शुक्रवार, जून 28, 2013

फेंकने की हद है भाई!!

'रैंबो' यानी कई जगह लीपने की कहानी के सबक   

हमारी तरफ भोजपुरी में एक कहावत है जिसका अर्थ है, ज्यादा तेज या सयाने लोग कई जगह लीपते हैं. भाजपा की ओर से घोषित/अघोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के समर्थकों भी लगता है कि मोदी से तेज या सयाना कोई नहीं है. नतीजा यह कि वे भी कई जगह लीपते दिखाई दे रहे हैं.
ताजा मामला उत्तराखंड में उनकी प्रचार मशीनरी के इस दावे का है जिसके मुताबिक उन्होंने और उनके अफसरों ने चमत्कारिक बचाव आपरेशन के जरिये सिर्फ दो दिनों के अंदर 15000 गुजरातियों को सुरक्षित निकालकर वापस गुजरात भेज दिया.

मोदी के इस रेम्बो जैसी कार्रवाई को देश (और दुनिया के भी) के सबसे बड़े अंग्रेजी  अखबार ‘टाइम्स आफ इंडिया’ ने देश को बताना जरूरी समझा. अखबार ने अपनी एक फ्रंट पेज स्टोरी में मोदी की शानदार क्षमताओं, प्रबंधन कौशल और कार्यकुशलता का उल्लेख करती हुई रिपोर्ट छापी. आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं:

और यहाँ भी अखबार में देख सकते हैं:


जाहिर है कि मोदी की प्रोपेगंडा टीम ने सोचा होगा कि उत्तराखंड की व्यापक तबाही और राहत-बचाव में ढिलाई और अराजकता की खबरों के बीच मोदी की यह कार्रवाई उन्हें ‘हीरो’ बना देगी. लेकिन कहते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते हैं. मोदी की प्रोपेगंडा टीम और उनके इर्द-गिर्द बनाई गई हाईप की पोल खुलने में ज्यादा देर नहीं लगी.
जल्दी ही यह साफ़ हो गया कि यह सस्ते प्रोपेगंडा के अलावा और कुछ नहीं है क्योंकि दो दिनों में १५००० गुजरातियों को उत्तराखंड की भयानक आपदा के बीच से निकाले जाने का गणित किसी भी तर्क और तथ्य पर फिट नहीं बैठ रहा था. यही नहीं, इस दावे पर कई तरह के सवाल भी उठने लगे. सोशल मीडिया पर चुटकी ली जाने लगी.

यह मुद्दा बनने लगा कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार को सिर्फ गुजरातियों की चिंता है. यहाँ तक कि भाजपा की जन्म-जन्मान्तर की साथी शिव सेना भी मोदी के गुजरात प्रेम पर ताना मारने से नहीं चूकी. आज भाजपा नेता यशवंत सिन्हा भी कटाक्ष करने से नहीं चूके. जाहिर है कि जल्दी ही भाजपा नेतृत्व को अहसास होने लगा कि यह प्रचार उसपर भारी पड़ने लगा है क्योंकि गुजरात के चुनाव हो चुके हैं और अब पहले पांच राज्यों में और फिर आम चुनाव होने हैं.
नतीजा, हड़बड़ी में लेकिन खबर छपने और शुरुआत में इसका बचाव करने के चार दिन बाद कल राजनाथ सिंह ने इस खबर का खंडन किया और दावा किया कि न मोदी ने और न ही भाजपा ने ऐसा कोई दावा नहीं किया है. उन्होंने खुद इस ‘खबर’ पर हैरानी जताई कि यह खबर कहाँ से आई है?

आज ‘द हिंदू’ के प्रशांत झा ने अपनी एक फ्रंट पेज स्टोरी में इसका खुलासा किया है कि इस खबर का स्रोत क्या है और साथ ही, इस खबर को लिखते हुए कैसी पत्रकारीय लापरवाही बरती गई? आप भी यह खबर पढ़िए:


इस प्रकरण ने मोदी की प्रचार मशीनरी की पोल एक बार फिर खोल दी है. लेकिन यह न्यूज मीडिया और पत्रकारों के लिए भी एक बड़ा सबक है. उन्हें तय करना है कि क्या वे इस या उस प्रोपेगंडा मशीन के भोंपू बनना चाहते हैं या वे ऐसे हर दावे की कड़ी जांच-पड़ताल और छानबीन करके लोगों के सामने तथ्यपूर्ण और वस्तुनिष्ठ रिपोर्ट करना चाहते हैं? कहने की जरूरत नहीं है कि अगले आम चुनावों तक ऐसे दावे सरकार की ओर से भी होंगे और विपक्ष खासकर मोदी की प्रचार मशीनरी की ओर से भी.
सवाल यह है कि क्या न्यूज मीडिया की जिम्मेदारी उन दावों को एक पोस्टमैन की तरह लोगों तक पहुंचाने भर की है या उससे प्रोपेगंडा/प्रचार/पी.आर के चमक-दमक, धूम-धड़ाके और धुंधलके से पार सच को सामने लाने की है? सच जानना हर पाठक और दर्शक का अधिकार है क्योंकि उसने अखबार और चैनल के सब्सक्रिप्शन के लिए पैसे चुकाए हैं. यही नहीं, लोकतंत्र में लोगों तक सच्ची, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष रिपोर्ट पहुँचाना न्यूज मीडिया की जिम्मेदारी है.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि लोगों को ‘खबर’ के नामपर ‘पेड न्यूज’ का झूठ बेचा जा रहा है. वायदों और दावों के नामपर देश को झूठे सपने बेचे जा रहे हैं. जीरो को हीरो बनाया जा रहा है. अवतार पैदा करने की कोशिश हो रही है. इस समय गोरख पांडे के सहारे यही कहा जा सकता है:
जागते रहो सोनेवालों!!!!        

