सोमवार, अगस्त 09, 2010

महंगाई की आग में तेल

नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के नशे में डूबी यू.पी.ए सरकार को आमलोगों की नहीं बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों की ज्यादा परवाह है



कमरतोड़ महंगाई के बीच पेट्रोलियम उत्पादों- पेट्रोल, डीजल, किरासिन और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी और उन्हें नियंत्रण मुक्त करने का फैसला करके यू.पी.ए सरकार ने अपना इरादा साफ कर दिया है. वह नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ाने की जल्दी में है. उसकी जल्दी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसे इसकी भी परवाह नहीं है कि उसके फैसलों का महा महंगाई की चक्की में पिस रहे आम लोगों पर क्या पड़ेगा? उल्टे इस मामले में, वह इतनी जल्दी में है कि पिछले पांच-छह सालों की कमी-बेशी को भी पूरा कर देना चाहती है. इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि पिछले कुछ महीनों में यू.पी.ए सरकार ने कई ऐसे आर्थिक फैसले किए हैं जिनका एकमात्र मकसद किसी भी कीमत पर आर्थिक सुधारों की गति को तेज करना है.

असल में, उसे लग रहा है कि आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने का इससे बेहतर कोई और मौका नहीं हो सकता है. यू.पी.ए खासकर कांग्रेस नेतृत्व का गणित बिलकुल साफ है. उसे लग रहा है कि अगले आम चुनाव चार साल बाद 2014 में होने हैं यानी राजनीतिक रूप से कोई बड़ा जोखिम नहीं है. इन कड़वे फैसलों के कारण अगर आमलोग नाराज भी हों तो फ़िलहाल सरकार की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़नेवाला है. आम चुनाव बहुत दूर हैं और जिन विधानसभाओं (जैसे बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु आदि) के चुनाव अगले आठ-दस महीनों में होने हैं, वहां कांग्रेस का कोई बड़ा राजनीतिक दांव नहीं लगा है. दूसरे, उसे लग रहा है कि इन राज्य विधानसभा चुनावों में महंगाई और पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों के बजाय स्थानीय मुद्दे ज्यादा हावी होंगे और इसके कारण उसे लोगों को ज्यादा जवाब नहीं देना पड़ेगा.


तीसरे, कांग्रेस और यू.पी.ए के राजनीतिक मैनेजरों को यह भी लग रहा है कि विपक्ष न सिर्फ कमजोर है और विभाजित है बल्कि अभी कोई चुनाव नहीं चाहता है. इसलिए न तो सरकार की स्थिरता को कोई खतरा है और न ही लोगों के गुस्से के संगठित होने की उम्मीद है. वजह, विपक्ष अपने विरोध को एक सीमा से आगे ले जाने के लिए भी तैयार नहीं है. वह भी सरकार की तरह अपने राजनीतिक गणित से चल रहा है. जब चुनाव इतने दूर हैं और कोई राजनीतिक फायदा नहीं होना है तो अभी से इतना पसीना क्यों बहाना? यही नहीं, विपक्ष में एन.डी.ए खासकर भाजपा का वास्तव में, इन फैसलों से कोई नीतिगत विरोध भी नहीं है. तथ्य यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने का फैसला एन.डी.ए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2002 में किया था. आश्चर्य नहीं कि भाजपा पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की नीति का नहीं बल्कि केवल उसकी टाइमिंग का विरोध कर रही है.


इन्हीं कारणों से यू.पी.ए सरकार को यह लग रहा है कि अगर आर्थिक सुधारों की अगली किस्त को अभी नहीं लागू किया गया तो आनेवाले महीनों में उन्हें लागू करना और भी मुश्किल होता जायेगा. कांग्रेस नेतृत्व की ओर से मनमोहन सिंह सरकार को इन सुधारों को लागू करने के लिए 2010 और हद से हद तक 2011 के शुरूआती महीनों तक समय दिया गया है. इसके बाद, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू हो जायेगी और वहां कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है. इसीलिए, यू.पी.ए सरकार की जल्दबाजी समझी जा सकती है. यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के नशे में डूबी सरकार सुधारों की अगली किस्त को जितनी जल्दी हो लागू करने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखना चाहती है.

निश्चय ही, इन आर्थिक सुधारों में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करके बाजार के हवाले करने का फैसला सबसे कठिन था. राजनीतिक रूप से यह फैसला बहुत ज्वलनशील था क्योंकि महंगाई आसमान छू रही है और ऐसे समय में, पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ाने का मतलब था कि महंगाई की आग में तेल डालना. कारण यह कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी का असर सभी वस्तुओं, उत्पादों और सेवाओं की कीमतों पर पड़ता है क्योंकि इन सभी के उत्पादन और संचालन में पेट्रोलियम उत्पादों का इस्तेमाल होता है. कहने की जरूरत नहीं है कि कोई भी और सरकार होती जिसे थोड़ी भी आमलोगों की चिंता होती तो वह यह फैसला अभी नहीं करती.


