मंगलवार, फ़रवरी 28, 2012

उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है

जो मतदाता उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ या वापस दायरों में बंद करना मुश्किल होगा

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के नतीजों को लेकर कयासों का दौर जारी है. ईमानदारी की बात यह है कि किसी को ठीक-ठीक पता नहीं है कि नतीजे किस करवट बैठेंगे या त्रिशंकु लटकेंगे? राजनीतिक रूप से बहुत ऊँचे दांव वाले इस चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन उत्तर प्रदेश के मैदानों से ऐसी कई खबरें आ रही है जिनसे सत्ता परिवर्तन से अधिक नए और ज्यादा गहरे बदलाव की उम्मीदें बंधने लगी हैं.

यह उस राज्य के लिए ज्यादा अच्छी खबर है जिसके बारे में मान लिया गया था कि यहाँ कुछ नहीं बदल सकता है और कवि धूमिल ने शायद इसी हताशा में लिखा था कि ‘इस कदर कायर हूँ/ कि उत्तर प्रदेश हूँ.’

लेकिन उत्तर प्रदेश खड़ा हो रहा है. यह और बात है कि वह इस तरह नहीं खड़ा हो रहा है, जैसा युवराज चाहते हैं. वह उस तरह भी नहीं खड़ा हो रहा है जैसे बहनजी चाहती हैं. वह उस तरह भी नहीं बदल रहा है जैसे समाजवादी युवराज चाहते हैं और न वह बदलकर हिन्दुत्ववादी हो रहा है, जैसा रामभक्त चाहते हैं.

इन सबकी इच्छाओं से अलग उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा है. इसके कारण उत्तर प्रदेश में सत्ता की दावेदार सभी पार्टियों को बदलना पड़ रहा है. सच पूछिए तो इन चुनावों की सबसे उल्लेखनीय बात यही है.

वैसे बदलाव की यह लहर उत्तर प्रदेश के जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल की सबसे खास बात यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी की राजनीति ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है.
लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति इस बदलाव से भी आगे जाने की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में लोगों की बढ़ी हुई आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की अपेक्षा है और अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.

यही नहीं, इसमें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके हैं जिन्हें न सत्ता में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे युवा और महिलाएं हैं जो उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैन हैं.

इस बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें, बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल हैं. यह संभव है कि इन चुनावों के नतीजों में यह बेचैनी और बदलाव शायद उतनी स्पष्ट न दिखे.

लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में मतदान का प्रतिशत औसतन ५७ से लेकर ६० फीसदी के बीच पहुँच गया है. यह पिछली बार की तुलना में १० से १५ फीसदी तक अधिक है. इससे लोगों के उत्साह का पता चलता है जो बिना उम्मीद के संभव नहीं है.

सबसे खास बात यह है कि इस बार मतदान में युवा और महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिख रहे हैं. यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस अपने दायरों में बंद करना मुश्किल होगा. आश्चर्य नहीं कि सभी राजनीतिक पार्टियों की सांस अटकी हुई है.

दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था, सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ रही है जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव उदारवादी विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ रही है.

तीसरा खास बदलाव यह दिख रहा है कि मुस्लिम वोटर किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है. यही नहीं, वह न तो केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी वायदे पर मोहित है. इस बार वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है.

इस तलाश में उसके सवाल उत्तर प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं. निश्चय ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए.

चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सीमित राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोग अपने तरीके से राजनीतिक दलों को कई सबक सिखाने जा रहे हैं. सबक नंबर एक, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं है. आश्चर्य नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.
सबक नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते हुए एक मौका देने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले नहीं हैं. सपा को इस मौके को लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.

तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज राहुल गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके टोटकों और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन कबके बीत गए.

कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और समझदार, सचेत और मुखर हो गए हैं. चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों में और ज्यादा एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों के मन को पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.

कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश के वोटर एक नई प्रगतिशील. जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बना रहे हैं. इस राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और प्रतीकों से अलग होंगे.
इससे उत्तर प्रदेश में एक नए वाम-लोकतान्त्रिक मिजाज की राजनीति के लिए जगह बनी है. लेकिन क्या बदलाव की ताकतें इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?

(दैनिक 'नया इंडिया' में २७ फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

रविवार, फ़रवरी 26, 2012

माफ़ कीजिये युवराज, पूंजीवादी विकास माडल की अनिवार्य परिणति है उत्तर प्रदेश का पिछड़ापन

कैसे दूर करेंगे राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश का पिछड़ापन जब उत्तर भारत को सस्ते श्रम का बाड़ा बना दिया गया है?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी ने राज्य के पिछड़ेपन को बड़ा मुद्दा बनाया है. हालांकि उत्तर प्रदेश का आर्थिक-सामाजिक पिछड़ापन कोई नई परिघटना नहीं है और न ही यह केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित है.

सच यह है कि उत्तर प्रदेश हिंदी पट्टी के उन राज्यों में है जिनके पिछड़ेपन, गरीबी, भूखमरी, बीमारी आदि के कारण उन्हें बीमारू राज्यों में शुमार किया जाता है. लेकिन राहुल गाँधी के आक्रामक प्रचार के कारण इस मुद्दे पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है.

सवाल उठने लगे हैं कि ये राज्य विकास की दौड़ में पीछे क्यों छूट रहे हैं और इसके लिए जिम्मेदार कौन है? उल्लेखनीय है कि पिछले साल विकीलिक्स के एक खुलासे में गृह मंत्री पी. चिदम्बरम के उस बयान को लेकर खासा विवाद हुआ था, जिसके मुताबिक उन्होंने 2009 में अमेरिकी राजदूत से बातचीत में कहा था कि भारत के आर्थिक विकास को उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्यों ने रोक रखा है और अगर ये राज्य न होते तो देश की विकास दर कहीं ज्यादा होती.

हालांकि चिदंबरम ने इस बयान का खंडन कर दिया लेकिन सच यह है कि नीति निर्माताओं और आर्थिक मैनेजरों के बीच ऐसा सोचने या ऐसी राय रखनेवालों की कमी नहीं है.
सतही तौर पर और सन्दर्भ से काटकर देखें तो चिदंबरम या उन जैसों की यह राय उसी तरह तथ्यपूर्ण लगती है जैसे यह तर्क कि गरीबी के लिए गरीब ही जिम्मेदार हैं. इसके उलट सच यह है कि जैसे गरीबी के लिए गरीब नहीं बल्कि वे नीतियां जिम्मेदार हैं जिन्होंने गरीबों को उनके हाल पर छोड़ दिया है.

