सोमवार, अप्रैल 29, 2013

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की विरासत

आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी पुनरुज्जीवन दिया है

हालाँकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उत्ताप और बेचैनी अब कमजोर पड़ चुकी है लेकिन उस आंदोलन से पैदा हुई नई नागरिक चेतना, सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की तीव्रता कतई कमजोर नहीं पड़ी है. दिल्ली में १६ दिसंबर की बर्बर सामूहिक बलात्कार की घटना के खिलाफ भड़के आंदोलन में उसी नई नागरिक सक्रियता और बदलाव की आकांक्षा की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
इस अर्थ में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने न सिर्फ लोगों खासकर मध्यवर्ग में नागरिकता बोध को जगाया, उन्हें बंद कमरों से बाहर आकर सामूहिक कार्रवाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया बल्कि उसने सत्ता और उसके दमनतंत्र को चुनौती देकर लोकतंत्र में लोगों को अपनी ताकत का अहसास करवाया.
उसी नागरिकता बोध और सामूहिक कार्रवाई के साथ अपनी ताकत के अहसास ने लोगों खासकर युवाओं-महिलाओं को स्त्रियों के लिए बेख़ौफ़ आज़ादी के आंदोलन में उतरने की प्रेरणा और हिम्मत दी.

असल में, वर्ष २०११ में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देश में लंबे अरसे बाद उस शहरी मध्यवर्ग को सड़कों पर उतार दिया जो नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का महत्वपूर्ण लाभार्थी होने के कारण उसका सबसे मुखर पैरोकार बन गया था.

यह उसकी सबसे बड़ी ताकत थी. लेकिन इसके साथ ही यह भी सही है कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने उद्देश्य, स्वरुप और चरित्र में बुनियादी बदलाव का वर्गीय आंदोलन नहीं था और न ही उसका कोई व्यापक एजेंडा और कार्यक्रम था.

यह भी सही है कि उसमें कई अंतर्विरोधों, विसंगतियों के साथ-साथ सांप्रदायिक-जातिवादी-प्रतिक्रियावादी राजनीतिक रुझान भी दिखाई दिए. उसकी संकीर्णताएँ खासकर राजनीति विरोधी अभियान भी किसी से छुपी नहीं हैं. इन कमियों, सीमाओं और तात्कालिक विफलता के बावजूद भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को बहुत कुछ दिया है.
इस आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि इसने मध्यवर्गीय नागरिक समाज के एक
बड़े हिस्से में बढ़ रहे अलगाव-निराशा और हताशा को तोडा, उनमें नागरिकता बोध पैदा किया और सामूहिक कार्रवाई में उतरने के लिए प्रेरित किया. इस प्रक्रिया में इस आंदोलन ने न सिर्फ लोगों में राजनीतिकरण की ठहर गई प्रक्रिया को तेज किया बल्कि उनके अंदर सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत दी.
इस अर्थ में इस आंदोलन ने देश भर में पहले से चल रहे अनेकों जनतांत्रिक और बुनियादी बदलाव के आन्दोलनों को भी एक नया पुनरुज्जीवन दिया है.

हैरानी की बात नहीं है कि इस आंदोलन के दौरान और उसके बाद चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन के विस्थापितों की लड़ाई हो या कुडनकुलम/जैतापुर परमाणु बिजलीघर के खिलाफ अभियान हो या पास्को/वेदांता जैसे बड़े प्रोजेक्ट्स के खिलाफ चल रहे जनांदोलनों की गतिशीलता- सबमें एक तेजी और नई उर्जा दिखाई दी है.

ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने आर्थिक सुधारों के मुखर समर्थक मध्यवर्ग में जनांदोलनों के प्रति एक नई संवेदनशीलता पैदा की, शासक वर्गों की साख को जबरदस्त धक्का दिया और सबसे बढ़कर इसने जनतंत्र में जनांदोलनों की भूमिका को पुनरुस्थापित किया.    

यही नहीं, इस आंदोलन की कमियों, सीमाओं और अंतर्विरोधों को स्वीकार करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया भर में और भारत में भी न सिर्फ कई नए प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक जनांदोलनों/आन्दोलनों ने दस्तक दी है बल्कि कई पारंपरिक जनांदोलनों के स्वरुप, चरित्र और मिजाज में भी उल्लेखनीय बदलाव आया है.
पिछले दो दशकों में भारत में पर्यावरण संरक्षण, विस्थापन विरोधी, बड़े बांधों के खिलाफ, परमाणु बिजली विरोधी, ‘जल-जंगल-जमीन-खनिजों’ को कारपोरेट लूट से बचाने के लिए आदिवासियों और किसानों के आन्दोलनों, अस्मिताओं के आंदोलनों के अलावा भूमंडलीकरण विरोधी आंदोलन भी उभरे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन भी इन्हीं नए सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों में से एक है. हालाँकि भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ संगठित राजनीतिक आंदोलन का इतिहास इतना नया भी नहीं है. सबसे पहले १९७४ में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी बड़ा संगठित आंदोलन चला जो जल्दी ही लोकतंत्र की रक्षा के आंदोलन में बदल गया.

१९८८-८९ में वी.पी सिंह ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर अभियान चलाया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे. लेकिन इन दोनों भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनों और अभियानों से २०११ का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन इस मायने में अलग था कि इसके नेतृत्व में स्थापित राजनीतिक दलों से इतर नागरिक समाज के संगठन और नेता थे, इसका एजेंडा सुधारवादी होते हुए भी राजनीतिक सत्तातंत्र के मर्म पर चोट करनेवाला था और भागीदारी के स्तर पर भी इसमें छात्राओं-युवाओं के साथ मध्यवर्ग में उभरा नया तबका- प्रोफेशनल्स शामिल थे.