इसकी वजहें बिलकुल साफ है. पिछले सालभर से अधिक समय से महंगाई अपने चरम पर है और सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि सरकारी घोषणाओं के बावजूद वह नीचे नहीं आ रही है. दूसरे, यह महंगाई जो शुरू में खाद्य वस्तुओं की महंगाई के रूप में लोगों का जीना दूभर किए हुए थी, वह पिछले कुछ महीनों से सभी वस्तुओं और सेवाओं तक फ़ैल गई है. आश्चर्य नहीं कि पिछले कई महीनों से जहां खाद्य वस्तुओं की थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर 17 प्रतिशत से ऊपर चल रही है, वहीँ पिछले चार महीनों से सभी वस्तुओं की थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर लगातार 10 फीसदी से ऊपर बनी हुई है. हालांकि महंगाई के ये आंकड़े एक रिकार्ड हैं लेकिन फिर भी ये असलियत से काफी दूर हैं. याद रहे कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर वास्तविक महंगाई का आईना नहीं है क्योंकि थोक और खुदरा मूल्यों के बीच काफी फासला होता है. यह फासला सरकारी नीतियों और बेरुखी के कारण हाल के महीनों में काफी बढ़ गया है.


लेकिन एक आम उपभोक्ता को खुदरा मूल्य ही चुकाना पड़ता है. हाल के महीनों में खुदरा मूल्यों के मामले में महंगाई ने सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. खुदरा मूल्यों के मामले में खाद्यान्नों से लेकर सब्जियों तक आम आदमी की दैनिक जरूरत की सभी चीजों की कीमतों में आग लगी हुई है. यह इसलिए और भी अधिक चुभती है क्योंकि देश में 90 फीसदी से अधिक श्रमिकों की मजदूरी में महंगाई के मुताबिक वृद्धि नहीं होती है और न ही उन्हें सरकारी कर्मचारियों की तरह महंगाई भत्ता मिलता है. इस मायने में, महंगाई गरीब किसानों और मजदूरों के लिए टैक्स की तरह है. महंगाई के कारण उनकी मजदूरी वास्तव में घट जाती है. इस तरह से, आमलोगों के लिए यह महंगाई की दोहरी मार है. याद रहे कि आर्थिक मंदी का बहाना बनाकर पिछले दो सालों से अधिकांश औद्योगिक इकाइयों में पहले तो श्रमिकों की बड़े पैमाने पर छंटनी हुई और बाकी के वेतन में कोई वृद्धि नहीं हुई है.


लेकिन आम आदमी की दुहाई देनेवाली यू.पी.ए सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला करने से पहले उसके बारे में नहीं, पेट्रोलियम कंपनियों के घाटे को कम करने और उन्हें डूबने से बचाने के बारे में ज्यादा सोचा. हालांकि सच्चाई यह है कि यह फैसला सरकारी तेल कंपनियों के घाटे को कम करने के लिए नहीं बल्कि रिलायंस, एस्सार जैसी देशी तेल कंपनियों का मुनाफा बढ़ाने और विदेशी तेल कंपनियों के लिए दरवाजे खोलने के लिए उठाया है. सरकार की सोच का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ठीक उसी समय जब ग्रामीण विकास मंत्रालय ने नरेगा के तहत मिलनेवाले काम के दिनों को बढ़ाकर 200 दिन करने और न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने का प्रस्ताव भेजा तो उसे ठुकराने में वित्त मंत्रालय को जरा भी सोचने की जरूरत महसूस नहीं हुई.


जाहिर है कि आनेवाले महीनों में महंगाई का कहर और बढ़ेगा. आमलोगों की तकलीफें बढेंगी. लेकिन लगता नहीं है कि यू.पी.ए सरकार को इसकी परवाह है. वह अपने फैसले से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं दिख रही है. हालांकि भारत बंद की भारी सफलता और आमलोगों के बढ़ते गुस्से के कारण सरकार पर राजनीतिक दबाव बढ़ा है लेकिन वह फ़िलहाल पीछे हटने के मूड में नहीं दिख रही है. उसने मन बनाया हुआ है और पुनर्विचार के कोई संकेत नहीं हैं. उल्टे खुद प्रधानमंत्री ने पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के फैसले की जोरदार वकालत करते हुए कहा है कि जल्दी ही डीजल को भी नियंत्रण मुक्त कर दिया जायेगा. उनका तो यहां तक कहना है कि यह फैसला बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था. यानी पहले वामपंथी दलों का दबाव और फिर पिछले साल के आम चुनाव और बाद में, महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव नहीं रहे होते तो यह फैसला और भी पहले हो गया होता.


