मंगलवार, फ़रवरी 19, 2013

वामपंथ से क्यों फिसली हिंदी पट्टी?

रैडिकल बदलाव के एजेंडे और जनसंघर्षों और स्वतंत्र दावेदारी की राजनीति को छोड़कर बुर्जुआ पार्टियों का पिछलग्गू बनने की कीमत चुका रहा है वामपंथ


हिंदी पट्टी में वामपंथ के फलने-फूलने की अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद उसकी विफलता भारतीय जनतांत्रिक राजनीति की एक ऐसी त्रासदी है जिसने उसमें निहित संभावनाओं को न सिर्फ संकुचित और सीमित कर दिया है बल्कि प्रगतिशील और रैडिकल विकल्प की उम्मीदों को भी अवरुद्ध सा कर दिया है.
यह त्रासदी इसलिए कुछ ज्यादा ही चुभती है कि हिंदी पट्टी की राजनीति में वामपंथ इस तरह से हाशिए पर पहले कभी नहीं था. तथ्य यह है कि आज़ादी के बाद हिंदी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस के मुकाबले मुख्य विपक्ष की भूमिका में सी.पी.आई ही थी. उसका असर मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में भी था.
लेकिन पहले नेहरु के छद्दम समाजवाद के आकर्षण और धीरे-धीरे जनसंघर्षों से पीछे हटकर चुनावी राजनीति के दलदल में फंसते गए वामपंथ को ६० के दशक में वैचारिक-कार्यनीतिक सवालों पर मतभेद के कारण विभाजन का शिकार होना पड़ा. इस विभाजन ने सी.पी.आई को न सिर्फ सांगठनिक-राजनीतिक रूप से कमजोर कर दिया बल्कि उसका राजनीतिक आकर्षण भी कम होने लगा.

यही नहीं, विभाजन के बाद वह कांग्रेस के और नजदीक पहुँच गई और उत्तर भारत की राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के सबसे जबरदस्त उभार के दौर में इमरजेंसी में वह कांग्रेस के साथ खड़ी नजर आई. इसने उसकी रही-सही साख भी खत्म कर दी.

सच यह है कि सी.पी.आई उस सदमे से कभी बाहर नहीं निकल पाई. लेकिन दूसरी ओर सी.पी.आई से अलग होकर बनी सी.पी.आई-एम भी जल्दी ही उसी राह पर चल निकली. जल्दी ही सी.पी.आई-एम में भी १९६७ में भी विभाजन हो गया और चारु मजुमदार के नेतृत्व में सी.पी.आई-एम.एल ने संसदीय राजनीति के उलट सशस्त्र क्रांति का आह्वाहन किया.
इसने सी.पी.आई-एम को अंदर से हिला कर रख दिया. इस झटके से वह वास्तव में कभी नहीं उबर पाई क्योंकि उसने उसके वैचारिक आभामंडल को निस्तेज सा कर दिया. हालाँकि सी.पी.आई-एम ने सी.पी.आई की तरह इमरजेंसी में कांग्रेस के साथ खड़े होने की गलती नहीं की लेकिन वह खुलकर इमरजेंसी विरोधी आंदोलन में भी नहीं उतरी.
सच यह है कि इमरजेंसी विरोधी आंदोलन का विरोध करके और उससे दूर रहकर मुख्यधारा की इन दोनों वामपंथी पार्टियों ने खुद को हिंदी पट्टी में खड़ा होने का एक बेहतरीन मौका गँवा दिया. हालाँकि देश भर में खासकर उत्तर और पूर्व भारत में कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा सी.पी.आई-एम को पश्चिम बंगाल में मिला.
उसने इस मौके का फायदा उठाकर खुद को बंगाल की राजनीति में पंचायत स्तर तक खड़ा करने में कामयाबी भी हासिल की लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि बंगाल में लगातार ३५ सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद सी.पी.आई-एम कभी भी हिंदी पट्टी के राज्यों खासकर बिहार में जड़ें नहीं जमा पाई.

हालाँकि इसी दौर में सी.पी.आई का लगातार क्षरण हो रहा था और १९८९-९० में सोवियत संघ के ध्वंस ने उसके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया. इसमें कोई दो राय नहीं है कि सोवियत संघ के ध्वंस का नकारात्मक असर समूचे वामपंथ पर पड़ा.
लेकिन ८० के दशक के उत्तरार्द्ध और खासकर ९० के दशक में हिंदी पट्टी में सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम ने जिस तरह से पहले कांग्रेस से लड़ने के नामपर जनता दल जैसी मध्यमार्गी पार्टियों के एजेंडे के पीछे-पीछे चलना शुरू किया और वामपंथी की स्वतंत्र भूमिका और दावेदारी को छोड़ना शुरू किया, वैसे-वैसे उनकी कतारें भी उन मध्यमार्गी पार्टियों खासकर अस्मितावादी पार्टियों के पीछे खिसकने लगीं.
अगर यह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हिंदी पट्टी में मुलायम सिंह और बिहार में लालू प्रसाद के लिए जमीन तैयार करने में दोनों वामपंथी पार्टियों ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उस दौर में कांग्रेस विरोधी रैलियों में सबसे ज्यादा लाल झंडे दिखाई देते थे लेकिन उन रैलियों का एजेंडा और राजनीति के अलावा नेता भी वी.पी.सिंह, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद हुआ करते थे.

यही नहीं, १९८७ से लेकर ९५ तक इन दोनों राज्यों में पहले कांग्रेस को हटाने और फिर साम्प्रदायिकता को रोकने के नामपर दोनों वाम पार्टियों ने हर तरह से मुलायम सिंह और लालू प्रसाद को खड़ा करने और फिर अपनी जड़ें जमाने में मदद की.