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का उल्लेखनीय पहलू यह भी था कि इसमें लोगों को आंदोलित करने, उन्हें संगठित करने और सड़कों पर उतारने के लिए पारंपरिक माध्यमों के बजाय पहली बार नए माध्यमों खासकर सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया.
यही नहीं, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खासकर अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले आंदोलन को कारपोरेट मीडिया का भी खुला समर्थन मिला. याद रहे कि यह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन एक ऐसे दौर में उभरा, जब दुनिया भर में आन्दोलनों की एक नई लहर दिखाई पड़ रही थी.
ट्यूनीशिया और मिस्र से तानाशाह सत्ताओं के खिलाफ लोकतंत्र बहाली के लिए शुरू हुआ अरब वसंत हो या अमेरिका और पश्चिम के कई देशों में बड़ी वित्तीय पूंजी की लूट के खिलाफ आक्युपाई वाल स्ट्रीट आंदोलन- इन सबका असर दुनिया के तमाम देशों पर पड़ा.
इससे पहले दुनिया भर में वित्तीय पूंजी के नेतृत्व में कारपोरेट भूमंडलीकरण और उसकी लूट के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन- विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) के जरिये एकजुट होने लगे थे. इससे वैश्विक स्तर पर जनांदोलन के लिए एक नया समर्थन पैदा हुआ है.

इसकी वजह यह भी थी कि बड़ी वित्तीय पूंजी के लोभ से पैदा हुए सब-प्राइम बुलबुले के २००७-०८ में
फूटने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा चुकी थी और उसके साथ यूरोप और वैश्विक अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंस चुकी थी.

इससे निपटने के नामपर जिस तरह से बड़ी वित्तीय पूंजी ने आमलोगों के सामाजिक सुरक्षा के बजट में कटौती करने से लेकर उनपर बोझ डालना शुरू किया, उसके खिलाफ यूरोप के तमाम देशों में लोगों के गुस्से और आन्दोलनों की लहर सी फूट पड़ी.

कहने की जरूरत नहीं कि भारत पर भी इसका असर पड़ा. इसी दौरान लोगों ने यह देखा कि भारत में भी नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को सार्वजनिक संसाधनों-जल-जंगल-जमीन-खनिजों से लेकर २-जी तक की लूट की खुली छूट दे दी गई है.
इसे सुधारों के मुखर पैरोकार रहे मध्यवर्ग ने अपनी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और भरोसे पर खुले हमले की तरह देखा. लेकिन यह सिर्फ उच्च मध्यवर्ग का ही गुस्सा नहीं था बल्कि इसमें वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब का भी बड़ा हिस्सा शामिल था जो भ्रष्टाचार की असली कीमत चुका रहा है.
वह निम्न मध्यवर्ग और गरीब समुदाय ही हैं जिन्हें अपने वाजिब अधिकारों- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लाभों, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे बुनियादी हकों और न्याय के लिए सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों, दलालों और नेताओं को घूस देनी पड़ती है.
यह ठीक है कि इस आंदोलन में गरीबों और निम्न मध्यवर्ग के अलावा समाज में हाशिए पर पड़े वंचित समुदायों की सीधी भागीदारी नहीं थी. इसमें महिलाएं और खासकर अल्पसंख्यक भी नहीं जुड़ पाए.

यह इस आंदोलन की बड़ी कमजोरी थी कि वह एक समावेशी आंदोलन नहीं बन पाया और न ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को व्यापक बदलाव के आन्दोलनों के साथ जोड़ पाया. यह भविष्य के जनांदोलनों के लिए एक सबक भी है.

लेकिन इन कमियों और नाकामियों के बावजूद इस आंदोलन ने राजनीतिक और शासन व्यवस्था की सड़न को उघाड़कर लोगों को भारतीय जनतंत्र की सीमाओं और खामियों से अवगत कराया है, उसने नागरिक समाज को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति सक्रिय और सचेत बनाया है और व्यवस्था पर जनतांत्रिक सुधारों/बदलाव का दबाव बढ़ा दिया है.

लेकिन क्या अब यह मान लिया जाए कि यह आंदोलन इतिहास का विषय बन चुका है? ऐसा सोचनेवाले जल्दबाजी में हैं. सच यह है कि लोग सत्ता और उसपर बैठे राजनीतिक तंत्र की प्रतिक्रिया को गौर से देख रहे हैं. लेकिन इतना तय है कि लोग लंबे समय तक इंतज़ार नहीं करेंगे.
('राष्ट्रीय सहारा' के 27 जुलाई)    

बुधवार, अप्रैल 17, 2013

आरामतलब या पार्टनरशिप पत्रकारिता?

मीडिया में आँख मूंदकर मोदी गान हो रहा है   

भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित-अघोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के अश्वमेध का घोड़ा देशव्यापी अभियान पर निकल चुका है. दूसरी ओर, कांग्रेस के युवराज भी शर्माते-सकुचाते मैदान में उतर गए हैं. दोनों के बीच जुबानी जंग शुरू हो चुकी है.
पहले दौर के वाकयुद्ध में छींटाकशी, सवाल-जवाब और आरोप-प्रत्यारोप के साथ अपनी कामयाबियों का बखान भी हो रहा है. इस दौर में दोनों नेता खासकर मोदी पार्टी फोरम से लेकर कारपोरेट मंचों पर देश की समस्याओं को हल करने के दावे और विजन पेश करते नजर आ रहे हैं.
लेकिन असली लड़ाई न्यूज चैनलों के पर्दों/स्टूडियो और सोशल मीडिया के स्क्रीन पर लड़ी जा रही है जहाँ दोनों ओर से स्पिन डाक्टर्स और सोशल मीडिया के पेड कारकून छवि बनाने और बिगाड़ने और धारणाओं (परसेप्शन) की लड़ाई में हर हथियार आजमा रहे हैं.

