यू.पी.ए सरकार खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने की तैयारी कर रही है. इस सिलसिले में उद्योग और वाणिज्य मंत्रालय के औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग ने हाल ही में एक चर्चा पत्र जारी करके लोगों से राय मांगी है कि खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोला जाना चाहिए या नहीं? लेकिन यह सिर्फ एक दिखावा भर है. इस मुद्दे पर चर्चा और विचार-विमर्श को सिर्फ आड़ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. यू.पी.ए सरकार अपना मन बना चुकी है. सरकार के आला मंत्रियों और अफसरों के रवैये से साफ है कि खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने का फैसला अब एक औपचारिकता मात्र है. जब खुद प्रधानमंत्री इसकी वकालत कर रहे हैं तब चर्चा के निष्कर्ष का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है.
असल में, १९९७ में थोक व्यापार (कैश एंड कैरी) में सौ प्रतिशत और २००६ में एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में ५१ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत पहले ही दी जा चुकी है. खुद सरकारी आंकड़ों के मुताबिक थोक व्यापार में अब तक लगभग १.७७ अरब डालर (७७७९ करोड़ रूपये) और एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में नौ अरब रूपये का एफ.डी.आई आ चुका है. जाहिर है कि इसके बाद तार्किक तौर पर खुदरा व्यापार को खोलने की बारी आती है. यही नहीं, खुदरा व्यापार को विदेशी निवेश के लिए खोलने को लेकर यू.पी.ए सरकार पर बड़ी देशी और विदेशी पूंजी और उसके पैरोकारों का जबरदस्त दबाव है. सरकार पर सी.आई.आई,एसोचैम,फिक्की जैसे बड़े देशी औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों से लेकर यूरोपीय संघ, अमेरिका जैसे देश लगातार दबाव बनाये हुए हैं. यहां तक कि जी-२० की हालिया टोरंटो बैठक के घोषणापत्र में भी व्यापार को और उदार बनाने की प्रतिबद्धता दोहराई गई है.
यह ठीक है कि यह दबाव काफी लंबे समय से पड़ रहा है और पिछले एक दशक में पहले एन.डी.ए और बाद में, यू.पी.ए सरकार ने खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोलने की कोशिश की लेकिन घरेलू खुदरा व्यापारियों के भारी विरोध और आंतरिक राजनीतिक अंतर्विरोधों के कारण दोनों ही सरकारों को पीछे हटना पड़ा. पिछली बार यू.पी.ए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपील की थी कि कोई भी फैसला लेने से पहले खुदरा व्यापार व्यापार पर एफ.डी.आई के असर का अध्ययन होना चाहिए. इसके कारण फैसला कुछ दिनों के लिए टल गया.
लेकिन इससे खुदरा क्षेत्र को खोलने की कोशिशें थमीं नहीं. ताजा कोशिश को उसी सिलसिले की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. यू.पी.ए सरकार का दावा है कि खुदरा क्षेत्र को विदेशी निवेश के लिए खोलने से न सिर्फ काफी विदेशी निवेश आएगा बल्कि प्रतियोगिता बढ़ने से आम उपभोक्ताओं और उत्पादकों को भी फायदा होगा. सरकार का तर्क है कि अभी ‘खेत से खाने की मेज तक’ सीधी सप्लाई चेन न होने से खाद्य वस्तुओं और फलों-सब्जियों की कमी का फायदा बिचौलिए उठा रहे हैं और इसके कारण एक ओर, आम उपभोक्ताओं को अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है, दूसरी ओर, किसानों को भी पूरी कीमत नहीं मिल पाती है. सरकार के मुताबिक खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश आने से बिचौलिओं की भूमिका कम होने के कारण यह लाभ होगा.
सरकार को यह भी उम्मीद है कि इस फैसले से कृषि क्षेत्र में भण्डारण खासकर शीत भण्डारण गृहों और खाद्य प्रसंस्करण में नया निवेश आएगा. सरकार के अनुसार पर्याप्त भण्डारण सुविधाओं के अभाव में हर साल लगभग एक खरब रूपये के फल, सब्जियां और खाद्यान्न बर्बाद हो जाते हैं. सरकार के मुताबिक इससे लघु और मध्यम उद्योगों को भी लाभ होगा क्योंकि उन्हें बड़े विदेशी खुदरा व्यापारियों से जुडकर न सिर्फ ब्रांडिंग का फायदा मिलेगा बल्कि विश्व बाजार में भी पहुँचने का मौका मिलेगा. साफ है कि मनमोहन सिंह सरकार खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई को महंगाई से लेकर कृषि और लघु-मध्यम उद्योगों की सभी समस्याओं के हल के रूप में देख रही है.
