जो मतदाता उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ या वापस दायरों में बंद करना मुश्किल होगा
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के
नतीजों को लेकर कयासों का दौर जारी है. ईमानदारी की बात यह है कि किसी को ठीक-ठीक
पता नहीं है कि नतीजे किस करवट बैठेंगे या त्रिशंकु लटकेंगे? राजनीतिक रूप से बहुत
ऊँचे दांव वाले इस चुनाव के नतीजे चाहे जो हों लेकिन उत्तर प्रदेश के मैदानों से
ऐसी कई खबरें आ रही है जिनसे सत्ता परिवर्तन से अधिक नए और ज्यादा गहरे बदलाव की
उम्मीदें बंधने लगी हैं.
यह उस राज्य के लिए ज्यादा अच्छी खबर है जिसके बारे में
मान लिया गया था कि यहाँ कुछ नहीं बदल सकता है और कवि धूमिल ने शायद इसी हताशा में
लिखा था कि ‘इस कदर कायर हूँ/ कि उत्तर प्रदेश हूँ.’
लेकिन उत्तर प्रदेश खड़ा हो रहा है. यह
और बात है कि वह इस तरह नहीं खड़ा हो रहा है, जैसा युवराज चाहते हैं. वह उस तरह भी
नहीं खड़ा हो रहा है जैसे बहनजी चाहती हैं. वह उस तरह भी नहीं बदल रहा है जैसे
समाजवादी युवराज चाहते हैं और न वह बदलकर हिन्दुत्ववादी हो रहा है, जैसा रामभक्त
चाहते हैं.
इन सबकी इच्छाओं से अलग उत्तर प्रदेश में राजनीति का मुहावरा बदल रहा
है. इसके कारण उत्तर प्रदेश में सत्ता की दावेदार सभी पार्टियों को बदलना पड़ रहा
है. सच पूछिए तो इन चुनावों की सबसे उल्लेखनीय बात यही है.
वैसे बदलाव की यह लहर उत्तर प्रदेश के
जड़ समाज में पिछले कई वर्षों से चल रही है. इस सामाजिक उथल-पुथल की सबसे खास बात
यह है कि इसमें सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और दलित दावेदारी की राजनीति ने भी उल्लेखनीय
भूमिका निभाई है.
लेकिन उत्तर प्रदेश का समाज और राजनीति इस बदलाव से भी आगे जाने
की राह बनाने की कशमकश में हैं. इस कशमकश के केन्द्र में लोगों की बढ़ी हुई
आकांक्षाएं हैं जिसमें सामाजिक सम्मान के साथ एक बेहतर जीवन की अपेक्षा है और
अवसरों में हिस्से से ज्यादा अवसर बढ़ाने की मांग है.
यही नहीं, इसमें सामाजिक न्याय और
धर्मनिरपेक्षता के नारों/दावों के बीच पीछे छूट गए वे तबके हैं जिन्हें न सत्ता
में भागीदारी मिली और न सामाजिक न्याय का फायदा. इसमें वे युवा और महिलाएं हैं जो
उत्तर प्रदेश के दमघोंटू राजनीति और समाज के बंधनों को तोड़ने के लिए बेचैन हैं.
इस
बेचैनी में गरिमापूर्ण रोजगार, अच्छी लेकिन सस्ती शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा,
गुंडों/माफियाओं से मुक्ति और कानून का शासन, भ्रष्टाचार पर अंकुश और बेहतर सड़कें,
बिजली और पीने का साफ़ पानी जैसे सवाल हैं. यह संभव है कि इन चुनावों के नतीजों में
यह बेचैनी और बदलाव शायद उतनी स्पष्ट न दिखे.
लेकिन यह सच है कि उत्तर प्रदेश में
बदलाव में हो रहा है. इनमें से कुछ की पहचान और चर्चा जरूरी है. पहली बात तो यह है
कि लंबे अरसे बाद उत्तर प्रदेश में मतदान का प्रतिशत औसतन ५७ से लेकर ६० फीसदी के
बीच पहुँच गया है. यह पिछली बार की तुलना में १० से १५ फीसदी तक अधिक है. इससे
लोगों के उत्साह का पता चलता है जो बिना उम्मीद के संभव नहीं है.
सबसे खास बात यह
है कि इस बार मतदान में युवा और महिला वोटर भी अच्छी-खासी संख्या में दिख रहे हैं.