हालाँकि मैदान में प्रधानमंत्री पद के कई और दावेदार भी हैं लेकिन मीडिया में उन्हें कोई खास भाव नहीं मिल रहा है. मतलब लेवल-प्लेइंग फील्ड नहीं है. मीडिया ने असली मुकाबले से पहले इसे ‘राहुल बनाम मोदी’ की लड़ाई बना दिया है. चैनलों और सोशल मीडिया में यही दोनों छाए हैं.

लेकिन छवि निर्माण की इस लड़ाई में मोदी का कोई जवाब नहीं है. मोदी ने प्रोफेशनल पी.आर कंपनियों से लेकर सोशल मीडिया के पेड कार्यकर्ताओं की मदद से एक सुनियोजित अभियान छेड दिया है. इस अभियान के तहत एक ओर मोदी खुद गुजरात में अपनी उपलब्धियों का गुणगान कर रहे हैं और दूसरी ओर, सुशासन और विकास के ऐसे फार्मूले बता रहे हैं जिनसे देश की सभी समस्याओं का चुटकियाँ बजाते ही समाधान हो जाएगा.                                    

यहाँ तक तो ठीक है. लोकतंत्र में सत्ता के सभी दावेदारों को अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने से लेकर सोच-नीतियां-कार्यक्रम बताने का पूरा अधिकार है.
लेकिन लोकतंत्र में ऐसे मौके पर न्यूज मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उससे एक बहु-सूचित विमर्श की अपेक्षा होती है. खासकर जिस तरह से भारतीय राजनीति का मीडियाकरण (मीडिया-टाईजेशन)  हो रहा है, उसमें सूचनाओं के लिए मीडिया पर नागरिकों की निर्भरता बढ़ती जा रही है.

लेकिन मुश्किल यह है कि पिछले कुछ सप्ताहों में गुजरात से लेकर बंगाल तक मोदी जहाँ भी जा रहे हैं, मीडिया खासकर चैनल उनके साथ-साथ हैं. वे जिन मंचों पर बोल रहे हैं, चैनल उन्हें लाइव दिखा रहे हैं.

यही नहीं, लाइव के अलावा सुबह से रात तक उनके भाषणों के चुनिंदा क्लिप अहर्निश चल रहे हैं और प्राइम टाइम चर्चाओं में भी वे छाए हुए हैं. मोदी के लिए मीडिया ‘जादुई गुणक’ (मैजिक मल्टीप्लायर) बन गया है जो उनके आधे सच्चे-आधे झूठे दावों-फार्मूलों को बिना किसी स्वतंत्र जांच पड़ताल और सवाल-जवाब के एक वैधता सा दे रहा है.
इस तरह मीडिया खासकर चैनल मोदी के इस प्रचार अभियान में जाने-अनजाने पार्टनर से बनते जा रहे हैं. यह एक गंभीर समस्या है. सवाल यह है कि मीडिया खासकर चैनलों का काम क्या सिर्फ पोस्ट-आफिस का है? या, उनके आडिएंस की अपेक्षा यह है कि वे नेताओं के दावों/बयानों की पत्रकारीय जांच-पड़ताल और छानबीन भी करें और उन्हें उनके पूरे सन्दर्भ के साथ पेश करें?
उदाहरण के लिए, मोदी ने फिक्की की महिला सभा में गुजरात की राज्यपाल पर आरोप लगाया कि वे महिला होकर भी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए ५० फीसदी सीटें आरक्षित करनेवाले विधेयक को मंजूरी नहीं दे रही हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि मोदी का यह आरोप तुरंत सुर्खी बन गया और घंटों चैनलों पर चलता रहा.

लेकिन किसी चैनल ने इस आरोप की और छानबीन करने की जरूरत नहीं समझी. भला हो, एन.डी.टी.वी-इंडिया का जिसपर उस रात ‘तहलका’ की राणा अयूब ने खुलासा किया कि यह विधेयक अनिवार्य वोटिंग के प्रावधान के कारण रोका गया है.       

यह अकेला मामला नहीं है. ऐसे अनेकों दावे हैं जिनकी छानबीन और पूरे संदर्भ के साथ पेश करना जरूरी है. लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.
कहना मुश्किल है कि यह आरामतलब पत्रकारिता का नतीजा है या पार्टनरशिप पत्रकारिता का? वजह चाहे जो हो लेकिन मोदी और उनकी प्रचार टीम इसका पूरा फायदा उठा रही है और नुकसान दर्शकों-पाठकों और व्यापक अर्थों में लोकतंत्र का हो रहा है.
('तहलका' के 30 अप्रैल के अंक में प्रकाशित। आप इसे तहलका हिंदी की वेबसाईट पर भी पढ़ सकते हैं।)       

मंगलवार, अप्रैल 16, 2013

राहुल मॉडल की सीमाएं उजागर और चमक फीकी पड़ चुकी है

आखिर राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी के माडलों में बुनियादी अंतर क्या है? 

अगले आम चुनावों के मद्देनजर इन दिनों देश में मौजूदा राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक और प्रशासनिक चुनौतियों से निपटने और विकास की गति को तेज करने को लेकर राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल की चर्चाएं सुर्ख़ियों में हैं.