लेकिन सच्चाई क्या है? पहली बात तो यह है कि खुदरा व्यापार क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई मामूली या आम क्षेत्र नहीं है. यह कृषि के बाद अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील क्षेत्र है. इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जी.डी.पी में खुदरा व्यापार का योगदान लगभग ८ फीसदी के आसपास है लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि इसमें कृषि क्षेत्र के बाद सबसे अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है. एन.एस.एस.ओ के सबसे ताजा सर्वेक्षण (०७-०८) के मुताबिक खुदरा व्यापार में कुल श्रमशक्ति के ७.२ प्रतिशत लोगों यानी कोई ३.३१ करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर एक व्यक्ति के परिवार में औसतन ५ सदस्य मानें तो कोई १६ करोड़ से अधिक लोगों की रोजी-रोटी खुदरा व्यापार पर टिकी हुई है.
निश्चय ही, एक ऐसे देश में जहां बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक हो, वहां यह कोई मामूली बात नहीं है. सिर्फ यह नहीं कि ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी औ भीख निदान’ माननेवाले इस देश में एक पेशे के बतौर व्यापार को कृषि के बाद सबसे आदर का दर्जा हासिल रहा है बल्कि उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि खुदरा व्यापार से अपनी रोजी-रोटी चला रहे लाखों लोग ऐसे हैं जो रोटी-रोजगार के किसी अन्य विकल्प के अभाव में खुद अपनी मेहनत और उद्यमिता से छोटी-मोटी दुकान खोलने से लेकर रेहड़ी-पटरी पर ठेला लगाकर गुजर-बसर कर रहे हैं. इस मायने में खुदरा व्यापार क्षेत्र हमेशा से सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का स्वनिर्मित क्षेत्र रहा है जहां बिना किसी सरकारी सहायता या प्रोत्साहन के लाखों लोगों की आजीविका चलती रही है.
भारतीय अर्थव्यवस्था में खुदरा क्षेत्र के महत्व का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि देश में लगभग १.१० करोड़ से अधिक खुदरा कारोबार करनेवाली दुकानें हैं और इसमें सिर्फ ४ प्रतिशत दुकानें ऐसी हैं जो ५०० वर्ग मीटर से ज्यादा बड़ी हैं. इसके उलट अमेरिका में सिर्फ ९ लाख खुदरा दुकानें हैं जो भारत की तुलना में तेरह गुना बड़े खुदरा बाजार की जरूरतों को पूरा करती हैं. आश्चर्य नहीं कि खुदरा दुकानों की उपलब्धता यानी दुकान घनत्व के मामले भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. ए.सी निएल्सन और के.एस.ए टेक्नोपैक के मुताबिक भारत में प्रति हजार व्यक्ति पर ११ खुदरा दुकानें हैं. साफ है कि भारत में खुदरा व्यापार सिर्फ एक आर्थिक गतिविधि या कारोबार भर नहीं है बल्कि यह करोड़ों लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है.
सवाल है कि अगर खुदरा व्यापार के क्षेत्र में एफ.डी.आई की अनुमति दी गई तो उसका घरेलू असंगठित खुदरा व्यापारियों पर क्या असर पड़ेगा? इसमें शक है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की संगठित ताकत के आगे एक असमान प्रतियोगिता में अधिकतर छोटे खुदरा व्यापारी टिक पाएंगे. अधिक आशंका यही है कि उनमें से अधिकांश धीरे-धीरे कारोबार से बाहर हो जायेंगे. इसका अर्थ यह होगा कि करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी संकट में पड़ जायेगी क्योंकि उनके पास आजीविका का और कोई वैकल्पिक साधन नहीं होगा. यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा खतरा नहीं है. इसके संकेत मिलने लगे हैं. अभी ही उन शहरों में जहां देशी बड़ी पूंजी ने खुदरा व्यापार में घुसपैठ की है और जिन इलाकों में बड़े शापिंग माल्स से लेकर सुपर स्टोर्स खोले हैं, वहां आसपास की छोटी दुकानों की बिक्री पर नकारात्मक असर पड़ा है, अधिकांश दुकानों का मुनाफा घटा है जबकि कई बंद हो गईं या होने के कगार पर पहुंच गईं हैं.