इसी तरह, उत्तर भारत के पिछड़े राज्यों के पिछड़ेपन के लिए ऐतिहासिक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक कारणों के अलावा मौजूदा आर्थिक नीतियां भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ऊँची वृद्धि दर के नशे में चूर आर्थिक मैनेजर जानबूझकर इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश करते रहे हैं और पिछड़े राज्यों को उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार ठहराते रहे हैं.

लेकिन तथ्य यह है कि उत्तर और पूर्व भारत के पिछड़े राज्य पिछड़े इसलिए हैं कि उन्हें जानबूझकर पिछड़ा रखा गया है. असल में, यह पूंजीवादी विकास प्रक्रिया की अनिवार्य परिणति है. पूंजीवादी विकास माडल अपने मूल चरित्र में एक असमान और विषम विकास को प्रोत्साहित करता है. पूंजीवादी विकास प्रक्रिया में बड़े इलाके को जानबूझकर पिछड़ा रखा जाता है ताकि उन इलाकों से विकसित क्षेत्रों में सस्ते श्रम की आपूर्ति होती रहे.

यह प्रक्रिया अंग्रेजों के ज़माने में ही शुरू हो गई थी जिन्होंने व्यापार और भारत से कच्चा माल अपने देश ले जाने के लिए शुरू में बंदरगाह वाले तटीय इलाकों में निवेश किया और इसके लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया.

दूसरे, अंग्रेजों ने उत्तर भारत के राज्यों को १८५७ के विद्रोह और उनके बगावती तेवर की सजा भी दी और जानबूझकर इन इलाकों की उपेक्षा की. अफसोस की बात यह है कि आज़ादी के बाद भी कमोबेश उपनिवेशवादी नीतियां ही जारी रहीं. पूंजीवादी विकास के जिस माडल को अपनाया गया, उसमें निजी पूंजी उन्हीं विकसित इलाकों में गई, जहां पहले से ही अनुकूल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मौजूद था.

नतीजा, उत्तर भारत के राज्य आज़ाद भारत में भी सस्ते श्रम की आपूर्ति के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं. दोहराने की जरूरत नहीं है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफा सस्ते श्रम और श्रम के शोषण पर टिका होता है.

यही कारण है कि देश के अंदर उत्तर भारत के बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पूर्व भारत के झारखण्ड, उड़ीसा और असम जैसे राज्यों को सस्ते श्रम के बाड़े में बदल दिया गया है जहां से मुंबई समेत पश्चिमी और दक्षिणी भारत के अलावा पंजाब-हरियाणा जैसे राज्यों विकास के लिए जरूरी सस्ते श्रम की आपूर्ति होती है.

यह आपूर्ति जारी रहे, इसके लिए जरूरी है कि देश के कुछ इलाके पिछड़े बने रहें और उससे भी ज्यादा जरूरी है बेरोजगारी बनी रहे. कहने की जरूरत नहीं कि इस स्थिति को देश के सभी क्षेत्रों के समान विकास के लिए प्रतिबद्ध एक सशक्त राज्य ही बदल सकता था लेकिन भारतीय राज्य के एजेंडे पर यह सवाल कभी भी नहीं आया.

लेकिन १९९१ में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत के बाद तो रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गई. कारण यह कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के तहत अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका और भी सीमित हो गई और अर्थव्यवस्था की कमान पूरी तरह से देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी के हाथों में आ गई. यही पूंजी अर्थनीति तय करने लगी और वे ही विकास का एजेंडा निर्धारित करने लगे.

जाहिर तौर पर इस दौर में भी देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी उन्हीं विकसित इलाकों और राज्यों में गई है, जहां उन्हें अन्य इलाकों की तुलना में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर और बाज़ार मिला है. यही नहीं, इस दौर में एक और चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिली है, वह यह है कि देश के विभिन्न राज्यों के बीच देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी को आकर्षित करने की होड़ सी मच गई है.

इस कारण बड़ी पूंजी की बार्गेनिंग की क्षमता बहुत बढ़ गई है. वे राज्य सरकारों पर अपनी शर्तें थोपने में कामयाब हो रही हैं. इसके लिए राज्य सरकारों ने निजी पूंजी को मनमाने तरीके से अनाप-शनाप रियायतें और छूट देनी शुरू कर दी है.

लेकिन मजे की बात यह है कि इस होड़ में उत्तर भारत के राज्य अनेक कारणों से एक बार फिर पिछड़ गए हैं और देशी-विदेशी निजी पूंजी का संकेन्द्रण कुछ ही राज्यों और उनमें भी कुछ ही इलाकों तक सीमित हो गया है.

निश्चय ही, इसमें इन राज्यों में खराब गवर्नेंस, भ्रष्टाचार, बदहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर और बदतर मानवीय विकास जैसे कई कारक भी जिम्मेदार हैं. लेकिन ये वास्तविक कारण नहीं हैं बल्कि ये राज्य जिस दुष्चक्र में फंस गए हैं, ये उनकी पैदाइश हैं.

नतीजा यह कि उदारीकरण के बाद पिछले दो दशकों में बड़ी देशी-विदेशी पूंजी विकसित राज्यों की ओर ही दौड़ती दिखाई दी है और उत्तर भारत के पिछड़े राज्य उनकी तुलना में बहुत कम निजी निवेश आकर्षित कर पाए हैं. वे एक बार फिर अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं.

ऐसे में, कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी चुनावों के दौरान भले ही उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन के लिए पिछले बीस वर्षों में सत्ता में रही दूसरी पार्टियों को जिम्मेदार ठहराएं लेकिन सच यह है कि न तो कांग्रेस के विजन डाक्यूमेंट, न घोषणापत्र और न ही उनके भाषणों में इस दुष्चक्र को तोड़ने की कोई दृष्टि या रणनीति दिखाई पड़ती है.

ऐसा लगता है कि उत्तर भारतीय राज्य आगे भी सस्ते श्रम के बाड़े बने रहने के लिए अभिशप्त हैं. असल में, इस दुष्चक्र को तोड़ने के लिए जिस राजनीतिक साहस और इच्छाशक्ति की जरूरत है, वह मौजूदा राजनीतिक दलों और उनके नेतृत्व में सिरे से गायब है. वे तो बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की सेवा में और उसे खुश रखने में व्यस्त हैं.