सोमवार, जून 24, 2013

एक वर्चुअल मौत का सुसाइड नोट

फेसबुक उर्फ़ सोशल मीडिया के स्वर्ग से विदाई   

जहाँ तक याद आता है, ८० के दशक में अमिताभ बच्चन की एक फिल्म आई थी- ‘मि. नटवरलाल’! उन दिनों अपनी उम्र के बाकी दोस्तों की तरह मैं भी अमिताभ का दीवाना था और मुझे अमिताभ-रेखा की जोड़ी पसंद थी.
इस फिल्म में शायद पहली बार अमिताभ ने बच्चों के लिए एक गाना गया था-‘मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों! एक किस्सा सुनाऊं...’
इस गाने के आखिर में अमिताभ थोड़ा नाटकीय अंदाज़ में कहते हैं-“...खुदा की कसम मजा आ गया...मुझे मारकर बेशरम खा गया...” इसपर तपाक से एक बच्चा पूछता है, ‘लेकिन आप तो जिन्दा हैं?’ अमिताभ थोड़े खुन्नस में कहते हैं, ‘ये जीना भी कोई जीना है लल्लू?’

कुछ दिनों पहले तक लगता था कि फेसबुक के बिना जीना भी क्या जीना है? इसलिए कि मार्शल मैक्लुहान ने कभी मीडिया को मनुष्य का ही विस्तार कहा था. आज फेसबुक वास्तविक दुनिया का सिर्फ आभासी विस्तार नहीं बल्कि उससे कुछ ज्यादा हो गया है.

वह आपकी नई पहचान और मित्रों का नया अड्डा बनने लगा है. इस अड्डे पर क्या चल रहा है, यह उत्सुकता बार-बार इसके अंजुमन तक खींच ले जाती है. उससे ज्यादा यहाँ कुछ कहने और बहस छेड़ने की बेचैनी के कारण लगता था कि फेसबुक से जाना मुमकिन नहीं होगा.
लेकिन आज फेसबुक एकाउंट को डीएक्टीवेट करने यानी आभासी दुनिया में आत्महत्या के बाद पांच दिन हो गए. शुरूआती बेचैनी के बाद अब एक निश्चिन्तता सी है. इससे पहले कि फेसबुक मुझे मारकर खा जाता. उसे विदा कहने में ही भलाई दिखी. नहीं जानता कि इस निश्चय पर कब तक टिकना होगा.

उस दिन शाम को जे.एन.यू से टहलकर लौटते हुए बीते साल के कुछ छात्र मिल गए, छूटते ही पहला सवाल कि आपने फेसबुक छोड़ दिया? फिर कहने लगे कि सर लौट आइये. ईमानदारी की बात है कि फेसबुक से विदाई के बाद जब-तब एक बेचैनी सी उठती है.

असल में, पिछले कई हप्तों से फेसबुक के साथ आभासी दुनिया (वर्चुअल वर्ल्ड) में जीने पर अपन को भी यह अहसास हो रहा था कि एक लत सी लगती जा रही है. अपना एक्टिविस्ट भी जाग उठता था. सच कहूँ तो सोया एक्टिविस्ट जग गया था.
चाहे यू.पी.ए सरकार का भ्रष्टाचार और जन विरोधी नीतियां हों या भगवा गणवेशधारियों की सांप्रदायिक राजनीति- उनकी कारगुजारियों, सबकी पोल खोलने की बेचैनी सुबह-दोपहर-शाम फेसबुक पर खींच ही लाती थी. खासकर भगवा राजनीति के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश और सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के खतरों को बताने के उत्साह ने एक मिशनरी जिद सी हासिल कर ली थी.

हालाँकि इंटरनेट के धर्मान्ध हिंदुओं से गालियाँ भी खूब मिलती थीं लेकिन एक आश्वस्ति भी रहती थी कि चोट निशाने पर लगी है. फेसबुक पर लिखने और अपनी बात कहने का उत्साह का आलम यह था कि जिस वर्ड फ़ाइल में लिखकर टिप्पणियां करता था, उसमें से एक फ़ाइल में ४८५१२ शब्द और एक फ़ाइल में ३३१४ शब्द हैं. मतलब दो-तीन सालों में फेसबुक एक्टिविज्म में कोई ५२ हजार शब्द लिख डाले यानी एक छोटी किताब पूरी हो गई.   
कई बार लगता था कि देखें तो वहां क्या बहस या चर्चा चल रही है? क्या मुद्दे उठ रहे हैं? इसमें कोई दो राय नहीं है कि फेसबुक का ‘हिंदी पब्लिक स्फीयर’ वास्तविक दुनिया के पब्लिक स्फीयर से कहीं ज्यादा खुला, लोकतांत्रिक और गर्मागर्म है. यह भी कि यहाँ आपको विभिन्न राजनीतिक-सामाजिक-वैचारिक धाराओं के दोस्तों की आवाजें सुनने को मिल जाती हैं.

यह भी कि बहसें भी कई बार ज्यादा तीखी और आक्रामक होती हैं. कई बार निपटाने का भाव ज्यादा होता है और बहसों में गहराई और गंभीरता कम होती है. गहरी बहस के लिए जो धैर्य और विस्तार चाहिए, वह तो न के बराबर दिखता है.
इस मायने में फेसबुक एक ऐसे खुले और भीड़ भरे पब्लिक मैदान की तरह है जहाँ सबको एक हैंड माइक मिला हुआ है. आप इस मैदान बोलते-ललकारते-कटाक्ष और लाइक करते रहिये. बदले में इस सबके लिए तैयार रहिये. कई बार ऐसा लगता है कि यहाँ सब बोल रहे हैं और कोई किसी की सुन नहीं रहा है.