यहाँ तक कि सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम हिंदी पट्टी में अपने बचे-खुचे आधारों को गंवाकर भी मध्यमार्गी पार्टियों का झंडा ढोने में जुटी रहीं. असल में, मुद्दा सिर्फ मध्यमार्गी बुर्जुआ पार्टियों के पीछे चलने का ही नहीं था.
बुर्जुआ पार्टियों के साथ तालमेल और गठबंधन के लिए वामपंथी मोर्चे की पार्टियों खासकर सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम ने समाज में रैडिकल बदलाव के एजेंडे और उसके लिए चलाए जानेवाले जनसंघर्षों को भी छोड़ दिया. यह वामपंथी मोर्चे के सरकारी वामपंथ में पतित होने का दौर था, जब सरकार और संसदीय राजनीति की क्षणिक और तुच्छ सफलताओं के लिए दोनों वामपंथी पार्टियों ने अगणित समझौते किये.
इस दौर में एक ओर सी.पी.आई जहाँ बुर्जुआ पार्टियों के साथ तालमेल में मिलनेवाली गिनती की सीटों और सरकारों में घुसने की राजनीति की ओर बढ़ चली, वहीँ सी.पी.आई-एम हिंदी पट्टी में घुसने के लिए इन बुर्जुआ पार्टियों की ओर से मिलनेवाली इक्का-दुक्का सीटों के लालच में उनके पीछे खड़ी होने लगी.

यही नहीं, ९० के इस झंझावाती दशक में जब हिंदी पट्टी एक जबरदस्त उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी और वामपंथ के लिए एक रैडिकल एजेंडे को आगे बढ़ाने का शानदार मौका था, उस समय उसने न सिर्फ बुर्जुआ पार्टियों और उनके संकीर्ण अस्मितावादी राजनीतिक एजंडे के आगे समर्पण कर दिया बल्कि उनके राजनीतिक और व्यक्तिगत विचलनों को भी अनदेखा करने लगीं.

सच पूछिए तो यह हिंदी पट्टी की राजनीति में एक रैडिकल हस्तक्षेप करने और उसे वाम दिशा देने का दूसरा शानदार मौका था जिसे सरकारी वामपंथ ने अपनी अवसरवादी राजनीति के कारण गँवा दिया.
इस दौर में हालत यह हो गई थी कि सी.पी.आई-एम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत बुर्जुआ राजनीति के ‘चाणक्य’ माने जाने लगे थे जिनकी सबसे बड़ी ‘खूबी’ बुर्जुआ पार्टियों और उनके नेताओं के बीच मध्यस्थता कराना, जोड़तोड़ करना और बेमेल गठबंधनों को चलाना था. ऊपर से आ रहे इन संकेतों की तार्किक परिणति यह हुई कि सी.पी.आई और सी.पी.आई-एम की हिंदी पट्टी की राज्य इकाइयों में भी सुरजीत की अनुकृतियाँ उभर आईं.
अफ़सोस की बात यह है कि उस दौर में बहुतेरे वाम बुद्धिजीवी न सिर्फ सुरजीत और सरकारी वामपंथ की कथित सफलताओं की बलैयां ले रहे थे बल्कि हिंदी पट्टी में लालू प्रसाद और मुलायम सिंह जैसे ‘सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता’ के नए बुर्जुआ चैम्पियनों के गुणगान में जुटे हुए थे.

हालाँकि यह सबको पता था कि ‘सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता’ की इस राजनीति का न कोई व्यापक रैडिकल एजेंडा था और न ही उसके प्रति कोई गहरी प्रतिबद्धता थी. वह न सिर्फ संकीर्ण जातिवादी एजेंडे और वोटों के सिनिकल जोड़तोड़ और गुणा-भाग पर टिकी थी बल्कि भ्रष्ट, अपराधी और अवसरवादी तत्वों का गठजोड़ भी थी. लेकिन जनता के उनसे जल्दी ही हुए मोहभंग के बावजूद सरकारी वामपंथ उनके पीछे खड़ा रहा.

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकारी वामपंथ की बुर्जुआ पार्टियों की इस पिछलग्गू और सिनिकल-अवसरवादी राजनीति ने हिंदी पट्टी में एक ओर संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति करनेवाली सपा-बसपा-राजद-जे.डी-यू जैसी बुर्जुआ पार्टियों को और दूसरी ओर, भाजपा जैसी सांप्रदायिक पार्टियों को जड़ें जमाने का मौका दिया.
कांग्रेस ने हिंदी पट्टी में जो जगह खाली की, उसे भरने की स्वाभाविक दावेदार होते हुए भी वामपंथी ताकतें हिंदी पट्टी में फिर पिछड गईं. लेकिन अफसोस की बात यह है कि सरकारी वामपंथ ने इससे कोई सबक नहीं सीखा. गलतियाँ और ऐतिहासिक भूलें दोहराने का यह सिलसिला जारी रहा.
२००४ में कांग्रेस के नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार को बाहर से समर्थन देकर और यू.पी.ए के साथ को-आर्डिनेशन कमिटी में बैठकर सरकारी वामपंथ ने जिस तरह से उसे चलाया, उसने न सिर्फ कांग्रेस को नया जीवन दिया बल्कि वामपंथ को हिंदी पट्टी के साथ-साथ अपने आधार राज्यों से भी बेदखल कर दिया.
हद तो यह हो गई कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का विरोध करनेवाली सी.पी.आई-एम ने पश्चिम बंगाल के औद्योगीकरण के नामपर उन्हीं सुधारों को जिस निर्ममता से लागू करना शुरू किया, उसके कारण सिंगुर-नंदीग्राम में किसानों पर गोलियाँ चलाने में भी उस हिचक नहीं हुई. उसे जल्दी ही इसकी बड़ी राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ी और बंगाल में ३५ वर्षों के राज का अंत हो गया.
लेकिन इसका सीधा असर हिंदी पट्टी पर भी पड़ा. सरकारी वामपंथ की बची-खुची आभा और नैतिक तेज भी जाता रहा. इसके अलावा उसने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के खिलाफ बोलने का नैतिक अधिकार भी खो दिया.

लेकिन हैरानी की बात नहीं है कि सरकारी वामपंथ इससे भी सबक सीखने को तैयार नहीं है. खासकर सी.पी.आई-एम अब भी कांग्रेस के साथ खुले या परोक्ष जोड़तोड़ का मौका खोज रही है ताकि पश्चिम बंगाल में तृणमूल को अलग-थलग करके पुनर्वापसी का रास्ता आसान हो सके. यही कारण है कि पार्टी के अंदर तीखे विरोध के बावजूद सी.पी.आई-एम ने राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी को समर्थन दिया.