दोनों मॉडलों में ज्यादा बुनियादी समानताओं और मामूली भाषा और शैलीगत भिन्नताओं के बावजूद राजनीतिक पंडित और स्पिन डाक्टर दोनों के बीच के बारीक फर्कों, उनकी खूबियों और कमियों को स्पष्ट करने में खूब पसीना बहा रहे हैं. खुद दोनों नेताओं ने इस फर्क को उछालने और उसपर जोर देने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखा है.
लेकिन इस तथ्य को अनदेखा करना मुश्किल है कि राहुल गाँधी और नरेन्द्र मोदी शासक वर्ग की जिन दोनों प्रमुख और प्रतिनिधि पार्टियों की अगुवाई कर रहे हैं, उनकी वैचारिकी और अर्थनीति के केन्द्र में वही नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी है जो उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण और उसके जरिये हासिल की गई तेज आर्थिक वृद्धि दर को देश-समाज की सभी समस्याओं और चुनौतियों का हल मानती है.

आश्चर्य नहीं कि अपने बुनियादी चरित्र और अंतर्वस्तु में राहुल गाँधी मॉडल और नरेन्द्र मोदी मॉडल में भी कोई खास अंतर नहीं है. यही कारण है कि दोनों मॉडलों को लेकर हो रही बहसों और चर्चाओं में विचारों, नीतियों, मुद्दों और कार्यक्रमों से ज्यादा उनके व्यक्तित्वों, भाषण शैलियों और अदाओं पर चर्चा हो रही है.
उदाहरण के लिए, राहुल गाँधी मॉडल को ही लीजिए जिसे नरेन्द्र मोदी मॉडल के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की जा रही है. सवाल यह है कि राहुल मॉडल में ऐसा नया या अनूठा क्या है जो उसे कांग्रेस या यू.पी.ए सरकार से अलग और विशिष्ट बनाता है?

हाल के महीनों में राहुल गाँधी के सार्वजनिक भाषणों में ऐसी कोई नई बात, सोच या आइडिया नहीं दिखाई पड़ा है जो कांग्रेस की वैचारिकी या नीतियों में कोई बड़े या उल्लेखनीय बदलावों की ओर इशारा करता हो.                                                                   

उनके भाषणों में वही समावेशी विकास और आर्थिक वृद्धि का लाभ गरीबों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और हाशिए पर पड़े लोगों तक पहुँचाने की बातें हैं, विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को सशक्त बनाने पर जोर है और युवाओं के लिए नए अवसर और उम्मीदें पैदा करने जैसे आह्वान और सपने हैं.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली यू.पी.ए सरकार पिछले नौ सालों से यही बातें कर रही हैं. लेकिन व्यवहार में इसके ठीक उलट हो रहा है. तथ्य यह है कि पिछले छह-सात महीनों में कांग्रेस नेतृत्व ने नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को न सिर्फ निर्णायक रूप से अंगीकार किया है बल्कि खुलकर उसके समर्थन में आ गया है और उसकी हरी झंडी के बाद यू.पी.ए सरकार उन्हें जोरशोर से लागू करने और आगे बढ़ाने में भी जुटी है.

याद रहे, एक ओर कांग्रेस पार्टी में राहुल गाँधी के नेतृत्व को औपचारिक रूप आगे बढ़ाया जा रहा था और दूसरी ओर, उसी समय पार्टी कार्यसमिति की मुहर के साथ यू.पी.ए सरकार खासकर वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने एक झटके में खुदरा व्यापार से लेकर पेंशन क्षेत्र में एफ.डी.आई को इजाजत देने से लेकर विदेशी पूंजी को तमाम रियायतें देने के कई बड़े और विवादस्पद फैसले किये हैं.
यही नहीं, आर्थिक सुधारों से थोड़ी दूरी बनाकर चलनेवाले और सुधारों को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के हिस्से डालनेवाले कांग्रेस नेतृत्व ने पहली बार दिल्ली में खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई के समर्थन में रैली आयोजित की जिसके स्टार वक्ता खुद राहुल गाँधी थे.

साफ़ है कि कांग्रेस नेतृत्व में आर्थिक उदारीकरण को लेकर अब कोई भ्रम नहीं है और उसने बड़ी पूंजी-कारपोरेट क्षेत्र को खुश करने का और इसके लिए आर्थिक सुधारों पर दांव लगाने फैसला कर लिया है और पिछले छह महीनों में यहाँ तक कि पार्टी के उपाध्यक्ष बनने के बाद भी ऐसे संकेत नहीं हैं कि राहुल गाँधी कांग्रेस नेतृत्व से अलग सोच रहे हैं.
असल में, राहुल मॉडल और कुछ नहीं बल्कि नव उदारवादी आर्थिक वैचारिकी पर आधारित बड़ी पूंजी-कारपोरेट निर्देशित ‘विकास’ और उसके भीतर गरीबों के लिए थोड़ी-मोड़ी राहतों की व्यवस्था करके उसे आमलोगों के बीच सहनीय बनाने तक सीमित है.

सच पूछिए तो यह रणनीति नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के राजनीतिक प्रबंधन की रणनीति है जिसका मकसद आर्थिक सुधारों के लिए आमलोगों खासकर गरीबों-हाशिए पर पड़े लोगों का समर्थन जीतना और उसे उनके बीच स्वीकार्य बनाना है.
यहाँ तक कि अब तो विश्व बैंक ने भी इसी भाषा में बोलना शुरू कर दिया है. विश्व बैंक ने भी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को समावेशी बनाने के नामपर गरीबों को कुछ राहत देने और इसके लिए एन.जी.ओ आदि की मदद लेने की बात दशक भर पहले से ही शुरू कर दी थी.