(दैनिक "राजस्थान पत्रिका" में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

शुक्रवार, फ़रवरी 24, 2012

मुकेश अम्बानी का बाजा बन जायेंगी अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ

लेकिन लोकतंत्र के लिए जरूरी है मीडिया में बहुलता और विविधता

तीसरी और आखिरी किस्त

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि मीडिया उद्योग में यह प्रक्रिया पिछले कई वर्षों से जारी है लेकिन उसकी गति धीमी थी. उदाहरण के लिए, पिछले कुछ वर्षों में कई क्षेत्रीय मीडिया समूह बड़ी मीडिया कंपनियों से मुकाबले में कमजोर हुए हैं और प्रतिस्पर्द्धा में बाहर होते जा रहे हैं.
हिंदी क्षेत्रों में बड़े अखबार समूहों से प्रतियोगिता में बिहार में आर्यावर्त, प्रदीप, पाटलिपुत्र टाइम्स, जनशक्ति जैसे अखबार बंद हो गए, उत्तर प्रदेश में आज, स्वतंत्र भारत, अमृत प्रभात, जनवार्ता, स्वतंत्र चेतना और जनमोर्चा जैसे आधा दर्जन अखबार या तो बंद हो गए या मरणासन्न स्थिति में हैं, मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ में नई दुनिया और देशबंधु की स्थिति अच्छी नहीं है जबकि राजस्थान में नवज्योति जैसे अख़बारों की स्थिति बिगड़ती जा रही है.
इसी तरह टी.वी उद्योग में भी मनोरंजन क्षेत्र में स्टार, जी, कलर्स, सन नेटवर्क और न्यूज में टाइम्स टी.वी, टी.वी.टुडे, स्टार न्यूज और टी.वी-18 को छोडकर बाकी चैनलों के लिए लंबे समय तक प्रतियोगिता में टिके रहना मुश्किल होगा.

स्पष्ट है कि मीडिया उद्योग में संकेन्द्रण यानी कुछ बड़ी कंपनियों के और बड़ी होने और छोटी-मंझोली कंपनियों के खत्म होने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है जिसके गहरे राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक निहितार्थ हैं.

मीडिया उद्योग में बढ़ते कारपोरेटीकरण के साथ तेज होती संकेन्द्रण की प्रक्रिया का सीधा अर्थ यह है कि पाठकों/दर्शकों को सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन के लिए मुट्ठी भर कंपनियों पर निर्भर रहना होगा.

यह संभव है कि उनके पास चयन के लिए मात्रात्मक तौर पर कई अखबार/पत्रिकाएं और चैनल उपलब्ध हों लेकिन गुणात्मक तौर पर बहुत कम विकल्प हों. इसकी वजह यह होगी कि उनमें से कई अखबार/चैनल/फिल्म/रेडियो एक ही मीडिया समूह के हों.

जाहिर है कि उनका सुर कमोबेश एक सा ही होगा. इस तरह मीडिया उद्योग में विविधता और बहुलता कम होगी जो किसी भी गतिशील लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है. लोकतंत्र की बुनियाद विचारों की विविधता और बहुलता पर टिकी है और एक सर्व सूचित और सक्रिय नागरिक के लिए जरूरी है कि उसके पास सूचनाओं और विचारों के अधिकतम संभव स्रोत हों.

यही नहीं, यह भी देखा गया है कि प्रतियोगिता में जितने ही कम खिलाड़ी रह जाते हैं, उनमें विचारों और सृजनात्मकता के स्तर पर एक-दूसरे की नक़ल बढ़ती जाती है और जोखिम लेने की प्रवृत्ति कम होती जाती है. यही नहीं, बड़ी कंपनियों के लिए दांव इतने ऊँचे होते हैं कि वे अकसर सत्ता और दूसरी प्रभावशाली शक्तियों के करीब दिखाई देती हैं.
मीडिया के कारपोरेटीकरण के साथ यह सबसे बड़ा खतरा होता है कि उन कंपनियों के आर्थिक हित शासक वर्गों के साथ इतनी गहराई से जुड़े होते हैं कि वे आमतौर पर शासक वर्गों की भोपूं और यथास्थितिवाद के सबसे बड़े पैरोकार बन जाते हैं या अपने हितों के अनुकूल बदलाव की लाबीइंग करते हैं. उनमें वैकल्पिक स्वरों के लिए न के बराबर जगह रह जाती है.
यही नहीं, वे शासक वर्गों के पक्ष में जनमत बनाने से लेकर अपने राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए अख़बारों/चैनलों                        का पूरी बेशर्मी से इस्तेमाल करते हैं. इसके अलावा चूँकि बड़ी मीडिया कंपनियों का मुनाफा मुख्य रूप से विज्ञापनों से आता है, इसलिए बड़े विज्ञापनदाता परोक्ष रूप से इन मीडिया कंपनियों के कंटेंट को भी नियंत्रित और प्रभावित करने लगते हैं.

आश्चर्य नहीं कि कारपोरेट मीडिया में जहां राजनेताओं/अफसरों के भ्रष्टाचार की खबरें और भंडाफोड दिख जाते हैं लेकिन ऐसी रिपोर्टें अपवाद स्वरुप ही दिखती हैं जिनमें कारपोरेट क्षेत्र के भ्रष्टाचार और अनियमितताओं का पर्दाफाश किया गया हो.

कारपोरेट मीडिया की रिपोर्टों से कई बार ऐसा भ्रम पैदा होता है कि देश में सारी समस्याओं और गडबडियों खासकर भ्रष्टाचार की जड़ में केवल नेता, राजनीतिक दल और नौकरशाही है. लेकिन सच यह है कि भ्रष्टाचार के मामले में वे सिर्फ मांग पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि कारपोरेट क्षेत्र आपूर्ति पक्ष है.
अगर पैसा देनेवाला नहीं होगा तो पैसा लेनेवाले को भ्रष्ट होने का मौका नहीं मिलेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि कारपोरेट क्षेत्र नियमों/कानूनों को तोड़कर अपने हितों को आगे बढ़ाने के बदले में ही नेताओं/अफसरों को पैसा देता है. यही नहीं, कारपोरेट क्षेत्र का प्रभाव इतना बढ़ गया है कि वह अपने आर्थिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए मनोनुकूल नीतियां और कानून भी बनवाने में कामयाब हो रहा है.
लेकिन कारपोरेट मीडिया इन मुद्दों पर आमतौर पर चुप्प रहता है या बड़ी पूंजी के पक्ष में खुलकर जनमत बनाता और लाबीइंग करता है. यही नहीं, कारपोरेट मीडिया एक तरह से उस छलनी की तरह काम करता है जो सत्ता और व्यवस्था विरोधी या उसके हितों को नुकसान पहुंचानेवाले कंटेंट को लोगों तक नहीं पहुँचने देता है.