सरकारी वामपंथ के इस रवैये के सिलसिले में सी.पी.आई-एम.एल के महासचिव विनोद मिश्र एक बड़े पते की बात कहा करते थे. उनका कहना था कि एक ओर सी.पी.आई-एम है जो अपनी राज्य सरकारों को बचाने के लिए अपने मुद्दे भी कुर्बान करने से परहेज नहीं करती है और दूसरी ओर संघ परिवार और भाजपा है जिसने अपने मुद्दे (रामजन्मभूमि) के लिए अपनी पांच राज्य सरकारें भी कुर्बान कर दीं.
इसे वामपंथ और भाजपा की तुलना और भाजपा को बेहतर बताने की कोशिश के बजाय इस रूप में देखने की जरूरत है कि आप अपनी राजनीति, विचार और एजेंडे को लेकर कितने प्रतिबद्ध और दृढ हैं.
आखिर क्या कारण है कि भाजपा ने हिंदी पट्टी की राजनीति में जड़ें जमाने में कामयाबी हासिल की और वामपंथ उखड गया? क्या इसके लिए सरकारी वामपंथ की वामपंथी-रैडिकल एजेंडे को छोड़कर बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों के पीछे-पीछे चलने की पिछलग्गू राजनीति जिम्मेदार नहीं है? यहाँ यह सवाल पूछा जा सकता है कि इसी दौर में हिंदी पट्टी में धूमकेतु की तरह उभरी सी.पी.आई-एम.एल (लिबरेशन) या माले की चमक क्यों मंद पड़ गई?

इसमें कोई शक नहीं है कि ८० के दशक के उत्तरार्द्ध और ९० के दशक के मध्य तक हिंदी पट्टी खासकर बिहार के खेत-खलिहानों और उत्तर प्रदेश के परिसरों में रैडिकल वामपंथ की स्वतंत्र पताका लेकर खड़ी हुई माले इस अग्रगति को कायम नहीं रख पाई लेकिन आज भी वह हिंदी पट्टी में वामपंथ की सबसे मुखर आवाज़ है. सबसे ज्यादा उम्मीद भी उससे ही है.

लेकिन उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे न सिर्फ सरकारी वामपंथ की भूलों की कीमत चुकानी पड़ रही है बल्कि वह अस्मितावादी राजनीति के सकारात्मक निषेध पर खड़ी रैडिकल बदलाव की राजनीति का लोकप्रिय मुहावरा खोज पाने में कामयाब नहीं हो रही है.
यही नहीं, वह वाम राजनीति में संयुक्त मोर्चे के वैकल्पिक माडल को भी खड़ा कर पाने में सफल नहीं हुई है जिसके कारण वह काफी हदतक अलग-थलग पड़ी रहती है. लेकिन सरकारी वामपंथ की नाकामियों को देखते हुए यह भी सच है कि हिंदी पट्टी में वामपंथ की सफलता का कोई शार्टकट नहीं है. वह रैडिकल बदलाव की राजनीति के प्रति स्पष्ट प्रतिबद्धता और जनसंघर्षों से ही आएगी.            
(लखनऊ से प्रकाशित 'समकालीन सरोकार' के फ़रवरी' १३ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)

शुक्रवार, फ़रवरी 08, 2013

अमीरों पर ज्यादा टैक्स से मुंह क्यों चुरा रही है सरकार?

अर्थव्यवस्था के संकट के दौरान उसका सारा बोझ गरीब और आम आदमी ही क्यों उठाये?

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष और रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सी. रंगराजन ने अगले बजट से ठीक पहले सुपर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने की वकालत करके जैसे बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है. जैसीकि आशंका थी, रंगराजन की इस प्रस्ताव को समूचे कारपोरेट जगत ने एक सुर से खारिज कर दिया है.
यही नहीं, कारपोरेट जगत के दोनों प्रमुख लाबी संगठनों- सी.आई.आई और फिक्की ने वित्त मंत्री से बजट पूर्व चर्चा में ऐसी किसी भी कोशिश से बचने की सलाह दी है. इसके इकलौते अपवाद विप्रो के मुखिया और सुपर अमीरों में से एक अजीम प्रेमजी रहे जिन्होंने इसे राजनीतिक रूप से जरूरी बताया.
दूसरी ओर, आर्थिक सुधारों के समर्थक अर्थशास्त्रियों ने भी रंगराजन के इस सुझाव का यह कहते हुए विरोध किया है कि इससे सुपर अमीर देश छोड़कर कम टैक्स वाले देशों का रुख कर लेंगे. कारपोरेट जगत भी इस राय से सहमत है. हैरानी की बात यह है कि वित्त मंत्री पी. चिदंबरम खुद इस मुद्दे पर परस्पर विरोधी सुरों में बोलते नजर आ रहे हैं.

एक ओर विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए हांगकांग और सिंगापुर में रोड-शो के दौरान चुनिन्दा निवेशकों से चर्चा में उन्होंने स्थिर टैक्स दरों और निवेशकों के अनुकूल बजट का वायदा किया लेकिन दूसरी ओर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने के सुझाव पर अपनी स्पष्ट राय देने से बचते हुए चर्चा की जरूरत भी बताई है.

चिदंबरम के बयान से साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार इस मुद्दे पर दुविधा में है. खुद वित्त मंत्री कारपोरेट जगत और सुपर अमीरों को नाराज करने का जोखिम नहीं लेना चाहते हैं. वे जानते हैं कि कारपोरेट जगत यू.पी.ए सरकार से आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में हुई देरी और हिचक से पहले ही नाराज है. उसका विश्वास और समर्थन जीतने के लिए ही सरकार ने पिछले चार महीनों में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले तमाम फैसले किये हैं.
इसके तहत अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने और उसे अधिक से अधिक रियायतें देने से लेकर राजकोषीय घाटा कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती के जरिये आमलोगों पर बोझ बढ़ाने जैसे फैसले शामिल हैं.
लेकिन मुश्किल यह है कि गरीबों और आमलोगों पर बोझ बढ़ाने और सब्सिडी में कटौती के बावजूद राजकोषीय घाटे में कोई खास कमी नहीं हुई है. दूसरी ओर, चिदंबरम ने विदेशी निवेशकों को वायदा किया हुआ है कि वे न सिर्फ चालू वित्तीय वर्ष (१२-१३) में राजकोषीय घाटे को जी.डी.पी के ५.३ फीसदी के भीतर रखेंगे बल्कि अगले साल के बजट में इसे और घटाकर जी.डी.पी के ४.८ फीसदी करेंगे.