इस सोच को २००४ में इंडिया शाइनिंग के नारे के पिटने और एन.डी.ए की हार के बाद एक तरह की स्वीकार्यता मिली. अर्थव्यवस्था के मैनेजरों और नीति नियंताओं ने आर्थिक सुधारों को लोगों के गले उतारने के लिए समावेशी विकास और नरेगा जैसी योजनाएं शुरू कीं. नीति निर्णय में एन.जी.ओ को शामिल करने के लिए राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एन.ए.सी) जैसे प्रबंध किये गए.
कहने की जरूरत नहीं है कि इससे एक राजनीतिक स्थिरता आई और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में मदद मिली. याद रहे कि समावेशी विकास के नारों के बीच इसी दौर में जमीन की लूट का रास्ता साफ़ करने के लिए सेज आया, विदेशी पूंजी के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे और ज्यादा खोले गए और सार्वजनिक संसाधनों की लूट (जैसे २-जी और के.जी बेसिन आदि) तेज हुई.  

इसलिए जब राहुल गाँधी समावेशी विकास के लिए अधिकार आधारित एप्रोच की बात करते हैं तो आज वह एक मजाक से अधिक नहीं लगता है. एक नारे के बतौर समावेशी विकास अपनी चमक खो चुका है. उसकी सीमाएं किसी से छुपी नहीं हैं.                                            

सच यह है कि चाहे नरेगा हो या शिक्षा का अधिकार या खाद्य सुरक्षा का अधिकार- ये सभी अपने मूल अंतर्वस्तु में शिक्षा, रोजगार और भोजन के मौलिक अधिकार के आइडिया का मजाक उड़ानेवाले हैं. तथ्य यह है कि कांग्रेस और यू.पी.ए के समावेशी विकास की सीमा नरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसी सीमित और आधी-अधूरी योजनाएं हैं.

अन्यथा यह तो खुद राहुल गाँधी भी जानते हैं कि कारपोरेट निर्देशित विकास में आमलोगों को कुछ खास नहीं मिल रहा है. उल्टे उन्हें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. सी.आई.आई के सम्मेलन में खुद राहुल गाँधी ने स्वीकार किया कि ‘विकास के ज्वारभाटे में हर नाव ऊँचा उठ जाती है लेकिन यहाँ तो बहुसंख्यकों के पास नाव ही नहीं है.’
यह भी किसी से छुपा नहीं है कि पिछले दो दशकों के नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत कारपोरेट विकास के मॉडल में आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार तो जरूर तेज हुई है लेकिन उससे आई समृद्धि एक बहुत ही छोटे वर्ग तक सीमित हो गई है.

इसकी वजह यह है कि यह मूलतः ‘रोजगारविहीन, शहर केंद्रित और कुछ क्षेत्रों तक सीमित और सार्वजनिक संसाधनों की लूट’ पर आधारित ‘कारपोरेट विकास’ रहा है. इसके कारण न सिर्फ आर्थिक गैर बराबरी और विषमताएं बढ़ी हैं, गरीबों-आदिवासियों को उनके अपने जल-जंगल-जमीन-खनिजों से बेदखल किया गया है बल्कि लाखों किसानों को आत्महत्याएं करनी पड़ी हैं, श्रमिकों का शोषण-उत्पीडन बढ़ा है और श्रम की कोई गरिमा कम हुई है.
पर्यावरण विनाश को अनदेखा किया जा रहा है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि देश भर में इन नीतियों और कारपोरेट लूट के खिलाफ किसान, श्रमिक, आदिवासी और गरीब लड़ाई में उतर आए हैं.

यह तथ्य है कि आज किसानों-गरीबों-आदिवासियों के इन विरोध प्रदर्शनों के कारण देश भर में दर्जनों पावर, स्टील, हाईवे, रीयल इस्टेट प्रोजेक्ट्स ठप्प पड़े हैं. दूसरी ओर, २-जी से लेकर कोयला आवंटन जैसे मामलों के खुलासों के बाद सार्वजनिक संसाधनों की कारपोरेट लूट और याराना पूंजीवाद पर सवाल उठने लगे हैं.
जाहिर है कि इससे कारपोरेट जगत बहुत बेचैन है और यू.पी.ए सरकार पर ‘नीतिगत लकवे’ का आरोप लगा रहा है. हालाँकि यू.पी.ए सरकार ने पिछले छह महीनों में देशी-विदेशी बड़ी पूंजी-कारपोरेट दबाव में आर्थिक सुधारों के बाबत बड़े फैसलों के साथ ठहरे पड़े प्रोजेक्ट्स को हरी झंडी देने के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट की निवेश सम्बन्धी समिति गठित की है जिसने पिछले कुछ सप्ताहों में पर्यावरण और आदिवासी जमीन से सम्बन्धी बाधाओं को दरकिनार करते हुए हजारों करोड़ के प्रोजेक्ट्स को एक्सप्रेस अनुमति दी है.

राहुल माडल की सीमाओं का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि एक ओर राहुल गाँधी सी.आई.आई के जिस सम्मेलन में विकेन्द्रीकरण और पंचायतों को और अधिकार देने की बात कर रहे हैं, गरीबों को सुनने और उन्हें विकास प्रक्रिया में शामिल करने की बात कर रहे थे, उसी सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने बड़े प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण में पंचायतों की अनुमति की बाध्यता में छूट देने का एलान किया. क्या अब भी राहुल मॉडल की सीमाएं बताने की जरूरत है?
हैरानी की बात नहीं है कि इसकी चमक फीकी पड़ती जा रही है और उनके स्पिन डाक्टरों की उसे चमकाने की तमाम कोशिशों के बावजूद उसके खरीददार उससे मुंह मोड़ते दिख रहे हैं.

