निरुपमा की मौत ने कई बहुत गंभीर और असुविधाजनक सवाल खड़े कर दिये हैं. सवाल है कि क्या उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में स्त्री होना और प्रेम करना सबसे बड़ा गुनाह हो गया है? क्या एक तेजी से दौडती और भूमंडलीकृत होती अर्थव्यवस्था के बीच भारतीय समाज और बंद, दकियानूसी, अंतर्मुखी और प्रतिक्रियावादी होता जा रहा है? क्या एक भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था खासकर सेवा क्षेत्र में जहां श्रम-शक्ति में महिला कर्मियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, वहां कामकाजी महिलाओं को परिवार, जाति, गोत्र, धर्म और उसके दायरे से बाहर निकलकर प्रेम/विवाह करने की सजा लगातार और हिंसक-बर्बर हो रही है? क्या भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा कामकाजी स्त्री को उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व और पहचान के वास्ते लिए गए फैसलों के कारण बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है? क्या स्त्री को लेकर भारतीय समाज के बड़े हिस्से यहां तक कि कथित तौर पर पढ़े-लिखे लोगों का नजरिया भी कथित सनातनी-नैतिकतावादी-परम्परावादी-पुरुषसत्तात्मक दायरे से बाहर निकलने के बजाय और उग्र-हिंसक होता जा रहा है?
ये और इस जैसे कई सवाल बहुत से लोगों को अतिरेकपूर्ण लग सकते हैं. ऐसे कई उदाहरण भी दिए जा सकते हैं जिनसे ऐसा लगता है कि स्त्री या उसके अंतर्जातीय-अंतरधार्मिक प्रेम को लेकर समाज का पारंपरिक नजरिया बदला है. ऐसी शादियों की लगातार बढ़ती संख्या और उसे समाज के एक हिस्से की स्वीकृति से थोड़ी देर के लिए ऐसा भ्रम होता है कि समाज बदल रहा है. लेकिन तब पिछले कुछ वर्षों और महीनों में जिस तरह से संगठित तौर पर खाप पंचायतों से लेकर मनसे-श्रीराम सेने-बजरंग दल जैसे प्रतिक्रियावादी-हिंसक सांप्रदायिक संगठनों और मध्यम-उच्च मध्यमवर्गीय परिवारों से लेकर पुलिस-प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया तक सबने जिस तरह से नैतिकता, संस्कार, परम्पराओं, परिवार, जाति, गोत्र और धर्म की “इज्जत” के नाम पर प्रेम करनेवालों खासकर स्त्रियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है, उसकी व्याख्या कैसे की जाए?
क्या यह सिर्फ एक संयोग है कि जो हरियाणा देश के सबसे संपन्न राज्यों में से एक है और जिसे नई अर्थव्यवस्था का भारी लाभ मिला है, वहां खाप पंचायतें युवा प्रेमियों को मौत के घाट उतारने के बर्बर फैसले और हिंदू विवाह कानून में संशोधन की मांग कर रही हैं और उसे आई.एन.एल.डी के ओम प्रकाश चौटाला और कांग्रेस के युवा ब्रिगेड के सांसद नवीन जिंदल समेत राज्य सरकार का भी परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन हासिल है? क्या यह भी सिर्फ एक संयोग है कि उदारीकरण का सबसे अधिक फायदा उठानेवाले तथाकथित खाते-पीते और पढ़े-लिखे मध्यम और उच्च-मध्यमवर्गीय लोगों के बीच कन्या भ्रूण हत्या सबसे अधिक हो रही है? आखिर दक्षिण दिल्ली जैसे पाश इलाकों और पंजाब और हरियाणा जैसे संपन्न राज्यों में आबादी में महिलाओं के घटते अनुपात का क्या मतलब लगाया जाए?
साफ है कि अर्थव्यवस्था के खुलने और वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुडने के बावजूद समाज व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर उस तरह से नहीं खुल रहा है जैसे अर्थव्यवस्था. उलटे ऐसा लगता है कि वह और ज्यादा बंद, अनुदार, आक्रामक और हिंसक होता जा रहा है खासकर स्त्री को लेकर. क्या इसकी एक वजह यह है कि इस नई उदार और ग्लोबलाइज्ड अर्थव्यवस्था में कानूनी-गैरकानूनी तरीकों से अनाप-शनाप पैसा कमाने और खर्चने में जुटे मध्य और उच्चमध्य वर्ग को घर से बाहर निकलकर कमाने के लिहाज से स्त्री की आर्थिक उपयोगिता तो दिख रही है लेकिन उसका परिवार/गोत्र/जाति/धर्म/परंपरा के “काबू से बाहर” जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा है? क्या यह नई अर्थव्यवस्था और मध्ययुगीन समाज का गठजोड़ है जो स्त्री की बढ़ती आर्थिक भूमिका के बावजूद उसे परंपरा और नैतिकता के नाम पर परिवार, जाति, गोत्र, संप्रदाय और धर्म की कैद से बाहर निकलने देने के लिए तैयार नहीं है?