लेकिन यह लक्ष्य हासिल करना आसान नहीं है क्योंकि चुनावी वर्ष होने के नाते उनपर लोकलुभावन घोषणाओं/कार्यक्रमों को शुरू करने का भी दबाव है. इसके लिए चिदंबरम को टैक्स संग्रह में बढ़ोत्तरी से सरकार की आय बढ़ाने के उपाय करने पड़ेंगे क्योंकि आमलोगों खासकर गरीबों पर बोझ डालने की भी एक सीमा है.           

यही कारण है कि वित्त मंत्री को अपनी सोच के बरक्स अमीरों पर अधिक टैक्स के सुझाव पर विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. अन्यथा वह वैचारिक तौर पर नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के समर्थक हैं जो अमीरों और कारपोरेट पर टैक्स में कटौती की वकालत करती है ताकि अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका सीमित की जा सके और अमीर/कारपोरेट बढ़ी आय का पुनर्निवेश करके अर्थव्यवस्था को गति दे सकें.
याद रहे कि चिदंबरम ने ही १९९७-९८ में कार्पोरेट्स और अमीरों का वह ड्रीम बजट पेश किया था जिसमें टैक्स दरों में कटौती की गई थी. वही टैक्स दरें आज भी जारी हैं और सुपर अमीर और कार्पोरेट्स इससे मालामाल भी हुए हैं.  
जाहिर है कि वे इसमें किसी भी बढ़ोत्तरी के लिए तैयार नहीं हैं और न ही उन रियायतों/छूटों को छोड़ने के लिए तैयार हैं जिनके कारण पिछले साल मध्यवर्ग, अमीरों और कारपोरेट जगत को टैक्सों में लगभग ५.१५ लाख करोड़ रूपये की छूट मिली. यह एक तरह से अमीरों और कार्पोरेट्स को सब्सिडी है जोकि साल दर साल बढ़ती ही जा रही है.

तथ्य यह है कि इन छूटों/रियायतों के कारण कंपनियों के लिए प्रभावी टैक्स दर मात्र २३ फीसदी रह जाती है जबकि घोषित टैक्स दर ३० फीसदी है. इसके बावजूद भारतीय कार्पोरेट्स और सुपर अमीर टैक्स दरों में मामूली बढ़ोत्तरी के सुझाव पर नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं और देश छोड़ने तक की धमकी दे रहे हैं.

दूसरी ओर वे यह भी चाहते हैं कि वैश्विक आर्थिक संकट के बीच डगमगा रही भारतीय अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए यू.पी.ए सरकार बढ़ते राजकोषीय घाटे को कम करने के वास्ते सख्त फैसले करे, सब्सिडी में कटौती करे, मनरेगा जैसी योजनाओं को खत्म या सीमित करे और खाद्य सुरक्षा जैसी योजनाएं शुरू करने से बचे.
साफ़ है कि कार्पोरेट्स और सुपर अमीर अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए खुद कोई कुर्बानी देने को तैयार नहीं हैं लेकिन वे गरीबों, निम्न मध्यवर्ग और आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने और उनके हकों में कटौती के सरकार पर दबाव डालने में सबसे आगे हैं.
सवाल यह है कि अर्थव्यवस्था के संकट के दौरान उसका सारा बोझ गरीब और आम आदमी ही क्यों उठाये? यह किसी से छुपा नहीं है कि अर्थव्यवस्था जब बेहतर प्रदर्शन करती है तो उसका सबसे ज्यादा फायदा अमीरों और कार्पोरेट्स को ही होता है.

ऐसे में, अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने के लिए क्या सुपर अमीरों और कार्पोरेट्स को ज्यादा टैक्स चुकाकर अपना योगदान नहीं करना चाहिए? यही वह सवाल है जो पिछले कई महीनों से दुनिया भर में गूंज रहा है. यह मांग लगातार जोर पकड़ रही है कि कार्पोरेट्स और सुपर अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाया जाए.

असल में, यूरोप से लेकर अमेरिका तक में मंदी और आर्थिक संकट से निपटने के नामपर जिस तरह से किफायतशारी (आस्ट्रिटी) लागू की गई है, उससे आमलोगों में भारी गुस्सा है क्योंकि जहाँ एक ओर, सामाजिक कल्याण की योजनाओं और सेवाओं में कटौती की गई है और आमलोगों पर बोझ लादा गया है, वहीँ दूसरी ओर, कार्पोरेट्स और सुपर अमीरों को सार्वजनिक धन से अरबों-खरबों डालर बेल-आउट पैकेज दिए गए हैं जिससे उनके बड़े अधिकारी और प्रोमोटर्स लाखों डालर के पे-पैकेज और बोनस लेकर मजे उड़ा रहे हैं.
इसके खिलाफ लोग सड़कों पर उतर रहे हैं और यूरोप से लेकर अमेरिका तक में राजनीतिक तौर पर इन सुधारों को लोगों के गले उतरना मुश्किल होता जा रहा है.     
मजे की बात यह है कि इस सच्चाई और बढ़ते राजनीतिक संकट को यूरोप के सुपर अमीर समझ रहे हैं. यही कारण है कि अमेरिकी सुपर अमीर वारेन बफे से लेकर फ़्रांस के १६ सबसे अमीरों और जर्मनी के ५० सुपर अमीरों ने सार्वजनिक रूप से अपनी सरकारों से अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की मांग की है.

पिछले सप्ताह ही अमेरिकी कांग्रेस ने सुपर अमीरों पर टैक्स बढ़ाने पर सहमति की मुहर लगाई है. इसके अलावा फ़्रांस समेत और कई देशों की सरकारों ने अमीरों पर टैक्स में बढ़ोत्तरी का फैसला किया है या उसपर गंभीरता से विचार कर रहे हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि भारत के सुपर अमीर और कार्पोरेट्स अभी भी इस जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं. 

लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत में भी बढ़ते राजकोषीय घाटे और सामाजिक क्षेत्र की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी राजस्व को बढ़ाना बहुत जरूरी हो गया है. यह इसलिए भी जरूरी है कि भारत में आय कर और कारपोरेट टैक्स की अधिकतम दरें अधिकांश विकसित देशों और विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हैं.
यही नहीं, भारत में टैक्स-जी.डी.पी अनुपात खासकर प्रत्यक्ष करों और जी.डी.पी का अनुपात दुनिया के अधिकांश देशों की तुलना में बहुत कम है. मजे की बात यह है कि राजकोषीय घाटे में कमी लाने के उपाय सुझाने के लिए वित्त मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा गठित केलकर समिति ने भी सब्सिडी में कटौती के साथ-साथ टैक्स/जी.डी.पी के अनुपात को बढ़ाने की सिफारिश की थी.    
लेकिन हैरानी की बात यह है कि केलकर समिति की इस सिफारिश पर चर्चा भी नहीं हो रही है जबकि सब्सिडी में कटौती की उसकी सिफारिशों को दो कदम आगे बढ़कर जोरशोर से लागू किया जा रहा है. यहाँ तक कि खुद को आम आदमी की सरकार बतानेवाली यू.पी.ए सरकार की भी हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वह सुपर अमीरों और कार्पोरेट्स को ज्यादा टैक्स की मांग के पक्ष में खुलकर खड़ी हो.

इसके उलट वह अमीरों और कार्पोरेट्स को खुश करने में जुटी है. लेकिन इसके कारण आम आदमी की नाराजगी बढ़ रही है. अच्छी बात यह है कि देर से ही सही, सुपर अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने की बहस भारत खासकर भारतीय अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति निर्माताओं के बीच भी पहुँच गई है.

वे इससे अधिक दिनों तक मुंह नहीं चुरा सकते हैं क्योंकि गरीबों पर बोझ और अमीरों की मौज की अर्थनीति पर सवाल उठने लगे हैं. यह अर्थनीति गरीबों और आम आदमी के धैर्य की परीक्षा ले रही है और इसके पहले कि उनका धैर्य जवाब दे, सुपर अमीरों और सरकार में बैठे उनके शुभचिंतकों को सतर्क हो जाना चाहिए.
 
('शुक्रवार' के फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित आलेख)       

मंगलवार, फ़रवरी 05, 2013

बी एच यू की यह गहन है अंध कारा

लेकिन छात्राओं की एकजुटता और विरोध ने बी.एच.यू परिसर को जकड़े सामंती-पितृसत्तात्मक वर्चस्व को खुली चुनौती दी है 

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) एक बार फिर गलत कारणों से सुर्ख़ियों में है. ऐसे समय में जब दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ देश भर में खासकर जे.एन.यू और दिल्ली विश्वविदयालय जैसे परिसरों में महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी, बराबरी और अधिकारों के मुद्दों पर युवा और छात्र-छात्राएं सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन कर रहे हैं, उस समय बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार और उसका विरोध करने पर उन्हें खुलेआम डराने-धमकाने की शर्मसार करनेवाली खबर का आना इस विश्वविद्यालय के मेरे जैसे लाखों पूर्व और मौजूदा छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के लिए गहरे क्षोभ और चिंता की बात है.
लेकिन उससे अधिक निराश और परेशान करनेवाली खबर यह है कि छात्राओं के साथ छेड़खानी, दुर्व्यवहार और उन्हें डराने-धमकाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के बजाय विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन उनके आगे लाचार दिखाई दे रहे हैं.

आरोप है कि आरोपी छात्रों का संबंध समाजवादी पार्टी के छात्र संगठन- समाजवादी छात्र सभा से है और उन्हें अखिलेश यादव सरकार के एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री का आशीर्वाद हासिल है. आश्चर्य नहीं कि विश्वविद्यालय और जिला प्रशासन अपराधियों को संरक्षण और इस मामले की लीपापोती करने में जुटे हैं.

लेकिन अच्छी खबर यह है कि लंबे समय बाद पहली बार विश्वविद्यालय की छात्राएं परिसर के अंदर छेड़खानी और दुर्व्यवहार के खिलाफ न सिर्फ एकजुट होकर सड़कों पर उतरीं बल्कि उन्होंने विश्वविद्यालय प्रशासन को छात्राओं और महिला शिक्षकों-कर्मचारियों की सुरक्षा के लिए महिला सेल और २४ घंटे की हेल्पलाइन गठित करने पर मजबूर किया है.
ताजा घटना में सबसे अधिक उत्साहित और आश्वस्त करनेवाली बात यही है. असल में, बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के छेड़खानी और दुर्व्यवहार कोई नई बात नहीं है लेकिन छात्राओं ने इसबार इसे चुपचाप बर्दाश्त करने के बजाय जिस तरह से एकजुट होकर इसका विरोध किया है और सड़कों पर उतरकर अपना गुस्सा जाहिर किया है, वह नई परिघटना है.
निश्चय ही, छात्राओं के इस साहस और उनकी एकजुटता के पीछे देश भर में महिलाओं की बेख़ौफ़ आज़ादी की मांग को लेकर शुरू हुए आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका है. इससे इस ऐतिहासिक परिसर में स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित एक लोकतांत्रिक संस्कृति के विकास में रोड़ा बनी सामंती-पितृसत्तात्मक जकड़नों के टूटने की उम्मीद बढ़ी है.

दरअसल, बी.एच.यू परिसर में छात्राओं के साथ हुई दुर्व्यवहार की घटना का गहरा संबंध इस और उत्तर और पूर्वी भारत के अधिकांश परिसरों में जड़ जमाये सामंती-पितृसत्तात्मक ढाँचे और संस्कृति से है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस सामंती-पितृसत्तात्मक संस्कृति में स्त्रियों की जगह हमेशा से दोयम दर्जे की और घर की चाहरदीवारी के अंदर रही है.

