बुधवार, अगस्त 25, 2010

आक्टोपसी चंगुल में चैनल




स्पेन ने फुटबाल विश्वकप भले ही कलात्मक और बेहतर खेल के कारण जीता हो लेकिन अपने खबरिया चैनल इसका श्रेय उसे देने के लिए तैयार नहीं हैं. चैनलों की मानें तो स्पेन की जीत का असली क्रेडिट पाल नाम के एक आक्टोपस को जाता है जिसने मैच से पहले ही उसकी ‘भविष्यवाणी’ कर दी थी. चैनलों के मुताबिक इस बार फुटबाल विश्वकप का असली हीरो आक्टोपस पाल है जिसने कई प्रमुख मैचों के बारे में बिलकुल सटीक ‘भविष्यवाणियां’ की. खासकर जर्मनी के मैचों और सेमीफाइनल और फ़ाइनल मैच के नतीजों को लेकर की गई उसकी सभी सात ‘भविष्यवाणियां’ सही निकलीं.

बस, अपने खबरिया चैनलों को और क्या चाहिए था? हमेशा कुछ अजीबोगरीब और चमत्कारिक तमाशे की तलाश में लगे रहनेवाले चैनलों के लिए इतना काफी था. तेज तारों, तीन देवियों, ग्रहों-ग्रहणों, नक्षत्रों, ज्योतिषियों और बाबाओं से अटे पड़े चैनलों पर ‘बाबा’ आक्टोपस पाल को छाते देर नहीं लगी. उसके अहर्निश महिमागान में कोई चैनल पीछे नहीं रहा. आश्चर्य नहीं कि नियमित और प्राइम टाइम बुलेटिनों से लेकर आधा घंटे के विशेष कार्यक्रमों में जितना समय फुटबाल विश्वकप के मैचों की रिपोर्टों को मिला, उससे कम एयरटाइम आक्टोपस पाल के करिश्माई खेल को नहीं मिला. कुछ इस हद तक कि मैच सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गए जो पाल की भविष्यवाणी को सही साबित करने के लिए हो रहे हों.

जाहिर है कि ऐसा करते हुए खबरिया चैनलों ने सामान्य बुद्धि, तर्क और विवेक को ताखे पर रख दिया. हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है. लेकिन चैनल आक्टोपस पाल के चंगुल में जिस तरह से फंसे, उससे साफ है कि तर्क और बुद्धि से उनकी दुश्मनी अब काफी पुरानी और गहरी हो चुकी है. अफसोस की बात यह है कि चैनलों के इस अतार्किक और बुद्धिविरोधी रवैये का असर फुटबाल विश्वकप के मैचों की रिपोर्टिंग पर भी पड़े बिना नहीं रह पाया. अधिकांश हिंदी खबरिया चैनलों की फुटबाल विश्वकप में वैसी दिलचस्पी नहीं थी, जैसीकि क्रिकेट के ऐरे-गैरे चैम्पियनशिप को लेकर दिखती है. रही-सही कसर आक्टोपस पाल ने निकल दी. चैनलों ने काफी हद तक कमजोर रिपोर्टिंग की भरपाई आक्टोपस पाल के चमत्कारों को दिखाकर पूरी करने की कोशिश की.

नतीजा, एक ऐसा तमाशा जिसने फुटबाल जैसे शानदार खेल के विश्वकप को काफी हद तक मजाक में बदल दिया. वैसे, टी.वी ने फुटबाल ही नहीं, लगभग सभी खेलों को पहले ही तमाशे में बदल दिया है जहां खेल अब सिर्फ खेल नहीं रह गए हैं. वे टी.वी के लिए खेले जाते हैं. आश्चर्य नहीं कि उनमें खेलों की सामूहिकता, सहभागिता और मैत्रीपूर्ण प्रतिस्पर्धा की भावना के बजाय तमाशे, तड़क-भड़क और उन्माद का बोलबाला काफी बढ़ गया है. यह टी.वी के स्वभाव के अनुकूल है क्योंकि उसकी दिलचस्पी खेल से ज्यादा खेल के तमाशे और उसकी नाटकीयता में है. ऐसे में, अन्धविश्वास और टोने-टोटके कहाँ पीछे रहनेवाले थे.

असल में, आक्टोपस पाल टी.वी की रचना या पैदाइश है. यह समझने के लिए आपको रॉकेट विज्ञानी होने की जरूरत नहीं है. हैरानी की बात नहीं है कि सिर्फ भारत ही नहीं, यूरोप और दुनिया के अधिकांश देशों में मीडिया में आक्टोपस पाल छाया रहा. टी.वी चैनलों को आक्टोपस पाल इसलिए चाहिए क्योंकि वह अपनी नाटकीयता से अधिक से अधिक दर्शक खींचता है. चैनल को दर्शक चाहिए. इसलिए कि चैनलों की टी.आर.पी दर्शकों की संख्या पर निर्भर करती है. टी.आर.पी से विज्ञापन आता है और विज्ञापन से मुनाफा होता है. चैनलों को मुनाफा चाहिए और मुनाफे के लिए जरूरी है कि दर्शकों को आक्टोपसी चंगुल में फंसाए रहा जाए, चाहे वह अंधविश्वासों का ही क्यों न हो?

सवाल है कि दर्शक इन्हें क्यों देखते हैं? इसके मुख्यतः दो कारण हैं. पहला कारण यह है कि इनमें एक खास तरह का अनोखापन या अजीबोगरीबपन है. आमतौर पर अजीबोगरीब चीजें ध्यान खींचती हैं. यही कारण है कि चैनलों पर अजीबोगरीब चीजें खूब दिखाई जाती हैं. कुछ खबरिया चैनल तो इसी विधा के विशेषज्ञ हो गए हैं. आक्टोपस अपने आप में काफी अजीबोगरीब जीव है, ऊपर से अगर उसे भविष्यवक्ता बना दिया जाए तो उत्सुकता स्वाभाविक है. लेकिन दूसरा कारण ज्यादा महत्वपूर्ण और गहरा है. आक्टोपस पाल एक आदमी के अंदर बैठे अनजान के भय, आशंकाओं और चिन्ताओं को भुनाने के लिए पैदा होता है, उसीपर पलता और फलता-फूलता है. ज्योतिष और भविष्यवाणियों का जन्म भी इसी ‘अनजान के भय’ से हुआ है. ज्योतिष और उसकी भविष्यवाणियां लोगों को कुछ हद तक इसी ‘अनजान के भय’ से राहत देने का आभास पैदा करती हैं.

खबरिया चैनल हर आदमी के अंदर बैठे इसी ‘अनजान के भय’ का दोहन करते हैं. आक्टोपस पाल भी इसी दोहन के मकसद से भविष्यवक्ता बना दिया गया. और चैनलों ने क्या दूहा, विश्वकप फीका पड़ गया. हैरानी नहीं होगी, अगर जल्दी ही अपने खबरिया चैनल कोई देशी तोता, बिल्ली, बन्दर, गाय या हाथी खोज लाएं.

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