निश्चय ही, ऐसा लगता है कि स्त्री को लेकर जो कथित सनातनी पुरुषसत्तात्मक सोच है, वह उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व और फैसलों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. इस सनातनी कैद में स्त्री को हमेशा परिवार और उसमें भी किसी ना किसी पुरुष के नियंत्रण में रहना जरूरी है- पहले, बेटी के रूप में पिता, फिर पत्नी के रूप में पति और फिर वृद्धा माँ के रूप में बेटे के नियंत्रण में. यह सनातनी कैद किसी एक धर्म, समुदाय, जाति या वर्ग तक सीमित नहीं है. यही कारण है कि इस कैद से बाहर निकलने की स्त्री की कोशिशों को बिना किसी अपवाद के लगभग सभी धर्मों, जातियों, समुदायों और वर्गों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है.
पुरुषसत्तात्मक परिवार का यह प्रतिरोध पहले भी अत्यधिक हिंसक और बर्बर था. लेकिन २१ वीं सदी के पहले दशक में सीमित ही सही, स्त्री की स्वतंत्रता को मान्यता देनेवाले आधुनिक संविधान और कानूनों के बावजूद निरुपमा, मनोज-बबली, रिजवानुर जैसों को अपने स्वतंत्र चुनाव और प्रेम करने की सजा मौत के रूप में मिल रही है. ऐसे में, स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठ रहा है कि व्यक्ति स्वतंत्रता, स्त्री-पुरुष बराबरी जैसे दावों के बावजूद क्या नव उदारवादी पूंजीवाद बड़े प्रेम से सामंतवाद के गले में गलबहियां डाले प्रेम की राह में डंडा लिए नहीं खड़ा है? असल में, नया पूंजीवाद स्त्री को आर्थिक तौर पर श्रमशक्ति के एक हिस्से और उसके उत्पादों-सेवाओं के उपभोक्ता के बतौर सीमित स्वतंत्रता का उपभोग करने के लिए जरूर उकसाता है लेकिन उसे परिवार के दायरे से बाहर निकलकर वास्तविक स्वतंत्रता का अहसास करने की आज़ादी दे के लिए तैयार नहीं है.
यहां तक कि हाल के वर्षों में लिविंग रिलेशनशिप को जायज ठहराने से लेकर समलैंगिक संबंधों को डी-क्रिमिनालाईज करनेवाले फैसले सुनानेवाला सुप्रीम कोर्ट भी कई मामलों में अजीबोगरीब और प्रतिगामी दिखनेवाले फैसले करने लगता है. परिवार की इज्जत बचाने के नाम पर अंतर्जातीय विवाह करनेवाली बहन के पति की हत्या करनेवाले भाई को सजा सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उसके खिलाफ इस आधार पर नरमी बरती कि उसने परिवार की इज्जत बचाने के लिए गुस्से में आकार यह हत्या कर दी जो कि ‘रेयरेस्ट आफ रेयर’ अपराध नहीं है. आश्चर्य नहीं कि कथित आनर किलिंग या अंतर्जातीय-अंतरधार्मिक प्रेम/विवाह के हिंसक विरोध के मामलों में परिवार के अलावा चाहे पड़ोसी हों या पुलिस हो या मीडिया या फिर कोर्ट सभी का रवैया उसी पुरुषसत्तात्मक सनातनी दायरे के अंदर रहता है.
जाहिर है कि आनर या फिर कस्टोडियल किलिंग की इन भयावह घटनाओं और उससे अधिक इनके खुले समर्थन से यह बात साफ हो गई है कि स्त्री की वास्तविक आज़ादी का सवाल अभी भी अधूरा है. जब तक इस सवाल को हल नहीं किया जायेगा, हम हर दिन निरुपमाओं, रिजवानुरों, मनोज-बब्लियों की हत्याएं देखने के लिए अभिशप्त रहेंगे.
(हस्तक्षेप, राष्ट्रीय सहारा )
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