आश्चर्य नहीं कि ज्ञान के इन ‘आधुनिक’ परिसरों में भी छात्राओं को सुरक्षा के नामपर न सिर्फ महिला महाविद्यालयों और छात्रावासों की चाहरदीवारी (घेट्टो) में बंद रखा जाता रहा है बल्कि उन्हें अनेकों घोषित-अघोषित पाबंदियों का सामना करना पड़ता रहा है. यही नहीं, इन परिसरों में प्रभावशाली उच्च जातियों के जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े दबंगों-अपराधियों का बोलबाला रहा है.
इन जातिवादी गिरोहों को न सिर्फ अध्यापकों के एक हिस्से का बल्कि विश्वविद्यालय प्रशासन का भी समर्थन और संरक्षण मिलता रहा है. नतीजा यह कि इन जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े दबंग-अपराधियों ने न सिर्फ छात्र राजनीति और छात्रसंघों पर कब्ज़ा कर रखा है बल्कि अध्यापक और कर्मचारी संघों पर भी उनका दबदबा रहा है.
यहाँ तक कि इन परिसरों में कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश कुलपतियों की नियुक्ति में भी इन जातिवादी-सामंती लाबियों की सक्रिय और सीधी भूमिका होती है. बी.एच.यू परिसर भी इसका अपवाद नहीं है.

आश्चर्य नहीं कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय होने के बावजूद पिछले एक दशक से ज्यादा समय से परिसर में पूर्वांचल की एक प्रभावशाली जाति के कुलपति ही नियुक्त हो रहे हैं. इस तरह परिसर में इन सामंती-जातिवादी गिरोहों का दबदबा बना हुआ है. यह सिर्फ संयोग नहीं है कि छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार करनेवाले लम्पटों का संबंध भी इन गिरोहों से है.

असल में, ये सामंती-जातिवादी गिरोह परिसर में अपना दबदबा और आतंक बनाए रखने के लिए न सिर्फ छात्राओं के साथ छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार करते हैं बल्कि आम छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों के साथ भी आए दिन मारपीट, दुर्व्यवहार और अपमानित करते रहते हैं. इनके निशाने पर खासकर छात्राएं, दलित-पिछड़े और दूसरे प्रान्तों से आए छात्र रहते हैं.
हैरानी की बात नहीं है कि कुछ महीने पहले परिसर में अध्यापकों के साथ मारपीट और आगजनी करनेवालों में भी यही लम्पट-अपराधी शामिल थे. लेकिन परिसर में छात्र राजनीति खासकर वाम छात्र संगठनों की गतिविधियों को सख्ती से कुचलनेवाला विश्वविद्यालय प्रशासन इन अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई से बचता रहा है.
इसके कारण यह परिसर आतंक और डर का एक ‘गहन अंध कारा’ बनकर रह गया है. स्वाभाविक तौर पर परिसर में हाल के वर्षों में छात्राओं की संख्या बढ़ने के बावजूद उन्हें वह आज़ादी हासिल नहीं है कि वे परिसर में अकेले बेख़ौफ़ घूम सकें, लाइब्रेरी या क्लास या कैफेटेरिया या खेल के मैदान या पार्क में आ-जा सकें और परिसर की सामूहिक गतिविधियों में खुलकर हिस्सा ले सकें.

यही कारण है कि आमतौर पर छात्राएं समूह में निकलती हैं, हमेशा डरी-सहमी रहती हैं, शाम ढलने से पहले छात्रावासों में बंद हो जाती हैं और विश्वविद्यालय की सामूहिक गतिविधियों में खुलकर हिस्सा नहीं ले पाती हैं. 

लेकिन इस परिसर में छात्राओं की एकजुटता और विरोध से एक नई उम्मीद पैदा हुई है. इससे सामंती-पितृसत्तात्मक संस्कृति का किला दरकने लगा है. अच्छी खबर यह भी है कि इसे अध्यापकों, शहर के बुद्धिजीवियों-लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का समर्थन भी मिलने लगा है.
मुझे उम्मीद है कि मेरे इस प्रिय विश्वविद्यालय को आक्टोपस की तरह जकड़े सामंती-अपराधी गिरोहों से वहां के आम विद्यार्थी खासकर बहादुर छात्राएं मुक्त कराएंगी.
आमीन.
('इंडिया टुडे' के 13 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का असंपादित संस्करण)                                

रविवार, फ़रवरी 03, 2013

न्यूज चैनलों के डी.एन.ए में है समझदारी के खिलाफ पूर्वाग्रह

सामने आ गई है न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की अपढ़ता

जानेमाने समाजशास्त्री आशीष नंदी और अभिनेता शाहरुख खान के हालिया भाषण और लेख पर शुरू हुए विवाद में न्यूज मीडिया खासकर टी.वी न्यूज की भूमिका को लेकर गंभीर सवाल उठने लगे हैं कि क्या वे बात का बतंगड बनाते हैं और गैर-जरूरी विवाद पैदा करते हैं? यह भी कि क्या मीडिया जानबूझकर अधिक से अधिक पाठक या दर्शक आकर्षित करने के लिए ये विवाद पैदा करता है?
क्या इसके लिए वह घटनाओं, बयानों, मुद्दों और प्रसंगों को उनके व्यापक सन्दर्भों, परिप्रेक्ष्यों, पृष्ठभूमि और अन्तर्निहित प्रक्रियाओं से काटकर पेश करता है? क्या न्यूज मीडिया खासकर टी.वी न्यूज का सनसनीखेज चरित्र उसकी स्वभावगत विशेषता है?
ये और ऐसे ही अनेकों सवाल एक बार फिर से चर्चाओं में हैं. ताजा प्रसंग में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की अपढ़ता और निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी के गंभीर खतरों को लेकर बहस शुरू हो गई है. खासकर इस साल के शुरू में जिस तरह से न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के एक बड़े हिस्से ने एल.ओ.सी पर भारत-पाकिस्तान की सेनाओं के बीच हुई झड़पों को जिस युद्धोन्मादी अंदाज़ और तेवर में पेश किया, उससे दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया और स्थिति हाथ से निकलते-निकलते बची.

इसके बाद समाजशास्त्री आशीष नंदी के बयान और अभिनेता शाहरुख खान के लेख को जिस तरह से सन्दर्भों और परिप्रेक्ष्य से काटकर पेश किया गया, उससे मीडिया की भूमिका को लेकर बहस और तेज हो गई है.