कई बार यह भी लगता है कि कुछ मित्र इन झगडों में छुपे-चुपके ‘परपीड़ा सुख’ और कुछ ‘पर-रति सुख’ का मजा भी ले रहे होते हैं. झूठ नहीं बोलूँगा, कई बार खुद भी आभासी/वास्तविक दोस्तों के ऐसे झगडों और बहसों में दूर से ताक-झाँक करके मजा लेता रहा हूँ.
लेकिन इधर काफी दिनों से लगने लगा था कि इसके कारण वास्तविक दुनिया का पढ़ना-लिखना कम हो रहा है. यह अहसास इन दिनों कुछ ज्यादा ही होने लगा था. इसलिए तय किया कि फेसबुक की आभासी दुनिया से फिलहाल, विदाई ली जाए.

संभव है कि इस दुनिया में फिर लौटूं. कब? खुद नहीं जानता. लेकिन यह कह सकता हूँ कि अपने कई दोस्तों को और फेसबुक की कुछ दिलचस्प बहसों को मिस कर रहा हूँ.
 
सोचा है कि जब भी मन कुछ टिप्पणी करने का करेगा तो यहाँ ब्लॉग पर ही लिखूंगा. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.       

शनिवार, जून 22, 2013

भाजपा अंदर मीडिया है या मीडिया अंदर भाजपा?

भाजपा में देख तमाशा कुर्सी का

भारतीय जनता पार्टी का मीडिया खासकर न्यूज चैनलों से और न्यूज चैनलों का भाजपा से प्यार किसी से छिपा नहीं है. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि भाजपा के कई नेताओं की ‘लोकप्रियता’ और उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में ‘चमकाने’ में टीवी की बड़ी भूमिका है.
कई तो बिना किसी राजनीतिक जमीन के सिर्फ चैनलों के कारण भाजपा की राजनीति में चमकते हुए सितारे हैं.
दूसरी ओर, मीडिया और न्यूज चैनल भी भाजपा को इसलिए पसंद करते हैं कि दोनों का दर्शक वर्ग एक है और दोनों तमाशा पसंद करते हैं. न्यूज चैनलों का कारोबार तमाशे से चलता है तो भाजपा की राजनीति तमाशे के बिना कुछ नहीं है.
आश्चर्य नहीं कि बीते सप्ताह गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जब पार्टी में लंबे समय से जारी सत्ता संघर्ष अपने क्लाइमेक्स पर पहुंचा तो उस तमाशे को 24x7 और वाल-टू-वाल कवर करने के लिए मीडिया और चैनलों की भारी भीड़ मौजूद थी.

जाहिर है कि वहां एक हाई-वोल्टेज तमाशे के सभी तत्व मौजूद थे. पार्टी में कथित तौर पर ‘सबसे लोकप्रिय’ नेता नरेन्द्र मोदी को 2014 के आम चुनावों के लिए चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर कयास और कानाफूसियां तेज थीं. आडवाणी और कई दूसरे नेता इसे लेकर नाराज बताये जा रहे थे और बीमारी का बहाना बनाकर गोवा नहीं पहुंचे.

इसके बाद भारतीय झगडा पार्टी बनती जा रही भाजपा में गोवा और फिर दिल्ली में जो कुछ हुआ, उसका कुछ आँखों देखा और कुछ कानों सुना हाल पूरे देश ने चैनलों पर देखा और अहर्निश देख रहे हैं.
एक धारावाहिक सोप आपेरा की तरह यह ड्रामा चैनलों पर जारी है जहाँ घटनाक्रम हर दिन और कई बार कुछ घंटों और मिनटों में नया मोड़ ले रहा है. इसमें एक पल उत्साह और खुशी के पटाखे हैं और दूसरे पल आंसू और बिछोह है और तीसरे पल साजिशों और कानाफूसी का रहस्य-रोमांच है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ और ‘पार्टी विथ डिफरेन्स’ का दावा करनेवाली भाजपा की नैतिकता और अनुशासन की धोती सार्वजनिक तौर पर खुल रही है. लेकिन मुश्किल यह है कि पार्टी इसकी शिकायत किससे करे?

आखिर चैनलों में भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष के बारे में चल रहे किस्से-कहानियों, साजिशों, उठापटक और खेमेबंदी से जुड़ी ‘खबरों’ का स्रोत खुद भाजपा और आर.एस.एस के नेता हैं. सच यह है कि ‘खबरों’ के नाम पर चल रहे इन किस्से-कहानियों में सबसे ज्यादा कथित ‘खबरें’ भाजपा और आर.एस.एस के विभिन्न गुटों के नेताओं की ओर से एक-दूसरे के खिलाफ ‘प्लांटेड स्टोरीज’ हैं.

खास बात यह है कि इनमें से ज्यादातर ‘खबरें’ भाजपा बीट कवर करनेवाले उन रिपोर्टरों के जरिये आ रही हैं जो खुद भी भाजपा के इस या उस खेमे के करीब माने जाते हैं. इन रिपोर्टरों की पहुँच भाजपा/आर.एस.एस नेताओं के अंत:पुर तक है और कुछ उनके किचेन कैबिनेट तक में शामिल हैं.
इनमें से कई रिपोर्टर चैनलों पर रिपोर्टिंग और विश्लेषण के नामपर भाजपा के विभिन्न गुटों/खेमों के प्रवक्ता से बन जाते हैं और संबंधित गुटों का बचाव करते दिखने लगते हैं. हालाँकि यह कोई नई बात नहीं है. भाजपा और चुनिंदा पत्रकारों के बीच रिश्ता बहुत पुराना है. अतीत में इनमें से कई पत्रकार बाद में पार्टी में एम.पी और मंत्री भी बने हैं.
सच पूछिए तो भाजपा/आर.एस.एस में पत्रकारों की यह घुसपैठ काफी अंदर तक है. लेकिन इसके उलट मीडिया के अंदर भाजपा की घुसपैठ भी काफी दूर तक रही है. इस घुसपैठ के नतीजे रामजन्म भूमि अभियान के दौरान दिखे और इन दिनों नरेन्द्र मोदी को लेकर मीडिया के एक बड़े हिस्से के उत्साह में भी दिखाई दे रहा है.

