड़ टन भंडार था जो बफर के नार्म के तीन गुने से ज्यादा है. लेकिन सरकार इस अनाज को बाज़ार में उतारने और पी.डी.एस के जरिये गरीबों और जरूरतमंद लोगों तक पहुंचने के बजाय दबाकर बैठी हुई है. सरकार इस अनाज को सस्ते दामों पर बाजार में उतारने और पी.डी.एस के जरिये सभी को सस्ती दरों पर अनाज उपलब्ध कराने से इसलिए कतराती रही है क्योंकि इससे सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ जायेगा.

कहने की जरूरत नहीं है कि नव उदारवादी अर्थनीति के इस वित्तीय कठमुल्लावाद ने मनमोहन सिंह सरकार के हाथ बांध रखे हैं जिसके कारण वह महंगाई से लड़ने के लिए सरकारी अनाज भंडार का इस्तेमाल करने से कन्नी काटती रही है. ऐसे में, महंगाई नहीं बढ़ेगी तो और क्या होगा? साफ है कि यू.पी.ए सरकार वास्तव में, महंगाई से ईमानदारी नहीं लड़ रही है और न लड़ना चाहती है. ऐसे में, महंगाई की सुरसा को तांडव करने की खुली छूट मिल गई है.

('सामयिक वार्ता' के फरवरी'११ अंक में प्रकाशित)