इस बारे में नोम चोमस्की/एडवर्ड हरमन ने प्रोपेगंडा माडल और ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ में विस्तार से बताया है कि कैसे कारपोरेट मीडिया एक ओर व्यवस्था/सत्ता विरोधी सूचनाओं/विचारों को रोकता है और दूसरी ओर, एक फर्जी सहमति का निर्माण करता है.

कारपोरेट मीडिया की बढ़ती ताकत के साथ हाल के वर्षों में एक और बड़ी चिंता उभर कर सामने आई है. यह अनुभव किया जा रहा है कि दुनिया के कई विकसित देशों में बड़ी पूंजी के साथ नाभिनालबद्ध कारपोरेट मीडिया की ताकत और प्रभाव के आगे वहां की चुनी हुई सरकारें भी घुटने टेक चुकी हैं और उन्हें खुश करने में लगी रहती हैं.
इस कारण कारपोरेट मीडिया का नीति निर्माण और महत्वपूर्ण फैसलों में भी हस्तक्षेप बढ़ा है. तथ्य यह है कि वे ही सरकारों का एजेंडा निर्धारित करने लगे हैं. इसके साथ ही, कारपोरेट मीडिया को प्रभावित करने और उसका अपने हित में इस्तेमाल करने के लिए एक विशाल जनसंपर्क और लाबीइंग उद्योग का जन्म और प्रसार हुआ है.
लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि उन वर्गों और समुदायों की जिनकी बड़े कारपोरेट मीडिया तक पहुँच नहीं है या जो बड़ी जनसंपर्क कंपनियों और लाबीइंग फर्मों की महँगी सेवाएं नहीं ले सकते, उनकी आवाजें और मुद्दे कारपोरेट मीडिया में सुनाई और दिखाई नहीं देते हैं.
यही नहीं, कारपोरेट मीडिया के इस अवांछित प्रभाव का नुकसान यह भी हुआ है कि सरकारें उनकी बंधक सी हो गईं हैं. हाल के महीनों में जिस तरह से ब्रिटेन में रूपर्ट मर्डोक के मीडिया साम्राज्य और उसके अत्यधिक राजनीतिक प्रभाव की रिपोर्टें सामने आईं हैं, उससे यह साफ़ है कि मीडिया स्पेस में सिर्फ कुछ बड़ी कंपनियों के वर्चस्व का राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक नतीजा कितना घातक हो सकता है.

असल में, राजनीति जिस तरह अधिक से अधिक मीडिया संचलित (मेडीएटेड) होती जा रही है और उसमें गढ़ी हुई ‘छवियों’ की भूमिका बढ़ती जा रही है, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों की बड़े कारपोरेट मीडिया समूहों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है.

मौजूदा दौर में 24x7 लोगों तक पहुँचने, राजनीतिक एजेंडा सेट करने, छवि गढने से लेकर राजनीतिक नुकसान को कम करने (डैमेज कंट्रोल) में कारपोरेट मीडिया की बढ़ती भूमिका के कारण सरकारों, राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के लिए कारपोरेट मीडिया और उनके मालिकों को खुश रखना जरूरी हो गया है. वे उन्हें नाराज करने का राजनीतिक जोखिम नहीं उठा सकते हैं.

ऐसे में, यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि पहले ही सरकार और राजनीतिक तंत्र पर अत्यधिक प्रभाव रखनेवाले मुकेश अंबानी और रिलायंस अपना मीडिया साम्राज्य खड़ा करने में कामयाब हो जाते हैं तो उसके नतीजे क्या होंगे?
याद रहे मीडिया उद्योग में होने के कई अघोषित फायदे हैं. नीरा राडिया टेप ने इस रहस्य से काफी हद तक पर्दा हटा दिया है कि बड़े कारपोरेट समूह मीडिया का अपने हित में किस तरह से इस्तेमाल करते हैं और कारपोरेट मीडिया किस तरह खुशी-खुशी इस्तेमाल होता है. मीडिया के एक सबसे ताकतवर खिलाड़ी के नाते मुकेश अंबानी और रिलायंस सरकार और राजनीतिक तंत्र पर अपने प्रभाव का जमकर इस्तेमाल कर सकते हैं.
यह किसी से छुपा नहीं है कि आज से नहीं बल्कि आज़ादी के तुरंत बाद से किस तरह जूट प्रेस सरकार और राजनीतिक प्रतिष्ठान को अपने कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता रहा है.

निश्चय ही, मुकेश अंबानी और रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग में सिर्फ कारोबार के लिए नहीं आ रहे हैं. मीडिया कारोबार उनके लिए अपने विशाल औद्योगिक साम्राज्य के हितों की रक्षा और उन्हें आगे बढ़ाने का भी माध्यम दिख रहा है. कहने की जरूरत नहीं है कि आम लोगों के हितों और रिलायंस के कारोबारी हितों के बीच टकराव में मुकेश अंबानी का मीडिया साम्राज्य किस ओर खड़ा होगा.

यह भी किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट समूहों के कारोबारी हितों के साथ आम लोगों खासकर गरीबों, कमजोर वर्गों, आदिवासियों और दलितों के टकराव बढ़ते ही जा रहे हैं. खासकर राष्ट्रीय और सार्वजनिक संसाधनों- जल, जंगल, जमीन और खनिज पर कब्जे और उनके अंधाधुंध दोहन के मुद्दे पर यह टकराव निर्णायक स्थिति में पहुँच चुका है.
ऐसे में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग में बड़ी देशी-विदेशी कारपोरेट पूंजी के निर्बाध प्रवेश और बढ़ते संकेन्द्रण के खतरे और भी स्पष्ट हो गए हैं. इसे अनदेखा करना बहुत बड़ी भूल होगी.

('कथादेश' के फरवरी अंक में प्रकाशित लेख की तीसरी और आखिरी किस्त..आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा..)      