हालाँकि मीडिया खासकर टी.वी न्यूज को लेकर उठनेवाले ये सवाल नए नहीं हैं. उल्लेखनीय है कि बी.बी.सी के महानिदेशक रहे जान बर्ट ने ७० के दशक के मध्य में टेलीविजन न्यूज के बारे में एक बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी कि इसमें समझदारी के विरुद्ध एक पूर्वाग्रह है.
उनके कहने का तात्पर्य यह था कि टी.वी न्यूज में दृश्यों पर अत्यधिक जोर के कारण उसमें उनके विश्लेषण और अर्थ को स्पष्ट करने की क्षमता सीमित होती है. यही कारण है कि टी.वी न्यूज किसी घटना के लिए जिम्मेदार प्रक्रियाओं, उसकी पृष्ठभूमि, सन्दर्भ और बारीकियों के भीतर गहराई से जाने के बजाय उसे बहुत ही सतही स्तर पर पकड़ता और पेश करता है.  
असल में, भारत में मीडिया खासकर टी.वी न्यूज के अंदर सनसनी और विवाद पैदा करने की इस प्रवृत्ति के पीछे बुनियादी कारण उसके आर्थिक-बिजनेस ढाँचे/माडल और न्यूजरूम की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में निहित है.

हुआ यह है कि पिछले डेढ़ दशकों में देश में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की संख्या तेजी से बड़ी है और इसके साथ ही उनके बीच अधिक से अधिक पाठक या दर्शक खींचने की होड़ तेज और तीखी हुई है. इसकी वजह यह है कि उनकी आय और राजस्व का मुख्य स्रोत विज्ञापन हैं जो पाठकों/दर्शकों की संख्या और उनकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करते हैं.

नतीजा यह कि अधिक से अधिक पाठक (रीडरशिप) और दर्शक (टी.आर.पी) खींचने के लिए उनमें प्रतिस्पर्द्धा बढ़ती जा रही है बल्कि इस होड़ में पत्रकारिता के मूल्य, नियम और एथिक्स को भी ताक में रखने में हिचक नहीं हो रही है.

यही नहीं, इस होड़ में एक-दूसरे की नक़ल और एक ही जैसी रिपोर्टिंग की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. इसकी वजह यह है कि सभी न्यूज चैनलों को लगता है कि अगर उन्होंने धारा के विरुद्ध जाकर रिपोर्टिंग की या मुद्दे उठाये या ख़बरें की तो वे पिछड़ जाएंगे और उनके प्रतिद्वंद्वी सारे दर्शक/पाठक बटोर ले जाएंगे.
यही कारण है कि जैसे एक चैनल किसी विवादस्पद मुद्दे को उठाता है, बाकी भी उसी की ओर लपक पड़ते हैं. दूसरे, दर्शकों/पाठकों का ध्यान लगातार आकर्षित करने के लिए उनपर हमेशा विवादस्पद मुद्दों/घटनाओं/बयानों की खोज का दबाव रहता है.
ऐसे में, जब कोई विवाद या सनसनीखेज घटना नहीं होती है तो वे उससे ‘निर्मित’ (मैन्युफैक्चर) करने तक पहुंच जा रहे हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि ताजा मामलों में भी मीडिया ने सनसनी/विवाद को ‘निर्मित’ करने की कोशिश की है.
लेकिन ताजा प्रसंग में न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की अपढ़ता भी खुलकर सामने आ गई है. यह किसी से छुपा नहीं है है कि मीडिया के अंदर गंभीर पढ़ने-लिखने की प्रवृत्ति कम हुई है और उसमें काम करनेवाले पत्रकारों और संपादकों का रिश्ता भी अकादमिक दुनिया से कमजोर हुआ है.
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अखबारों में साहित्य और अकादमिक गतिविधियों की कवरेज लगातार कम से कमतर होती गई है. कवरेज की गुणवत्ता में गिरावट आई है. खासकर न्यूज चैनलों में तो साहित्य और अकादमिक दुनिया एक तरह से अघोषित रूप से प्रतिबंध का शिकार है. शायद ही किसी अखबार या चैनल में साहित्य या अकादमिक जगत को कवर करने के लिए बीट या खास संवाददाता हो.
आश्चर्य नहीं कि जब साहित्य या अकादमिक दुनिया में चलनेवाली बहसों को रिपोर्ट करने की बारी आती है तो मीडिया खासकर चैनलों की सीमाएं खुलकर सामने आ जाती हैं. यही कारण है कि जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आशीष नंदी के बयान को न सिर्फ सन्दर्भ से काटकर पेश किया गया बल्कि उसे सनसनीखेज बनाने में मीडिया खासकर चैनलों की बड़ी भूमिका था.

यही बात शाहरुख खान के लेख को लेकर भी सामने आई जिसे बिना पूरा सन्दर्भ के पेश किया गया. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इन सभी प्रसंगों में मीडिया खासकर न्यूज चैनल खुद विवादों के घेरे में आ गए हैं और उनकी अपढ़ता और सनसनीखेज खबरें निर्मित करने की खतरनाक होती प्रवृत्ति उजागर हुई है.

ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल लोगों की समझ को बिगाड़ने के मिशन पर निकल पड़े हैं और समझदारी के खिलाफ पूर्वाग्रह उनके डी.एन.ए में आ गया है. यह समूचे न्यूज मीडिया के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि अखबारों में भी धीरे-धीरे चैनलों के नक़ल की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
इससे न्यूज मीडिया की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ गई है. यह उसके भविष्य और उससे अधिक भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है.
('दैनिक हरिभूमि' में 3 फरवरी को प्रकाशित टिप्पणी: http://epaper.haribhoomi.com/Details.aspx?id=8239&boxid=145407968 ) 

शनिवार, फ़रवरी 02, 2013

पत्रकार नवीन सूरिंजे के बहाने

आखिर सूरिंजे का 'अपराध' क्या है?
 
कन्नड़ न्यूज चैनल- कस्तूरी के रिपोर्टर नवीन सूरिंजे पिछले तीन महीने से जेल में हैं. उनका ‘अपराध’ यह है कि उन्होंने कर्नाटक में भाजपा राज में ‘नैतिक पुलिस’ की स्वयंभू भूमिका निभानेवाले लम्पट हिंदू कट्टरपंथी संगठनों की गुंडागर्दी का पर्दाफाश किया है.