('राष्ट्रीय सहारा'के हस्तक्षेप में १ अप्रैल को प्रकाशित टिप्पणी)                                                               

मंगलवार, अप्रैल 09, 2013

मोदी के दावों की सच्चाई : आधी हकीकत, आधा फ़साना

हैरानी की बात यह है कि मीडिया भी उनके दावों को बिना जांच-पड़ताल के ‘सच’ की तरह पेश करने में लगा हुआ है  

अगले आम चुनावों के मद्देनजर इन दिनों देश भर में भाजपा नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के अश्वमेध का घोड़ा निकल पड़ा है. पहले दौर में मोदी के प्रचार की मुख्य थीम ‘विकास’ है जिसमें वे हर दूसरे मिनट वे गुजरात में अपने नेतृत्व में हुए कथित ‘विकास’ की आधी सच्ची-आधी झूठी कहानियां सुनाते हैं.
अपने भाषणों में वे बड़े-बड़े दावे करते हैं और उन दावों-कहानियों के जरिये वे ‘शाइनिंग इंडिया’ की तर्ज पर वाईब्रेंट यानी चमकीले ‘गुजरात माडल’ का मिथ रचते हैं.
मुश्किल यह है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर न्यूज मीडिया कभी मोदी के श्री-मुख से निकले दावों की पड़ताल और छानबीन की कोशिश नहीं करता है. वह एक पोस्ट-आफिस की तरह मोदी के दावों और कहानियों को जस का तस लोगों तक पहुंचाने का माध्यम भर बनकर रह गया है.

मेरे पास उतने साधन नहीं हैं कि मोदी के दावों की जमीन पर जाकर पड़ताल कर सकूँ. लेकिन गूगल बाबा की कृपा से जो जानकारियां मिलती हैं, वह भी मोदी के फसानों की हकीकत बयान करने के लिए काफी हैं.

ऐसे ही कुछ दावों की पड़ताल और पूरे तथ्य आपके सामने पेश हैं. उम्मीद है कि इससे नेताओं खासकर प्रधानमंत्री के दावेदारों के दावों की बारीकी से पड़ताल की कोशिश कुछ आगे बढ़ेगी.             

नरेन्द्र मोदी का सच-1
नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में फिक्की की महिला सभा में दावा किया कि उन्होंने गुजरात में स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए ५० फीसदी स्थान आरक्षित करनेवाले विधेयक को पारित किया है लेकिन गवर्नर उसे मंजूरी नहीं दे रही हैं.
तथ्य क्या हैं? यह आधा और तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया ‘सच’ है. पूरा सच यह है कि मोदी सरकार ने गुजरात में स्थानीय प्राधिकरण कानून (संशोधन) विधेयक’२००९ को पारित किया है जिसमें महिलाओं को ५० फीसदी आरक्षण देने के साथ-साथ उतनी ही प्रमुखता से अनिवार्य वोटिंग का प्रावधान भी शामिल किया गया है.
 
गवर्नर ने यह कहते हुए इसे राज्य सरकार और विधानसभा को पुनर्विचार करने के लिए लौटा दिया
कि अनिवार्य वोटिंग का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद १९(१) का उल्लंघन है क्योंकि वोट करने के लिए किसी नागरिक को बाध्य नहीं किया जा सकता है. गवर्नर ने यह अपील भी कि महिलाओं को आरक्षण देनेवाले इस विधेयक को अनिवार्य वोटिंग के प्रावधान से अलग करके पेश और पारित किया जाए.
लेकिन संवैधानिक संस्थाओं की इज्जत करने की बात करनेवाले मोदी ने इसी विधेयक को हू-ब-हू वर्ष २०१० में फिर से पेश कर दिया. इसका और ब्यौरा आप ‘द हिंदू’ की इस रिपोर्ट में पढ़ सकते हैं:

यह है मोदी का ‘सच’ ! लेकिन मोदी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे बड़े आत्मविश्वास से दावे करते या आरोप लगाते हैं. इसके लिए वे बड़ी चतुराई से तथ्यों को आधा-अधूरा पेश करने से लेकर उसे तोड़ने-मरोड़ने से भी परहेज नहीं करते हैं. सबसे हैरानी की बात यह है कि मीडिया भी उनके दावों को बिना जांच-पड़ताल के ‘सच’ की तरह पेश करने में लगा हुआ है.

नरेन्द्र मोदी का ‘सच’-2

इससे पहले दिल्ली में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति में नरेन्द्र मोदी ने दावा किया था कि गुजरात के बजट में कोई घाटा नहीं है...
 

सच यह है कि गुजरात के इस साल के बजट में राजस्व घाटा नहीं है लेकिन उसमें राजकोषीय घाटा २०४९६ करोड़ रूपये का है जो राज्य जी.डी.पी का २.५७ फीसदी है.

यही नहीं, राज्य का कुल कर्ज भी पिछले साल के १.३३ लाख करोड़ रूपये से बढ़कर १.५८ लाख करोड़ रूपये हो गया है.  



नरेन्द्र मोदी का ‘सच’-3

इसी सभा में नरेन्द्र मोदी ने यह भी दावा किया कि गुजरात में पिछले दस साल में बिजली की दरों में कोई वृद्धि नहीं की गई है..

लेकिन सच यह है कि वहां हर तिमाही में बिजली की दरों में वृद्धि होती है..पिछले साल भी वृद्धि की गई थी...


अब इस साल फिर वृद्धि का प्रस्ताव है...