गुरुवार, फ़रवरी 23, 2012

मुकेश अम्बानी बनना चाहते हैं भारत के रुपर्ट मर्डाक

एन.डी.टी.वी, इंडिया टुडे, अमर उजाला, नई दुनिया, प्रभात खबर आदि से लेकर दर्जनों छोटी कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है

दूसरी किस्त
आश्चर्य नहीं कि टी.वी-18 को रिलायंस की शरण में जाना पड़ा है. इसकी भी वजह यह है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रतियोगिता में आगे रहने के लिए उसने बाजार से काफी पैसा उगाहा है. इसमें दुनिया की सबसे बड़ी दस मीडिया कंपनियों में से एक वायाकाम भी शामिल है जिसके साथ संयुक्त उपक्रम में नेटवर्क-18 ने ‘कलर्स’ नामक मनोरंजन चैनल की शुरुआत की है.
लेकिन इस प्रक्रिया में नेटवर्क-18/टी.वी-18 पर 1300 करोड़ रूपये से अधिक का कर्ज भी हो गया था और साथ ही, उसे और विस्तार के लिए आगे भी और पूंजी की जरूरत थी. ऐसे में, उसने रिलायंस का दामन थामा और इसके साथ ही, मीडिया उद्योग में देश की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी के सीधे प्रवेश का रास्ता खुल गया.
जाहिर है कि रिलायंस कोई मामूली कंपनी नहीं है. बाजार पूंजीकरण के लिहाज से वह लगभग 257089 करोड़ रूपये की कंपनी है जिसका अर्थ यह हुआ कि उसके आगे अधिकांश मीडिया कम्पनियाँ बहुत बौनी हैं. यहाँ तक कि शेयर बाजार में लिस्टेड सभी मीडिया और मनोरंजन कंपनियों के मौजूदा कुल पूंजीकरण को भी जोड़ दिया जाए तो रिलायंस के पूंजीकरण के आधे से भी कम हैं.

यही नहीं, रिलायंस नगद जमा कंपनी के मामले में भी देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 सितम्बर’11 को लगभग 14 अरब डालर यानी 70000 करोड़ रूपये का नगद जमा था जिसके इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक बढ़कर 25 अरब डालर (125000 करोड़ रूपये) हो जाने का अनुमान है. 

मजे की बात यह है कि बाजार में इस बाबत कयास लगाये जा रहे हैं कि रिलायंस इतने अधिक नगद जमा का क्या और कैसे इस्तेमाल करेगा? उसपर दबाव है कि वह इस पैसे कोई अधिक से अधिक मुनाफा देनेवाले उद्योगों/कारोबारों में इस्तेमाल करे. इसका अर्थ यह है कि अगर रिलायंस अपने नगद जमा का 10 फीसदी भी मीडिया और मनोरंजन कारोबार में लगाये तो जी नेटवर्क और सन नेटवर्क को छोडकर वह सभी टी.वी कंपनियों को खरीद सकता है.
इसमें कोई शक नहीं है कि मुकेश अंबानी का इरादा 4 जी ब्राडबैंड सेवा में सबसे बड़े खिलाड़ी बनने के जरिये एक ओर दूरसंचार के बेहद लुभावने कारोबार में पैठ बनाने का है और दूसरी ओर, उसे मीडिया उद्योग से जोड़कर मनोरंजन कारोबार पर कब्ज़ा जमाने का है.
असल में, मुकेश अंबानी और रिलायंस की दूरसंचार और मीडिया/मनोरंजन उद्योग पर बहुत पहले से नजर है. रिलायंस की सहयोगी कंपनी इंफोटेल ब्राडबैंड ने पिछले साल 13000 करोड़ रूपये चुकाकर 4 जी सेवाओं के लिए अखिल भारतीय लाइसेंस लिया है और उसकी योजना है कि वह उपभोक्ताओं को 3500 रूपये की सस्ती टैबलेट उपलब्ध कराएगा, जिसपर ब्राडबैंड के जरिये इंटरनेट से लेकर वीडियो/टी.वी/फिल्म जैसी सभी सेवाएं सस्ती दर पर उपलब्ध होंगी.

यही नहीं, रिलायंस के पास आई.पी.एल की मुंबई इंडियन टीम है. वह इसीलिए खेल के चैनल और साथ ही, केबल नेटवर्क कंपनियों को भी खरीदने की कोशिश में है.

यहाँ यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि दुनियाभर में खासकर अमेरिका समेत कई विकसित देशों में सक्रिय बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ वास्तव में बड़े उद्योग समूहों की उपांग है. उदाहरण के लिए, दुनिया की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी जनरल इलेक्ट्रिक (जी.ई) है जिसके मीडिया कारोबार के दर्जनों चैनल और अन्य मीडिया उत्पाद है लेकिन यह उसका मुख्य कारोबार नहीं है.
वह अमेरिका की छठी सबसे बड़ी कंपनी है और उसका मुख्य कारोबार उर्जा, टेक्नोलोजी इन्फ्रास्ट्रक्चर, वित्त, उपभोक्ता सामान आदि क्षेत्रों में है. ऐसे कई और उदाहरण हैं.
दूसरी ओर, दुनिया की कई ऐसी बड़ी बहुराष्ट्रीय मीडिया कम्पनियाँ हैं जिन्होंने पिछले दो-ढाई दशकों में दर्जनों छोटी और मंझोली मीडिया कंपनियों को अधिग्रहीत या समावेशन (एक्विजेशन और मर्जर) के जरिये गड़प कर लिया है.

असल में, यह पूंजीवाद का सहज चरित्र है जिसमें बड़ी मछली, छोटी मछली को निगल जाती है. इसी तरह बड़ी पूंजी धीरे-धीरे छोटी और मंझोली पूंजी को निगलती और बड़ी होती जाती है. अमेरिका में यह प्रक्रिया 70 के दशक के मध्य में शुरू हुई और 80 और 90 के दशक में आकर पूरी हो गई जहां आज सिर्फ छह बड़ी मीडिया कंपनियों का पूरे अमेरिकी मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर एकछत्र राज है जबकि 1983 तक वहां लगभग 50 बड़ी मीडिया कम्पनियाँ थीं.               

संकेत साफ़ है. भारत में भी मीडिया और मनोरंजन उद्योग में रिलायंस जैसी बड़ी कंपनी के उतरने और स्टार नेटवर्क जैसी विदेशी बहुराष्ट्रीय मीडिया कंपनी (रूपर्ट मर्डोक के न्यूज इंटर-नेशनल की उपांग) की सक्रियता के अलावा बेनेट कोलमैन, जी नेटवर्क और सन नेटवर्क जैसे बड़े और प्रभावशाली खिलाडियों की मौजूदगी के कारण बड़े उथल-पुथल से इनकार नहीं किया जा सकता है.
सच पूछिए तो मीडिया उद्योग में रिलायंस के नेटवर्क-18 और इनाडु समूह के साथ हुए डील के बाद जिस तरह से बेनेट कोलमैन (टाइम्स समूह) खेल चैनल निम्बस को खरीदने की कोशिश कर रहा है या स्टार क्षेत्रीय चैनलों को खरीदने में जुटा हुआ है, उसे देखते हुए हैरानी नहीं होगी कि आनेवाले महीनों में ऐसे कई और बड़े सौदों की घोषणा हो.
इसका अर्थ यह हुआ कि आनेवाले महीनों और वर्षों में छोटी, मंझोली और यहाँ तक कि कुछ बड़ी मीडिया कंपनियों के लिए तीखी प्रतियोगिता में टिके रहना बहुत मुश्किल होता चला जाएगा. खासकर उन मीडिया कंपनियों को बहुत मुश्किल होनेवाली है जो इक्का-दुक्का न्यूज चैनलों या एक अखबार/पत्रिका या रेडियो चैनल पर टिकी कम्पनियाँ हैं और किसी बड़े उद्योग या मीडिया समूह का हिस्सा नहीं हैं.