रिपोर्टों के मुताबिक, सूरिंजे ने मंगलूर में एक निजी हालीडे-होम में जन्मदिन की पार्टी मना रहे युवा लड़के-लड़कियों के एक समूह पर हमला करने और उन्हें बेइज्जत करनेवाले हिंदू जागरण वेदिके के ५० से ज्यादा कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी को कैमरे में कैद किया और उसे चैनल पर दिखाया जिसके कारण मजबूरी में पुलिस को नैतिकता के उन ४३ ठेकेदारों को गिरफ्तार करना पड़ा.

लेकिन सूरिंजे को इस ‘गलती’ की सजा यह मिली कि पुलिस ने उन्हें इस मामले में ४४वां अभियुक्त बना दिया. उनपर आरोप लगाया गया कि वे भी इस साजिश में शामिल थे क्योंकि पूर्व जानकारी के बावजूद सूरिंजे ने पुलिस को इसकी जानकारी नहीं दी.
यही नहीं, मंगलूर पुलिस ने सूरिंजे पर वे सभी आरोप लगा दिए जो इस शर्मनाक घटना के लिए जिम्मेदार संगठन और उसके ४३ लम्पटों पर लगाए गए हैं. हालाँकि इनमें से कई आरोपों को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हटा दिया है लेकिन उसने सूरिंजे को यह कहते हुए जमानत देने से इनकार कर दिया है कि उन्होंने पूर्व जानकारी के बावजूद पुलिस को इसकी सूचना क्यों नहीं दी?
सूरिंजे का अपने बचाव में कहना है कि उन्हें इस घटना की सूचना पहले से नहीं थी; उन्हें उस इलाके के एक नागरिक से इसकी जानकारी मिली; उन्होंने मंगलूर के पुलिस कमिश्नर और स्थानीय सब-इन्स्पेक्टर को फोन किया था लेकिन उन दोनों ने फोन नहीं उठाया और न काल-बैक किया; इस घटना के दौरान हिंदू जागरण वेदिके के लम्पटों की तादाद इतनी अधिक थी कि वे उन्हें रोकने में सक्षम नहीं थे और उस स्थिति में इस गुंडागर्दी का पर्दाफाश करने के लिए उसकी रिकार्डिंग के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं था. 
सूरिंजे की इस सफाई को न तो पुलिस ने और न ही कर्नाटक उच्च न्यायालय स्वीकार किया. ध्यान रहे कि यह मामला पिछले गुवाहाटी की उस शर्मनाक घटना के बाद सामने आया है जिसमें रात में एक पब से बाहर निकल रही एक युवा लड़की के कपड़े फाड़ने और उसके साथ दुर्व्यवहार करनेवाले लफंगों-गुंडों को प्रोत्साहित करने और उसकी साजिश रचनेवालों में एक स्थानीय चैनल का रिपोर्टर भी शामिल पाया गया था.
निश्चय ही, यह टी.वी पत्रकारिता के लिए न सिर्फ गहरे शर्म और कलंक का मामला था बल्कि इसने टी.आर.पी के लिए चैनलों में सनसनीखेज ‘खबरें’ गढ़ने की आपराधिक साजिश रचने तक पहुँच जाने की खतरनाक प्रवृत्ति को उजागर किया था.
लेकिन सवाल यह है कि क्या गुवाहाटी और मंगलूर के मामले एक ही तरह के हैं? मंगलूर से आ रही रिपोर्टों के मुताबिक, सूरिंजे को वास्तव में हिंदू कट्टरपंथी संगठनों की युवा लड़के-लड़कियों को ‘नैतिकता’ सिखाने के नामपर की जानेवाली गुंडागर्दी के पर्दाफाश की सजा दी गई है.

अगर सूरिंजे ने उस घटना की कैमरे पर रिकार्डिंग नहीं की होती और उसे चैनल पर दिखाया नहीं होता तो पहले के तमाम मामलों की तरह इस बार भी ये गुंडे बच निकलते. उसकी रिपोर्टिंग के कारण ही यह मामला राष्ट्रीय मीडिया में आया और उसके दबाव में मंगलूर पुलिस को उन गुंडों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी.

पी.यू.सी.एल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अकेले दक्षिण कन्नड़ा जिले में २००७ से अब तक ‘नैतिक पुलिसिंग’ के नामपर मारपीट, दुर्व्यवहार और अपमानित करने के १४० मामले सामने आए हैं लेकिन पिछले साल जुलाई की इस घटना को छोड़कर बाकी किसी मामले में दोषी पकड़े नहीं गए.
सवाल यह है कि ऐसे मामलों को सामने लाने और दोषियों की पहचान करने में मदद करनेवाले नवीन सूरिंजे जैसे पत्रकारों को ही फंसाने की कोशिश की जाएगी तो कितने पत्रकार यह जोखिम उठाएंगे?
सवाल यह भी है कि क्या पत्रकारों को ऐसे सभी मामलों की पूर्व सूचना पुलिस को देनी चाहिए? लेकिन अगर पुलिस खुद राजनीतिक कारणों से कार्रवाई करने में अक्षम हो और उसकी अपराधियों से परोक्ष सहमति हो तो पत्रकार को क्या करना चाहिए?

क्या पत्रकार पुलिस का एजेंट है या उसका काम सच्चाई को सामने लाना है? अगर पत्रकारों ने ऐसी सूचनाएं पहले पुलिस को देनी शुरू कर दीं तो कितने लोग उसे सूचनाएं देंगे? क्या यह सच नहीं है कि कई बार पुलिस से निराश लोग पत्रकारों को सूचनाएं देते हैं?

साफ़ है कि यह सिर्फ नवीन सूरिंजे का मामला नहीं है बल्कि इससे पत्रकार और पत्रकारिता के कई बुनियादी सवाल जुड़े हैं. लेकिन अफसोस यह कि इस मुद्दे पर राष्ट्रीय मीडिया खासकर न्यूज चैनल न जाने क्यों खामोश हैं.
('तहलका' के 15 फ़रवरी के अंक में प्रकाशित टिप्पणी: http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1622.html )