इससे यू.पी.ए सरकार की उस नव उदारवादी आर्थिक सोच का पता चलता है जो बाजार में आँख मूंदकर भरोसा करती है और मानती है कि पेट्रोलियम उत्पादों सहित ऐसी सभी वस्तुओं, उत्पादों और सेवाओं को बाजार के हवाले कर दिया जाना चाहिए. उनकी कीमतें बाजार को तय करने देना चाहिए और उनके लिए सब्सिडी बिल्कुल नहीं मिलनी चाहिए. जैसाकि मनमोहन सरकार के सबसे प्रमुख आर्थिक मैनेजर मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा भी है कि पेट्रोल-डीजल पर सब्सिडी बिल्कुल नहीं दिया जाना चाहिए. आश्चर्य नहीं कि सरकार की इस घोषित नीति के मुताबिक ही कृषि मंत्री शरद पवार ने चीनी उद्योग और उसकी कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने की इच्छा जाहिर कर दी है. अगले कुछ सप्ताहों में चीनी को नियंत्रण मुक्त करने का फैसला हो जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. बहरहाल, अभी सिर्फ पेट्रोल को नियंत्रण मुक्त किया गया है जबकि सरकार का दावा है कि डीजल, किरोसिन और रसोई गैस की कीमतों में वृद्धि के बावजूद उनपर भारी सब्सिडी जारी है. मुरली देवड़ा का दावा है कि इसके कारण कीमतों में बढ़ोत्तरी के बावजूद इस साल सरकारी तेल कंपनियों को 53 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान उठाना पड़ेगा.


इस सिलसिले में, प्रधानमंत्री के बयान से साफ है कि जल्दी ही डीजल को भी नियंत्रण मुक्त कर दिया जायेगा. प्रधानमंत्री का तर्क है कि यह फैसला देश हित में है. उनका और पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा का कहना है कि सरकार के पास इस फैसले के अलावा और कोई चारा नहीं था क्योंकि अगर यह फैसला नहीं किया गया होता तो सरकारी तेल कंपनियां दिवालिया हो जातीं. लेकिन सच्चाई ठीक इसके उलट है. असल में, इसके लिए यू.पी.ए सरकार पर मुकेश अम्बानी के रिलायंस, रुइया के एस्सार और अन्य देशी-विदेशी कंपनियों का भारी दबाव है. ये सभी कम्पनियां पेट्रोलियम उत्पादों खासकर पेट्रोल और डीजल के खुदरा कारोबार में जोरशोर से उतरना चाहती हैं. उल्लेखनीय है कि रिलायंस और एस्सार ने 2002 में एन.डी.ए सरकार द्वारा पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने के बाद देश के कई हिस्सों में सैकड़ों की संख्या में पेट्रोल पम्प खोले थे लेकिन पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के बाद फिर से कीमतों पर नियंत्रण लागू कर दिए जाने के कारण उन्हें अपने पेट्रोल पम्प बंद करने पड़े थे क्योंकि उनके मुनाफे का मार्जिन घट गया था. अब एक बार फिर ये कंपनियां अपने उन बंद पड़े पेट्रोल पम्पों और नए पम्प खोलने की तैयारी में जुट गई हैं.


साफ है कि इस फैसले से किसे सबसे अधिक फायदा होने जा रहा है? शेयर बाजार में इन निजी तेल कंपनियों के शेयरों में उछाल से भी यह स्पष्ट है कि और अधिक मुनाफे की उम्मीद में देशी-विदेशी निवेशक इन कंपनियों में निवेश कर रहे हैं. ध्यान रहे कि दिवालिया होने के सरकारी दावों के विपरीत सरकारी और निजी तेल कंपनियों बिना किसी अपवाद के साल दर साल भारी मुनाफा कमा रही हैं. अगर उनके पिछले दस साल के वित्तीय प्रदर्शन को देखा जाए तो वे हर साल मोटा मुनाफा बना रही हैं. कुछ बड़ी सरकारी और रिलायंस जैसी निजी तेल कंपनियों का मुनाफा तो हजारों करोड़ रूपयों में है. उदाहरण के लिए, बीते वित्तीय वर्ष 2009-10 में सरकारी तेल कंपनी इंडियन आयल को 10998 करोड़ रूपये, ओ.एन.जी.सी को 16768 करोड़ रूपये और निजी क्षेत्र की रिलायंस को 16236 करोड़ रूपये का शुद्ध मुनाफा हुआ.


इससे एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि यू.पी.ए सरकार की नजर में देशहित का अर्थ क्या है? सच यह है कि उसके लिए देशहित का मतलब आमलोगों से ज्यादा कंपनियों का हित है. इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर आमलोगों की कीमत पर आनेवाले महीनों में पट्रोलियम उत्पादों की तरह ही चीनी को भी पूरी तरह नियंत्रण मुक्त कर दिया जाए. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार को भी विदेशी पूंजी के लिए खोलने का मन बना चुकी है. उसके लिए भी बहाना आमलोगों को महंगाई से मुक्ति दिलाने का बनाया जायेगा. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री कई बार दोहरा चुके हैं कि मौजूदा महंगाई के पीछे बिचौलिए और खुदरा व्यापारी जिम्मेदार हैं और उनसे मुक्ति दिलाने के लिए खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों को लाना जरूरी हो गया है. इसी तरह, आनेवाले महीनों में वित्तीय क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिए और खोलने के अलावा सरकारी कंपनियों को बेचने की गति भी तेज होगी.
(जनमत, अगस्त'10)

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