यह अपने आप में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है. निश्चय ही, जो मतदाता इतने
उत्साह से वोट डालने निकल रहा है, उसकी अपेक्षाओं को नजरअंदाज़ करना या उसे वापस
अपने दायरों में बंद करना मुश्किल होगा. आश्चर्य नहीं कि सभी राजनीतिक पार्टियों
की सांस अटकी हुई है.
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि सत्ता की
दावेदार पार्टियों पर नीचे हो रहे बदलाव का ऐसा दबाव पड़ा है कि उन्हें खुद भी
बदलना पड़ा है. अस्मिता की राजनीति करनेवाली दोनों प्रमुख पार्टियों को जातियों के
दायरे से बाहर निकल कर कंप्यूटर-लैपटाप, गन्ने की कीमतों, कानून-व्यवस्था,
सड़क-बिजली-पानी आदि की बात करनी पड़ रही है जबकि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को नव
उदारवादी विकास के दावों के बजाय रोजगार, अति पिछड़ों, अति दलितों और अल्पसंख्यकों
(मुसलमानों) को आरक्षण और कोटे के अंदर कोटे की बात करनी पड़ रही है.
तीसरा खास बदलाव यह दिख रहा है कि
मुस्लिम वोटर किसी के वोट बैंक के रूप में वोट नहीं कर रहा है. यही नहीं, वह न तो
केवल सांप्रदायिक ताकतों खासकर भाजपा को हराने की मजबूरी में किसी पार्टी या
उम्मीदवार को वोट दे रहा है और न ही किसी चार फीसदी आरक्षण के अवसरवादी चुनावी
वायदे पर मोहित है. इस बार वह प्रयोग कर रहा है और अपने लिए विकल्प तलाश रहा है.
इस तलाश में उसके सवाल उत्तर प्रदेश की बाकी गरीब जनता से अलग नहीं हैं. निश्चय
ही, उसके लिए सुरक्षा का सवाल आज भी सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ वह एक
बेहतर और गरिमापूर्ण जीवन के सवाल को और टालना नहीं चाहता है. इसलिए उसके वोट के
स्थायित्व बारे में अब किसी को भ्रम में नहीं रहना चाहिए.
चौथी उल्लेखनीय बात यह है कि उत्तर
प्रदेश में सीमित राजनीतिक विकल्पों के बावजूद लोग अपने तरीके से राजनीतिक दलों को
कई सबक सिखाने जा रहे हैं. सबक नंबर एक, भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं है. आश्चर्य
नहीं कि बसपा और कांग्रेस दोनों पिछड़ते दिख रहे हैं. वोटर राज्य में बढ़ते
भ्रष्टाचार के लिए बसपा को और केन्द्र में कांग्रेस को जिम्मेदार मान रहा है.
सबक
नंबर दो, लोग बसपा के भ्रष्ट और आम गरीब की पहुँच से बाहर सरकार की जगह सपा को हिचकते
हुए एक मौका देने के मूड में दिख रहे हैं लेकिन वे उसके भ्रष्ट-गुंडाराज को भूले
नहीं हैं. सपा को इस मौके को लोगों की मजबूरी मानने की भूल नहीं करनी चाहिए.
तीसरा सबक कांग्रेस और युवराज राहुल
गाँधी के लिए है जो नई आकांक्षाओं की राजनीति ६० और ७० के दशक के पीट चुके टोटकों
और ९० के दशक के संकीर्ण सामाजिक समीकरणों से करना चाहते हैं जिसके दिन कबके बीत
गए.
कांग्रेस के रणनीतिकार भूल गए कि इस बीच लोग राजनीतिक रूप से और समझदार, सचेत
और मुखर हो गए हैं. चौथा सबक भाजपा के लिए है जो इन चुनावों में और ज्यादा
एक्सपोज्ड हो गई है. उसकी राजनीति बदलते हुए उत्तर प्रदेश और उसके वोटरों के मन को
पढ़ने-समझने में पूरी तरह नाकाम हो गई है.
कहने का गरज यह कि उत्तर प्रदेश के वोटर एक नई प्रगतिशील.
जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण राजनीति के लिए मौका बना रहे हैं. इस
राजनीति का मुहावरा और प्रतीक ८० और नब्बे के दशक की राजनीति के मुहावरों और
प्रतीकों से अलग होंगे.
इससे उत्तर प्रदेश में एक नए वाम-लोकतान्त्रिक मिजाज की
राजनीति के लिए जगह बनी है. लेकिन क्या बदलाव की ताकतें इस चुनौती को स्वीकार करने
के लिए तैयार हैं?
(दैनिक 'नया इंडिया' में २७ फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)