उदाहरण के लिए, एन.डी.टी.वी समूह, इंडिया टुडे समूह, अमर उजाला समूह, नई दुनिया समूह, प्रभात खबर समूह आदि से लेकर दर्जनों छोटी कंपनियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है.

("कथादेश" के फरवरी'१२ अंक में प्रकाशित लेख की दूसरी किस्त...इंतज़ार कीजिये तीसरी और आखिरी किस्त का...)

बुधवार, फ़रवरी 22, 2012

आखिर मुकेश अम्बानी का इरादा क्या है?

मीडिया का बढ़ता कारपोरेटीकरण और संकेन्द्रण : लोकतंत्र और टी.वी उद्योग के लिए रिलायंस-टी.वी 18 डील के मायने


भारतीय मीडिया और खासकर टी.वी उद्योग के लिए वर्ष २०१२ की शुरुआत बहुत धमाकेदार रही. देश में शेयर बाजार में लिस्टेड कंपनियों में बाजार पूंजीकरण के लिहाज से सबसे बड़ी कंपनी, मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 (मनोरंजन चैनल कलर्स और न्यूज चैनल सी.एन.एन-आई.बी.एन, सी.एन.बी.सी आदि) में कोई 17 अरब रूपये के निवेश का एलान करके सबको चौंका दिया.
इस डील के तहत रिलायंस के मालिकाने वाले इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट ने टी.वी-18/नेटवर्क-18 में 1700 करोड़ रूपये का निवेश किया है जिसके बदले में   टी.वी-18/नेटवर्क-18 ने इनाडु टी.वी समूह के सभी क्षेत्रीय समाचार चैनलों को पूरी तरह और मनोरंजन चैनलों में बड़ी हिस्सेदारी खरीद ली है.

इस डील के साथ एक ही झटके में मुकेश अंबानी और उनकी कंपनी रिलायंस मीडिया और मनोरंजन उद्योग की एक बड़ी खिलाड़ी बन गई है. खबरें यह भी हैं कि रिलायंस टी.वी वितरण के क्षेत्र में भी घुसने का रास्ता तलाश रही है और उसकी कई वितरण कंपनियों से उनके अधिग्रहण के लिए सौदा पटाने की कोशिश कर रही है. इसके अलावा वह कुछ खेल चैनलों को भी अधिग्रहीत करने के प्रयास में भी है. उल्लेखनीय है कि
रिलायंस आई.पी.एल क्रिकेट में सबसे महँगी टीमों में से एक मुंबई इंडियन की भी मालिक है. इसके अलावा रिलायंस को पूरे भारत में चौथी पीढ़ी (4 जी) ब्राडबैंड सेवाएं उपलब्ध करने का भी लाइसेंस मिल गया है.
असल में, मीडिया और मनोरंजन उद्योग खासकर समाचार मीडिया और टी.वी उद्योग में मुकेश अंबानी की रिलायंस की दिलचस्पी किसी से छुपी नहीं है. 80 के दशक के आखिरी वर्षों में अंबानी ने ‘बिजनेस एंड पोलिटिकल ऑब्जर्वर’ अखबार शुरू किया था. हालांकि वह अखबार कई कारणों से नहीं चल पाया लेकिन इससे मीडिया में रिलायंस की दिलचस्पी कम नहीं हुई.
अलबत्ता, उन्होंने उसके बाद सीधे और सामने से किसी मीडिया कंपनी और उसके अखबार या चैनल में पूंजी निवेश करने के बजाय पीछे से उसे नियंत्रित करने की रणनीति अपनाई. माना जाता है कि परोक्ष रूप से देश के कई अखबारों और न्यूज चैनलों में उनका पैसा लगा हुआ है.

लेकिन रिलायंस के ताजा फैसले से जाहिर है कि मुकेश अंबानी की तैयारी अब नेपथ्य से मीडिया की राजनीतिक-रणनीतिक ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करने के बजाय खुद उसके एक बड़े खिलाड़ी की तरह खेल में उतरने की है.
हालांकि यह डील खुद में बहुत जटिल प्रक्रिया के जरिये पूरी होगी और उसकी बारीकियां अभी भी स्पष्ट नहीं हैं लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके जरिये मुकेश अंबानी की नेटवर्क18 में कोई 44 फीसदी और टी.वी18 में 28.5 फीसदी हिस्सेदारी होगी और वे इन कंपनियों में अकेले सबसे बड़े हिस्सेदार होंगे. तात्पर्य यह कि वे इन कंपनियों के वास्तविक मालिक होंगे.         
लेकिन खुद रिलायंस समूह का दावा है कि नेटवर्क18/टी.वी.18 समूह और उसके जरिये इनाडु टी.वी समूह पर मालिकाने के पीछे उसका एकमात्र मकसद अपने 4 जी ब्राडबैंड सेवा के लिए कंटेंट जुटाना है. इस डील के बाद रिलायंस का इन दोनों मीडिया समूहों के टी.वी चैनलों के कंटेंट और उनके अन्य मीडिया उत्पादों पर अधिकार होगा जिसे वह अपने ब्राडबैंड सेवा के ग्राहकों को लुभाने के लिए इस्तेमाल करेगी.
यही नहीं, रिलायंस समूह ने यह भी सफाई दी है कि इस डील के बाद भी नेटवर्क18/टी.वी18 के प्रबंधन, संचालन और संपादकीय नीति में कोई बदलाव नहीं होगा और वह उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा. इसके लिए रिलायंस एक ‘स्वतंत्र’ ट्रस्ट- इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट गठित कर रहा है जिसमें कंपनी के मालिकों और प्रबंधकों के बजाय ‘जाने-माने लोग’ ट्रस्टी होंगे. रिलायंस इसी ट्रस्ट के जरिये नेटवर्क18/टी.वी18 में निवेश कर रहा है.