लेकिन भाजपा-न्यूज मीडिया के इस ‘मुहब्बत’ की कीमत वे पाठक-दर्शक चुका रहे हैं जिन्हें देश के मुख्य विपक्षी दल के बारे में ‘खबरों’ के नामपर ‘प्लांटेड स्टोरीज’ और कानाफूसियों-अफवाहों से काम चलाना पड़ रहा है.

('तहलका' के 30 जून के अंक में प्रकाशित स्तंभ)       

बुधवार, जून 12, 2013

आडवाणी का ‘ब्रह्मास्त्र’ और भाजपा का संकट

भारतीय झगड़ा पार्टी बनती बीजेपी के इस संकट के लिए खुद पार्टी और आर.एस.एस नेतृत्व जिम्मेदार हैं

कहते हैं कि राजनीति में एक दिन भी बहुत होता है. खासकर २४ घंटे के चैनलों और मोबाइल युग में तो घंटे और मिनट भी गिने जाने लगे हैं. देश के मुख्य विपक्षी दल- भारतीय जनता पार्टी में भी मिनटों में राजनीति बदल रही है.

गोवा कार्यकारिणी की बैठक के दौरान रविवार को उनके प्रवक्ता शाहनवाज़ हुसैन ने इंतज़ार कर रिपोर्टरों से कहा कि घंटों में नहीं, मिनटों में बड़ा एलान होने जा रहा है. फिर खूब धूम-धड़ाके के साथ एलान हुआ कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी २०१४ के आम चुनावों के लिए पार्टी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष होंगे.

इससे पहले से ही हर ओर मोदी की जय-जयकार हो रही थी लेकिन पार्टी अध्यक्ष की इस घोषणा के साथ ही पार्टी के सभी नेता खासकर प्रधानमंत्री पद के दूसरे दावेदार मोदी के आगे नतमस्तक दिख रहे थे और मीडिया में अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर दी गई थी.

लेकिन २४ घंटे भी नहीं बीते कि भाजपा की राजनीति में काफी उलटफेर हो गया दिखता है. ‘प्रथम ग्रासे, मक्षिका पाते’ (पहले ही कौर में मक्खी का गिरना) की तर्ज पर पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा देकर ऐसा ब्रह्मास्त्र चला कि भाजपा नेताओं को सिर छुपाने की जगह नहीं मिल रही थी.
इस्तीफा देते हुए उन्होंने पार्टी नेतृत्व पर यह कहते हुए करारा हमला बोला कि यह अब वो पार्टी नहीं रही जिसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी ने बनाया था. आडवाणी के इस आरोप ने भाजपा खासकर उसके नए नेता नरेन्द्र मोदी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा कि पार्टी में अब निजी हितों और एजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है.
साफ़ है कि आडवाणी ने एक ही झटके में न सिर्फ चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष बनाए गए नरेन्द्र मोदी की चमक फीकी कर दी बल्कि पार्टी के अंदर जारी सत्ता संघर्ष और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की लड़ाई को सड़क पर ला दिया है. आडवाणी के इस फैसले से पार्टी के अंदर घमासान और तेज होना तय है.

हालाँकि उन्होंने आर.एस.एस प्रमुख मोहन भागवत के हस्तक्षेप के बाद इस्तीफा वापस ले लिया है लेकिन आडवाणी ने एक बार इस्तीफा देकर और उससे अधिक इस्तीफे के कारण बताकर दांव बहुत ऊँचा कर दिया.

यहाँ से वे किन शर्तों और समझौते के साथ वापस लौटे हैं, इसका खुलासा होना बाकी है. इससे यह तय है कि पार्टी के अंदर सत्ता संघर्ष खत्म नहीं हुआ है और अभी नाटक के पहले अंक का पर्दा गिरा है.  

असल में, आडवाणी के लिए अब खोने को कुछ नहीं है. इसलिए वे पार्टी और आर.एस.एस से आसानी से और बिना बड़ी कीमत वसूले इस्तीफे को वापस करने के लिए राजी हुए होंगे, इसकी सम्भावना कम है.
जाहिर है कि आडवाणी के मोदी के खिलाफ इस तरह खड़ा हो जाने के बाद भाजपा और खासकर आर.एस.एस के सामने अब दो ही विकल्प हैं. एक, वह आडवाणी को जनसंघ के जमाने के नेता बलराज मधोक की तरह किनारे कर दे. दूसरे, उनके साथ समझौते में जाए और उनकी कुछ शर्तों को स्वीकार करे. ये दोनों ही विकल्प आसान नहीं हैं.
दोनों ही विकल्पों के साथ पार्टी के अंदर गुटबाजी और सत्ता संघर्ष के और तेज होने की आशंका है. नाराज आडवाणी पार्टी के अंदर रहें या बाहर, दोनों ही स्थितियों में वे भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी करते रह सकते हैं और मोदी के विजय अभियान के रथ को पंक्चर करने के लिए काफी हैं.
जाहिर है कि जो विश्लेषक अटल-आडवाणी युग के अंत की घोषणा कर रहे थे, उन्हें थोड़ा और इंतज़ार करना पड़ेगा. यही नहीं, जो विश्लेषक गोवा में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के अंदर और उससे बाहर काफी उठापटक, खींचतान और लाबीइंग के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा को पार्टी में मोदी के राज्यारोहण की तरह देख रहे थे, उन्हें भी मिनटों-घंटों-दिनों नहीं बल्कि सप्ताहों इंतज़ार करना पड़ सकता है.