नरेन्द्र मोदी का ‘सच’-4


आपको पोरबंदर से कांग्रेस सांसद विट्ठल राडाडिया की शायद याद होगी. उन्हें पिछले साल अक्टूबर में एक टाल गेट पर राइफल लेकर वहां के कर्मचारियों को धमकाते हुए देखा गया था. उस समय संसद और उससे बाहर भाजपा ने उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर खूब हंगामा किया था. एफ.आई.आर भी हुई थी. बाद में हाई कोर्ट ने भी राडाडिया की आलोचना की थी.
लेकिन ‘पार्टी विथ डिफ़रेंस’ भाजपा और सुशासन के नए मसीहा बनकर उभर रहे नरेन्द्र मोदी ने राडाडिया को पुत्र सहित भाजपा में शामिल करा लिया है. आज नरेन्द्र मोदी खुद राडाडिया के स्वागत के लिए इस मौके पर मौजूद थे.
लेकिन इसमें क्या आश्चर्य? अलग ‘चाल, चरित्र और चेहरे’ वाली पार्टी के लिए यह कोई नई बात नहीं है. भाजपा सुखराम से लेकर बाबू सिंह कुशवाहा और राजा भैय्या तक सबका स्वागत कर चुकी है. यह श्रृंखला बहुत लंबी है. राडाडिया उसकी नई कड़ी भर हैं.

नरेन्द्र मोदी का ‘सच’-5

नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों में एक बार भी कारपोरेट लूट के बारे में नहीं बोला है. २ जी से लेकर कोयला आवंटन तक में सत्ता और राजनेताओं की मदद से धड़ल्ले से हो रही सार्वजनिक संपत्ति की कारपोरेट लूट किसी से छुपी नहीं है.

लेकिन भ्रष्टाचार और लूट के आपूर्ति पक्ष के बारे में बात करते हुए ‘लौहपुरुष’ के ‘पुरुषार्थ’ की घिग्घी क्यों बंद जाती है? क्या इसलिए कि गुजरात में भी यही हो रहा है?

यह है मोदी के दावों और कामों की असलियत. लेकिन क्या कोई चैनल/अखबार इस सच्चाई को सामने लाएगा?

क्या पत्रकारों से उम्मीद की जाए कि वे लापरवाह और बैठे-ठाले पत्रकारिता से बाहर निकलेंगे?

गुरुवार, अप्रैल 04, 2013

डान क्विक्जोट की तरह लड़ रहे हैं जस्टिस काटजू

न्यूज मीडिया की विकृतियों और भ्रष्टाचार का दायरा व्यक्तिगत पत्रकारों से बहुत आगे बढ़कर सांस्थानिक स्वरुप ले चुका है
दूसरी क़िस्त 
सवाल यह है कि पत्रकारिता की विकृतियों और विचलनों की जड़ में क्या है? जब अखबार/चैनल का प्रबंधन खुद पेड न्यूज में संलग्न हो तो पत्रकार की व्यक्तिगत ईमानदारी का क्या मतलब रह जाता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि अगर मीडिया संस्थान ईमानदार, पत्रकारीय मूल्यों और आचार संहिताओं और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हो तो वहां इस बात की सम्भावना बहुत कम होगी कि कोई भ्रष्ट, अनैतिक और मूर्ख पत्रकार घुस पाए या लंबे समय तक टिक पाए.
ऐसे भ्रष्ट और अनैतिक पत्रकारों के लिए वहां मनमानी करने की भी गुंजाइश कम होगी क्योंकि सांस्थानिक तौर पर वहां जांच-पड़ताल की व्यवस्था एक अंकुश की तरह काम करेगी. लेकिन अगर संस्थान खुद भ्रष्ट और पत्रकारीय नैतिकता को ठेंगे पर रखता है तो ईमानदार पत्रकार के लिए भी वहां ईमानदार बने रहना या टिके रहना मुश्किल है.
यही नहीं, अगर संस्थान खुद भ्रष्ट है तो वहां वैसे ही पत्रकारों को आगे बढ़ाया जाएगा या बढ़ाया जाता है. कहने का तात्पर्य यह है कि आज न्यूज मीडिया की विकृतियों, विचलनों और भ्रष्टाचार का दायरा व्यक्तिगत पत्रकारों से बहुत आगे बढ़कर सांस्थानिक स्वरुप ले चुका है और उसका इलाज भी व्यक्तिगत नहीं बल्कि सांस्थानिक ही होना चाहिए.

ऐसे में, असल मुद्दा यह है कि ईमानदार-साहसी-संवेदनशील पत्रकारों की आज़ादी की सुरक्षा कैसे की जाए? मीडिया के मौजूदा पूंजीवादी बिजनेस माडल में अभिव्यक्ति की आज़ादी पत्रकार की नहीं, उसके मालिक की आज़ादी है. जब तक यह पत्रकार की आज़ादी नहीं बनेगी, कोई डिग्री या मानदंड पत्रकारिता के स्खलन को नहीं रोक पाएगी.

अफसोस और चिंता की बात यह है कि न्यूज मीडिया की विकृतियों, विचलनों और भ्रष्टाचार को मुद्दा
बनाने के बावजूद जस्टिस काटजू इसे जिसे तरह से पत्रकारों की शिक्षा, अपढ़ता और इसके इलाज के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता तक सीमित कर देते हैं, उसके कारण न सिर्फ असली अपराधियों को बच निकलने का मौका मिल जा रहा है बल्कि न्यूज मीडिया की सफाई में जिनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है और जिन्हें संरक्षण और समर्थन की जरूरत है, वे पत्रकार ही कटघरे में खड़े दिखाई पड़ने लगते हैं. इससे इस लड़ाई में दोस्त के दुश्मन बनने और लड़ाई के कमजोर पड़ने का खतरा पैदा हो गया है.
हालाँकि यह कहने का आशय यह कतई नहीं है कि पत्रकारों को पढ़ने या उनके प्रशिक्षण की जरूरत नहीं है. निश्चय ही, पत्रकारिता में प्रतिभाशाली, पढ़े-लिखे, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ, संवेदनशील और गंभीर लोगों की जरूरत है.