ऐसा इसलिए हो रहा है कि बड़े माल्स और सुपर स्टोर्स ग्राहकों को खींचने के लिए मार्केटिंग के सभी तौर-तरीकों के अलावा कीमत युद्ध (प्राइस वार) का भी खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि छोटे दुकानदारों को प्रतियोगिता से बाहर करने के लिए बड़ी पूंजी लंबे समय तक घाटा उठा सकती है लेकिन एक छोटा-मंझोला यहां तक कि बड़ा दुकानदार भी इस प्रतिस्पर्धा में लंबे समय तक घाटा उठाने की स्थिति में नहीं है. असल में, दोनों में कोई प्रतियोगिता है ही नहीं. कल्पना कीजिये कि जब वाल मार्ट, टेस्को, कारफोर जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खुदरा व्यापार में आने की इजाजत मिल जायेगी तो क्या होगा? उदाहरण के लिए वाल मार्ट को ही लीजिए जो भारत में आने के लिए अत्यधिक बेचैन है और भारती के साथ थोक यानी कैश एंड कैरी व्यापार में पहले से ही सक्रिय है.
वाल मार्ट न सिर्फ अमेरिका की सबसे बड़ी कंपनी है बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी खुदरा कारोबार करनेवाली कंपनी है. वर्ष २००९ में उसका सालाना कारोबार ४०८ अरब डालर का रहा जबकि उसका शुद्ध मुनाफा १४.३३ अरब डालर (६८७ अरब रूपये) था. वाल मार्ट की कुल परिसंपत्तियां लगभग १७०.७० अरब डालर की हैं. अब ऐसी कंपनी भारत में खुदरा कारोबार में आती है तो उसके आगे छोटे-मंझोले और बड़े दुकानदारों का टिकना तो दूर की बात है, यहां तक कि खुदरा व्यापार में सक्रिय अम्बानी, बिरला, गोयनका, बियानी जैसे बड़े भारतीय उद्योगपतियों के लिए भी अत्यधिक मुश्किल होगा. शायद यही कारण है कि अधिकांश बड़े देशी उद्योगपति खुदरा व्यापार में अकेले नहीं बल्कि किसी बड़ी विदेशी खुदरा कारोबारी कंपनी की पीठ पर बैठकर घुसना चाहते हैं. इसीलिए वे जोरशोर से खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई की वकालत कर रहे हैं.
वाल मार्ट जैसी कंपनियों के खुदरा व्यापार में आने का क्या असर हो सकता है, इसका अंदाज़ा इस अमेरिकी अध्ययन से लगाया जा सकता है जिसके मुताबिक जिन भी छोटे-बड़े शहरों में वाल मार्ट स्टोर खुले, वहां अगले दस वर्षों में आधे से अधिक खुदरा व्यापार पर वाल मार्ट का कब्ज़ा हो गया. खाद्य व्यापार पर वाल मार्ट जैसे स्टोर्स के खतरनाक प्रभाव पर अपने महत्वपूर्ण काम के लिए चर्चित डा. राज पटेल के मुताबिक अमेरिका के नेब्रास्का में हुए एक अध्ययन से यह तथ्य सामने आया कि वहां अलग-अलग इलाकों में दो वाल मार्ट स्टोर्स खुले जिसमें पहले में हद से ज्यादा सस्ती कीमतें थीं जबकि दूसरे में, उपभोक्ताओं को सामान्य से १७ प्रतिशत अधिक कीमत देनी पड़ी क्योंकि तब तक उससे प्रतियोगिता में कोई नहीं रह गया था. साफ है कि यह एक भ्रम है कि खुदरा व्यापार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से उपभोक्ताओं को सस्ती वस्तुएँ मिलेंगी.
यही नहीं, यह दावा भी तथ्यों से परे है कि खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई आने से बिचौलिए खत्म हो जायेंगे. सच यह है कि मौजूदा बिचौलियों के खत्म हो जाने के बाद उनकी जगह मैनेजमेंट स्कूल में पढ़े और मोटी तनख्वाह लेनेवाले नए बिचौलिए आ जाएंगे जिनकी ऊँची तनख्वाहों का बोझ आखिरकार आम उपभोक्ताओं को ही उठाना पड़ेगा. साथ ही, सरकार का यह दावा थोथा है कि खुदरा कारोबार में इन बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आने से उत्पादकों और उपभोक्ताओं दोनों को ही फायदा होगा. हकीकत इसके उलट है. एक बार खुदरा बाज़ार से प्रतियोगिता के खत्म होने और बाज़ार में बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के एकाधिकार स्थापित होने के बाद उत्पादकों यानी किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को ही इन बड़ी कंपनियों की दया पर निर्भर रहना पड़ेगा.
जाहिर है कि इससे खतरनाक स्थिति और नहीं हो सकती है. उस स्थिति में, सरकार उपभोक्ताओं या उत्पादकों की मदद के लिए आगे आएगी, इसकी उम्मीद करना बेकार है. आखिर बाज़ार को खुदा माननेवाली सरकार बाज़ार के कामकाज में हस्तक्षेप कैसे कर सकती है? सवाल है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के लिए बेचैन यू.पी.ए सरकार ने क्या इन पहलुओं पर भी विचार करेगी?
(जनसत्ता, अगस्त'१०)
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