यह सच है कि आडवाणी और उनका गुट मोदी को बहुत लंबे समय तक नहीं रोक पायेगा. लेकिन इतना तय है कि पार्टी में आनेवाले दिनों में काफी उठापटक और नतीजे में, सड़कों पर तमाशा और छीछालेदर दिखाई देगा.

इसकी वजह यह है कि मोदी भाजपा में प्रधानमंत्री पद के आधे दर्जन से ज्यादा उम्मीदवारों के बीच जारी महत्वाकांक्षाओं की तीखी होड़ में एक कदम भले आगे निकल गए हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि पार्टी के अंदर प्रधानमंत्री और सत्ता की संभावित मलाई में हिस्से के लिए जारी खींचतान और उठापटक खत्म हो गई है.
इसके उलट आशंका यह है कि गोवा में निजी महत्वाकांक्षाओं की यह लड़ाई जिस तरह से खुलकर सामने आ गई है, वह आनेवाले दिनों में और अप्रिय शक्ल ले सकती है. खासकर नरेन्द्र मोदी और उनके समर्थक जितने बेसब्र होंगे, खुद को प्रधानमंत्री और एकछत्र नेता के रूप में पेश करने के लिए जितना दबाव बढ़ाएंगे, यह लड़ाई में पार्टी की उतनी ही सार्वजनिक छीछालेदर होगी.
वैसे भी गुटबंदी और आपसी झगडों के कारण बीजेपी को भारतीय झगडा पार्टी कहा जाने लगा है. हालाँकि यह छवि कोई एक दिन में नहीं बनी है. भाजपा चाहे खुद को कितनी भी सबसे अलग पार्टी बताए (पार्टी विथ डिफरेन्स) या अनुशासन और अलग ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ की बात करे लेकिन सच यह है कि निजी महत्वाकांक्षाओं पर आधारित गुटबाजी, खेमेबंदी, उठापटक, साजिशों और दुरभिसंधियों का इतिहास बहुत पुराना है.

बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. ८० और ९० के दशक में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी और बाद में आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के बीच कभी दबे और कभी खुले में यह खींचतान और उठापटक चलती रही है.

यह गुटबाजी, उठापटक, साजिशें और एक-दूसरे को निपटाने की कोशिशें बाद में बिना किसी अपवाद के पार्टी की हर राज्य इकाई और अनुषांगिक संगठनों तक पहुँच गई. यहाँ तक कि खुद पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह इस गुटबंदी और उठापटक के बड़े खिलाड़ी हैं. उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह बनाम कल्याण सिंह बनाम कलराज मिश्र की लड़ाई ने भाजपा को आसमान से पाताल में पहुंचा दिया.
सच पूछिए तो गुटबंदी और आपसी उठापटक के मामले में भाजपा पूरी तरह से कांग्रेस संस्कृति में रंग चुकी है. खुद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी इस गुटबंदी और विरोधियों को एन-केन-प्रकारेण निपटाने के माहिर हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसी कारण भाजपा के बड़े नेताओं में मोदी के हाथ में पार्टी की कमान सौंपे जाने से घबराहट है. उन्हें पार्टी नेतृत्व में हो रहे इस पीढ़ीगत और वैचारिक-राजनीतिक बदलाव में अपनी जगह को लेकर बेचैनी है. आडवाणी के खुले विद्रोह में ऐसे कई वरिष्ठ नेताओं की आवाज़ को सुना जा सकता है.

यही कारण है कि भाजपा और आर.एस.एस नेतृत्व इसे अनदेखा करने का जोखिम नहीं ले सकता है. सच पूछिए तो वह अपने ही बनाए जाल में फंस गया है. इसके लिए और कोई नहीं बल्कि खुद भाजपा और आर.एस.एस का अलोकतांत्रिक सांगठनिक ढांचा जिम्मेदार है जहाँ बड़े राजनीतिक फैसले पार्टी के अंदर नहीं बल्कि आर.एस.एस के मुख्यालय नागपुर में लिए जाते हैं.

यही नहीं, पार्टी में गुटबंदी-खेमेबाजी का मुख्य स्रोत भी आर.एस.एस और नागपुर ही है जो गुटबंदी और नेताओं के झगड़ों को अपनी पंच की भूमिका और पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए इस्तेमाल करता है.
          
लेकिन इससे सत्ता की दावेदारी कर रहे देश के प्रमुख विपक्षी दल की दयनीय स्थिति का पता चलता है. माना जाता है कि किसी देश में लोकतंत्र और उसकी मुख्य एजेंसी- पार्टी राजनीति की सेहत का अंदाज़ा लगाना हो तो उसकी सरकार और सत्तारुढ़ पार्टी से ज्यादा बेहतर है, उसके मुख्य विपक्षी दल की सेहत को टटोलना.

देश में मुख्य संसदीय विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा स्थिति को देखकर भारतीय लोकतंत्र की सेहत के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. इससे पता चलता है कि मुख्यधारा की पार्टी राजनीति सत्ता-लिप्सा और व्यक्तिगत स्वार्थों का साध्य बन गई है और वह देश और लोकतंत्र को कुछ देने की स्थिति में नहीं रह गई है.
 