लेकिन यहाँ भी समस्या सांस्थानिक ही है क्योंकि न्यूज मीडिया में मनोरंजन के बढ़ते बोलबाले और उसके दबाव में पत्रकारिता को हल्का-फुल्का बनाने का सांस्थानिक दबाव इस कदर बढ़ता जा रहा है कि कारपोरेट मीडिया को बहुत प्रतिभाशाली, पढ़े-लिखे और विशेषज्ञ पत्रकारों की जरूरत ही नहीं है.

दूसरे, वे इसके लिए उचित वेतन और बेहतर सेवा शर्तें देने को भी तैयार नहीं हैं. ज्यादातर मीडिया कंपनियों का ध्यान गुणवत्ता के बजाय मात्रा पर है और इसके लिए उन्हें सस्ते और ज्यादा मेहनत कर सकनेवाले पत्रकार नहीं, मशीन चाहिए.
अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि एक पेशे के बतौर भी पत्रकारिता न तो वेतन के मामले में, न सेवा शर्तों के मामले में और सबसे बढ़कर पत्रकार के बतौर काम की संतुष्टि के मामले में इतनी आकर्षक रह गई है कि वह प्रतिभाशाली युवाओं खासकर उच्च शिक्षा-प्राप्त छात्रों आकर्षित कर सके. लेकिन दूसरी ओर, कारपोरेट मीडिया संस्थानों और दूसरी मीडिया कंपनियों की शिकायत यह रहती है कि पत्रकारिता में प्रतिभाशाली युवा नहीं आ रहे हैं.
असल में, यह एक दुष्चक्र सा बन गया है. लेकिन इस दुश्चक्र की शुरुआत मीडिया के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया के साथ हुई, जब यह घोषित किया गया कि अखबार किसी भी अन्य उत्पाद जैसे साबुन, टूथपेस्ट और डियोडोरेंट की तरह एक उत्पाद है.

यही नहीं, यह भी कहा गया कि इस उत्पाद के उत्पादन और बिक्री के लिए संपादक और बहुत पढ़े-लिखे जानकार पत्रकारों की जरूरत नहीं है क्योंकि उसे बेचने के लिए मार्केटिंग की जरूरत है. नतीजा यह हुआ कि बड़े कारपोरेट मीडिया संस्थानों में एक ओर संपादक को महत्वहीन और मैनेजरों को प्रभावी बनाया गया और दूसरी ओर, अखबारों से तेजतर्रार, संवेदनशील और पढ़े-लिखे पत्रकारों को बाहर किया गया.

संभव है कि जस्टिस काटजू इस इतिहास से वाकिफ न हों लेकिन यह सच्चाई न्यूज मीडिया को नजदीक से देखनेवाले सभी शोधकर्ताओं को मालूम है कि न्यूज मीडिया उद्योग में बेनेट कोलमैन एंड कम्पनी लिमिटेड ने ८० के दशक के आखिरी वर्षों और ९० के दशक में अपने अखबारों के कारपोरेटीकरण की प्रक्रिया में एक ओर अखबार को हल्का-फुल्का बनाना शुरू किया.
फीलगुड पत्रकारिता के तहत पेज-३ से लेकर मीडियानेट और प्राइवेट ट्रीटी जैसी संदिग्ध तौर-तरीकों को आगे बढ़ाया और दूसरी ओर, ‘टाइम्स आफ इंडिया’ में संपादकों को अपमानित करने से लेकर प्रफुल्ल बिदवई और ए.एन.दास जैसे वरिष्ठ पत्रकारों को बाहर किया. जल्दी ही और मीडिया कंपनियों ने भी इसी रास्ते को पकड़ा और ९० का दशक बीतते-बीतते यह प्रक्रिया पूरी हो गई.
हैरानी की बात नहीं है कि पिछले दशक में जब इन्हीं कारपोरेट मीडिया समूहों ने टी.वी चैनल शुरू किये तो उनके सामने यह व्यावसायिक रूप से ‘सफल’ माडल पहले से मौजूद था. उन्हें बहुत सोचना-विचारना नहीं पड़ा.

उनकी देखा-देखी बाकी न्यूज चैनल चलानेवाली कंपनियों ने भी उसी रास्ते को पकड़ा. इसलिए न्यूज
चैनलों में आज जो हल्कापन-भोंडापन और उथलापन दिखता है, वह किसी दुर्घटनावश नहीं है बल्कि वह एक बहुत सोची-समझी योजना और रणनीति का हिस्सा है. कारपोरेट मीडिया में विज्ञापनों से होनेवाली आय पर टिके मौजूदा व्यावसायिक माडल को यहीं पहुंचना था.
 
लेकिन जस्टिस काटजू इसे देखकर भी देखने को तैयार नहीं हैं. इसलिए मौजूदा स्थितियों से नाराजगी और अपने गुस्से के बावजूद इस लड़ाई में वे अक्सर डान क्विक्जोट की तरह दिखने लगते हैं.

('कथादेश' के अप्रैल'13 अंक में प्रकाशित स्तम्भ की दूसरी और आखिरी क़िस्त)