लेकिन रिलायंस के अतीत और मीडिया व्यवसाय में व्यवसाय से इतर कारणों से उसकी गहरी दिलचस्पी को देखते हुए उसके इस दावे पर भरोसा करना मुश्किल है. यह सही है कि मुकेश अंबानी और रिलायंस को अब मीडिया और मनोरंजन उद्योग में व्यवसाय की दृष्टि से भी बेहतर संभावनाएं दिखने लगी हैं और रिलायंस के विस्तार के नए क्षेत्रों में मीडिया व्यवसाय भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है. पिछले एक-डेढ़ दशक में भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग का जिस गति और पैमाने पर विस्तार हुआ है, उसके कारण कई बड़े उद्योग और कारोबारी समूहों की उसमें दिलचस्पी बढ़ी है.

असल में, पिछले वर्ष की फिक्की-के.पी.एम.जी मीडिया और मनोरंजन उद्योग रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में मीडिया उद्योग 2009 में 587 अरब रूपये का था जो 11 फीसदी की वृद्धि दर के साथ बढ़कर वर्ष 2010 में 652 अरब रूपये का हो गया. इस रिपोर्ट का अनुमान है कि पिछले साल कोई 13 फीसदी की बढोत्तरी के साथ इसका आकार बढ़कर 738 अरब रूपये हो जाएगा.
यही नहीं, इस रिपोर्ट का यह भी आकलन है कि भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग आनेवाले वर्षों में औसतन 14 फीसदी सालाना की वृद्धि दर के साथ वर्ष 2015 में लगभग 1275 अरब रूपये का विशाल उद्योग हो जाएगा.

साफ़ है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग का तेजी से विस्तार हो रहा है. इसके साथ ही, इसमें दांव ऊँचे और बड़े होते जा रहे हैं. स्वाभाविक तौर पर इसके विस्तार के साथ इसमें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की दिलचस्पी भी बढ़ रही है.
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आमतौर पर छोटी-मंझोली पूंजी के इस असंगठित उद्योग में पिछले डेढ़-दो दशकों में कई मीडिया कंपनियों ने शेयर बाजार से पूंजी उठाई है और उनमें देशी-विदेशी निवेशकों ने पैसा लगाया है. आज ऐसी दर्जनों मीडिया कंपनियां हैं जो शेयर बाजार में लिस्टेड हैं और जिनमें देशी-विदेशी पूंजी लगी हुई है. इनमें से कुछ कम्पनियाँ परंपरागत मीडिया कम्पनियाँ हैं जो पिछले कई दशकों से समाचारपत्र और फिल्म कारोबार में सक्रिय थीं.
लेकिन इनमें कई कम्पनियाँ खासकर टी.वी कम्पनियाँ ऐसी हैं जो नब्बे के दशक में टी.वी उद्योग के विस्तार के साथ पैदा हुईं और तेजी से फली-फूली हैं. उनके विस्तार में बड़ी पूंजी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. बड़ी पूंजी के प्रवेश के साथ ये कम्पनियाँ जिनमें कई आठ-दस साल पहले तक छोटी प्रोडक्शन कंपनी या एक खास इलाके तक सीमित समाचारपत्र कंपनी थीं, कुछ ही सालों में बड़ी कंपनियों में बदल गईं.
इनमें से कई का बाजार पूंजीकरण यानि बाजार भाव हजारों करोड़ रूपये का है. उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत की सबसे बड़ी मीडिया कंपनी, कलानिधि मारन की सन नेटवर्क का बाजार पूंजीकरण 11700 करोड़ रूपये है जबकि दूसरी बड़ी कंपनी जी इंटरटेन्मेंट का बाजार पूंजीकरण 11367 करोड़ रूपये है. (19 जनवरी’12 की शेयर कीमतों पर)
इसी तरह टी.वी-18 का बाजार पूंजीकरण लगभग 1122 करोड़ रूपये है जबकि यह कंपनी डेढ़-दो दशकों पहले तक एक छोटी सी प्रोडक्शन हाउस थी. इसके अलावा टी.वी टुडे (आज तक और हेडलाइंस टुडे आदि) का बाजार पूंजीकरण 350 करोड़ रूपये, एन.डी.टी.वी (एन.डी.टी.वी-24x7, एन.डी.टी.वी-इंडिया आदि) का 279 करोड़ रूपये और जी. न्यूज का 273 करोड़ रूपये है.
कई समाचारपत्र कम्पनियाँ भी शेयर बाजार में लिस्टेड हैं जिनमें जागरण प्रकाशन (बाजार पूंजीकरण 3094 करोड़ रूपये), डेक्कन क्रानिकल (874 करोड़ रूपये), दैनिक भास्कर-डी.बी कार्प (3390 करोड़ रूपये) और एच.टी मीडिया (3084 करोड़ रूपये) शामिल हैं.
हालांकि बेनेट कोलमैन (टाइम्स आफ इंडिया समूह), स्टार नेटवर्क, हिंदू समूह, आनंद बाजार पत्रिका समूह सहित देश की कई बड़ी मीडिया कम्पनियाँ अभी भी शेयर बाजार में लिस्टेड नहीं हैं लेकिन मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए कहा जा सकता है कि आनेवाले वर्षों में देर-सबेर इनमें से अधिकांश शेयर बाजार में आएँगी और लिस्टेड कंपनी होंगी.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग में जिस तरह से गलाकाट प्रतियोगिता बढ़ रही है और दांव ऊँचे से ऊँचे होते जा रहे हैं, उसमें अधिकांश कंपनियों के लिए बड़ी पूंजी की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है.

('कथादेश' के फरवरी'१२ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली किस्त..बाकी बातें अगले दो किस्तों में..)

सोमवार, फ़रवरी 20, 2012

वित्तीय कठमुल्लावाद की वापसी के खतरे

अर्थव्यवस्था को गति को तेज करने के लिए नए निवेश की सख्त जरूरत है

आम बजट पेश होने में अब एक माह से भी कम का समय बचा है. बजट की तैयारियां जोरों पर हैं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर अपेक्षाओं और उम्मीदों के बोझ के साथ चौतरफा दबाव भी हैं.

जैसाकि हर बजट के साथ होता है, इस बार भी बजट से पहले नार्थ ब्लाक में ताकतवर कारपोरेट समूहों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के प्रतिनिधियों से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष के अफसरों तक की आमदरफ्त बढ़ गई है.
अपने कारपोरेट हितों को आगे बढ़ाने और उसके अनुकूल नीतियों और बजट प्रावधानों के लिए जमकर लाबीइंग हो रही है. देशी-विदेशी बड़ी पूंजी इस बजट में बिना नाम लिए अपने लिए बेल आउट पैकेज चाहती है.

हालांकि औपचारिकता निभाने के लिए वित्त मंत्री ने किसान और ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों से भी बजट में उनकी अपेक्षाओं को लेकर चर्चा की है लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट समूहों और फिक्की-सी.आई.आई-एसोचैम जैसे संगठित लाबीईंग समूहों की ताकत और प्रभाव के आगे वे कहीं नहीं ठहरते हैं.