(दैनिक 'कल्पतरु एक्सप्रेस', आगरा में 11 जून को छपी टिप्पणी)    

शनिवार, जून 08, 2013

आई.सी.यू की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था

आर्थिक संकट से निपटने की यू.पी.ए सरकार की रणनीति से माया मिली, न राम वाली स्थिति पैदा हो रही है


संकट में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था की फिसलन जारी है. जैसीकि आशंका थी, पिछले वित्तीय वर्ष (१२-१३) की चौथी तिमाही (जनवरी से मार्च’१३) में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर मात्र ४.८ फीसदी रही और पूरे वर्ष में पांच फीसदी दर्ज की गई जोकि आर्थिक वृद्धि दर के मामले में पिछले एक दशक में अर्थव्यवस्था का सबसे फीका और बदतर प्रदर्शन है.
यही नहीं, चौथी तिमाही की ४.८ फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर इसलिए और भी निराशाजनक है क्योंकि यह तीसरी तिमाही की वृद्धि दर ४.७ फीसदी की तुलना न के बराबर सुधार की ओर संकेत करती है. इससे न सिर्फ अर्थव्यवस्था के एक गंभीर गतिरुद्धता में फंस जाने का पता चलता है बल्कि उसमें सुधार की उम्मीदों को भी गहरा झटका लगा है.
हालाँकि इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है क्योंकि केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन (सी.एस.ओ) ने फ़रवरी में जारी पूर्वानुमान में वर्ष १२-१३ में जी.डी.पी वृद्धि दर के पांच फीसदी रहने का संकेत दिया था. लेकिन उस समय अर्थव्यवस्था के सरकारी मैनेजरों ने इससे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद जाहिर की थी क्योंकि उन्हें चौथी तिमाही में अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत दिखाई दे रहे थे.

उन्हें लग रहा था कि अर्थव्यवस्था तीसरी तिमाही में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है जहाँ से उसमें सुधार होना शुरू हो जाएगा. उनकी उम्मीद की दूसरी वजह यह थी कि पिछले साल अगस्त में पी. चिदंबरम के वित्त मंत्रालय की कमान संभालने के बाद से यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले कई बड़े फैसले किये हैं जिसका असर चौथी तिमाही में दिखने की उम्मीद थी.

लेकिन ताजा रिपोर्टों से साफ़ है कि अर्थव्यवस्था अभी भी आई.सी.यू में पड़ी हुई है. सी.एस.ओ के मुताबिक, वर्ष २०१२-१३ में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर मात्र एक फीसदी और उसमें सबसे महत्वपूर्ण विनिर्माण क्षेत्र (मैन्युफैक्चरिंग) की वृद्धि दर मात्र १.२ फीसदी रही.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी- क्रिसिल के अनुसार, मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र का यह प्रदर्शन पिछले दशक का सबसे बदतर प्रदर्शन है. क्रिसिल के मुताबिक, यह १९९१-९२ के संकट की याद दिलाता है जब औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर गिरकर मात्र ०.६ फीसदी और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि दर नकारात्मक (-)०.८ फीसदी रह गई थी.
चिंता की बात यह भी है कि न सिर्फ जनवरी से मार्च की तिमाही में बल्कि चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में आठ मूल ढांचागत उद्योगों की वृद्धि दर मात्र २.३ फीसदी दर्ज की गई है जोकि पिछले साल इसी अवधि में दर्ज की गई ५.७ फीसदी की वृद्धि दर की आधी से भी कम है.

यही नहीं, इस सप्ताह जारी एच.एस.बी.सी की पी.एम.आई रिपोर्ट के मुताबिक, बीते मई महीने में औद्योगिक गतिविधियों में सुधार तो दूर अप्रैल की तुलना में मामूली गिरावट के संकेत हैं. पी.एम.आई औद्योगिक इकाइयों के मैनेजरों से मांग सम्बन्धी सर्वेक्षण के आधार पर तैयार किया जाता है और वह मई महीने में पिछले ५० महीने के सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुका है.

लेकिन संकट सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र तक सीमित नहीं है. इसका असर अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों खासकर सेवा क्षेत्र पर भी पड़ा है. यहाँ तक कि कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन भी बीते वित्तीय वर्ष में वर्ष ११-१२ की तुलना में लगभग आधी रह गई है. कृषि की वृद्धि दर वर्ष १२-१३ में १.९ फीसदी रही जबकि उससे पहले के वर्ष में ३.६ फीसदी दर्ज की गई थी.
यही हाल निर्यात में बढ़ोत्तरी का है जिसमें चालू वित्तीय वर्ष के पहले महीने- अप्रैल में मात्र १.६८ फीसदी (डालर में) की वृद्धि दर्ज की गई है. उल्लेखनीय है कि पिछले वित्तीय वर्ष १२-१३ में निर्यात की वृद्धि दर में (-) १.८ फीसदी की गिरावट और आयात में ०.४ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई जिसके कारण न सिर्फ व्यापार घाटे में बढ़ोत्तरी दर्ज की गई बल्कि सबसे अधिक चिंताजनक वृद्धि चालू खाते के घाटे में हुई है जो बढ़कर जी.डी.पी के ५.१ फीसदी तक पहुँच गई है.
खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने अपने बजट भाषण में स्वीकार किया है कि चालू खाते के घाटे में हुई वृद्धि सबसे बड़ी चुनौती है. चालू खाते के घाटे में भारी वृद्धि के कारण डालर के मुकाबले रूपये पर दबाव बना हुआ है.

हालाँकि इस बीच मुद्रास्फीति की दर में नरमी आई है लेकिन वह अब भी सरकार और रिजर्व बैंक के अनुमानों से कहीं ज्यादा ऊँचाई पर बनी हुई है. वर्ष २०१२-१३ में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर ७.४ फीसदी और खाद्य वस्तुओं की मुद्रास्फीति दर ८.१ फीसदी रही.

कहने की जरूरत नहीं है कि महंगाई पर काबू पाने में नाकामी यू.पी.ए सरकार की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सबसे बड़ी विफलता साबित हुई है.

इसकी कीमत आम आदमी के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी चुकानी पड़ी है. असल में, पिछले चार सालों से लगातार ऊँची महंगाई की दर से निपटने में नाकाम रही यू.पी.ए सरकार ने हाथ खड़े कर दिए और यह जिम्मा रिजर्व बैंक को सौंप दिया.
नतीजा, रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को काबू में लाने के लिए ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की जिसका सीधा असर निवेश पर पड़ा. निवेश में कमी आने के कारण आर्थिक वृद्धि की दर में गिरावट दर्ज की गई है जोकि लुढ़ककर पिछले एक दशक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है. इसके बावजूद मुद्रास्फीति पूरी तरह से काबू में नहीं आई है.
इस तरह ‘माया मिली, न राम’ की स्थिति पैदा हो गई है. उल्टे ऊँची मुद्रास्फीति की दर के साथ आर्थिक वृद्धि में गिरावट की स्थिति के कारण अर्थव्यवस्था के मुद्रास्फीति जनित मंदी (स्टैगफ्लेशन) में फंसने की आशंका बढ़ती जा रही है.
जैसे इतना ही काफी नहीं था. एक के बाद दूसरे भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे ने यू.पी.ए सरकार की साख पाताल में पहुंचा दी. यही नहीं, अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार की रही-सही उम्मीदों पर यू.पी.ए सरकार के अंदर आर्थिक सुस्ती से निपटने की रणनीति पर मतभेदों, खींचतान और अनिर्णय ने पानी फेर दिया.

आखिरकार जब सरकार की नींद खुली और उसने घबराहट और जल्दबाजी में फैसले करने शुरू किये तो वह अर्थव्यवस्था को उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की दवा की बड़ी खुराक से ठीक करने की कोशिश करने लगी जिसके कारण अर्थव्यवस्था बीमार हुई है और जिसकी सफलता को लेकर पूरी दुनिया में सवाल उठाये जा रहे हैं.

असल में, यू.पी.ए सरकार ने अर्थव्यवस्था की हालत सुधारने के लिए एक ओर बड़ी पूंजी खासकर विदेशी पूंजी के लिए दरवाजे खोलने से लेकर नियमों/शर्तों को उदार बनाने तक और दूसरी ओर, बड़ी विदेशी वित्तीय पूंजी को खुश करने के लिए राजकोषीय घाटे में कमी यानी सरकारी खर्चों और सब्सिडी में कटौती जैसे किफायतशारी (आस्ट्रिटी) के उपायों को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया.
इसके तहत ही वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के लिए न सिर्फ पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में भारी कटौती की बल्कि चालू साल के बजट में भी बहुत मामूली वृद्धि की है.
लेकिन इसका नतीजा उल्टा हुआ है. आर्थिक वृद्धि को लेकर सी.एस.ओ के ताजा अनुमान से साफ़ है कि आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट की एक वजह सरकारी खर्चों में भारी कटौती भी है. दरअसल, जब अर्थव्यवस्था की हालत खस्ता हो और आर्थिक वृद्धि गिर रही हो, उस समय सरकारी खर्चों खासकर सार्वजनिक निवेश में कटौती का उल्टा असर होता है.

इसकी वजह यह है कि आर्थिक विकास को तेज करने के लिए निवेश जरूरी है और जब आर्थिक अनिश्चितता और वैश्विक संकट के कारण निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे न आ रहा हो, उस समय सार्वजनिक निवेश में कटौती से स्थिति और बिगड़ जाती है. भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ भी यही होता दिखाई दे रहा है.

इससे एक बार फिर ‘माया मिली, न राम’ वाली स्थिति पैदा हो रही है. आर्थिक वृद्धि में गिरावट का सीधा असर सरकार के टैक्स राजस्व पर पड़ेगा और टैक्स वसूली कम होने से राजकोषीय घाटे में बढ़ोत्तरी तय है. इस तरह न आर्थिक विकास को गति मिल पाएगी और न राजकोषीय घाटे में कोई कमी आ पाएगी. यह एक दुश्चक्र है.
माना जाता है कि इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने की चिंता छोड़कर आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए सार्वजनिक निवेश खासकर ढांचागत और सामाजिक क्षेत्र में भारी बढ़ोत्तरी करनी चाहिए.
इससे अर्थव्यवस्था में रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और उसके साथ मांग बढ़ेगी जिसे पूरा करने के लिए निजी निवेश भी आगे आएगा. इससे आर्थिक गतिरुद्धता भंग होगी.
यह कोई समाजवादी फार्मूला नहीं है बल्कि यह पूंजीवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में  कींसवादी अर्थशास्त्र है जिसे १९३० के दशक की महामंदी से निपटने के लिए जान मेनार्ड कींस ने पेश किया था.