वे न सिर्फ सरकार के अंदर लाबीइंग कर रहे हैं बल्कि बाहर भी अपने पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हैं. इसमें उन्हें गुलाबी अख़बारों की मदद भी मिल रही है जो बजट का एजेंडा कारपोरेट समूहों के पक्ष में तय करने में भिड़े हुए हैं.

लेकिन मजे की बात यह है कि जो कारपोरेट क्षेत्र इस बजट में अपनी मलाई के लिए लाबीइंग कर रहा है, वह सार्वजनिक तौर पर बजट को (आमलोगों के लिए) सख्त बनाने की वकालत कर रहा है. कहा जा रहा है कि यू.पी.ए सरकार और वित्त मंत्री के पास २०१४ के आम चुनावों से पहले यह आखिरी मौका है जब वे कुछ सख्त फैसले ले सकते हैं.

यहाँ सख्त फैसले का मतलब यह है कि बजट में वित्तीय घाटे को काबू में करने के लिए पेट्रोलियम, खाद और खाद्य सब्सिडी में कटौती, विनिवेश में तेजी और आर्थिक सुधारों के आगे बढ़ाने वाले नीतिगत फैसलों की घोषणा की जाए.

यही नहीं, फिक्की के महासचिव राजीव कुमार ने एक बड़े अंग्रेजी अखबार में लिखकर प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून को सरकारी खजाने की कमर तोड़ने वाला बताते हुए वित्त मंत्री को अगले बजट में उसपर अमल से बचने की सलाह दी है. कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष तक सभी की सबसे बड़ी चिंता वित्तीय घाटे में बढ़ोत्तरी है.

साफ है कि वित्तीय कठमुल्लावाद फिर सक्रिय हो गया है. गुलाबी अख़बारों में रोज रिपोर्टें ‘प्लांट’ की जा रही हैं कि चालू वित्तीय वर्ष में वित्तीय घाटा का बजट अनुमान जी.डी.पी के ४.६ फीसदी से बढ़कर ५.६ फीसदी या उससे भी अधिक जा सकता है. कहा जा रहा है कि वित्तीय घाटे का यह स्तर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है. यह अर्थव्यवस्था के लिए घातक है.


तर्क दिया जा रहा है कि इसे अगर इस साल काबू में करने के लिए सख्त फैसले नहीं किये गए तो अगले साल चुनाव वर्ष का बजट होने के करण वित्त मंत्री के लिए उसमें कोई कड़ा फैसला करना संभव नहीं होगा.

लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वित्तीय घाटे में कटौती के लिए आमलोगों खासकर गरीबों की सब्सिडी में कटौती को एकमात्र विकल्प बतानेवाले इस विकल्प पर भूलकर भी चर्चा नहीं करते हैं कि इसका एक तरीका सरकार की आय बढ़ाने का भी हो सकता है.
इसके लिए कारपोरेट और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को दी जा रही हजारों करोड़ रूपये की कर छूटों/रियायतों का खात्मा और कारपोरेट टैक्स में बढ़ोत्तरी का भी हो सकता है.

तथ्य यह है कि वर्ष २०१०-११ के बजट में अकेले कारपोरेट टैक्स में विभिन्न छूटों के जरिये कंपनियों को ८८२६३ करोड़ रूपये और सोने-हीरे पर सीमा शुल्क में छूट के रूप में ४८७९८ करोड़ रूपये दिए गए. अगर सिर्फ इन दोनों को ही जोड़ दिया जाए तो यह प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून पर होनेवाले अधिकतम व्यय के अनुमानों से भी ज्यादा है.

लेकिन इसकी चर्चा नहीं होती है. यह भी चर्चा नहीं होती है कि जिस वित्तीय घाटे का इतना रोना रोया जाता है, क्या वह सचमुच, खतरे के निशान को पार कर गया है? तथ्य यह है कि दुनिया के अमीर देशों के संगठन- ओ.सी.ई.डी (ओसेड) के सदस्य देशों में वर्ष २०१० में वित्तीय घाटा औसतन जी.डी.पी के ७.५ फीसदी के आसपास था जबकि इसके वर्ष २०११ में जी.डी.पी के ६.१ फीसदी के करीब रहने का अनुमान है.

सच यह है कि किसी भी विकासशील देश में अर्थव्यवस्था में अत्यधिक निवेश की जरूरतों के कारण बजट में वित्तीय घाटा स्वाभाविक और काफी हद तक अनिवार्य भी माना जाता है. भारत इसका अपवाद नहीं है.

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय जिस मोड पर खड़ी है वहां उसे सबसे अधिक जरूरत बुनियादी संरचनात्मक ढांचे यानी बिजली-सड़क-रेल-बंदरगाह-पानी, सामाजिक ढांचे यानी शिक्षा-स्वास्थ्य और कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की है ताकि समावेशी विकास को गति दी जा सके. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार के पीछे सबसे बड़ी वजह निवेश में ठहराव और गिरावट है.

असल में, दुनिया भर में छाई आर्थिक अनिश्चितता और विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं की बुरी स्थिति के कारण देश के अंदर भी निजी क्षेत्र नए निवेश से बच रहा है. ऐसे समय में निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय घाटे की चिंता न करते हुए सार्वजनिक निवेश में भारी बढ़ोत्तरी करने की जरूरत है. इससे निजी क्षेत्र के निवेश को भी आवेग मिलेगा.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि कारपोरेट लाबीस्ट के इशारे पर बजट को लेकर हो रही सार्वजनिक चर्चाओं में एक बार फिर सबसे अधिक शोर वित्तीय घाटे में कटौती और आर्थिक सुधारों की रफ़्तार को तेज करने को लेकर है.
लगता है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने अपने हालिया अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है. सच यह है कि अमेरिका और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की मौजूदा खस्ता हालत के सबसे अधिक जिम्मेदार यह सोच ही है.
इसने न सिर्फ २००७-०८ के वित्तीय ध्वंस की जमीन तैयार की बल्कि उसके बाद वित्तीय उत्प्रेरक (स्टिमुलस) पैकेजों की मदद से उससे उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्थाओं पर जिस हड़बड़ी में वित्तीय अनुशासन थोपने की कोशिश की गई, उससे ये अर्थव्यवस्थाएं फिर से मंदी और संकट में फंस गई हैं.

क्या वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी इससे कोई सबक लेंगे या बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को दांव पर लगाएंगे? बजट का इंतज़ार कीजिये.
('नया इंडिया' में २० फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)