लेकिन मुश्किल यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के व्यामोह में फंसे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री से लेकर अर्थव्यवस्था के मैनेजरों तक को यह भरोसा है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर विदेशी पूंजी को तमाम रियायतें देने जैसे आर्थिक सुधारों को तेजी से आगे बढ़ानेवाले फैसलों से देश में विदेशी निवेश तेजी से आएगा और उससे अर्थव्यवस्था एक बार फिर तेजी से दौड़ने लगेगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार बड़ा जोखिम ले रही है. वह अर्थव्यवस्था के साथ एक बड़ा दाँव खेल रही है जिसमें हालिया वैश्विक उदाहरणों को देखते हुए कामयाबी की सम्भावना कम दिखाई दे रही है.
लेकिन अगर वह सफल भी हुई तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी का और बड़ा मोहताज बना देगी.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप में 8 जून को प्रकाशित टिप्पणी)                     


बुधवार, जून 05, 2013

आइ.पी.एल : गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज

कल तक आई पी एल के गुणगान में जुटे चैनलों को 'सत्य' का इलहाम काफी देर से हुआ है  

आई.पी.एल में मैच फिक्सिंग और सट्टेबाजी के खुलासे के बाद से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बी.सी.सी.आई) के अध्यक्ष और आई.पी.एल टीम- चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक एन. श्रीनिवासन मीडिया से बहुत नाराज हैं. उन्हें लगता है कि मैच फिक्सिंग मामले में ‘मीडिया ट्रायल’ हो रहा है. उनकी नाराजगी की वजह किसी से छुपी नहीं है.

श्रीनिवासन के दामाद और चेन्नई सुपर किंग्स के प्रिंसिपल (सी.ई.ओ) रहे गुरुनाथ मैयप्पन सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग रैकेट में शामिल होने के आरोपों में पुलिस के हत्थे चढ़ चुके हैं. जाहिर है कि श्रीनिवासन पर इस्तीफा देने और बी.सी.सी.आई पर चेन्नई सुपर किंग्स का लाइसेंस खत्म करने का दबाव बढ़ता जा रहा है.

लेकिन श्रीनिवासन को लगता है कि यह मांग सिर्फ मीडिया से आ रही है. उन्होंने एलान कर दिया है कि मीडिया उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है. लेकिन वे भूल रहे हैं कि यही मीडिया है जिसने आई.पी.एल को आई.पी.एल बनाया है.
न्यूज चैनलों और अखबारों ने शुरू से आई.पी.एल को जिस तरह हाथों-हाथ लिया, उसे जितनी कवरेज दी और सबसे बढ़कर उसकी चमक-दमक के पीछे छिपी गडबडियों और गलाजत को अनदेखा किया, उससे आई.पी.एल को एक विश्वसनीयता मिली. यह चैनल और मीडिया ही था जिसने आई.पी.एल को भारत के अपने पहले सफल लीग की तरह प्रचारित और प्रतिष्ठित किया.
इसलिए आई.पी.एल को मिले ‘मीडिया हाइप’ का मजा ले चुके श्रीनिवासन अब ‘मीडिया ट्रायल’ की शिकायत किस मुंह से कर रहे हैं? मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू, यह कैसे चलेगा?

यह सही है कि जब से श्रीसंथ सहित तीन खिलाड़ियों और विंदू दारा सिंह और मय्प्पन की ‘स्पाट फिक्सिंग’ और सट्टेबाजी के आरोपों में गिरफ्तारी हुई है, मीडिया ने ऐसे सिर आसमान पर उठा रखा है, जैसे उसे आई.पी.एल की चमक के पीछे छिपी बजबजाहट के बारे में आज पता चला है.

सवाल यह है कि आज जो चैनल/अखबार आई.पी.एल की चीरफाड़ में जुटे हुए हैं, वे कल तक उस गलाजत से आँखें क्यों मूंदे हुए थे?

क्या चैनलों को यह पता नहीं था कि जैसे हर चमकती चीज सोना नहीं होती, आई.पी.एल भी शुरू से ही क्रिकेट से ज्यादा पैसे और ग्लैमर के कारण चमक रहा था? सच यह है कि मीडिया को यह सब मालूम था. लेकिन चैनल खुद भी इसी ‘चमक’ से अभिभूत थे.
यहाँ तक कि अधिकांश चैनलों पर क्रिकेट के एक्सपर्ट वे पूर्व खिलाड़ी हैं, जिनपर फिक्सिंग के आरोप लग चुके हैं. मजे की बात यह है कि वे अब खिलाड़ियों के लालच और उनमें नैतिकता की बढ़ती कमी पर ‘ज्ञान’ देते हैं. यही नहीं, आई.पी.एल में सट्टेबाजी की पोस्टमार्टम कर रहे चैनल/अखबार कल तक खुद मैच से पहले सट्टा बाजार में टीमों के भाव बताया करते थे.
इसे कहते हैं, गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज. इसका सबूत यह है कि आई.पी.एल में फिक्सिंग के आरोपों में एन. श्रीनिवासन का सिर मांग रहे अखबार/चैनल उस आई.पी.एल पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं जिसे कालेधन को सफ़ेद करने के लिए ही खड़ा किया गया है. सट्टेबाजी और नतीजे में फिक्सिंग उसके मूल चरित्र में है.

सवाल है कि अगर आई.पी.एल को खत्म कर दिया जाए तो क्रिकेट का क्या नुकसान होगा? लेकिन यह सवाल कोई चैनल या अखबार नहीं उठाएगा क्योंकि आई.पी.एल को टेलीविजन यानी मनोरंजन उद्योग के लिए ही बनाया गया है. उसमें बड़े टीवी समूहों (जिनमें न्यूज चैनल भी शामिल हैं) का हजारों करोड़ रूपया लगा हुआ है और सभी को विज्ञापनों से भारी कमाई हो रही है.  

जाहिर है कि चैनल बेवकूफ नहीं हैं कि अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारें. वे तो सिर्फ श्रीनिवासन का सिर दिखाकर दर्शकों को भरोसा दिलाना चाहते हैं कि आई.पी.एल में अब सब ठीक-ठाक है. वैसे ही जैसे ललित मोदी के बाद राजीव शुक्ल को आई.पी.एल कमिश्नर और श्रीनिवासन को बोर्ड अध्यक्ष बनाने के बाद हो गया था.                 
('तहलका' के 15 जून के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)